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यह कविता नहीं है 

एक जंगल के रास्ते पर
मैली पगड़ी बाँधे चार काले चेहरे
एक बच्चा सात-आठ साल का पीछे-पीछे
लाल-लाल गर्द अपने चेहरे पर जमने दे रहे हैं
धँसी हुई आँखें, गालों के गढ़े सब भर आए हैं
धूल से
इन्हें कौनसी चीज़ अस्वीकार है —
भूख, या दया, या कंगाल चेहरा

हर मुख से केवल याचना के बोल, हर मुखर
दूसरों की ज़रूरतें समझाता, जहाँ पानी नहीं है
वहाँ चुप्पी है, आँखों की निरीह कीचड़ है
जहाँ विधायक नहीं है भारत सेवक समाज
का अध्यक्षहै, जहाँ कोई नहीं, ’केयर’ का
दूध-धुला प्रतिनिधि है

आख़िर सब कहाँ गए जिन्हें टेस्ट-वर्क में जाना था
सुबह-सुबह जंगल की ओर क्या ज़रूरत पड़ी थी, ओवरसियर
सरकारी काग़ज़ों में क्या काम दिखाएगा, गँवार सब
अपने फ़ायदे की बात भी नहीं समझते

आज क्या आएगा नेता जीप में बैठा था
कोई पत्रकार, अफ़सर, किसके लिए
पगडण्डी बनवानी है

कहीं कोई गाँव में जवान नहीं, सब बूढ़े-बुढ़िया
तसला लेकर बैठे हुए, बच्चे व्यग्र लोभ से
खिचड़ी का फदकना निहारते

क्या आज स्कूल में दूध बँटा था, किसने
कितनी मिट्टी काटी, क्या कोई दाता धुले हुए
कपड़े ले आया था, किस बुढ़िया को साड़ी
नहीं मिली, गर्मी में भी कम्बल किसने
लूटा

ताऊन और चेचक और अख़बार की ख़बर
और अगले नेता का स्वागत, क्या अस्पताल का
बड़ा डॉक्टर भी आएगा

बाज़ार में आज छह छँटाक की ही दाल मिली, प्याज भी
चाँदी की तरह तेज़, डेढ़ रुपए कचहरी में
लग गए, कहाँ से लाते तरबूज, सुना ऊँचगाँव में
कोई ग़मी हो गई है

सुबह से ही उठने लगता है बवण्डर, उड़-उड़ कर धूल
ज़मीन की परतें उघाड़ती हुई सिवान पर सिवान
करती रहती है पार, कहीं दूर रेगिस्तानी टीले
खड़े हो रहे हैं, देवी का मन्दिर कहीं देसावर में

रख दिया सुदामा ने अपने बेटे की नौकरी का
सवाल, अफ़सर भला है, फिर ब्राह्मण है,
करेगा कुछ ख़याल, इतना बड़ा धर्म का काम
इनके सिर है, ये हज़ारों के पालता

कभी के सूखे पड़े पत्तों पर रात को
दो ओस की बूँदें टपक जाती हैं
पसली-पसली गाय रात भर घूमती रहती है
जंगल में बदहवास, सुबह कहीं थमकर
बैठ जाती है

किसी दरवाज़े, किसी बैठके में चार-छह लोग
सुरती ठोंकते, तमाकू जगाते बैठ जाते हैं
क़िस्सा छेड़ते किसी साल का जब ठाकुर की
सात-सात भैंसे एक-एक कर सिवान में
अचेत हो गई थीं, कोई मृत्यु के समय मुख में
गंगाजल भी डाल नहीं पाया था

बहुत सारे चेहरे डबर-डबर आँखों से झाँकते हैं
थोड़ी दूर पर वही आँखें डूब जाती हैं, कुछ धब्बे
बियाबान में चक्कर लगाते किसी काले तारे की तरह
और सब मिलकर बहुत बाद में चन्द्रमा का कलंक बन जाते हैं

हम कहाँ से किसलिए आए हैं?

