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अहसासों की वो पगडंडी 

अहसासों की वो पगडंडी
मुझे तुम तक ले आई
पर मैं जब तुम्हारे पास पहुँचा
तो जाने क्यों लगा
मैं रास्ता भूल आया हूँ ।

तुम्हारी आँखों में
मैंने ख़ुद को पाया
अपरिचित-सा
और मुझे ख़ुद से आने लगी
परायेपन की बू ।

तुम चुराती रहीं नज़रें
और भावनाओं के जख़ीरे से
खाली होती रही ख़ुशियाँ ।
तुम किसी जौहरी-सी
तौलने लगीं मुझे
अपनेपन की कसौटी में
चेहरे पर एक रुखा-सा भाव लिए
कि मैं लुटा-पिटा-सा
यहाँ क्यों चला आया हूँ ।

तुम्हारी आँखें
किसी जादूगर के सम्मोहन-सी
मुझे खींच तो लाई
पगडंडी के उस पार
और भावातुर मैं
मिटाता रहा अपने पैरों के निशान
ताकि चाहकर भी
वापस ना आ सकूँ
तुम्हारे आशियाने से ।

लेकिन आज इतनी नज़दीक से
जब देखा है तुम्हारी आँखों में
ख़ुद को अजनबी की तरह
एक टूट चुके मुसाफ़िर-सा
मैं लौट जाना चाहता हूँ ।
पर अब न वापसी का रास्ता है
न पैरों में इतनी ताक़त
और न उम्मीद है आसरे की ।

एक बियाबान-सा जंगल है
तुम हो, और तुम्हारे इर्द-गिर्द
प्रेत-सा परायापन ।
अपनत्व की उम्मीद के
जल जाने का धुआँ
गहराता जा रहा है दावानल-सा
और इन आँखों से झरती
भावनाओं का गीलापन
न जलने देता है आग को
न बुझ पाती है आग ।

साँसों के भीतर
रिसता जा रहा है
रोआँसेपन का धुआँ
और जगा रहा है एक टीस
कि तुम मेरी कभी थी ही नहीं
कि तुम तक तय किया ये सफ़र
एक भुलावा था
और वो पगडंडी
महज एक मायाजाल।

कब चली होगी वो तेज़ हवा 

जाने कब
चली होगी वो तेज़ हवा
और गिर पड़े होंगे
ये सूखे पत्ते ज़मीन पर ।

पर इस वक़्त
जबकि दिसंबर अपनी ठंड में
कँपाती-सी हवा को लपेटे
इन पत्तों की पीठ सहला रहा है
और ये पत्ते झूमते हुए
सरसराहट गा रहे हैं
ज़मीन की हरी घास को
कम्बल-सा लपेटे
ये पत्ते
हरे रंग में तैरती
गिलहरी हो गए हैं ।

जैसे हवा बच्चों की तरह
गिलहरियों के पीछे भाग रही हो
और गिलहरियाँ
किसी नाटक की चरित्र बन
काँपने का स्वांग कर रही हों ।

उन पत्तों के नाटक में
जो कुछ देर पहले
गिलहरी हो गए थे
मैं तलाशता हूँ अपनी भूमिका
रुमानियत की अंगड़ाइयाँ लेते
मुझे आता है समझ
कि दिसंबर मुझमें घुलकर
ख़ुद को महसूस करना चाहता है ।

लेकिन तभी मैं देखता हूँ
सड़क किनारे घिरती रात के शामियाने में
और बदलने लगते हैं
दिसंबर की ठंड के मायने ।

वहीं सड़क पर जहाँ गिरे सूखे पत्ते
कुछ देर पहले गिलहरी हो गए थे
आकर बैठती है एक बूढ़ी औरत
और समेट लेती है गिलहरियाँ
और धू-धू करती गिलहरियाँ
जलती हुई बदल जाती हैं मज़बूरी में।

ये बूढ़ी औरत
जो अलाव जलाकर
बैठी है बुझी-बुझी
सड़क किनारे
दिसम्बर की ठंड ओढ़े
जैसे दिसंबर कम्बल हो
और ठंड उसकी गर्मी ।

