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ओमप्रकाश चतुर्वेदी ‘पराग’ की रचनाएँ

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गीत कविता का हृदय है

हम अछांदस आक्रमण से, छंद को डरने न देंगे

युग-बयार बहे किसी विधि, गीत को मरने न देंगे

गीत भू की गति, पवन की लय, अजस्त्र प्रवाहमय है

पक्षियों का गान, लहर विधान, निर्झर का निलय है

गीत मुरली की मधुर ध्वनि, मंद्र सप्तक है प्रकृति का

नवरसों की आत्मा है, गीत कविता का हृदय है

बेसुरे आलाप को, सुर का हरण करने न देंगे

गीत को मरने न देंगे।

शब्द संयोजन सृजन में, गीत सर्वोपरि अचर है

जागरण का शंख, संस्कृति-पर्व का पहला प्रहर है

गीत का संगीत से संबंध शाश्वत है, सहज है

वेदना की भीड़ में, संवेदना का स्वर मुखर है

स्नेह के इस राग को, वैराग्य हम वरने न देंगे

गीत को मरने न देंगे।

गीत हैं सौंदर्य, शिव साकार, सत् का आचरण है

गीत वेदों, संहिताओं के स्वरों का अवतरण है

नाद है यह ब्रह्रम का, संवाद है माँ भारती का

गीत वाहक कल्पना का, भावनाओं का वरण है

गीत-तरु का विकच कोई पुष्प हम झरने न देंगे

गीत को मरने न देंगे।

आगाज हो न पाया 

आगाज हो न पाया, अंजाम हो रहा है
सिर पैर हो न जिसका, वह काम हो रहा है

दो-चार बूँद पानी क्या ले लिया नदी से
हर सिम्त समन्दर में कोहराम हो रहा है

कुछ आम रास्तों की तकदीर बस सफर है
कुछ खास मंजिलों पर आराम हो रहा है

इस पार भी है गुलशन, उस पार भी चमन है
सामान किस शहर का, नीलाम हो रहा है

पाताल के अँधेरे, आकाश तक चढ़े हैं
चन्दा उदास, सूरज नाकाम हो रहा है

कुछ लोग आइने को झूठा बता रहे हैं
सच का हरेक साया, बदनाम हो रहा है

इस दौर में यही क्या कम है पराग साहब
अपराधियों में अपना भी नाम हो रहा है

कभी अहसास होता है 

कभी अहसास होता है मुकम्मल आदमी हूँ मैं

कभी लगता है जैसे आदमी की इक डमी हूँ मैं

कभी हूँ हर खुशी की राह में दीवार काँटों की

कभी हर दर्द के मारे की आँखों की नमी हूँ मैं

धधकता हूँ कभी ज्वालामुखी के गर्म लावे-सा

कभी पूनम की मादक चाँदनी-सा रेशमी हूँ मैं

कभी मेरे बिना सूना रहा, हर जश्न, हर महफिल

कभी त्यौहार पर भी एक सूरत मातमी हूँ मैं

कभी मौजूदगी मेरी चमन में फालतू लगती

कभी फूलों की मुस्कानों की खातिर लाजिमी हूँ मैं

किसी तट पर 

किसी तट पर नहीं रुकता नदी की धारा का पानी

गुज़र जाता है जैसे वक्त की रफ़्तार का पानी

मैं सारे बादलों में देखता हूँ आग नफ़रत की

कोई भी मेघ बरसाता नहीं है प्यार का पानी

बुझा सकता नहीं जो आदमी की प्यास, तो तय है

भरा है क्षीरसागर में बहुत बेकार का पानी

भड़कते जा रहे व्यभिचार के बदनाम शोलों को

नहीं छूता किसी भी छोर पर आचार का पानी

मोहब्बत की जवां साँसों की गर्मी सह नहीं पाया

वो कितना सर्द है चौपाल की हुंकार का पानी

न कोई दीप ही जलता, न पत्थर ही पिघलता है

उतरता जा रहा सुर ताल की झंकार का पानी

चलो माना बहुत रंगीन हैं दो चार तस्वीरें

मगर सौ चित्र धोये जा रहा बौछार का पानी

सजावट देखकर घर की कहाँ अन्दाज़ होता है

कि हर दीवार में ही मर रहा दीवार का पानी।

मैं अपने आप में 

मैं अपने आप में सिमटूँ कि हर बशर में रहूँ

तलाश लूँ कोई मंज़िल कि रहगुज़र में रहूँ

इसी ख़याल में खोया हुआ हूँ मुद्दत से

गुलों के लब पे कि काँटों की चश्मेतर में रहूँ

गली में शोर है, आँगन में सर्द सन्नाटा

मैं कशमकश में हूँ, बाहर चलूँ कि घर में रहूँ

बड़ों के देख के हालात, हूँ मैं उलझन में

बना रहूँ यूँ ही गुमनाम, या ख़बर में रहूँ

पराग सोच रहा हूँ ये कैसे मुमकिन हो

कि अपनी बात भी कह लूँ मैं, और बहर में रहूँ