व्यतीत भूमि

ग्रीष्म की वर्षा से धुली हवा हिलती पत्तियाँ
लखते पेड़ पर
रुग्ण शरीर हल्का हो उठता है अचानक
मस्तिष्क भुनभुना जाता है कान में एक गर्मी
हमारे रास्ते पर पड़ी परत को पिघलाती
अनावृत करती जाती है —
कविता माँगती है तीखी सम्वेदना
इस समय

शहर में सड़क पर भागते स्कूटरों के शोर के बीच
इस दुमंज़िले की बजाए
हम सिर्फ़ पहाड़ी घाटियों में झरनों के पास
पेड़ों के बीच किसी कुटी में भी
हो सकते थे
याद आता है जापानी कवि…….

तुम शताब्दियों पीछे
छोड़ आए हो अपनी भूमि
भाषा में
अजनबी शब्दों की बहुतायत है इस समय
शब्द भी तुम्हें मजबूर करते हैं
अनावृत करने को

जानती हैं औरतें

एक दिन सारा जाना-पहचाना
बर्फ़-सा थिर होगा
याद में ।

बर्फ़-सी थिर होगी
रहस्य घिरी आकृति
आँखें भर आएँगी
अवसाद में ।

आएँगे, मँडराते प्रेत सब
माँगेंगे
अस्थि, रक्त, माँस
सब दान में ।

जानती हैं औरतें
बारी यह आयु की
अपनी ।

नैहर आए

घूँघट में लिपटे तुम्हारे रोगी चेहरे के पास
लालटेन का शीशा धुअँठता जाता है
साँझ बहुत तेज़ी से बीतती है गाँव में ।

भाई से पूछती हो — भोजन परसूँ ?
वह हाथ-पाँव धोकर बैठ जाता है पीढ़े पर
–छिपकली की परछाईं पड़ती है फूल के थाल में ।

आँगन में खाट पर लेटे-लेटे
बरसों पुराने सपने फिर-फिर देखती हो
–यह भी झूठ !
महीनों हो गए नैहर आए ।

चूहे धान की बालें खींच ले गए हैं भीत पर
बिल्ली रात भर खपरैल पर टहलती रहती है
माँ कुछ पूछती है, फिर रूआँसी हो जाया करती है ।

जा मेरी बेटी, जा 

(फ्रेडेरिको खार्सिया लोर्का के प्रति)

भोर के तारे ने
न्यौता सारा जवार
मेरे
ब्याह दिन ।

बिजली गिरी, तड़ाक
नीम के पेड़ पर,
मेरे ब्याह दिन ।
टपकता रहा टप-टप
लहू
मेरी चूनर पर ।

सूरज की बेटी की
आँखों में आँसू
ब्याह दिन ।

खेतों में उपले
बीने
तीन बरस,
ढोया खर-पात
सिर पर
तीन बरस,

वह देखने, पिता ने, भेजे
कोसों तक
पण्डित, हज्जाम ।

तारों ने तैयार किया
सारा ज्यौनार
ब्याह दिन;
टपकता रहा लहू
नीम के पेड़ से;
दाग़ ही दाग़
मेरी चूनर पर ।

माँ, मेरी, बता !
क्या करूँ?
कहाँ धोऊँ चूनर ;
कैसे छुटाऊँ दाग़ ;
कैसे सुखाऊँ चूनर ।

जा, मेरी बेटी जा
राजा के बाग़ में,
फूल ही फूल खिले
सूरज की छाँव में,
वहीं पर नदी में
धोना अपना चूनर,
लहू बह जाएगा
नदी की धार में,

चूनर सूख जाएगी
सूरज की छाँव में,
सूरज की बेटी जा
राजा के बाग़ में ।

पोटली भरम की 

अच्छा हो आदमी जान ले हालत अपने वतन की ।

उजले पाख के आकाश से जगमग शहर में
आधी रात भटकते उसे पता लग जाए
कोई नहीं आश्रय लौटे जहाँ रात के लिए
उनींदा, पड़ जाए जहाँ फटी एक चादर ओढ़े ।

