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कमलानंद सिंह ‘साहित्य सरोज’ की रचनाएँ

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गणपति स्तुति 

जय जय विध्न हरन गननायक
गिरजा नन्दन शुभ वरदायक
सुरनर मुनि सों पुजित प्रथमहि सुभस सुभग के तुम अभिधायक।
सकल कलेश विनास करन हित तेरो नाम वन्यो है सायक।।
रिद्धि-सिद्धि सेवे निसिवासर तुअ गुण गरिमा के सब गायक।
सुमिरत ही फल पावत चारो अधहारी प्रभु त्रिभुवन नायक।।
हरि चरनन में भक्ति रहे नित कविता शक्ति बढे अतिलायक।
मांगत नाथ सरोज तेरो पद जानि तोहि निज परम सहायक।।

सरस्वती स्तुति 

वाहन मराल कर पुस्तक ओ वीन माल सुन्दर वसन स्वच्छ सोभे जनु चानी के।
सिंह पेसवार लीन्हे शूल करवाल धारे हियख्याल प्रेम शिव वर दानी के।।
भक्तन को देत बुद्धि विद्या धन सम्पति इ नाम अवलम्ब एक मूढ़ अभिमानी के।
पूजन सरोज पद करत प्रणाम सदा सेवक कहावे मातु शारदा भवानी के।।

शिव स्तुति 

वरनि सकति नहिं लघुमति मेरी अद्भुत महिमा हर की।
गुण विरोध सब रहत एक में शंका कछु नहिं डर की॥
नाशत है सब जगत जीव को शिव निज नाम धरावे।
भिक्षा करि राखत है जीवन विश्वंभर कहलावे॥
है निरोग पर बने हैं शूली राखि द्विजि एव दयाल।
विष करि पान भये मृत्यंजय अमृतभय तत्काल॥
असम नैन सभ सब उपर राखत अपन विचार।
करहु दया दुखिया सरोज पे लागहु वेगि गुह वेगि गुहार॥

गंगा स्तुति 

मायामोहिनी के बस भांवरी भरत ताहि मुक्ति दै के भवर बनाया निज अंग है।
नीचताइ नीचन सों वेग उदवेगन सों खल चितकार धुनि कलकल संग है॥
ताइ पैन न्यायो मल चन्द्रिका समान जल षीतल सरोज थलशुचि शुभगंगा है।
भूतल निवासिन केर कल्भश हरन करि देत पद अच्युत ये उछलि तरंगा हें॥

संसार बंधन

अरे मन चंचलता तुम त्याग।
भटकहु जनु तुम स्वान सदृष धरु कृष्ण भजन अनुराग।।
कबहूं गृह की चिन्ता कबहूं वित्त वृ़द्धी उद्योग।
कबहूं कलह करि परम मित्र सहेत दुःख वियोग।।
शत्रु दमन उत्साह कबहुँ निराशा भारी।
आशा मे राज राज्यमनोहर कबहुँ करो तैयारी।।
कबहुँ पर कामिनी की इच्छा कबहुँ धर्म की ओर।
शंखो करत रोग की कबहुँ वृत्ति धरो ठगचोर।।
काम क्रोध मद मोह मत्त तुम भ्रमों ऐसे ही रोज।
सब तजि के एक कृष्ण चरण पे होउ लवलीन सरोज।।

राधाकृष्ण

कौतुक हरि राधा को हरि।
ललचावत सुरवृन्द चहत वृज जन्म लेहि एक वेरि॥
बनि बनि सखा चरावे गैया लावे वन के फूल।
वनमाला रचि के पहिरावे दोउ को सुख भूल॥
गावे नाचे और बजावे खजरी उफ करताल।
वन्सी धूनि सूनि वलि वलि जावे छवि लखि होय नेहाल॥
तुच्छ गिने सब स्वर्ग सुखन को यह वृज सुख के आगे।
जन्म जन्म तुअ दास होय यह नित सरोज वर मांगे॥

मान भंग 

प्यारे परवीन सों पियारी ने पसारी मान,
रुठि मुख फेरि बैठी आरसी की ओर है।
लखि के ‘सरोज’ प्रतिबिम्ब ताकों सन्मुख में
अंक भरिवे को धाय ढारे प्रेम नीर है।।
पास मे गये ते रूप आपनो विलोकि भाज्यो,
प्यारी पीठ पाछे आय सहि के मरोर हैं।
लाग्यो है मनावन तहाँ ते लाल ठाढ़े देखि,
बाल की हँसी न रूकी आइ वर जोर है।।

भौहन कमान तानि बैठी मान ठानि प्यारी
मान्यो न मनाये लाल केती युक्ती धारे है।
पायन पलोटि अरू विनती अनेक करि,
विवस ‘सरोज‘ भय मन भारी हारे है।
ताही सभै धुखा धराधर सँ धारो,
घेरी घहराये प्रलै काल अनुहारे है।
डरयि हिये में घनश्याम की लगी है वाल
आय घनश्याम मान सहज निवोर हैं।