जी भी है

जी भी है और हमने गुज़ारी भी है पराग

यह ज़िंदगी फ़रेब की मारी भी है पराग

सदियों से जिस समुद्र का मंथन किया गया

अब उसके इन्तक़ाम की बारी भी है पराग

ज़िंदादिली का दौर तो कब का गुज़र गया

बाक़ी है कुछ सुरूर, खुम़ारी भी है पराग

दुनिया की आँख में जो न सच है न झूठ है

गाथा है वो हमारी, तुम़्हारी भी है पराग

माना कि तुमने हमको सँवारा भी है, मगर

टोपी हमारे सिर से उतारी भी है पराग

सीढ़ी बनाके हमको बरतने लगे हैं दोस्त

बाज़ी यूँ हमने जीत के हारी भी है पराग

लग कर गले से हमको धकेला है ज़ोर से

तलवार दोस्ती की दुधारी भी है पराग

तुझसे मागूँ और

तुझसे मागूँ और कम मागूँ

पोर भर रहमो-करम मागूँ

तुझको जो देना है, जी भर दे

मैं कहाँ तक दम-ब-दम मागूँ

अजनबी है राह, मंज़िल दूर

हमसफ़र कितने क़दम मागूँ

हाथ की अंधी लकीरों से

रोशनी मागूँ, कि तम मागूँ

मैं बहुत दुविधा में हूँ यारब

तुझको मागूँ, या सनम मागूँ

जो नहीं मिलनी मेहरबानी

क्यों न फिर जुल़्मों-सितम मागूँ

या खुद़ा, यूँ इम्तहाँ मत ले

मैं खुश़ी मागूँ न गम़ मागूँ

अंजाम आज खुद़ 

अंजाम आज खुद़ से अनजान हो रहा है
आगाज़ ही अजल का सामान हो रहा है

कुछ और कह रही हैं लोहूलुहान राहें
कुछ और मंज़िलों से ऐलान हो रहा है

है चोर ही सिपाही मुंसिफ़ है खुद़ ही क़ातिल
किस शक्ल में नुमायाँ इंसान हो रहा है

जिनको मिली है ताक़त दुनिया सँवारने की
ख़ुदगर्ज आज उनका ईमान हो रहा है

देखा पराग तुमने दुनिया का रंग बोलो
इन हरक़तों से किसका नुक़सान हो रहा है।

न धरती पर

न धरती पर न नभ में अब कहीं कोई हमारा है

हमारी बेबसी ने आज फिर किसको पुकारा है

हमें तक़दीर तूने उम्र भर धोखे किये हरदम

वहीं पानी मिला गहरा, जहाँ समझे किनारा है

भुला बैठे थे हम तुमको, तुम्हारी बेवफ़ाई को

मगर महफ़िल में देखो आज फिर चर्चा तुम्हारा है

वो पछुआ हो कि पुरवा, गर्म आँधी सी लगी हमको

कभी शीतल हवाओं ने कहाँ हमको दुलारा है

बड़ा अहसान होगा ज़िंदगी इतना तो बतला दे

वो हममें क्या कमी है जो नहीं तुझको गवारा है

हमें जो चैन से जीने नहीं देती तेरी दुनिया

ये उसकी अपनी मर्जी है, कि फिर तेरा इशारा है

गिला, शिकवा, शिकायत हम करें भी तो करें किससे

हमें तो सिर्फ अपने हौसले का ही सहारा है

आदमी खुद 

आदमी ख़ुद से डर गया होगा
वहशते-दिल से मर गया होगा

मुझ में इक आदमी भी रहता था
राम जाने किधर गया होगा

कितना ख़ामोश अब समंदर है
ज्वार बदनाम कर गया होगा

मोम पाषाण हो गया आख़िर
प्यार हद से गुज़र गया होगा

आपको अपने सामने पाकर
आइना ख़ुद सँवर गया होगा

उसने इंसानियत से की तौबा
सब्र का जाम भर गया होगा

तुम कहाँ थे पराग अब तक तो
रंगे-महफ़िल उतर गया होगा

संचारी संसृति 

सुख-दुख मय यह सृष्टि सतत संचारी है

कभी भोर है, कभी रात अँधियारी है !

केवल सीधी राहों पर चलने वाले

बस अपने ही तन-मन को छलने वाले

हर अँधियारे से टकराने की ख़ातिर

एक अकेले दीपक से जलने वाले

मावस सदा रही पूनम पर भारी है

और राह में पग-पग पर बटमारी है !

हर आँगन में कई-कई दीवारें हैं

तार-तार में अलग-अलग झंकारें हैं

तट तटस्थ है, धार के विरोधी तेवर

माँझी घायल है, टूटी पतवारें हैं

आर-पार दोनों में मारामारी है

नाव न डूबे किसकी जिम्मेदारी है !

राही को सागर-तल तक जाना होगा

नभ के छोरों को भी छू आना होगा

सुख की सरिता को सीमाओं में रहकर

दुख के पर्वत से भी टकराना होगा

संसृति वृहद खेल, जीवन लघु पारी है

सब की अपनी-अपनी हिस्सेदारी हैं !

आत्म-नियंत्रण

तुम मुझसे तब मिली सुनयने

अर्थ मिलन के बदल गये जब !