अच्छा हो आदमी देख ले सड़कों पर बुझती रोशनी ।

ईंट-गारा-बाँस ढोते सूचना मिल जाए उसे
बाम्बी बना चुके हैं दीमक झोपड़े की नींव में
काठ के खम्भे सह नहीं सकेंगे बरसाती झोंके
बितानी पड़ेंगी रातें आसमान के नीचे ।

अच्छा हो दुनिया नाप ले सीमाएँ अन्तःकरण की ।

देखते, बाँचते अमिट लकीरें विधि के विधान की
अपने सगों को कुसमय पहुँचा कर नदी के घाट पर
टूट चुके हैं रिश्ते सब, पता लग जाए उसे
नसों में उभर रही दर्द की सारी गाँठें ।

अच्छा हो, आदमी बिखेर दे पोटली अपने भरम की ।

अकाल के दृश्य 

(यह कविता नहीं है)

एक जंगल के रास्ते पर

मैली पगड़ी बान्धे चार काले चेहरे
एक बच्चा सात-आठ साल का पीछे-पीछे
लाल-लाल गर्द अपने चेहरे पर जमने दे रहे हैं
धँसी हुई आँखें, गालों के गढ़े सब भर आए हैं धूल से
इन्हें कौन-सी चीज़ अस्वीकार है–
भूख या दया या कंगाल चेहरा ।

हर मुख से केवल याचना के बोल, हर मुखर
दूसरों की ज़रूरतें समझता, जहाँ पानी नहीं है
वहाँ चुप्पी है, आँखों में निरीह कीचड़ है,
जहाँ विधायक नहीं है भारत सेवक समाज का
अध्यक्ष है, जहाँ कोई नहीं, ‘केयर’ का
सभ्यवेष प्रतिनिधि है ।

आख़िर सब कहाँ गए जिन्हें ‘टेस्ट-वर्क’ में जाना था;
सुबह-सुबह जंगल की ओर क्या ज़रूरत पड़ी थी, ओवरसियर
सरकारी क़ागज़ में क्या काम दिखाएगा, गँवार सब
अपने फ़ायदे की बात भी नहीं समझते ।

आज क्या आएगा नेता जीप में बैठा
या कोई पत्रकार, अफ़सर, किसके लिए
पगडण्डी बनवानी है ?

कहीं कोई गाँव में जवान नहीं, सब बूढ़े-बुढ़िया
तसला लेकर बैठे हुए, बच्चे व्यग्र लोभ से
खिचड़ी का फदकना निहारते ।

क्या आज स्कूल में दूध बँटा था, किसने
कितनी मिट्टी काटी, क्या कोई दाता फटे पुराने
कपड़े ले आया था, किस बुढ़िया को साड़ी
नहीं मिली, गर्मी में भी कम्बल
किसने लूटा !

ताऊन और चेचक और अख़बार की ख़बर
और अगले नेता का स्वागत, क्या अस्पताल का
बड़ा डाक्टर भी आएगा ।

बाज़ार में आज छह छटाँक की ही दाल मिली, प्याज भी
चाँदी की तरह तेज़, डेढ़ रुपये कचहरी में
लग गए कहाँ से लाते तरबूज, सुना, ऊँच गाँव में
कोई गमी हो गई !