अन्यौक्ति

जो तरूता को फल दियो छाया करि विस्तार।
करत कुठाराघात तेहि इन्धन बेचन हार।।
इन्धन बेचन हार कुटिल अति नीच स्वार्थ पर।
ताहि कुठाराघात करत क्यो रे पायी नर।।
गीसम रवि सँ तपित रहयों जब परम दीन अरू।
आश्रय दियो ‘सरोज’ छाँह फल दे तब जो तरू।।

हल राखे सो कहा भौ हली धराये नाम।
समता तू कै करि सकै संक वीर वलराम।।
संक वीर वलराम साम्य तू कहा विचारी।
वह सरोज हरि तात लोक प्रिय है भूधारी।।
तू दारारत की वीच रहि कृषित कितवला।
सुर समता को चहत धारि केवल कान्धेहल।।

मेरो अति उपकार तुम कीन्हो मम ढिंग आय।
फल खायो सोयो दलन छन लौं मेरे छाय।।
छन लौ मेरम हाय आय श्रमदूर कियो है।
कवि सरोज भौ तृपित हमारो आज हियो है।।
हम पथ तरु तुम पथिक भयो विधुरन के बैरो।
जाहु आइद हौ वहुरि राखिहो सुमिरन मेरो।।

सब लोक में उचारुंगा

सब लोक में उचारुंगा।
मेरो प्रान तेरो हाथ तेरो प्रान मेरो हाथ राखि
यह वीस वीसे प्रन तो निवाहूंगा।।
होस में रहूँ ना चाहे होस रहूंगा
हम सकल दशा में सांची वैन परचारुंगा।
सुकवि सरोज उपकार मे करुंगा तेरो प्रान दे हमारो
तेरो प्रान को उबारुंगा।

समस्या पूर्ति 1

चुम्बक युगल बीच मानो लोह फसिगो
सूखी वढ़ी लकड़ी विन पातन
सरोज को
आयोरी
नागरी प्रचार करि दीनो है
रिझावेगे
वृशभानुलली को
धमय सुधारो वयोन

जागू जागू हो ब्रजराज

जागू जागू हो ब्रजराज ।
निशि पति मेला मलिन देखि निशि त्यागल अम्बर लाज ॥
तारागण सब छोड़ि पड़ैलिह, सखिक आचरण जानि ।
अपनो लोक संग त्यागै ए, अति अनीति अनुमानि ॥
प्राची दिशा भेट केर कारण, ऐली उषा सोहागिनि ।
पहिरि लाल पट दिनपति संगहि, रूपवती बड़ भागिनि ॥
पक्षीगण आनन्द मनावे, कलरव चारू सुनावे ।
अपन नृपति केर सुयश मनोहर, जनु दिस दिस में गावे ॥
विकसित ठाढ़ ‘सरोज’ अहुँ उठि कौतुक करू विचार ।
निशि जे त्यागल अम्बर तकरा भानु कैल अधिकार ॥

प्रीतम जुनि जाऊ परदेश 

प्रीतम जुनि जाऊ परदेश ।
ई हेमन्त में एकसर गेने पाएब परम कलेश ॥
शीत निवारण कारण अछि जे सुन्दर सब उपचार ।
से सब कतए अहाँ के भेटत भेने घरक बहार ॥
नीक भवन भोजन समयोचित ओढ़ना गरम बिछौना ।
अपन नारि केर हृदय लागि कए सुख सँ सूतब कोना ॥
भल नहि एखन भूमि पर सुति कँ पूसक राति बिताएब ।
सूनू कहल ‘सरोज’ हमर सुख घरहि मध्य सब पाएब ॥
प्रीतम जुनि जाऊ परदेश ॥

फकीरी वेश बना तन को

सियावर जाते वन को । फकीरी वेश बना तन को ॥
शीस जटा सोहे भली, बसन पेड़ की छाल ।
कर मे तीर कमान है, गज मतवाली चाल ॥
हुआ दुख अवधपुरी जन को ।
सियावर जाते वन को ।
फकीरी वेश बना तन को ॥

महल ओर रोते चले, बूढ़े और जवान ।
समझाने नृप को तहाँ, खोए सुध बुध ध्यान ॥
चैन नहिं कुछ भी है मन को । सियावर जाते वन को ।
हम सब तेरी हैं प्रजा, सुनु दशरथ महाराज ।
हमरो दुख दुर किजीए, रामहि देके राज ॥
सुनो मत तिय के बैनन को ।
सियावर जाते वन को ।
फकीरी वेश बना तन को ॥

राम लखन अरू जानकी, सुन्दर कोमल गात ।
हाय इन्हें वन भेजते, पितु बन इनके तात ॥
अभी तक रख के जीवन को । सियावर जाते वन को ॥
अवध नगर सूनो कियो, लखि ‘सरोज’ अभिराम ।
पितु प्रण पालन के लिये, त्यागि बन्धु सुख धाम ॥
छोड़ि के मोह प्राण धन को ।
सियावर जाते वन को ।
फकीरी वेश बना तन को ॥

