Skip to content

Karan Singh Chauhan.JPG

बल्गारियन लोकगीत को सुनकर 

धरती के पाँच सौ वर्ष नीचे से
गर्म झरने-सी फूटकर
आ रही है यह आवाज़ ।
कुस्तेंदिल की प्रत्यंचा का तीर
बेध गया
स्तारा प्लानीना का सीना
आऽऽर-पाऽऽर ।

यह दुनाव के तट पर
अंधेरे में बोतेव
पीठ में लगे घाव की
गद्दारी पर झुंझला रहा है।

यह
सोफ़िया की सड़कों पर
घिसटता वाजोव
लहूलुहान देह को
सहला रहा है।

इस अंतरे में
गुलाब के खेतों से
उठाई लड़की की कथा है
इस अवसान में
स्वास्तिक का झंड़ा उठाए
लोगों की व्यथा है।

सुनोऽऽऽ
यह उफनता सागर
कुछ थिर हो रहा है
सम पे आ गया स्वर
महीनों बाद
बर्फ पिघली
और नरम धूप निकली है।

लाल सौरभ से
रंग गई धरा
आसमान पे लहराई
पताकाएँ
झम-झमाझम की झंकार
वादियों में गूँज गई ।

शांति के श्वेत राग में
सजी यह दुलहिन
यह आरती का मंगलवार
तरंगों में लहरा।

कुस्तेंदिल : पश्चिमी सीमा से लगा बल्गारियन शहर
स्तारा प्लानीना(पुराना पहाड़) : बल्गारिया के बीचों-बीच मनोरम पुराना पहाड़
ह्रस्ती बोतेव : 19वीं शताब्दी के अंत में उपनिवेश विरोधी महान बल्गारियन कवि
इवान बाजोव : प्रमुख बल्गारियन क्रांतिकारी लेखक जिसे आटोमन शासकों ने फांसी दी

विजय रथ

घरघराता
भूतल को थर्राता
घोर मेघ गर्जन
तूफ़ानी अंधड़ से
जंगल कँपाता
इधर ही बढ़ा आ रहा वेगवान रथ ।

अश्वमेध के उन्मद घोड़ों की टापों से
ऊभ-चूभ हो रहा सागर
शब्दबेधी बाणों की बौछार
छा गया अंधकार
ढह रहे
सभ्यता के दुर्ग
डोल रही अट्टालिकाएँ ।

कौन रोकेगा इसे !
यह दलदल में धँसी सेना
बिल्कुल बेकार
प्रलयंकर बाढ़ से डर
डाल रही हथियार
यह मलबा कोई मोर्चा नहीं है ।

शहीद हो रहे ये सैनिक
केवल नमक का मूल्य चुका रहे हैं
योद्धा नहीं हैं ये ।
बोतेव की वीर भूमि में
कोई भी नहीं बचा
जो दे ललकार
करे सधा वार
आग से धधकता यह जंगल
राख का ढेर है
यह रथ बढ़ा आ रहा है ।

कहाँ गए हिटलर से
लोहा लेने वाले
वे छापामार दस्ते,
कहाँ गए पहाड़ों को
गुँजाने वाले
वे जननायक
कहाँ गए
स्पार्टकस के वंशज
क्रांति के हुँकार के कवि
कोई भी नहीं यहाँ ।

यहाँ तो
सज़दे में झुके है लोग
बदहवास भागते
सूरमा हैं
आलीशान दफ़्तर में
सभा करते
बूढ़े महारथी
महीने की रोटियाँ
बटोरता लश्कर है
पागल धुनों पर
थिरकते युवजन
इस घमंडी घोड़े को लगाम कौन दे !

कामरेड 

ये आलीशान
पाँच सितारा पार्टी दफ़्तर
ये बिना अंक पट्टों की
लंबी लंबी कारें
ये पॉश बस्तियों के
विशालकाय बंगले
ये जननायकों के बुर्ज
पहाड़ों पर
आराम के लिए सुरक्षित
सैरग़ाही भवन
समुद्र किनारे
प्रवेश निषेध की तख़्ती लगे
पी०बी०, सी० सी० के
समुद्र तट
ये ख़ास विदेशी मालों की दुकानें
यह क्या कर रहे हो कामरेड ?