सुबह से ही उठने लगता है बवण्डर, उड़ उड़ कर धूल
ज़मीन की परतें उघाड़ती हुई सिवान पर सिवान
करती रहती है पार, कहीं दूर रेगिस्तान में टीले
खड़े हो रहे हैं, देवी का मन्दिर कहीं देसावर में ।

रख दिया सुदामा ने अपने बेटे की नौकरी
का सवाल, अफ़सर भला है, फिर ब्राह्मण है
करेगा कुछ ख़याल, इतना बड़ा धर्म का काम
इनके सिर पर है, ये हज़ारों के पालता ।

कभी के सूखे पड़े पत्तों पर रात को
ओस की दो बून्दें टपक जाती हैं, पसली-पसली गाय
रात भर घूमती रहती है जंगल में
बदहवास, थक कर सुबह कहीं बैठ जाती है ।

किसी दरवाज़े, किसी बैठक में चार छह लोग
सुरती ठोंकते, तमाकू जगाते बैठ जाते हैं
किस्सा छेड़ते उस साल का जब ठाकुर की
सात-सात भैंसें एक-एक कर सिवान में
अचेत हो गई थीं, लोग मरते थे, कोई मृत्यु के समय मुख में
गंगाजल भी नहीं डाल पाता था ।

बहुत सारे चेहरे डबर-डबर आँखों से झाँकते हैं
थोड़ी दूर पर वही आँखें डूब जाती हैं, कुछ धब्बे
बियाबान में चक्कर लगाते हैं धूमकेतु की तरह
यह सब मिल कर बहुत बाद में चन्द्रमा का कलंक बन जाते हैं ।

हम कहाँ से किसलिए आए हैं ?

चैत में बवण्डर

चैत में बवण्डर
खेतों की मिट्टी उड़ा ले जा रहा है ;
दुपहर में ही भरने लगा है
आसमान में अन्धकार ;
फेंकरने लगी हैं बिल्लियाँ
घरों से निकल कर ;
सिवान में स्यार हुआँ-हुआँ करते हैं ।

भाग रहे हैं ढोर
वन की ओर
आसमान की ओर मँह उठा
रम्भाती है गाय
बिलगता बछेड़ा
चुप हो जाता है ।

कोई कहर नहीं आता
हो जाता शान्त धीरे-धीरे यह उत्पात ।
केवल खलिहान में पड़ी फ़सल में
गेहूँ का दाना
काला पड़ जाता है ।

भंगुर 

मुट्ठी में लें इसे
मींड़ें
गूँथे
मरोड़ें
लोई बनाएँ ।

लम्बाएँ
गोलाएँ
हथेली में दबाएँ ।

साँचे में ढालें
कोने, किनारे
तार से काटें ।

चाक पर रखें
सुथारें
सुचारें
सँवारें
देवें आकार
सुखाएँ
पकाएँ
रोगन लगाएँ ।

हाथ में लें
उलट-पलट
सहलाएँ
पोसाएँ
चुमचुमाएँ

सब कुछ करें
सँभालें इसे
यह टूटे नहीं
यह भंगुर है
यह जीवन है ।

सबसे दिली दोस्त

सबसे भले दोस्त
गायब हो जाएँगे भीड़ में।
सबसे दुखी दोस्त
झूठे पड़ जाएँगे उम्मीद में ।
सबसे बड़े दोस्त
छूट जाएँगे मंज़िल के पहले ।
सबसे दिली दोस्त
ग़रीब हो जाएँगे विपत्ति में।

खुले में आवास (कविता)

वहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है ।

खुले के हर ओर फैला महावन है
सघन लता-गुल्मों, वृक्षों, झाड़ी-झँखाड़ से
गूंजित हिंस्र पशुओं की अमुखर चीख़ों से
अलँघ्य राहों पर लुप्त पदचिह्नों से ।

खुला अभी बचा है वन के फैलाव से
धरती पर कच्छप पीठ-सा उठा हुआ
अजानी, अदेखी, संकरी पगडण्डी है
पैतृक आवाज़ें वहां ले आती हैं ।

खुले में निर्भय घूमते मृगशावक
गोधूली बेला में गौएँ रंभाती हैं
दूर आकाश में उठ रही धूम-शिखा
फैल रहा शुचित मन का सुवास है ।