राजा साहब ने यह रचना स्वप्नावस्था मे की थी । एकाएक स्वप्न भंग हो जाने पर उन्होंने इसे लिपिबद्ध किया

जाचन कतहू न जैये प्यारे 

जाचन कतहू न जैये प्यारे ।
हाथ पसारत कुल गुन गौरव, ता छन अपन गमैये ॥
त्यागत मित्र मित्रता प्यारी, बहु दिन जाहि निवाही ।
देखत ही मुख फेरि लेतु है, अरु बोलत कछु नाँही ॥
नृप दरबार चढ़न नहिं पावत, प्रहरी डाँटि भगावे ।
सब कोउ नाच नचावन चाहे, हँसि हँसि व्यंग सुनावे ॥
जाय महत्व लहे लघुता अति, दुखन दुरे केहु भाँती ।
वामन भो हरि वलि के आगे, द्वार खड़े दिन राती ॥
जानो यह निश्र्चय ‘सरोज’ बिन दिये नाहिं कछु पैये ।
बन में रहि एक बेर सागहू, आध पेट बरु खैये ।
जाचन कतहू न जैयें ॥

आजु भलो बनि आयो लाल 

आजु भलो बनि आयो लाल ॥
अंजन अधर पीक पलकन में, सोहत जावक सुन्दर भाल ।
बिनु गुन माल विराजत हिय में, अलसाने दुहु नैन विशाल ॥
मृगमद लसत भुजा में नीकी, चुम्बन चिन्ह चारु बिच गाल ।
चित ‘सरोज’ लखि छकित भये हैं, तेरी यह मतवाली चाल ॥

धन्य हमारी माता जग में 

धन्य हमारी माता जग में………धन्यo ॥
तुअ महिमा नहिं बरनि सकत कोउ सुर मुनि शेष विधाता ॥
तुमही एक इष्ट हो मेरी तेरो पद नित ध्यावों ।
तेरी कृपा राखि निज उर में जग परवाह न लावों
तेरी प्रेम अपार भक्ति में पगें रहौं सब रोज ।
आशिष देहु पुत्र को निस दिन करत प्रणाम ‘सरोज’ ॥

लाल तुम भाजत हो क्यों आज 

लाल तुम भाजत हो क्यों आज ॥
खेलि लेहु फगुआ अब मोसे तजि सब डर ओ लाज ।
बूझि परै गो तबही तुम को कैसो नारि समाज ॥
ब्रज युवती वृषभानु सुता की सखी साजि सब साज ।
पकड़ि रंग में यों बोरोंगी उड़िहैं होस मिजाज ॥
आई हों लै कुमकुम रोरी भरि झोरी एहि काज ।
बदलो सब दिन को ‘सरोज’ अब लैहों हो ब्रजराज

कृष्ण नाम अति प्यारा हमको

  कृष्ण नाम अति प्यारा हमको ॥
कटत पाप सब भाँति उचारे
दिन में एकहि बार ।
पूजा पाठ करौं नहिं या सों
वही ‘सरोज’ अधार ॥

आजु दिगम्बर के संग गौरि

आजु दिगम्बर के संग गौरि सुअवसर पेन्हि मचावती घूमे ।
गावति हे फगुआ अरुनारे, ‘सरोज’ से नैन भरे मतवारे ॥
त्यों करतार बजाय के नाचत, शंकर मौज में मस्त ह्वै झूमे ।
दोऊ दुहून पें डारत रंग उमंग सों दोऊ दुहू मुख चूमे ॥

प्यारे परवीन सों प्यारी 

प्यारे परवीन सों पयारी ने पसारी मान,
रूठि मुख फेरि बैठी आरसी की ओर है ।
लखि के ‘सरोज’ प्रतिबिम्ब ताकी सन्मुख में,
अंक भरिवे को धाय ढारे प्रेम नीर है ।
पास में गये तें रूप आपनो विलोकि भाज्यो,
प्यारी पीठ पाछें आय सहि के मरोर है ।
लाग्यो हे मनावन तहाँ ते लाल ठाढ़े देखि,
बाल की हँसी न रुकी आई बरजोर हैं ॥

मानुष जन्म महा दुखदाई 

मानुष जन्म महा दुखदाई ।
सुख नहिं पावत धनी रंक कोउ कोटिन किये उपाई ।
रोग सदन यह तन मल पूरे छन में जात नसाई ॥
आशा चक्र बँधे बिन मारग दिवस रैनि भरमाई ।
पापिनि शापिनि चिन्ता व्यापे घेरि डसत नित आई ।
विषै से सुखत देह और जग कन्टक सम दरसाई ॥
मातु पिता दारा सुत दुहिता मित्र बन्धु गण भाई ।
खान पान लागत नहिं नीको प्रिय अप्रिय भय जाई ॥
हरि स्तुति के सार एकही माया जाल छोड़ाई ।
भजहु ‘सरोज’ नन्द नन्दन पद त्यागि कपट कुटिलाई ॥

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