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अभिमत बदलते हैं

रंग
गिरगिट की तरह
अभिमत बदलते हैं ।

रोज़
करते हैं तरफ़दारी
अंधेरों की
रोशनी को
लूटने वाले
लुटेरों की

इसमें
नहीं होते सफल तो
हाथ मलते हैं ।

अवसरों की
हुण्डियाँ बढ़कर
भुनाने की
जानते हैं हम
कला झुकने
झुकाने की

यश
मिले इसके लिए हर
चाल चलते हैं ।

झूठ क्या बहाना क्या

हम जैसे लोगों का
ठौर क्या ?
ठिकाना क्या ?

भूख प्यास
पीड़ाओं ने
झिड़की दे-देकर पाला
हमसे है दूर
सुखद भोर का उजाला

यह कहने लिखने में
लाज क्या ?
लजाना क्या ?

पाँव मिले
भीलों जैसे अरूप
सौ भटकन वाले
इसी वज़ह
राजभवन से अक्सर
हम गए निकाले

यह सच है इसमें अब
झूठ क्या ?
बहाना क्या ?

प्यार की नदी

सूखी
गुलदस्ते सी
प्यार की नदी

व्यक्ति
संवेग सब
मशीन हो गए
जीवन के
सूत्र
सरेआम खो गए
और कुछ न कर पाई
यह नई सदी

वर्तमान ने
बदले
ऐसे कुछ पैंतरे
आशा
विश्वास
सभी पात सो झरे
सपनों की
सर्द लाश
पीठ पर लदी।

घटा 

दो शब्द चित्र

(एक)

बारिशों के पल
नया
जादू जगाते हैं।

तितलियाँ
लेकर उड़ीं-
संयम हवाओं में,

खिंच गए
सौ-सौ धनुष-
दृष्टि, दिशाओं में,

जुगनुओं से
याद के
खण्डहर सजाते हैं।

गंध बनकर
डोलती-
काया गुलाबों की,
पंक्तियाँ
जीवित हुई-
जैसे किताबों की,

गाछ-भी
यह देखकर
ताली बजाते हैं।

(दो)

रंग
खुशबू-घटा
क्या नहीं आजकल।
रैलियाँ
जुगनुओं की-
निकलने लगीं,
हर दिशा
वस्त्र अपने-
बदलने लगीं,

सूर
उलझी जटा
क्या नहीं आजकल।

द्वार तक हिम-हवा-
थरथराते हुए,
आ-गयी
गीत-गोविन्द-
गाते हुए,

छंद
धनुयी छटा
क्या नहीं आजकल।

बिना टिकिट के 

बिना टिकिट के
गंध लिफाफा
घर-भीतर तक डाल गया मौसम।

रंगों
डूबी-
दसों दिशाएँ
विजन
डुलाने-
लगी हवाएँ
दुनिया से
बेखौफ हवा में
चुम्बन कई उछाल गया मौसम।

दिन
सोने की
सुघर बाँसुरी
लगी
फूँकने-
फूल-पाँखुरी,
प्यासे
अधरों पर खुद झुककर
भरी सुराही ढाल गया मौसम।

देखिये-तो

देखिये-तो
किस कदर फिर
आम-अमियों बौर आए।

धूप
पीली चिट्ठियाँ
घर आँगनों में,
डाल
हँसती-गुनगुनाती है-
वनों में,
पास कलियों
फूल-गंधों के
सिमट सब छोर आए।

बंदिशें
टूटीं प्रणय के-
रंग बदले,
उम्र चढती
जन्दगी के-
ढंग बदले,
ठेठ घर में
घुस हृदय के
रूप-रस के चोर आए।

दूर क्षितिज तक

दूर क्षितिज तक
टेसू वन में बिना धुएँ की
आग लगाए हैं।

हवा
हवा में पंख तौल-
इतराती है,
रात
रात भर जाने क्या-क्या
गाती है,

रस की
प्रलय-बाढ में जैसे
सब डूबे-उतराए हैं।

पत्ते
नृत्य-कथा का
मंचन करते हैं,

धूल
शशि पर फूल
बाँह में भरते हैं,

मौसम ही
यह नहीं दृष्टि भर
पाहन तक मदिराए हैं।

पद-रज हुई 

पद-रज हुई
गुलाल
लगा फिर ऋतु फगुनाई है।

मादल की
थापें हों या हों-
वंशी की तानें
ऐसे में
क्या होगा यह तो
ईश्वर ही जानें
खिले आग के
फूल फूँकती
स्वर-शहनाई है।

गंध-पवन के
बेलगाम
शक्तिशाली झोंके
कौन भला
इनको जो बढकर
हाथों से रोके
रक्तिम
हुए कपोल
दिशा कुछ-यों शरमाई है।

सोए ज़मीर को जगाइए साहब

सोए ज़मीर को जगाइए साहब
ऊपर से नीचे को आइए साहब

अपना देश ख़ून देकर भी अगर
बच सकता है तो बचाइए साहब

राजनीति तो तवायफ़ है कोठे की
इसे पूजा-घर तक न लाइए साहब

दुश्मनों से तो निपट लेंगे हम
दोस्तों को पास से हटाइए साहब

आईना देखकर आप भी कभी
अपनी करतूतों पर शरमाइए साहब

इस उस के असर में रहे

इस उस के असर में रहे
हम फँसे भँवर में रहे

हाथ में उठाते पत्थर कैसे
उम्र भर काँच-घर में रहे

पहुँच कर भी नहीं पहुँचे कहीं
यूँ तो रोज़ सफ़र में रहे

झूठी नामवरी के लिए उलझे
बे-परों की ख़बर में रहे

काम एक भी न कर पाए ढंग का
खोए बस अगर-मगर में रहे

दीप को दिनमान किया जाए 

दीप को दिनमान किया जाए
मौन को स्वरवान किया जाए

ज़िन्दगी इक खिलौना है इस पर
क्या ख़ाक अभिमान किया जाए

ज़रूरी है कि ईश्वर से पहले
किसी दीन का ध्यान किया जाए

बहुत हो चुका झूठ का अभिनन्दन
अब सत्य का सम्मान किया जाए

किसी की याद में रोने की जगह
ताज-सा एक निर्माण किया जाए

अपनापन अपना घर ढूँढ़ो 

अपनापन अपना घर ढूँढ़ो
कहाँ गया धड़ से सर ढूँढ़ो

ढूँढ़ सको तो घोटालों में
खोया देश मुकद्दर ढूँढ़ो

रिश्वत बिना जहाँ चलती हो
फ़ाइल ऐसा दफ़्तर ढूँढ़ो

विषधर से पहले नेता के
हर काटे का मन्तर ढूँढ़ो

जिसकी छाया बैठ ग़रीबी
भूल सकें वह छप्पर ढूँढ़ो

अंगारों पर चलकर देखें

अंगारों पर चलकर देखे
दीपशिखा-सा जलकर देखे

गिरना सहज सँभलना मुश्किल
कोई गिरे, सँभलकर देखे

दुनिया क्या, कैसी होती है
कुछ दिन भेस बदलकर देखे

जिसमें दम हो वह गाँधी-सा
सच्चाई में ढलकर देखे

कर्फ़्यू का मतलब क्या होता
बाहर जरा निकल कर देखे

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