वहां, उस खुले में ही तुम्हारा घर है ।

क्रान्ति की प्रतीक्षा-2

तुममें सदा इच्छा रही है कि राह से किसी रात
भटक जाओ, तुम कहते हो, तुम्हारे पैर
बिवाइयाँ फटने से लहू-लुहान होते रहे हैं
बरसों से, तुम्हारा भोजन-पात्र घिसते-घिसते
छलनी होता गया है, अब उसमें
कोई भी द्रव नहीं अँटता, तुम कहते हो
तुम्हारी ताक़त क्षय होती गई है
धीरे-धीरे, अब तुममें कोई
लिप्सा नहीं रही, कोई
अभीप्सा नहीं रही, अब तुम जान गए हो
किन अँगुलियों से संगीत बजता है
बाजे पर, किस आवाज़ पर मजमा
इकट्ठा होता है और बोली चढ़ती ही जाती है
कारवाँ के सामानों पर, फिर तुमने देखा
किस तरह आवाज़ें धीमी हुईं, बोलियाँ
लगाने वाले चौकन्ने हुए, क़ीमतें घटीं
और सफ़र-साथी एहसानफ़रामोश हुए–
जैसे विश्वास था तुम्हें कि यह शब्दावली
यहाँ भी लागू होती है ।

तुम देखो साम्राज्यों का पतन और
सभ्यताओं में रोगों का जनमना, बढ़ना,
अब तुम जानते हो बरा नहीं पाओगे
किसी भी सामूहिक सामर्थ्य से
सारे घुन, तुम्हें मालूम है सँकट
इतना सरल नहीं जितना शब्दों से
लगता है, तुमने शब्दों की सरलता
वरण की है, पर संसार कहीं कोसों दूर
जटिल विकलता है ।

क्रान्ति की प्रतीक्षा-6

मैं बैठ कर देखता नहीं रह सकता जब आग
धधकती बढ़ रही है हवा के साथ,
धरती फटती जा रही है और सहस्रों टन गैसोलीन
इस आग में पड़ता जा रहा है, मुझ जैसे
सर्वज्ञानियों से कुछ भी छिपा नहीं है, केवल
दैनिक पत्रों के स्तम्भ-लेखकों द्वारा प्रचारित किए जाने पर भी
समाजशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली ख़ुफ़िया पुलिस
समझ नहीं पाती है, उदाहरण के लिए

मुझे मालूम है कि यह इसी समय सम्भव था
कि सरकार नागिरक अधिकारों पर हमला करती, साबुन का
दाम बढ़ाती और गेहूँ अमरीका से ज़्यादा या
कम आयात करती और क्यों फिर इसी समय
जगह-जगह हड़तालें हुईं, बसें जलीं, गोलियाँ चलीं
पुलिस की, और तसवीर गिरी प्रधानमन्त्री की,
मैं बैठा नहीं रह सकता जब मुझे अपना वक़्त
धरती पर उतार लाना है, मुझे ख़ुशी है
समय इस कोलाहल में धीरे-धीरे
पक्षधर होता जा रहा है ।

क्रान्ति की प्रतीक्षा-7

समय दिन-पर-दिन बदतर होता जा रहा है, सभी
कहते हैं सिवाय अख़बारों के जिनके लिए
लोकतन्त्र की स्थिरता विश्वास ही नहीं, अर्जन
का भी साधन है, अगला क़दम किस ओर रखें
यह किसी के लिए भी साफ़ नहीं सिवाय ठेकेदारों के
जिन्हें टेण्डर भरते जाना है, और साहूकारों के
जिनके निवेश की लगातार बढ़त ‘शेयर बाज़ार’ में निश्चित है ।

इनके अलावा भी करोड़ों हैं जिन्हें हम
अज्ञानी समझते हैं क्योंकि वे कहानियाँ लिखकर
प्रतिष्ठाएँ भुनाते हैं, अख़बारों के दफ़्तर में क़लम चलाकर
पैसा कमाते हैं या केवल काँग्रेस को वोट देते हैं या
जनसंघ को और अपने परिवार के लिए
रोटी-कपड़ा जोड़ लेते हैं ।
हमारा-तुम्हारा वक़्त कोई दूसरा वक़्त
नहीं होगा और मैं अकर्मण्य हूँ कि
हमारा वक़्त कोई दूसरा वक़्त क्यों नहीं, और इस तरह