मैं तब तुम्हें चुराने पहुँचा

सब रखवाले सँभल गये जब !!

करता था जब सूर्य चिरौरी, लेता चन्द्रमा बलाएँ

साँसों में चन्दन, कपूर था, अधरों पर मादक कविताएँ

तब तुम जाने कहाँ बसी थीं, जाने और कहाँ उलझी थीं

दुनिया झुम रही थी जिन पर, तुमने वे देखी न अदाएँ

आँगन ने तब मुझे पुकारा

पाँव द्वार से निकल गये जब !

अब जब बिखर गईं सौगातें, अब जब बहुत बढ़ गई दूरी

जीवन-वन में भटक रहा हूँ, हिरण खोजता ज्यों कस्तूरी

प्राण देह में यूँ अकुलाते जैसे नागफनी पर शबनम

तन को हवनकुंड कर डाला, मन की बेल रही अंगूरी

कैसे आत्म-नियंत्रण होता

अवयव सारे मचल गये जब !!

हवस बहुत है, साघन कम हैं, रहीं अतृप्त अधम इच्छाएँ

इंद्रधनुष उस पार उगा है, हैं इस तट पर घोर घटाएँ

मैंने चाहा बहुत मोड़ दूँ जीवन-सरिता के बहाव को

वश न चला कुछ, धँसी हुई थीं हस्त-लकीरों में कुंठाएँ

मैंने खुद़ को तब पहचाना

दर्पण सारे दहल गये जब !!

उत्तर कैसे दूँ मैं

आँखों में असमंजस, अधूरों पर अनबन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

पूछा तुमने मुझसे कैसे यह तन पाया
क्या कह-कह कर मन को, दुख-सुख में भरमाया
कविता के कानन को, कैसे अभिराम किया
क्या हरक़त थी जिसने तुमको बदनाम किया
किस तरह निभाई हैं धर्म की विसंगतियाँ
हाथों में रक्त रचा, माथे पर चन्दन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

पृथ्वी, आकाश, वस्र्ण, अग्नि, वायु की रचना
यौगिक संघर्षण से, मुश्किल ही था बचना
किसका उपहार रहा, मानुष तन पाने में
कर्म कुछ कियें होंगे जाने-अनजाने में
इस तन से चेतन का इतना ही है नाता
सोने के अश्व जुते, माटी का स्यंदन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

सुख शापित आयु लिये दिन दो दिन को आये
दुख के काले बादल बरसों छत पर छाये
फूलों के सौरभ-कण, कसक रहे गज़ल में
शूलों के सौ-सौ व्रण, महक रहे आँचल में
सुख-दुख की गाथाएँ, गूँगों की भाषाएँ
तन पर पसरी मथुरा, मन में वृन्दावन हैं
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

अंतर की पीड़ाएँ रचना बन कर उभरीं
कविताएँ अर्थ-काम मंचों से हैं उतरीं
कचरे के मोल हुई, कविता की बदनामी
यह सब जो सजधज है, मस्र्थल की मृगरज है
बाहर तो भीड़ लगी, भीतर सूनापन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

धर्म अनुष्ठानों के मर्मों को कब जाना
मैंने तो ईश्वर को कर्मों में पहचाना
रण के हर प्रांगण में मेरा ही रक्त बहा
न्दन के हर वन में मैंने ही दंश सहा
रक्त और चन्दन से देह सनी है मेरी
शापों-वरदानों का साझा अभिनन्दन है
उत्तर कैसे दूँ मैं, प्रश्नों में उलझन है !

जहाँ चलना मना है

जहाँ चलना मना है
वही इक रास्ता है
तुम्हें जो पूछता, वो
क्या खुद को जानता है
सुबह कैसी, अभी तो
ये मयखाना खुला है
ये कहना तो ग़लत है
कि हर ग़लती खता है
यहाँ शैतान है जो
कहीं वह देवता है
उधर सोने की खानें
इधर ताज़ी हवा है
न जिसने हार मानी
वही तो जीतता है
झुकाकर सिर जिया जो
वो जीते जी मरा है
‘पराग’ अब कुछ न कहना
बचा कहने को क्या है!

