Skip to content

Irendra Babuava.jpg

तैयार रहो 

देश बदल रहा है
तैयार रहो

बदलने के लिए
रहन-सहन, खान-पान, अपना नाम
संस्कृति, सभ्यता, अपनी जाति, धर्म
अपने गाँव, शहर का पता

कि जाने कौन सी सुबह
देश बदल जाए, सोओ अपने देश में
और आँखें खुलें तो पाओ कि हो
किसी ऐसे नए देश में जहाँ प्रवासी
नागरिक जैसे हो

जहाँ लगेगा
कि अब जीना होगा डर-डर कर
उनके तौर-तरीक़े और इशारों पर, और जीना
सीख भी गए, तब भी महसूस तो करोगे ही न
कि पाँवों तले ज़मीन, ज़मीन
नहीं लग रही, और

आसमान भी आसमान
नहीं लग रहा…!

उम्र का पत्थर

हर शाम जब लौटता हूँ वापस कमरे में
बिस्तर पर रूह रख
कुर्सी पर बैठता हूँ
और सुस्ताते हुए पलके मून्द लेता हूँ

बहुत चुप सन्नाटे से
झरती है आवाज़ की अँजोरिया
काँप जाता हूँ सुनकर
कोई पूछता है सवाल —
‘‘आज कितना सफ़र तय किया?

कितना रास्ता तय किया है
मेरे दोस्त मैंने

इस पृथ्वी पर यह मेरी उम्र का बाईसवाँ
पत्थर दरका है
जहाँ मुझे पहुँचना है
वहाँ बिछे कितने पत्थरों पर
कितनी चोटें अभी होनी हैं
उन पर और कितनी ओस गिरनी बाक़ी है !

रोप 

पसीने से तर-ब-तर
आम का पौधा रोप रहे हैं काका
ऊपर बादल नहीं
नदी कोसों दूर
रोप रहे खुरपी से
माटी कोड़

काका कहेंगे
पौधा जब बन जाएगा एक पेड़
कभी उसके नीचे सुस्ताते
हमने सींचा है इसे अपने पसीने से

और तब उनकी सारी थकान
बिला जाएगी
मन-ही-मन हहरेंगे

तब-तब,
किसे पता होगा
आज काका सुस्ता रहे हैं
अपनी जि़न्दगी में ख़ूब !

पिछड़ा

मैं पीछे ही नहीं
बल्कि पिछड़ा हुआ भी हूँ
ऐसा मेरे आगे वाले
कहते हैं अक्सर
कराते हैं एहसास

और मैं
क्या करूँ, क्या कहूँ
उनकी इस बात पर
अक्सर करता हूँ उनका अभिनन्दन

हाथ जोड़ कर !
सिर झुका कर !

कि आप
सच कह रहे हैं
देखिए, मैं कितना
पिछड़ा हुआ हूँ !

थोड़ा कम भी

नहीं है ज़रूरत
परदे के पार रोशनी को
देखने के लिए
परदा हटाने की

थोड़ी कम रोशनी में भी
दिख सकती है साप़फ-साप़फ
बिना चमक-दमक के
कुएँ में तैरती मछलियाँ
एक क़तार में लौटते शाम को
अपने घोंसले की ओर पक्षी

थोड़ी कम रोशनी से
मिला सकते हैं आँख
ले सकते हैं सुकून की साँस
थोड़ी कम हवा में भी

थोड़ा कम प्यार भी
अपनापन
लम्बे समय तक बनाए रख सकता है !

शक

किसी को मेरे प्यार पर शक है
शक है मेरी सच्चाई पर

किसी को मेरे मैं पर शक है
शक है
मेरी ख़ामोशी और अकेलेपन पर

किसी को मेरे भूत, वर्तमान, भविष्य पर शक है
शक है किसी को
काँपते हाथों से लिखी गई कविता पर

मैं खड़ा हूँ
कई एक शकों के घेरे में

मुझे इन घेरों पर शक है !

लू 

जेठ-बैसाख की लू

सौ तीखी मिर्च के समान लगती है
बेवजह दी गई गाली जैसी भी

जिन्हें लू में रहने, चलने की हिम्मत नहीं
वे क्या तो बाँझ खेत की तरह होते हैं
घुन लगे बीज की तरह
कि कितने लू में जीने का जोश लिए
धरती को सींचते रहते हैं
रिक्शे-ठेले पर
अपने घर-परिवार की भूख
ढोते रहते हैं

वे जो लोकगीतों की तरह होते हैं
लू में रहने, चलने के
आदी होते हैं

यह तो वाक़ई में सच है, भाई
जिन्हें लू की आदत लग जाती है
हर मौसम मे जी लेते हैं

वैसे कितने सारे ऐसे भी होते हैं
जिनकी आदत में लू तो होती है
लेकिन वे लू की आदत में नहीं होते

इसलिए वे
अपने ढेर सारे अधूरे सपने छोड़
मर जाते हैं एक दिन
फिर लू में
उनके अधूरे सपने करते हैं सफ़र !

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *