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ऐसे अमर कवियों को संबोधित

नमस्ते कवि जी, कैसे हैं आप ?

बेहद गंभीर संयत शांत हैं इन दिनों में भी
उपलब्धि आपकी महती यह
बधाई हो
आपको क्रोध नहीं आता है
रूदन से रोतले हो उठते हैं आप
करूणार्द्र हो उठता है आप पर पाठक
सचमुच बधाई हो

समयविद्ध नहीं, समयसिद्ध आप हैं
समय के पार हैं, परे हैं
प्रतिकृत नहीं होते अपने समय से
भड़कते नहीं आप
कड़कते, फड़कते या तड़कते भी नहीं
किसी पर
विदेशी मुद्रा वाले अनिवासी भारतीय
बज़ट, बुश, बारूद, मुद्रा-स्फीति-दर
मंदी, मँहगाई और शोषण की नीति पर
कुरीति पर अनीति पर

बेईमान दलालों, देशतोड़ू लालों पर
किसी भी खलनायक पर
अकर्मण्य नायक पर
नहीं आप देखे गए नाराज़
कभी नहीं आपने ऊँची की आवाज़

कवि जी क्या आपने कभी ख़ुद से पूछा
आपको क्यों नहीं आता है गुस्सा
क्यों नहीं आपमें वह
मूल मानवीय गुण या कमज़ोरी
आक्रोश, रोष या ताप के समीप का
कोई भी लक्षण
क्यों नहीं महाभाग
आपमें वो जन-सुलभ छोटी सी आग ?

और आग ही नहीं है कवि
तो पानी भी कहाँ होगा
शेष तीन तत्व भी मनुष्य के
क्यों ढूँढ़े जायेंगे आपमें

इस अधम मर्त्य की बधाई स्वीकारें
कि आप अमर होंगे अवश्य ही।
(1991)

इतिहास के पर्चे से

शाम का वक़्त था, वे मज़दूरी से
नोन तेल लकड़ी खरीदने के बाद
डेरे की तरफ़ लौट रहे थे इटारसी में
वहीं मैं इतिहास-पर्चे से

मर्द ने औरत से कहा कुछ शिकायत में शायद
औरत ने जवाब दिया शरारत में शायद
और हँसते-हँसते यादों में चले गए वे
एक मौन था जिसे सहसा औरत ने तोड़ा-
तुम्हे याद है जब हम क़िला बना रहे थे अपने मंडला में
और तुम्हे गालियाँ दी थीं मुकद्दम ने-खोरवा,
नाशपीटा काम करा लेता था
मज़दूरी देने को फटती थी छाती…
मर्द ने भी याद किया-उज्जैन, आगरा
कलकत्ता और टाटानगर अपना-
खजुराहो मंदिर बनाने में बड़ा मज़ा आया था
हालाँकि स्सालों ने काट ली थी मज़दूरी
और तेरी तो टाँग भी गई थी…
औरत ने अधबीच में धर लिया था-
भूल गए भोपाल का ताल खोदते टाइम…
कि मर्द बता रहा था जब ताजमहल…कुतुब…
खड़ा कर रहे थे हम…

मैं पीछे-पीछे जैसे चलता हुआ
नींद और स्वपन के अवकाश में
सुनता था उस जवान जोड़े को
विश्वास आना नहीं था मुझे
उनकी विश्रृंखलित बातों पर
मगर उनके पास थे सैकड़ों या हज़ारों संस्मरण
हज़ारों कामों की यादें थी पुख़्ता
हज़ारों सबूत उनकी देह और आत्मा में
वे हजारों सालों के पसीने और भूख में
एक निर्माण से दूसरे निर्माण तक
या इस रण से उस रण
एक युग से दूसरे या इस देश से उस देश
ऐसे उतर आते थे जैसे मैं उतरा
एक-एक पायदान इटारसी के रेलवे-पुल की

पुल के बारे में यद्यपि वे बतियाते नहीं थे
पर
वह पुल भी जैसे उन्ही ने बनाया था
और यहाँ जैसे की भी ज़रूरत कहाँ है
वह पुल भी यक़ीनन उन्ही ने बनाया था।
(1991)

सख़्तीपसंद का गीत 

मुझे सख़्त अमरूद पसंद हैं और सेब
मुझे सख़्त नारियल पसंद हैं और बादाम
जैसे पेंसिलें पसंद हैं सख़्त
जैसे सख़्त फालवाले हल
और जैसे खेत मझे पसंद हैं सख़्त
जो जानते हैं फ़सलों को उगाना हर बरस ज़िद की तरह
ज़िदों में बच्चों की ज़िद मुझे पसंद है
बचपने में सख़्त, जैसे सख़्त मोह बूढ़ों में
पौरूष में पसंद है मुझे सख़्त रीढ़
यौवन में सख़्त वक्ष, वक्ष में सख़्त आग
आग में मुझे पसंद हैं सख़्त अंगार
जैसे पानी में मेरी पसंद है- सख़्त बर्फ़

थोड़े सख़्त हृदय मुझे ज़्यादा पसंद हैं
क्योंकि वही ज़्यादा जानते हैं मृदु भावनाओं को
हाथ पसंद हैं जिनकी पकड़ सख़्त हो
पैर जिनके कदम लम्बे और सख़्त हों
रंग सख़्त पसंद हैं और पक्के
जैसे इस्पात और सीमेंट
क्योंकि सख़्ती ही तोड़ना जानती है और जोड़ना
लिहाज़ा मुझे दलदल नहीं पठार पसंद हैं
और इस तरह पसंद के क्षेत्र में मैं सख़्ती पसंद हूँ

जैस दिन ने कभी पसंद नहीं किया चाँद
और तारा भी उसे बस एक पसंद है
मैं पसंद के समर्पण की हुंडियाँ ठुकराता हूँ।
(1994)

असाधारण 

साधारण कवि हम, साधारण भाषाएँ
सुख-दुख इच्छाएँ और आशाएँ साधारण
साधारण सपने और जीवन और सोच
अनुभव, संवेदन और शिल्प भी साधारण
साधा नहीं हमने, करते भर आये रण

साधारण पत्रिकाएँ छपने को साधारण लिखा अपना
साधारणतया कोई पारिश्रमिक नहीं
और कभी हुआ भी तो साधारण
साधारणतः कोई आलोचक-आस्वादक-समीक्षक बड़ा नहीं
साधारण से पाठक से कभी कोई साधारण पोस्टकार्ड
साधारण आयोजन, साधारण उपस्थिती में
साधारण काव्य-पाठ हमारा, साधारण सराहना

हम नही असाधारण नागरिक
असाधारण पद पर बैठे अफ़सर भी नहीं हम
साधारण लिखे पर साधारण पुरस्कार
ले-देकर असाधारण सफल जो
असाधारण विषय जिनके
असाधारण अभियान
कि धारण किए रह उन्हे माथे पर साधारण
टीले से सगरमाथा बने तने
साधारण
तामें सने, धन्य हैं असाधारण
(1993)

सनसनाता आता है झूठा सच

अंग्रेजी अख़बारों को पलटते पाता हूँ
नहीं रहा क्राँति पर
वाम का एकाधिकार
क्राँति, बल्कि क्रान्तियाँ तो पूँजी कर रही है
देस-विदेसी, हमारे बाज़ार में
प्रसार माध्यमों के मुताबिक
रक्तहीन, फर्स्ट क्लास फन हैं ये क्राँतियाँ
फुल ऑफ वेरायटीज
विविधता से भरा प्रथम श्रेणी का आनन्द

छपा है विज्ञापन
द ग्रेटेस्ट वार बीइंग वेज्ड टुडे
इज़ इन इन्डियाज़ मार्केट-प्लेस

भारत के हाटों में
शुरू हो चुकी है, हाँ
दुनिया की सबसे जबर्दस्त जंग
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मिलाजुला प्रायोजन
मिलीजुली भव्य और मारक लड़ाई
अनेक मोर्चे खुले हैं एक साथ
अनेक किस्में हैं युद्ध की, अनेक नाम
द कोला वार
द स्नेक्स वार
द फास्ट फूड वार
द कम्प्यूटर्स वार
द फैब्रिक्स वार
द … वार
… वार
… वार
और वह इश्तिहार
इसमें यह हिटलर की तस्वीर
कैप्शन कहता है – ‘द वार ही मिस्ड’