जैसे हो वैसे ही

कोई भी गुण अवगुण आरोपित मत करना

जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

मंज़िल तक एक भी नहीं पहुँची

कहने को कई-कई राहें थीं

मन में थी आग-सी लगी, तन के

पास बहुत पनघट की बाँहें थीं

मत रखना कोई उम्मीद घिरे बादल से

ऊसर की आँखों का पंचामृत पी लेना

जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

नग्न देवताओं का चित्रण ही

मानक है आधुनिक कलाओं का

बाजारों में जो बिक सकती हैं

रास ही है झूठ उन कथाओं का

रास जो न आये, नव-संस्कृति का यह दर्शन

देखना न सुनना, निज अधरों को सी लेना

जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

शंखनाद जिनको करना था वे

हैं तोता-मैना से सम्वादी

करनी की पत्रावलियाँ कोरी

कथनी की ढपली है फौलादी

कस लेना सौदे के सत्य को कसौटी पर

पीतल को पीतल के दामों में ही लेना

जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

कहाँ पै आ गए हैं हम

न ज़िन्दगी विमुक्त है, न मृत्यु कसाव है

कहाँ पै आ गए हैं हम, यह कौन-सा पड़ाव है

न ठौर है न ठाँव है, न शहर है न गाँव है

न धूप है न छाँव है

यह दृष्टि का दुराव है, कि सृष्टि का स्वभाव है

न शत्रु है न मीत है, न हार है न जीत है

न गद्य है न गीत है

न प्रीति की प्रतीति है, न द्वेष का दबाव है

न हास है न रोष है, न दिव्यता न दोष है

न रिक्तता न कोष है

बुझी हुई समृद्धि है, खिला हुआ अभाव है

न भोर है न रैन है, न दर्द है न चैन है

न मौन है न बैन है

यह प्यास का प्रपंच है, कि तृप्ति का तनाव है

न दूर है न संग है, न पूर्ण है न भंग है

अनंग है न अंग है

अरूप रूप चित्र का, विचित्र रख रखाव है

न धार है न कूल है, न शूल है न फूल है

न तथ्य है न भूल है

असत्य है न सत्य है, विशिष्ट द्वैतभाव है

कहाँ पै आ गए हैं हम, यह कौन-सा पड़ाव है।

सात्विक स्वाभिमान है

दुख से आँख चुराने की तो बात ही कहाँ

दुख ही तो मेरे वजूद का इम्तहान है

सुख स्वयमेव विरक्त रहा मुझसे जीवन भर

उसे रिझाने के मैंने भी यत्न कब किये

दुख ने स्नेह भाव से मुझको गले लगाया

मैंने तन-मन से उसके उपहार सब लिये

कर न सका हूँ सुविधा से सौदा, समझौता

अहं नहीं, यह मेरा सात्विक स्वाभिमान है

तुमने तो पहनाई थी फूलों की माला

तन का ताप लगा तो जलकर क्षार हो गई

साक़ी ने तो प्याले में मय ही ढाली थी

छूकर मेरे अधर, गरल की धार हो गई

मित्रों और शत्रुओं से भी मिली है, मगर

मेरी पीड़ा में मेरा भी अंशदान है

पनघट के रस-परिवेशों से दूर रहा हूँ

मरघट के शोकार्त-पवन से प्यार किया है

जब-जब मुझको लगा कि सावन मेहरबान है

मैंने फागुन में कुल कऱ्ज उतार दिया है

लीकों में तो बैल और कायर चलते हैं

मेरी राहों पर लागू मेरा विधान है

फटे चीथड़ों में पलता भविष्य पीढ़ी का

रेशम में मानव संस्कृति का शव लिपटा है

मीनारों पर पड़तीं प्रगति-सूर्य की किरणें

झोपड़ियों पर अवसादों की घोर घटा है

माना मुझे तृप्ति ने भी बहकाया जब तब

पर अभाव के सच का भी तो मुझे ज्ञान है

जीने का हौसला है 

जीने का हौसला है, ये और बात है

जीने का फैसला कहाँ अपने हाथ है

खुद को तलाशने में समझ आ गई हमें

सागर में एक बूँद की कितनी बिसात है

सूरज न निकलने से समय तो नहीं थमा

होता रहा है दिन भी, हुई रोज़ रात है

घिरकर मुसीबतों में न डरना, ये सोचना

गम़ डाल-डाल है, तो खुशी पात-पात है

देखें ज़रा तो हम भी कि इस राहे-वक्त़ में

मंजिल कहाँ कज़ा है, कहाँ पर हयात है

उलझनों को मैं 

उलझनों को मैं अगर न मानूँ तो

हथकड़ी को बंधन न मानूँ तो

दुश्मनी के जाल बुनने पर तुली दुनिया

दुश्मनों को मैं अगर दुश्मन न मानूँ तो

ज़िंदगी में धूप भी है, चाँदनी भी है

चाँदनी को रेशमी चन्दन न मानूँ तो

लोग कहते हैं मिलन है प्यार की मंज़िल

मैं मिलन को प्रीति का दर्पण न मानूँ तो

कह रहे मुझको ख़ुदा, कुछ गर्ज़ के मारे

मैं खुश़ामद को अगर वन्दन न मानूँ तो