ये औरत जब माँ हो जाती है
तो उसे अपना बेटा
आसपास नज़र नहीं आता
पर वो देख लेती है उसे
कहीं किसी कारख़ाने में, बस में,
सड़क किनारे साईकिल में,
सब्जी के खोमचे में
या और भी कहीं-कहीं
रसूख वालों की गालियाँ खाते
और ज्यादा हुआ
तो कुछ अदद थप्पड़ भी ।

वो देखती है
कि उसका गाँव
जब दिल्ली से पीछे छूट रहा था
और दिल्ली नतीज़तन
उसके पास आ रही थी
तो उसके बेटे ने
कैसी तो शान से कहा था
कि हम भी हो जाएँगे शहर वाले
शहर जाकर ।
और पहली बार
जब उसने देखा था शहर को
पूरे शहरीपन के साथ
तो उसे एक पल को महसूस हुआ था
कि शहर एक जादू है
जो जल्द ही उसकी ज़िन्दगी में करिश्मा लाएगा।
लेकिन कुछ ही पलों में पहली मर्तबा
उसका ये अहसास अपनी जड़ों से कुछ हिला था
जब बुरी तरह डाँटा था उसे
बस के कन्डक्टर ने
और धकेला था उसके लड़के को
कि जाकर खड़ा हो जाए कहीं कोने में ।

उस वक़्त उसे लगा था
कि ये शहर उसके लिए है भी कि नहीं
कहीं वो किसी ग़लत दुनिया में
भटक तो नही आई ।

पर आज सड़क किनारे
कारों की रफ़्तार
उसके अलाव को बार-बार
बुझाए जा रही है
और वो अपनी इस ग़लत दुनिया में
रह पाने का ढोंग कर
ख़ुद को छल रही है।
उसकी आँखों में भर रहा है धुँआ
और उन आँखों के नीचे
जो पुतलियाँ ठहरी हुई हैं
उनमें दिसम्बर की ठंड है
और सामने एक फ़्लाईओवर
जिसके नीचे आज उसे रहने की जगह नही मिली
क्योंकि वहाँ भीड़ ज़्यादा थी ।

उसे रह-रह के याद आ रही है
वो मिट्टी की गरम पाल
जिस पे रखा वो पत्थर का चूल्हा
पेड़ों की टूटी लकड़ियों को जलाता
दिसंबर की ठंड से दे जाता था निजात ।
वहाँ उसके गाँव में दिसम्बर की ठंड
चूल्हें पे सिंकते यूँ गुज़र जाती थी
जैसे लकड़ियाँ राख में बदलती
अपनी उम्र में गुज़र जाती हैं ।

और यहाँ इस मशीनी शोर में
अपनी ख़ामोशी को खोजती
वो औरत जिसने मेरी गिलहरियाँ जला दी
दरअसल वो बुझी आग की बची-खुची राख में
खोज रही है
शहरी होने के मायने
और मैं सोच रहा हूँ कि कितना अलहदा है
एक ही शहर में उसके और मेरे लिए
दिसंबर

उस वक़्त के बारे में

कुछ अनमना-सा होकर
जब इस वक़्त मैं उस वक़्त के बारे में सोचता हूँ
तो सोचना हवा हो जाता है और फैल जाता है बेतरतीब
मैं सोचने की चाह को एक दिशा देना चाहता हूँ
पर दिशा होना पानी होने जैसा लगता है
जिसकी थाह लेने का इरादा समुद्र की असीमता में
असम्भव की बिनाह पर इतराने लगता है ।

मुझे उस वक़्त गुमान नहीं था
कि मैं कभी जिऊँगा इस वक़्त को भी
और इसे जीना ऐसा होगा
जैसे मरने के बीच मंडराना और न मरना
जैसे ख़ून में रख देना गर्म तवा
और नसों के उपर ख़ून का भाप बनकर तैरना
ऐसे जैसे तैरने से बड़ा दुख दुनिया में कोई न हो ।

उस वक़्त को जब मैं तुम्हें शामिल कर रहा था
अपनी ज़िन्दगी के आसमान में
तो मुझे लगा था ऐसा करना पूंजीवाद
और मैं हो गया था दुनिया का सबसे बड़ा पूंजीपति
फलत: एक पूंजीवादी होने के नाते
मुझे समझा जा सकता था उस वक़्त अमरीका
जिसे अपने सामने हर किसी की खिल्ली उड़ाने का पूरा हक है ।
कम से कम उसकी ही तरह मैं तो यही समझता ।

उस वक़्त मुझे इन्द्रधनुष में भी
नज़र आने लगा था केवल वही रंग जो उन आँखों का था
और ज़ाहिराना तौर पर इन्द्रधनुष नहीं होता महज गहरा काला
ये बात मुझे मनवाना उस वक़्त दुनिया का सबसे कठिन काम होता
ये बात और है किसी ने इतनी कठिन कोशिश की भी नहीं ।

उस वक़्त खिड़कियों में कनखियाँ
और कनखियों में खिड़कियाँ रहती थीं
आँखें सुनती थी एक ख़ास किस्म की आहट को
और हर पदचाप नये अविष्कार की आहट-सी
दिमाग को बदल देती थी विज्ञान के घर में
तब सर्वोत्तम की उत्तरजीविता का सर्वोत्तम बनकर
मैं ख़ुद को डार्विन और तुम्हें विज्ञान समझ लेता था ।

उस वक़्त की सारी सुर्ख़ियाँ मेरे लिए थीं अफ़वाह
और उन आँखों के पास होने की अफ़वाह भी सुर्ख़ी थी
मुझे नहीं पता कब ओबामा आया और गया
और इसी तर्ज़ पर सूरज या चाँद
मुझे नहीं पता उस दौर में कितनी मौतें हुई
मैं जी रहा था उस वक़्त मौत से गहरी ज़िन्दगी।

उस वक़्त जब मैं गढ़ रहा था
अपने ही अन्दर तेज़ होती साँसों के महल
जिनकी खिड़की और दरवाज़ों से
बही चली आती थी वही पारदर्शी हवा
जिसको महसूस किया था मैने कभी तुम्हारे आस-पास
वो वक़्त इतिहास था और उसे जीता मैं एक स्वर्णिम इतिहास का साक्षी ।

इस वक़्त मेरा उस वक़्त को याद करना
एक अन्तहीन अंधेरे की थाह लेने-सा है
जिसका अस्तित्व कभी था ही नहीं
जिसके नहींपन में तुम अब भी मेरे अन्दर वैसे ही ज़िन्दा हो
जैसे उस वक़्त थी
स्याह अंधेरे से गहरी, अथाह ।

आज फिर इन्साफ़ को मिट्‍टी में दफ़नाया गया

आज फिर इन्साफ़ को मिट्‍टी में दफ़नाया गया
जमहूरियत की शक्ल का कंकाल फिर पाया गया ।

उनकी सियासत की जदों में क़त्ल मानवता हुई
कहके यही इन्साफ़ है फिर हमको भरमाया गया ।

जिस शख़्स की ग़लती के कारण मिट गई जानें कई
उसको बड़े आदर से उसके देश भिजवाया गया ।

आता है अब भी ज़हन में बच्चा वो मिट्‍टी में दबा
अरसे से हर अख़बार की सुर्ख़ी में जो पाया गया ।

सालों से जो आँखें लगाए आस बैठी थी उन्हें
नृशंसता की हद का यूँ अहसास करवाया गया ।

कैसे हैं ज़ालिम लोग ये सत्ता में जो बैठे हुए
न्याय को जो इस कदर फाँसी पे लटकाया गया ।

शहर में उस दिन बही जो गंध भ्रष्टाचार थी
यूनियन कार्बाईड जिसका नाम बतलाया गया ।

बैठेंगे वो कुछ लोग बस कुछ वर्ष कारावास में
त्रासदी की भूमिका रचते जिन्हें पाया गया ।

जी रहे थे हम के जिसमें, वहम था जनतंत्र का
लोक को यूँ तंत्र के पैरों से रुंदवाया गया ।

तंत्र ही सब कुछ यहाँ है लोक की औकात क्या
इस पुराने सत्य को संज्ञान में लाया गया ।

उनके मंहंगे शौक और सस्ता है कितना आदमी
कल हमें इस आर्थिक पहलू को समझाया गया ।

अन्याय की स्याही से ये लिक्खा हुआ मृतलेख है
कानून का जामा ओढ़ाकर हमको सुनवाया गया ।

तब मरे थे लोग अब टूटा भरोसे का भी दम
इस तरह भोपाल पर भोपाल दोहराया गया ।

बरसात 

याद है मुझको वो दिन
तुझसे मिलने का ।
सूरज ने उस दिन
ठंडी-सी बारिश की थी
गर्मी की ।
बर्फ़ भी उस दिन
गर्म हवा-सी छोड़ रही थी।

और तुम्हारे
गोल गुलाबी छाते की सीकों से
बारिश की गुलाबी बूँदें
टपक-टपक कर आती थी
मेरे हाथों में ।

मुझे याद है
वह छोटी-सी बूँद
जिसमें देखा था पहली बार
तेरी परछाई को ।
फिर देखा था
नज़र उठा तेरे चेहरे की ओर ।

काली अलकें काली पलकों से टकराती
भूरी आँखों के उपर लहराती थीं ।
और गुलाबी गालों पर
सुर्ख हुए होंठों पे लहराती
वह चाँदी-सी मुस्कान ।

अगर हवा ने उस दिन
नहीं उड़ाया होता वह बरसाती छाता
एक जादुई इन्द्रधनुष मैं देख ना पाता ।
जान न पाता
इतनी सुन्दर होती है बरसात ।

गुलज़ार के लिए

कभी-कभी जब पढ़ता हूँ गुलज़ार तुम्हें
ग़ुल जैसे महकते लफ़ज़ों के मानी हो जाते हैं
और लफ़ज़ ज़हन के पोरों को गुलज़ार किए देते हैं
लगता है कि एक सजा-सा गुलदस्ता
लाकर के किसी ने ताज़ा-ताज़ा रक्खा हो
और विचारों की टहनी में भावों की कोमल पँखुड़ियाँ नाच रही हों
अक्ष्रर-अक्षर मेरे ज़हन में रंग से भर जाते हैं
फिर मैं भी तो गुलज़ार हुआ जाता हूँ….

मासूम दुपट्टा 

हवा का वो मासूम दुपट्टा
उड़ता हुआ चुपचाप चला आता है

उस दिन छत पर तुम थी मैं था
और तभी उड़कर आया था एक दुपट्टा
ओढ़ा था उसे हम दोनों ने
और ठंडी-सी वो लहर देह से लिपट गई थी ।
बहुत देर तक दूर-दूर चुपचाप खड़े थे हम दोनों
और दुपट्टा बहुत देर तक बोल रहा था ।

उस दिन पेड़ की शाख़ों और पत्तियों ने
शायद उससे एक बात कही थी
मैं उस दिन भी रोज़ की तरह तुम्हें देखता
अपने दिल के कोनों से कुछ बोल रहा था
सुन न सका वो बात
तुम्हें अगर कुछ याद आए
एक गाँठ में उसको बाँध के इक दिन रख देना

मुझे यक़ीं है मेरे सिवा
उस गाँठ को कोई नहीं खोलेगा
शायद फिर से वही दुपट्टा लौट के मुझ तक आ जाए
शायद उस दिन हम दोनों के बीच की गिरहें खुल जाएँ
हवा का वो मासूम दुपट्टा
उड़ता हुआ चुपचाप चला आता है ।

ऊँची सियासत और कश्मीर

ऊँची सियासत ने की
बड़ी ग़लतियाँ
और कश्मीर
कश्मीर हो गया ।

दिखाए गए
धरती पर स्वर्ग के सपने
पर स्वर्ग बन पाने की सभी शर्तें
दमन की क़ब्र में दफ़ना दी गईं ।

पीने लगे कश्मीरी
आज़ादी के घूँट
फूँक-फूँक कर ।
देखने लगे आज़ादी के
तीन थके हुए रंग ।
ढोते हुए आज़ादी को
किसी बोझ की तरह ।

फीका लगने लगा गुलमर्ग
संगीनों के साये में ।
लगने लगा सुर्ख
डलझील का पानी ।

बर्फ़ की सफ़ेदी के बीच
पसरता रहा स्याह डर ।
दबती रही चीख़ें पर्वतों के बीच
सिकुड़ती रहीं औरतें
अपने घरों में ।

दो पाटों के बीच
पिस जाने की परम्परा
बनने लगी
“कश्मीरियत” ।

तय करता रहा लोकतंत्र
कश्मीर की इच्छाएँ
अपने नज़रिये से ।
जीता रहा कश्मीर
गुलामी के लोकतंत्र में ।

ये एक भीड़ का दर्द है
या जन्नत की हक़ीक़त
हिन्दुस्तान की धरती पर
दिल को कचोटती
गूँज रही हैं कुछ आवाज़ें
“जीवे-जीवे पाकिस्तान” ।

काश मैं जीता कुछ दिन

काश मैं जीता कुछ दिन
कुछ न होने के लिए ।
कुछ बनने की शर्त को
प्याज के छिलके के साथ
फेंक आता कूड़ेदान में ।
और निश्चिंत होकर
लगाता,
सूरज में रोशनी का अनुमान ।

रोशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाईं पर
और देखता उसे
सुनहला होते ।
हवा के बीच कहीं ढूँढ़ता-फिरता
बेफ़िक्र अपने गुनगुनाए गीत
और सहेज लेता कुछ चुने हुए शब्द
अपनी कविता के लिए ।

मैं आइने में ख़ुद को देखता
कुछ न होते हुए
और बिखर जाता
जैसे हवा बिखर जाती है
मन-माफ़िक ।
आइने में सिमट जाता
ओस की बूँदों-सा
और बदल जाता आईना
दूब के खेत में ।

मेरी आंख बंद होती
मुट्ठी की तरह
और जब हथेली खुलती
वो समय होती
बिखर जाती खेतों में
इफ़रात से ।

तुम्हारा ख़याल ज़हन में 

तुम्हारा ख़याल
गर्मियों में सूखते गले को
तर करते ठंडे पानी-सा
उतर आया ज़हन में ।
और लगा
जैसे गर्म रेत के बीच
बर्फ़ की सीली की परत
ज़मीन पर उग आई हो ।

सपने,
गीली माटी जैसे
धूप में चटक जाती है
वैसे टूट रहे थे ज़र्रा-ज़र्रा
तुम्हारा ख़याल
जब गूँथने चला आया मिट्टी को
सपने महल बनकर छूने लगे आसमान ।

तुम उगी
कनेर से सूखे मेरे ख़यालों के बीच
और एक सूरजमुखी
हवा को सूँघने लायक बनाता
खिलने लगा ख़यालों में ।

पर ख़याल-ख़याल होते हैं ।
तुम जैसे थी ही नहीं
न ही पानी, न मिट्टी, न महक ।
गला सूखता-सा रहा ।
धूप में चटकती रही मिटटी ।
कनेर सिकुड़ते रहे
जलाती रेत के दरमियान ।
और ख़याल…?

औंधे मुँह लेटा मैं
आँसुओं से बतियाता हूँ
और बूँद-दर-बूँद
समझाते हैं आँसू
के संभाल के रखना
जेबों में भरे ख़ूबसूरत ख़याल
घूमते हैं यहाँ जेबकतरे ।

वो नशीली-सी झील मस्तानी 

वो नशीली सी झील मस्तानी
गुनगुनी धूप गुनगुना पानी ।

आज सूरज चाँद बनके बिखरने-सा लगा
बनके तारा पानी में उभरने-सा लगा ।

बूँदों में पसरने लगी दूधिया पिघलन
जैसे पानी में ही बस आया हो चमकता सा चमन ।

घिरती चट्टानों का बनता वो वलय
उनकी गोदी से वो सूरज का उदय ।

रात को शहर डूब-डूब के तिरता है यहाँ
बनके आवारा-सा अंधेरे में फिरता है यहाँ ।

रगों में तैरती सिहरन भी नशे जैसी है
सर्द रातों में डूबती हुई मदहोशी है ।

धूप पेड़ों की पत्तियों से ओस-सी टपके
रुह में जाती है उतर गर्माहट छनके ।

आज दो पालों से तारे खे लें
आज गीली-सी रोशनी ले लें ।

आज पूछें न कुछ जानें कि ज़िन्दगी क्या है ?
आज महसूस करें राजे दिललगी क्या है ?

तैरते चमकते सारे जवाब सामने सवाल है क्या ?
कैसे कह दूँ कि नैनीताल है क्या ?

सवेरा 

सवेरा
सूर्य की विजय नहीं होता ।

अधिकार की लड़ाई में
तारों की पराजय या
चन्दमा का दमन भी नहीं ।

सवेरा
एक यात्रा है
अँधेरे में नहाकर
लौट जाना
रोज़ की तरह
निर्धारित सफ़र के लिए ।

सवेरा
किसी मानी का मद नही
होता
अहं के रंग में रंगी
सोने की
सुर्ख़ तलवार भी नहीं ।

सवेरा
कलाकार का चित्र है
नीले आधार पे उभरता
लाल रंग
और सोने की
छोटी-छोटी पंक्तियाँ ।

सवेरा
काजल की कोठरी में
सयाने का जाना है
और बिना कालिख लगे
सुरक्षित साफ़-साफ़
वापिस लौट आना ।

सवेरा
अंतहीन उजाला नहीं होता ।

निराशा की गर्त में
किसी अँधेरे की
गंभीर प्रतीक्षा भी नहीं ।

सवेरा
एक सच है
रात के सपनों को
साकार करने का
सुनहरा मौक़ा, और
नए सपने की
ज़मीनी हक़ीक़त देखने का भी ।

शहर इतने ख़राब नहीं होते 

अगर थोड़ा-सा समय निकालकर गौर करें
तो ये कोई पत्थर पर लिखी लकीर नहीं है
कि शहर हमेशा ख़राब होता है ।
शहर में एक क्यारी हो सकती है
जहाँ जल्दबाज़ी की टहनियों में फुरसत के फूल हों
औटो के भागते मीटर में
ठहरी हुई उम्मीद हो सकती है
किसी बाम्बे-टाईम्स के चौथे पन्ने पर
ख़बर हो सकती है ख़ुशी की
आठवें माले से नीचे झाँक सकती है प्यार भरी नज़र
जो कूद सकती है आपकी आँखों में
और कर सकती है रोमांटिक गाने सुनने को मज़बूर
ट्रेन की भीड़ में हो सकती है एक क़तरा खाली जगह
जहाँ पर इत्मिनान बैठा हो सकता है आपसे मिलने को बेक़रार
राह चलती किसी अधेड़ औरत में
आपको अपनी मां नज़र आ सकती है
शहर के आसमान में हो सकती है धूप और बारिश एक साथ
और नाच सकते हैं रंग इन्द्रधनुष बनकर ।
शहर के किसी घर में हो सकता है एक गाँव
लड़की की शादी में शुकुनाखर गाता
बुला सकती है आपके फ़्लैट में सामने रहने वाली आँटी
कि आओ बेटा एक कप चाय पी लो
पूछ सकता है भेलपुरी वाला कि कैसे हैं घरवाले
पड़ौसी का गोलू-मोलू-सा बच्चा मुस्कुरा सकता है आपको देखकर ।
शहर में रास्ता काट सकती है बिल्ली और आप मान सकते हैं अपशकुन
शहर में भी छतों पर बैठकर आप सेंक सकते हैं धूप
और खा सकते हैं मूँगफली ।
शहर में आपको आ सकती है अपनों की याद
बस फ़र्क इतना सा है कि शहर में फैले हैं बड़े-बड़े बाज़ार
जो आपको हर चीज़ ‘ख़रीदने’ और ‘बेचने’ पर मज़बूर करते हैं
वरना शहर में भी इन्सान रहते हैं
और थोड़ी-थोड़ी इन्सानियत भी ।