कितना मुलायम अफसोस है
कि चूक गया इस युद्ध को देखने से हिटलर
देखता तो उसको भी पसीना आ जाता
उसने क्या सोचे होंगे
कभी ये महासमर, भीषण बाज़ार-युद्ध
मार्केट वॉर्स ये
वार्स दैट हेव आल द ब्रिलिएन्स
ये चमकदार भिड़ंतें – स्विफ्ट एंड रूथलेस
तेज और निर्मम ये बैटल्स
बैटल्स फॉट विथ ब्रान्ड्स
बिकाऊ नामों की मोहक मुठभेड़ें
पिछड़े व फटेहाल मुल्कों में
चलता यह घनघोर घमासान
आइन्सटीन को क्या पता था
कि तीसरा विश्व-युद्ध
यूँ लड़ा जाएगा तीसरे विश्व में
वह तीसरे को तज सीधे चौथे के
फोर्थ ग्रेट वार के बारे में बोला था

युद्ध, युद्ध, युद्ध
इन तमाम युद्धों का लक्ष्य
सिर्फ हम हैं
सिर्फ हम लहू-लुहान
नष्ट या नेस्तनाबूद होंगे
तो हम होंगे
छेड़े गए हैं ये हमारे ख़िलाफ ही
चलाए गए हैं ये पूँजी के जोर पर
सहारे पूँजी के, पूँजी के वास्ते
मुनाफाखोरों की एलाइड फोर्सेस
उतारू हैं दोस्तो मिटाने पे हमको
आदमी से कंज्यूमर में घटाने पे हमको
इस तरह तो वे हमें ही
कंज्यूम कर लेंगे
नष्ट कर डालेंगे हमारे जीवन को
रोचक नहीं लोमहर्षक है दोस्तो
भयानक है यह सच, बेहद भयानक
बहुत सुविचारित है अभियान उनका
बर्लिन की दीवार गिरने के बाद से
नया जोश, नयी धार
नयी तुरुप, नयी चाल
उष्ण को जगह देने खत्म हुआ शीत-युद्ध
और थैंक्स टु पेरेस्त्रोइका
अखबारों में छप रहा है लेनिन का बस्ट
उठे हाथ वाला –
उप-भोक्ताओं का आह्वान करता हुआ
‘कंज्यूमर्स ऑफ द वर्ल्ड, राइज!’

जागो उपभोक्ताओ सारे संसार के
प्रतिपल जब कीमतें उठ रही हैं
तुम भी उठो उन तक
उठो रे मरे कंज्यूमरो
उठो, द वे द जेप्स डू
हाँ जापानी तर्ज़ पर उठो तुम
उठो उपभोक्ताओं, असली भोक्ताओं को
पूँजी के पारम्परिक प्रभुओं को चरण चूम
क्लैसिकल ‘विश’ करो, गिड़गिड़ाओ –
मास्टर, मास्टर
स्पेशली फॉर यू माई मास्टर
खास आप ही के लिए
हम जीते-मरते हैं
जब तक क्रय शक्ति है खरीदते हैं
खरीदते हैं, जीते हैं
गाँठ में नहीं होता दाम तो मरते हैं
या दम, आपके काम आते रहने का
जब अगली साँस खरीदने को नहीं होती
मुद्रा, तो मरते हैं
मरते हैं फॉर यू मास्टर

आर्थिक अश्वमेध का घोड़ा अविजित
बदल चुका समूचा ही देश मानो हाट में
तमाम हाट हुए मैदान युद्ध के
चप्पे-चप्पे पर तैनात हुए
आधुनिकतम सेल्स-फोर्स
मुस्तैद ‘मित्रों’ के
मिलिटेन्ट मार्केटिंग जनरल्स
सूचना-क्राँति के प्रणेता प्रचार-प्रभु
प्रोपेगेंडा मास्टर्स
संभाले हुए अपने मीडिया की कमान
हाथों में करोड़ों का रिमोट कंट्रोल
करोड़ों के जीवन की अदृश्य बागडोर
सम्मोहन कई करोड़ भारतीय आँखों का
पुराणों से पिटी हुई
सदियों से सूजी हुई
हिन्दुस्तानी आँख के लिए हाज़िर
उच्च तकनीक का जादुई स्पर्श अब
हीलिंग टच
हाई टेक्नालॉजी का

ठगे जा रहे हैं हम दरअसल खुलेआम
उन्होंने हमारी नज़र बाँध ली है इस तरह
काबू कर लिया हमारे हाइपोथेल्मस पर
लगाम लगा डाली हमारी अक्ल को
मार दीं सारी संवेदनाएँ, मर गईं
कि चढ़ गईं जेहन में जरूरतें
देखते भी नहीं हम आज अपना आसपास
पुरा-पड़ोस-बस्ती पर किसी का ध्यान नहीं
ग्रहण कर रहे हैं संकेत सभी आजकल
दूर अंतरिक्ष से
कोई नहीं सुनता है अंतस की आवाज
प्री रेकार्डेड कैसेट-सा बजते हैं हम लोग
बोलते हैं बरजोर बोल तक उन्ही के
हिन्दी का कवि मैं
पर, लिख रहा हूँ
ब्रेकफास्ट टी.वी. की दोयम जुबान में
भाषा व संस्कृति के दुर्गों पर
इस कदर हुए हैं धनतंत्री हमले