मान लेता हूँ कि बाज़ी हार बैठा, पर

हार को मैं जीत का अर्पण न मानूँ तो

ठीक है ये दर्द तुमने ही दिया मुझको

पर तम्हें मैं दर्द का कारण न मानूँ तो

जिसने सागर मथ दिये, पर्वत हिला डाले

मैं उसी तूफ़ान को भीषण न मानूँ तो

दे रहे हो तुम खुले बाज़ार का नारा

मैं तुम्हारी बात जन-गण-मन न मानूँ तो

एक मुश्किल-सी

एक मुश्किल-सी दुआ माँगी है

अपने जुर्मों की सज़ा माँगी है

हमने तक़दीर तेरे आँचल से

सिर्फ थोड़ी-सी हवा माँगी है

चारागर ये तो समझ ले पहले

दर्द माँगा कि दवा माँगी है

शौक से तू किसी की हो दुनिया

हमने कब तुझ से वफ़ा माँगी है

ज़िंदगी है न अकेली तू ही

हमने हर शय से विदा माँगी है

जल रहा है 

जल रहा है इस तरह पूरा बदन

आग का जैसे किया हो आचमन

आप ये जो जुल़्म मुझ पर ढा रहे

बाइरादा हैं कि यूँ ही आदतन

वासनाएँ यदि न प्रतिबंधित हुईं

बेच डालेंगी प्रणय के आचारण

तुम विरह की पीर को झेले बिना

प्रीति का कैसे करोगे आंकलन

मुस्कुरा कर माँगना कुंडल-कवच

आज भी प्रचलित वही कल का चलन

पाप के फल भोगते बीती उमर

पुण्य के भी तो मिलें दो-चार क्षण

उम्र भर आलोचना करते रहे

आज अर्पित कर रहे श्रद्धा-सुमन

इन्द्रियाँ स्वच्छन्द सब सुख भोगतीं

दर्द से आहत मगर अन्त:करण

भक्त से जो बन पड़ा करता रहा

आप भी तो कुछ करो अशरण-शरण

जिंद़गी मय नहीं

जिंद़गी मय नहीं, साक़ी भी नहीं, जाम नहीं

जिंद़गी होश का आग़ाज़ है, अंजाम नहीं

सिर उठाने को कोई भोर न कोई सूरज

सिर छुपाने को कोई चाँद, कोई शाम नहीं

सुर्खरू होने की ख्व़ाहिश में कहाँ से गुज़रें

राह में कौन-सी मंज़िल है जो बदनाम नहीं

देखे हैं दोस्त की सूरत में ही अक्सर दुश्मन

अब मुनासिब किसी रिश्ते का कोई नाम नहीं

हार कर जीते हैं, और जीत के भी हार गये

कामयाबी नहीं कोई कि जो नाकाम नहीं

ख़ास लोगों पे ही होती है मेहरबान पराग

जिंद़गी चैन दे सब को, ये चलन आम नहीं

म़ाटी रचे अनाम 

म़ाटी रचे अनाम, कुम्हार तलाश करे

गंगाजली कि जाम, कुम्हार तलाश करे

इतने गढ़े स्वरूप, अरूप रहा फिर भी

मन का हुआ न काम, कुम्हार तलाश करे

चाकों चढ़ा, तपा तन, कुन्दन सा निखरा

फिर क्यों लगे न दाम़, कुम्हार तलाश करे

खुशियाँ सिमट गयीं क्यों एक सुराही में

दर्द हुआ क्यों आम, कुम्हार तलाश करे

तन का कलश लबालब चन्दन से, फिर क्यों

मन से गई न घाम, क़ुम्हार तलाश करे

हमको मरने के

हमको मरने के लिए कुछ ज़िंदगी भी चाहिए

तीरगी मंज़ूर है, पर रोशनी भी चाहिए

रूह की हर बात मानें हम ज़रूरी तो नहीं

कुछ तो आज़ादी हमारे जिस्म को भी चाहिए

जीतने भर से लड़ाई ख़त्म हो जाती नहीं

हार का अहसास कुछ तो जीत को भी चाहिए

उम्र के हर दौर को भरपूर जीने के लिए

थोड़ा गम़ भी चाहिए, थोड़ी ख़ुशी भी चाहिये

प्यास बुझने का तभी सुख है कि बाक़ी भी रहे

तृप्ति के एहसास में कुछ तिश्नगी भी चाहिये

दर्द ही काफ़ी नहीं है शायरी के वास्ते

कुछ सदाक़त और आवारगी भी चाहिये

हम ख़ुदा से उम्र भर लड़ते रहे यूँ तो पराग

पर वो कहते हैं कि थोड़ी बंदगी भी चाहिए

विसंगतियाँ

आज भी संदर्भ हैं वे ही,

आज भी वे ही परिस्थितियाँ

आज भी बन्दीगृहों में हम,

जी रहे सौ-सौ विसंगतियाँ !

उड़ चला आकाश में पंछी,

बोझ लेकर पंख पर भारी

बेरुखी विपरीत धारों में,

डगमगाती नाव पथहारी

हैं हवाओं में गरल के कण,

घिर रही हैं मेघमालाएँ

है तटों पर शांति मरघट की,

धार में युद्धक विषमताएँ

घोंसले में लौटना मुश्किल,

पार जाना भी नहीं संभव

मंज़िलों से दूर हैं राहें,

सागरों से दूर हैं नदियाँ !

सिंह से तो बच गया मृगपर,

जाल में उलझा शिकारी के

आरती का दीप तो जलता,

काँपते हैं कर पुजारी के

मुक्त उपवन में उगे बिरवे,

क्यारियों की माँग करते हैं

एक माला में गुँथे मनके,

द्वैत के भ्रम में बिखरते हैं

मुक्ति का सूरज उगा छत पर,

दास्य का तम-तोम आँगन में

सर्व भास्वर कल्पनाओं की,

हैं कहाँ साकार परिणतियाँ !