ये रणभूमियाँ अभी
रक्त से लाल हैं
जहाँ कल तुम लड़े थे
रोम के विरुद्ध,
वे जंगल अभी
धधक रहे हैं
जहाँ तुमने ओटोमन साम्राज्य को
दी थी चुनौती,
ह्रस्तो बोतेव के गीत
यहाँ अभी भी गूँज रहे हैं
गूँज रही हैं
लोकगीतों की धुनें
अमानवीय कथाएँ कहती हुई ।

वाजोब की फाँसी का फंदा
वहीं झूल रहा है ।
फासिस्ट विरोध का
जननायक दिमित्रोव
सोफ़िया के चौक में
जीवित पड़ा है।

कौन नहीं जानता
तुम्हीं ने बनाए हैं ये
विराट नगर
अट्टालिकाएँ
ये सुन्दर गाँव
चौड़े राजपथ
सब तुम्हीं ने बसाए हैं।

कौन नहीं जानता
पुण्यगर्भा जननी पर
स्वाहा कर सब कुछ
जीवन और भौतिक सुख
तुम्हीं ने सजाया है
यह चमन ।

कौन नहीं जानता
तुम्हारी वह प्रतिज्ञा
त्याग और बलिदान
सन्यासी जीवन।

किस प्रेत बाधा से ग्रस्त हो
ध्वस्त कर रहे
सदियों का पुण्य
यह क्या कर रहे कामरेड?

स्विटजरलैण्ड : लौटे यात्री का भावचित्र 

जीवन के मंगल रागों को
मानव में ढलते देखा है।
स्वप्नों को साकार धरा पर
रंगों में चलते देखा है ।

ऊषा के संग
उठकर सड़कें
स्नान कर रहीं
केश संवारे
हरित वनश्री
प्राणों में नव
गंध भर रही
अलस्सवेरे
सूरज की मद्धिम किरणों में
बिछी बर्फ़ के चंदन तन की
नदियों में गलते देखा है ।
जीवन के मंगल रागों की
मानव में ढलते देखा है ।
लहक उठा यह
नीला सरवर
नभ दर्पण में
उचक-उचक कर
धज निहारता
क्रिसमस तरवर
अंबर के आलिंगन की इस
सराबोर जकड़न से छूटकर
मुक्त हुई मदहोश तरुणी को
अंग-अंग के पोर-पोर की
पीड़ा में हँसते देखा है ।
स्वप्नों को साकार धरा पर
रंगों में चलते देखा है ।
जाग उठा
अनुशासित यौवन
जाग उठा है
इंद्रलोक का सारा जीवन
खलिहानों की मांग पूरना
भवनों को महकाता
हाथों-पैरों की हरकत से
हँसी-हँसी और प्रेमभाव से
जनकोषों का
व्यास बढ़ाता
सड़कें गूँजी
आँगन गूँजे
घड़ियों के
कलखाने गूँजे
कनक भरे स्विस बैंकों के
तहखाने गूँजे
राग-द्वेष मारा-मारी के
बिना
देश के वैभव को
पलते देखा है ।
जीवन के मंगल रागों को
मानव में ढलते देखा है ।
युंग फ्राड ने
आसमान में
किया उजाला
चौराहों पर
आन गाँव से
रंग-बिरंगे
वस्त्रों, वाद्यों में सजधज कर
गायक आए
सतरंगी प्रकाश के प्रांगण
भरी भीड़ के
आगोशों में
थिरकी पैरों की
रागिनियाँ
हर संध्या उत्सव बसंत का
हर शहरी उल्लसित ओज में
गाता मदमाता
अपने सुख के
निस्सीम समय में
धरती का अहसास मिटाता
रजनी के सुन्दर नयनों में
जगती की अभिलाषा के
निष्फल सपनों को
भूतल पर फलते देखा है ।
जीवन के मंगल रागों को
मानव में ढलते देखा है
स्वप्नों को साकार धरा पर
रंगों में चलते देखा है ।

युंग फ्राड(यंग फ्रा) : यानी युवती। स्विअजर्लैंड के दक्षिण में यात्रियों का आकर्षण केंन्द्र 11 हजार फीट ऊपर बना रेस्तरां

‌कालिख पुती लेनिन की प्रतिमा

राजमार्ग पर खड़ी
तुम्हारी भव्य प्रतिमा का उठा हाथ
सोफ़िया को सूरज का रास्ता दिखाता था ।

प्रवेश द्वार पर तुम्हारी उपस्थिति
एक यकीन था
यह शहर
इसमें आने वाला पथिक
राह नहीं भूलेगा ।

तुम्हारी आँखों की चमक
एक मशाल थी
अंधेरे में भी रास्ता सुझाती हुई ।

यहाँ इस परिधि में
खेलते थे बच्चे
एक-दूसरे में समाए
नौजवान जोड़े
उन्मुक्त यहाँ कितने ?