फिरंगी सरकार नहीं है तो क्या हुआ
राज अब भी चलता है उसकी जुबान में
बाजार-युद्ध में भी वही है अग्रणी
पिट गई है हिन्दी अपने मुहावरे में
हिन्दी की पत्रिकाएँ बंद होती जाती हैं
फी पेज तय कालम कचरे की दर से
रंगीन पृष्ठों की रंगदार अंगरेजी
ढोने को विवश हुआ करता है पाठक
या फिर एक अजनबी अटपटी आधुनिक
अनुवादित हिन्दी
और हम जनतंत्री खुली आँख सोते हैं
आधे अंग्रेजों को सल्तनत बख्श कर

फ्री इकॉनामी का इंद्रजाल जारी है
काठ मार गया जैसे हम सबकी समझ को
उनके इस सुनियोजित आक्रमण के आगे
आत्मघाती आकर्षण-व्यूह में निहत्थी-सी
छोड़ दीं हैं हमने अपनी आगामी पीढ़ियाँ
जड़ें उन्हे देना तो दूर रहा
हम उनको एकदम जड़ बना रहे हैं
इस ट्रेजिक दौर में उन्हे केवल
कलरफुल कॉमिक्स
दिखा-पढ़ा रहे हैं
धरती पर पाँव जमाना तो नहीं सिखलाया
मगर उन्हे सीधे आसमान चढ़ा रहे हैं
सुपरमैन, स्पाइडरमैन या रैम्बो की
फैन हैं ये
हमारी औलादें
(ओह सॉरी, हमारे वार्ड या प्रोजिनी!)

पर्दे पर देखा है उनने तो
दोस्ती का घातक आलिंगन
द फैटल एम्ब्रेस ऑफ फ्रेंडशिप
दोस्तों का एतबार नहीं रहा
स्ट्रीट-हॉक ने क्या-कुछ सिखाया उन्हे
वीडियो-गेम्स जो चल रहा है खतरनाक
गिरफ्त में जिसके है वर्तमान-भविष्य
दूर-भविष्य धुँधला है
प्राफिट की दौड़ में
वैल्यूज चीजें हैं पास्ट की, भूल जाओ
प्राइस अब हो गई हैं खास बात, याद रखो
कीमतें बढ़ती हैं, मूल्य गिर जाते हैं
भावों के उठने से, भाव दब जाते हैं
सब तरफ से झूठा सच दनदनाते आता है
सनसनाती आती है नयी विश्व-व्यवस्था

कहाँ हो कवि मित्रो, निकल आओ घरों से
सामना करना होगा समय का साहस से
‘पूँजीवादी झूठ के विराट अत्याचार बीच’
अपने ही शिविर में मार डाला जाएगा
वंचितों का स्वप्न, जरा-सी भी चूक से

1991, जबलपुर

सामना 

मई थी, और दोपहर
लू का ख़ौफ़ ख़बरों में
ख़ासी जगह घेरता हो, वैसी

सामने में
सिर्फ़ एक स्त्री थी उस वक़्त
सड़क पर
मटकों से भरा हुआ टोकरा
उठाए माथे पर
जोखिम की तरह

‘लो मटकेSSS’

मटकों के जल से भी
शीतल अधिक ही था
स्त्री का आलाप
कि मई का मन होने लगा था
मटकों की ठंडक में हलक तक
डूब कर मर जाने का

आइसक्रीम खाने पर स्टिकर मुफ़्त थे
कोल्ड ड्रिंक का ढक्कन
इनामों में खुलता था
पंखों-कूलरों पर छूट बहुत भारी थी
रेफ्रीजरेटरों के दाम
पानी के मुकाबले
घटा दिए गये थे
डंकल और गेट के भभकों से
पसीने-पसीने था पूरा प्रतिपक्ष
ऐसे में सुना मैंने शहर में
सिर्फ़ एक साहस का स्वर-
‘लो मटकेSSS’।
(1993)

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