न आँगन 

न आँगन, छत न बैठक की, न खिड़की द्वार की बातें

फ़क़त बाकी रही हैं बीच की दीवार की बातें

जहाँ दो गाँव मिलते थे गले, चौपाल साँझी थी

वहीं दिन रात चलती हैं, कँटीले तार की बातें

क़सम खाई थी जिनके साथ जीने और मरने की

तुली हैं काटने पर क्यों उन्हें तलवार की बातें

जिन्हें हम एकता का सूत्र कह नारे लगाते थे

वही लगने लगी हैं अब बहुत बेकार की बातें

वो जिनकी जान हिन्दुस्तान था, ईमान आज़ादी

उन्हें बहका रही हैं धर्म के व्यापार की बातें

गुज़ारी एक तट पर जिनके पुरखों ने कई सदियाँ

वो क्यों करने लगे इस पार की, उस पार की बातें

अभी उम्मीद बाक़ी है कि शायद वक़्त शरमाये

गिले शिकवे सभी हों दूर, हों फिर प्यार की बातें

लुप्त हुई विस्मृति के तम में

लुप्त हुई विस्मृति के तम में जब सारी सुधियाँ

तब तुम संबंधों का दीप जलाने आये हो !

कूल चीर कर बिखर चली है जब जीवन-सरिता

तब तुम तटबंधों का शास्त्र सिखाने आये हो !!

जीवन जन्म मिला कैसे मुझको कुछ पता नहीं

जन्म-जन्म की कर्म ग्रंथियाँ अब तक सता रहीं

पल दो पल को मिला तुम्हारा आश्रय अमृत सा

फिर वियोग की गरल सिक्त पीड़ाएँ सदा सहीं

जब भवाग्नि में भस्म हो गईं भौतिक आस्थाएँ

तब तुम सौगधों की लाज बचाने आये हो !

मैंने सर्पिल सपनों से समझौता नहीं किया

आशाओं आकांक्षाओं को न्यौता नहीं दिया

जो कुछ मिला सहज स्वीकारा निर्विकार मन से

क्षीरसिंधु में रहकर भी मैंने बस नीर पिया

जब संवेदन-रंध्र बन्द हो गये अभावों से

तब तुम मधुगंधों का कोष लुटाने आये हो !

कितने भेदभाव हैं जग में, कितनी रेखाएँ

अर्थ अनर्थ कर रहीं दुख-सुख की परिभाषाएँ

विश्व-बंधुता के नियमन, संगठन सभी हैं, पर

द्वार-द्वार पइर देहरी है, घर-घर की सीमाएँ

जब सब नियम निरस्त हो गये, शर्तें टूट चलीं

तब तुम अनुबंधों की संधि निभाने आये हो !

एक बिन्दु को वृत्त मानकर

उस पर साधा तीर किसलिये, जो न कभी था लक्ष्य तुम्हारा !

जो न कभी वापिस लौटेगा, उस राही को व्यर्थ पुकारा !!

साँसों की आँधी से दुख का बादल कहीं छँटा करता है

आँसू की वर्षा से मन का मस्र्थल नहीं घटा करता है

रोना धोना छोड़ उठो, जीने की पूरी रस्म निभाओ

पीछे हट जाने से पथ का पत्थर कभी हटा करता है

औरों के आश्रित हो जीवन, शर्तों पर जीने जैसा है

टूटी नाव, नशे में माँझी, दे न सकेंगे कभी किनारा !!

जन्म मरण ज चक्र अदेखा, और अबूझा है परिर्वतन

शायद फिर न मिले यह जीवन, शायद फिर न मिले यह नर-तन

तुम अनुभव तो करो, सृष्टि में बिखरे सत्यं, शिवं, सुंदरम्

देखो इन्द्रधनुष मालाएँ, सुनो तनिक भ्रमरों का गुंजन

एक बिन्दु को वृत्त मानकर, ख़ुद को सीमाबद्ध कर लिया

जीवन-ज्यामिति की समग्र रचना को क्यों तुमने न निहारा !!

गीत लिखे हैं 

मैंने भी कुछ गीत लिखे हैं

संभव है कुछ पंकिल भी हों

पर कुछ परम पुनीत लिखे हैं !

भाव कभी अपने तो कभी पराये लेकर

मैंने जीवन को रोया है, गाया भी है

कभी वसंत भर गया है फूलों से झोली

पतझर ने हर पत्ता कभी सुखाया भी है

कुछ भविष्य, कुछ वर्तमान, कुछ भोगे हुए अतीत लिखे हैं !

मैंने भी कुछ गीत लिखे हैं !!

जब भी आँख उठाकर इधर उधर देखा है

मुझको कभी लगा कि यहाँ सब कुछ मेरा है

और कभी अपने आँगन में रात बिताकर

प्रात लगा यह तो बंजारों का डेरा है

मानस के पृष्ठों पर शत्रु अधिक, थोडे से मीत लिखे हैं !

मैंने भी कुछ गीत लिखे हैं !!

कभी-कभी तो पर्वत से भी टकराया हूँ

और कभी पोखर ने मुझ को डरा दिया है

कभी एक जुगनू ने मुझको हरा दिया है

कुछ उछाल करके चुनौतियाँ, कुछ होकर भयभीत लिखे हैं !