तुम्हारे पैरों पर पड़े फूलों का
ढेर सारा प्यार
तुम कितने ख़ुश थे लेनिन !
तुमने जो खींच दिया था नक्शा
उसमें लोगों ने
कितने सुन्दर रंग भरे
तुम्हारी घनी मूँछों में छिपी स्मिति
जन-जन के मन में
प्यार बन उमड़ी
तुम्हारी छाया में पला
अम्न और सुख का यह राज
शोषण नहीं
ग़ुलामी नहौं
हिंसा नहीं
बेईमानी नहीं
मनुष्यता की आन और शान में
रचा गया साज
यह कितना खूबसूरत था लेनिन !

यह क्या हुआ
कोलतार पुते तुम्हारे चेहरे पर
कुछ नहीं बचा पहचाना
न दर्प
न हँसी
वो चमक
दिशा में उठा तुम्हारा हाथ
पोंछ रहा अपनी ही कीच
अपने ही बोझ से काँप रही धरती
धसक रहा शहर ।

हिमालय नहीं है वितोशा (कविता)

हिमालय नहीं है वितोशा
कि देश का मुकुट बने
बस
सोफिया का सिरहाना है
नगर के आराम के लिए ।

भोर में
सबसे पहले जगता
दिन भर
शहर को झलता है पंखा
करता झाडू-बुहार
जलाता रसोई
सड़कों पर देता है पहरा
सप्ताह भर
लोग भूले रहते
कनखियों से निहारते
कभी-कभार ।

फिर अचानक
दौड़ते हैं मिलने
हवा खाने सेहत बनाने
तपस्थली नहीं है वितोशा
कि चिंतन का वाहक बने
बस
सोफ़िया की सैरग़ाह है
नगर के उपभोग के लिए ।

रखता है जेब में
छोटी सी डायरी
लखता है प्रदूषण के आंकड़े
दिलाता है प्रकृति की याद
बच्चों को गोद में खिलाता है
लोगों को लोगों से मिलाता है
चिमनियों से धुंधुआता नगर
अफ़सोस में भर
करता याद
कभी कभार ।

मौसम की पहली बर्फ़ देखने
नंगे पाँव
दौड़ते हैं लोग
आत्मा गरमाने
आल्प्स नहीं है वितोशा
कि सौन्दर्य का प्रतिमान बने
बस
सोफ़िया की क़ब्रगाह है
पाप दफ़नाने के लिए ।

हिमालय नहीं है वितोशा ।

वितोशा : बल्गारिया की राजधानी सोफिया की बगल में छ: हजार फीट ऊँची बर्फ़ ढँकी पहाड़ी

गरीबी की सीमारेखा के पार 

कितना ख़ूबसूरत है
ग़रीबी की सीमारेखा के पार
यह संसार ।

पेट की ज्वाला
नहीं भगा रही इन पैरों को
यह तो सड़कों की किस्मत है
स्वागत में बिछी हुई
सूरज की किरणों में
लाल रेखा-सी खिंची हुई,
पदाघात में खिलती आम्रमंजरी
स्वर और ताल की झंकार
यह संसार ।

कहीं ललक नहीं
इन विस्फारित आँखों में
न आतुरता
बस
एक मनमोहक चुनाव की
चुहुल है
धन्य हो रहीं
नवमल्लिका की छुवन में
वस्तुएँ
समर्पण ही जिनका सार
यह संसार ।

किसी दैवी-प्रकोप के शाप से
नहीं उधड़ा है यह तन
यह तो बेल की शाखा है
पत्तों के बाहर
फूल बन खिली हुई ।
किसी शिकार की तलाश में
नहीं लपकी
हिंस्र पशु की नज़र
एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल को
सराहने
उठा है हाथ
निष्कंप, निर्विकार
यह संसार ।

बहुत रोज़ देखा
सोने की चिड़िया में
दलिद्दर बीच
वैभव अपार
घिनौनी अश्लीलता
लाशों पर गिद्धों के
जश्न के दृश्य
पहली बार दिखी
सब ओर छिटकी
बर्फ़ की यह पावनता
गदराये बगीचे में
सौन्दर्य खिलाते
ये झरने
पेड़, फूल, पहाड़ और घास
जीवन
मोतियों से भरा पारावार
यह संसार ।

आशंका 

लौट रहा था जब मैं
आधी रात
शूमेन की वाइन में सराबोर
ओठों पर कैवियर का स्वाद लिए
पैरों में जारी थी नृत्य की भंगिमा
बगल में हँसी ।