एक दूसरा वक़्त जीतने के लिए मैं लड़ाई का
सरंजाम करता हूँ, सेनापतियों को
खोजता हूँ, उनके झण्डे देखता हूँ, सही रंग की पताका के
पीछे लगी पंक्ति में कहीं अन्त में
खड़ा हो जाता हूँ ।

क्रान्ति की प्रतीक्षा-8 

मेरे बहुत दिन नहीं गुज़रे हैं केवल उतने ही जितने
किसी दूसरी राह पर चलना अलाभदायक
कर देते हैं, और मुझे पत्थरों, पहाड़ियों, झरनों से
प्यार है हालाँकि मेरे मन में केवल
खेत आते हैं, सूखे हुए तालाब और परती की
जली हुई दूब जहाँ गाँव में
मेरा बचपन बीता है वहाँ के झोपड़े हैं और
गलियाँ हैं और सारी गन्दगी, मल और मूत्र ।

लेकिन इतिहास कभी गाँवों का बाशिन्दा
नहीं रहा, क्रान्ति हमेशा शहरों से हो कर
गुज़रती रही, मैं कैसे
दूर रहता उस मार्ग से ।

मैं शहर में रहता हूँ, अपने बनाए कष्ट
झेलता हूँ, अगली लड़ाई के क़िस्से
सोचता हूँ, दाने चुगता हूँ गगनचुम्बी अट्टालिकाओं पर
चिड़ियों के छोड़े हुए, किताबें पढ़ता हूँ,
सभाओं में जाता हूँ, प्रदर्शन करता हूँ,
बिना सर फोड़े हुए पुलिस का
जेल चला जाता हूँ ।

क्रान्ति की प्रतीक्षा-10 

कभी-कभी वे सोचेंगे वृद्धावस्था में, सारी उमर बीती
अब छोटे-मोटे सुखों का लोभ भी कर लें, और यात्रा को
पड़ाव बना नख़लिस्तान बना लेंगे किसी झील पर,
समुद्री हवाएँ तुम्हें संकेत देंगी और तुम्हारा जीवन
उस द्वीप पर पहरेदारी करते बीत नहीं जाएगा,
तुम्हारा पौधा उस तेज़ गर्मी में कुम्हलाने नहीं पाएगा, तुम्हारे
हाथ छुएँगे और तुम्हारे स्पर्श से वह बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा
तुम्हारे बेटे होंगे, बेटियाँ होंगी और तुम वंशजों को
केवल वह पौधा सौंपोगे, कोई कामना नहीं
सुखी जीवन की, अपेक्षा केवल सींचने, स्पर्श देने की
हवाएँ हिल-मिल कर मित्र होंगी, तूफ़ानी रातें भी
अहानि गुज़र जाएँगी
सारी दुर्घटनाएँ सींचेगी, हरे-हरे पात लाएँगी
आने वाली पीढ़ियाँ सदा उर्वरा होंगी
भारत की–

वर्तमान की चापलूसी में तुम कभी भी अपने अतीत को
व्यर्थ नहीं समझोगे
तुम बसों में जाओगे, धक्के खाओगे, घिरते हुए
उनके फन्दे में कभी बहकोगे नहीं,
दिन में नींद आने पर भी तुम जाग लोगे, राजनीति की
रस्साकशी में
तुम्हारे एक कायर दिल है कभी-कभी आगे बढ़ लड़ने में
रस लेता हुआ,
जानते हो तुम कहाँ पाँव रख डाँवाडोल नहीं होगे,
इतिहास अपनी नियत राह पर चला तो मुझे विश्वास है कभी
शासनक्रम में एक सौ तीसवाँ या चालीसवाँ स्थान
तुम्हारा होगा।

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