मैंने भी कुछ गीत लिखे हैं !!

कभी तुम्हारे सुख-दुख को लय छंद दिये हैं

और कभी गीतों में अपने को ढाला है

कभी सुधा की थोड़ी-सी बूँदों की खातिर

सागर का सारा विष मैंने पी डाला है

उगली है कुछ आग, और कुछ होकर बहुत विनीत लिखें हैं !

सारा विष मैंने पी डाला है

धर्मशाला को घर 

धर्मशाला को वो घर कहने लगा है
मूर्ख मेले को नगर कहने लगा है

जो किसी भी मोड़ पर है छोड़ जाती
उस डगर को हमसफ़र कहने लगा है

रच रहा है दूरगामी योजनाएँ
चार दिन को उम्र भर कहने लगा है

आधुनिकता का चढ़ा है भूत ऐसा
देव-सरिता को गटर कहने लगा है

वो नया पंडित विदेशी व्याकरण का
श्लोक को खारिज-बहर कहने लगा है

दाग़ चेहरे के छुपाने के लिए वो
आइने को बेअसर कहने लगा है

सोचकर मिलना ‘पराग’ उस आदमी से
वो स्वयं को मान्यवर कहने लगा है!

फूल के अधरों पे 

फूल के अधरों पे पत्थर रख दिया
गंध को काँटों के अंदर रख दिया
यों नए उपचार अज़माए गए
ज़ख़्म को मरहम के ऊपर रख दिया
धार के तेवर परखने के लिए
अपने ही सीने पे खंजर रख दिया
अंध बाज़ारीकरण के दौर ने
घर को दरवाज़े से बाहर रख दिया
यह खुलापन तो दुशासन हो गया
ज़िंदगी का चीर हरकर रख दिया
जब बदल पाए न बेढ़ब सूरतें
आइनों को ही बदलकर रख दिया
क्या अजब भाषा है दुनिया की ‘पराग’
राहजन का नाम रहबर रख दिया!

अपना-अपना मधुकलश

अपना-अपना मधुकलश है, अपना-अपना जाम है
अपना-अपना मयक़दा है, अपनी-अपनी शाम है

क्या कहा जाता, सुना जाता है क्या, किसको पता
हाँफती साँसों के घर बस शोर है कुहराम है

मील के पत्थर हटाकर, खोजते मंज़िल को लोग
वक़्त के पदचिन्ह धूमिल, राहबर नाकाम है

आज में जीती है दुनिया, कल न था, होगा न कल
धार ही आग़ाज़ इसका, धार ही अंजाम है

लोग कुछ कूड़ा बनाने पर तुले इतिहास को
और कूड़ा बीनने वालों का मालिक राम है

कोई ऐसा भी तो होना चाहिए इस दौर में
जो कहे सारी खुशी मेरी तुम्हारे नाम है

दूसरों के दर्द को जब ख़ास समझोगे ‘पराग’
तब लगेगा दर्द अपना कुछ नहीं बस आम है!

उजाला जब भी आया

उजाला जब भी आया इस गली में
लगा ठहरा है सूरज बेबसी में

कभी तो होश में भी याद करते
पुकारा तुमने बस बेखुदी में

अगर वो रूठकर जाता तो जाता
गया वो झूमता गाता खुशी में

हजारों शाप लेकर, सोचता हूँ
दुआ भी है कहीं क्या जिन्दगी में

कहाँ मालूम था शीतल हवा को
वो डूबेगी पसीने की नदी में

खुदा का खौफ गर बाकी रहा तो
मज़ा आया कहाँ फिर मैकशी में

बफा, ईमान, सच्चाई, मोहब्बत
नहीं, तो फिर बचा क्या जिन्दगी में।

शाकाहारी फंक्शन

चिड़ियों की रानी के घर में फंक्शन है
सभी पक्षियों को सादर आमंत्रण है।

तोता, मैना, कौवा, कोयल, गौरेया
उल्लू, गीध, कबूतर, नीलकंठ भैया
तीतर, चील, बटेर और बुलबुल रानी
सबने ही उत्सव में जाने की ठानी
साफ निमंत्रण-पत्र में लिखा है देखो
पहले पूजन-हवन और फिर भोजन है।

काफी, चाय, जूस, शरबत सिंदूरी है
पूरी, पुआ, नान, रोटी तंदूरी है
चावल, दाल, सब्जियाँ, चाट, फल, मिठाई
मोहनभोग, इमरती-दूध, रसमलाई
हैं अनेक पकवान और मिष्ठान मधुर
सबको रूचि अनुसार कुछ न कुछ व्यंजन है

सामिष भोजन पड़ा नहीं जब दिखलाई
चील, गिद्ध, कौवों ने नाक-भौं चढ़ाई
कोई तो बतलाए हम क्या खाएँगे
लगता है हम भूखे ही घर जाएँगे
रानी के मंत्री ने उनको समझाया
भैया, यह शाकाहारी आयोजन है।

खाकर देखो मालपूआ, पिशता, बरफी
बालूशाही, नर्म नान, खस्ता मठरी
टिकिया, चाट, फ़लूदा, अमरस, जलजीरा
मूली, प्याज, सलाद, टमाटर, फल, खीरा
आखिर सब मेहमान जुट पड़े खाने में
लौटते समय सबका ही प्रसन्न मन है।