मौत पर लिखी पहली कविता 

मौत पर लिखना
ज़िन्दगी की चाह का ख़त्म हो जाना नहीं है
ऐसा होता
तो अब तक अमर न होते पाब्लो नेरुदा।

ज़िन्दगी अपने मूल रूप में
मरने का इन्तज़ार ही है
पर मरना अपने मूल रूप में
ज़िन्दगी से हारना नहीं है ।

मौत गर्द-सी जमी होती है हवाओं में
मिटटी में, पानी में, सूरज की किरणों में
और हर उस चीज़ में जिसका सम्बन्ध जीने से है
और गर्द को साफ़ किया जाना हर लिहाज से लाज़मी होता है।
इस तरह से मौत कोई अवांछित घटना नहीं है ।

धमनियों में ख़ून के साथ
उपस्थित होती है मौत
जब ख़ून रगों में बह रहा होता है
तो दरअसल मौत बह रही होती है रगों में
पर जब मौत रगों में बह रही होती है
तो उसका अर्थ कतई नहीं है कि हम मर रहे हों ।

हम अपनी साँसों के साथ
मौत के कुछ-कुछ अंश
घोल रहे होते हैं अपने शरीर में
और जब हम ऐसा कर रहे होते हैं
तो असल में हम जी रहे होते हैं
दरअसल जीना मरने की प्रक्रिया का एक ज़रूरी-सा अंग है ।

हर काम सही होने के लिए
ज़रूरी है उससे जुड़ी हर प्रक्रिया का ठीक से पूरा होना
इस तरह ढंग से मरने के लिए
ज़रूरी है पूरी तरह जीना ।

जीना दरअसल मौत पर लिखी तुकबन्दी की
पहली पंक्ति है
जिस पर पूरी तरह निर्भर करता है
कि दूसरी पंक्ति कितनी ख़ूबसूरत होगी ।

और यक़ीन मानिए
मौत भी ख़ूबसूरत हो सकती है ।

इस तरह अगर हम ख़ूबसूरती से जिए
तो जिस दिन हम मर रहे होंगे
उस दिन हमारे साथ जी रही होगी ख़ूबसूरती ।

नज़दीकियों की चाह 

एक रतजगे बाद
दिन में नीद न आने की आदत-सा
आँखों को जलाता वो अहसास
अब तक एक तिलिस्म लगता रहा है ।
और उसी क्रम में होता रहा है महसूस
कि नज़दीकियाँ जितनी सुखदाई होती हैं
उतनी ही व्याकुलता भरी होती हैं
नज़दीकियों की चाह ।

दूरियाँ धूल भरी सूखी हवा-सी
चली आती हैं साँसो में
और उनसे भागना लगता है
जैसे ज़िन्दगी से भागना,
पर जब नज़दीकियाँ दूर चली जाती हैं
तो दूरियों के पास नहीं होता
पास आने के सिवाय और कोई विकल्प ।

गले में ख़राश-सी अटकने लकती है
दूरियों की वज़ह
और तब ये ख़राश
रोकने लगती है साँसों का रास्ता ।

इस रुकावट के बीच
बेचैनियाँ बनाने लगती हैं लकड़ी का घर
और निराशा का दीमक कुरेदने लगता है
चैन की बंद खिड़कियों को ।

होने लगते हैं दिल के भीतर कोनों में
रोज़ नए सुराख
और घुलने लगती है धड़कनों में
एक ख़ास किस्म की मनहूसियत ।

फ़ासलों के बीच
अकेलेपन का जो हिलता हुआ पुल है
उसकी नीद से है गहरी दुश्मनी ।
बंद आँखों में जब भी
होती है फ़ासले ख़त्म होने की आहट
खुल जाता है पलकों का बाँध
और सारे सपने टूट कर
पानी से बिखर जाते हैं ।

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