ओलम जानी 

अ से अक्सर, आ से आदर
इ से इमली, ई से ईश्वर
उ से उल्लू, ऊ से ऊर्जा

ऋ से ऋतु, ए से एका
ऐ से ऐनक, ओ से ओसार
औ से औषधि, अं से अंगार
क से कागज, ख से खाट

ग से गागर, घ से घाट
च से चम्मच, छ से छ्डी
ज से जूता, झ से झड़ी

ट से टमाटर, ठ से ठेला
ड से डलिया, ढ से ढेला

त से तराजू, थ से थान
द से दलिया, ध से धान

न से नाई, प से पान
फ से फरसा, ब से बान

भ से भालू, म से मेल
य से यमुना, र से रेल

ल से लाला, व से वट
श से शतदल, ष से षट

स से सूरज, ह से हास
क्ष से क्षत्रिय, त्र से त्रास
ज्ञ से ज्ञानी, ओलम जानी।

वृक्ष

हाथों में फल-फूल और आँखों में पानी
वृक्षों से बढ़ कर होगा क्या कोई दानी
खुद जलते, पर औरों को छाया देते हैं
हारे थके पथिक की पीड़ा हर लेते हैं
आस-पास जो भी विष है सारा पी जाते
साँस-साँस से फिर अमृत कण है लहराते
रेगिस्तानों को बढ्ने से रोका करते
बंजर धरती की छाती में फसलें भरते
पत्थर खाकर, फल देना इनकी आदत है
इनके दम से हरी-भरी प्यारी कुदरत है
वृक्ष काटने वाले अपने ही दुश्मन हैं
वृक्ष मीत हैं मानव के, उसका जीवन हैं।

दस पैसे 

चिड़िया जी को पड़े मिल गए दस पैसे
लगी सोचने इनको खर्च करूँ कैसे

क्या मैं अपना नया घोंसला बनवा लूँ
या फिर इसमें ही फर्नीचर डलवा लूँ
नए रूप में नीड़ सजा लूँ तो कैसा
मेहमानों पर रोब पड़े धनिकों जैसा
मन में आने लगे ख्याल ऐसे-वैसे।

क्यों न किसी दिन पिकनिक पर निकला जाए
मुगल-गार्डन दुनिया भर के मन भाए
क्या पड़ोसियों को दावत पर बुलवा लूँ
सबको खुश करके अपना मन बहला लूँ
मौज मनाऊँ, लोग मनाते हैं जैसे।

बच्चों को जूते भी तो पहनाने हैं
कपड़े नए चिरौटे के सिलवाने हैं
ठीक रहेगी अपने लिए एक माला
ज्यादा जेवर करते है गड़बड़ झाला
सभी काम निबटाने है जैसे-तैसे।

तभी एक मानुस देखा लंगड़ा-लूला
दुख के डर से, सुख का नाम तलक भूला
उसे देख चिड़िया ने सब विचार छोड़े
उसको सारे पैसे दिए, हाथ जोड़े
चिडिया जी ने पैसे खर्च किए ऐसे।

हड़ताल

आज शहर में है हड़ताल
सब चीजों का पड़ा अकाल

रिक्शा, आटो, बसें खड़ी
सभी दुकाने बंद पड़ीं
मंडी में सब्जियाँ सडीं
बिकता कहीं न कोई माल

आया नहीं दूधवाला
मिलती नहीं फूलमाला
सूनी पड़ी पाठशाला
हुआ सिनेमा पर न बवाल।

मिलता है अखबार नहीं
चाय कहीं तैयार नहीं
खुला दवा-भंडार नहीं
हैं सारे मरीज बेहाल

घूम रहे लेकर पैसे
एक भिखारी हो जैसे
कहो जलाएँ शव कैसे
खुला नहीं लकड़ी का टाल।

क्या होगा हड़तालों से
राजनीति की चालों से
जूझे इन जंजालों से
है कोई माई का लाल।

आबादी की बाढ़ 

लालू पंडित गाँव छोडकर,
पहली बार शहर में आए,
भारी भीड़ हर तरफ देखी
कुछ चकराए, कुछ घबराए,

जिसको देखो कुछ भूला-सा,
भागमभाग चला जाता है
चलने में मानुस मानुस से,
टकराता है, भिड़ जाता है।

है सैकड़ों दुकाने जिनमें,
ठूँस-ठूँस सामान भरा है
दोनों ओर सड़क से सटकर,
पटरी पर भी माल धरा है।

साइकिल, रिक्शा, ताँगा, आटो
दौड़ रहीं कारें, बस, ठेले
इतना शोर, रोशनी ऐसी
जैसे लगे हुए सौ मेले।

भरने लगा धुआँ साँसों में,
चलना हुआ दो कदम भारी
कहाँ गाँव की खुली हवाएँ,
कहाँ शहर की मारामारी।

पंडित जी मन ही मन बोले
क्यों इस तरह अशांति छा रही
कुदरत कितनी दूर हो रही,
आबादी की बाढ़ आ रही।

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