तभी वे दिखे
कतार में
गिरजे की ओर जाते
चेहरे पर निश्चय
ख़तरनाक इरादे
कई मेरे परिचित कवि
प्रिय छात्र
भक्तिन मीरा
और बूढ़ा प्रोफेसर ।

देखकर भी नहीं देखा
सधे क़दम गली में मुड़ गए।

उस दिन के बाद हवा हो गई नींद
मस्ती
रात भर सड़कों पर भागता
दोस्तों के दरवाज़े खटखटाता
सब ग़ायब ।

षड़यंत्र चल रहा यहाँ भारी ।
दिन में देखता हूँ उन्हें
करते इशारे
हर रात होती है कोई वारदात
भागती पुलिस
दौड़ते दमकल

टी०वी० की ख़बरों में
अचानक धमाके
अख़बार में छप जाती
असंभव कविता ।
बंद है संवाद के
तमाम दरवाज़े ।
सड़कों पर हर कहीं
मोर्चे खुदे हैं ।
शूमेन : सफेद वाईन के लिए मशहूर बल्गारिया का पूर्वी शहर

यह इस मौसम की आख़िरी धूप है

यह इस मौसम की आख़िरी धूप है
आओ
इसके स्वागत में आरती उतारें
सूरज से आँखें मिलाएँ
दबी घास सा यह तन
पीला हो गया है ।

लबादों में ढके-ढके
मुरझा गया शरीर
लटक गया मन
उमंग उल्लास जीवन
उतारो इन्हें
पोर-पोर रोशनी में धुल जाए
कल्पना आकाश में घुल जाए
फूटें नई कोंपल
हो सिहरन हलचल
यह दिन है सूर्य स्नान करें।

पूरब जो लाली का धाम है
वहीं है सागर
स्वर्णिम रेत का अनंत विस्तार
चलो चलें
इस आभा में गलें
ऊर्जस्वित हो अंतर
नीलिमा उतरे आंखों में
पावनता भर जाए साँसों में ।

तरंगों के पार वहीं कहीं है जार्जिया
अपने से जूझता
सोवियत देश
कुछ मांगो इस सागर से
अच्छा और सुन्दर ।

वक़्त बहुत कम है
खिल सके तो खिले गुलाब
वह अनार
और काली झरबेरी
अंगड़ाई ले सके तो ले पहाड़
देखो यह घाटी कबकी प्यासी है ।

वक़्त बहुत कम है
सात दिन का सूरज
परियों के देश जा रमेगा
फिर अंधेरी होंगी रात
उदास होंगे दिन
बर्फ़ के ढूहों में दबे
कितने अकेले होगें हम ।

जो भी करना है जल्दी करो
जितना भरना है जल्दी भरो
यह इस मौसम की आख़िरी धूप है ।

बुदापेस्त के पुल

दुनाव पर बने पुल
कितने नए
कितने पुराने
बुदा और पेस्त को मिलाते हैं
पुराने नए के बीच
मेल कराते है।

इस पार तने
ये प्राचीन राजमहल
किले की दीवार
तंत्र
उस पार खड़े नए भवन
घने जंगल
परस्पर घूरते
बिसूरते
तुम्हारी बात मान जाते हैं ।

यूरोप के सांस्कृतिक वैभव की रानी
विएना से बहकर आती नदी
सदियों का अनुभव संजोए
सब जानती है ।

मकानों को महलों से अलगाती है
किलों को परसती हुई भी
राज की बातें
पेस्त को बताती है ।

बहुत सयानी है नदी
बुदा से सटकर बहती
प्यार जताती
गर्जना से बर्जती

पेस्त के चौड़े पाटों में
बच्चों को खिलाती
जंगल-बगीचों में
सुस्ताती
बुदा को भुलाती ।
ये पुल भी बड़े शातिर हैं
करते नदी की हर चाल नाकाम
कराते दो छोरों का मेल
दिलाते विएना की याद
दिखाते नदी का उद्ग्म
मन में रचते भ्रमजाल ।

यहाँ से
कुछ भी नहीं दीखती बहाव की दिशा
बेलग्राद, बुख़ारेस्त, सोफ़िया
सुनहरी रेत का काला सागर
रूस
बस दीखता है चमकीला पहाड़
इतिहास का सुंदर छोर
पश्चिम में होती हुई भोर

वसंत की आस-1

जब युद्ध के बीचो-बीच
कट गए सारे अस्त्र-शस्त्र
उखड़ गए सेना के पैर
बर्फ़ीली हवा के बाणों की बौछार
डाल दिए कद्दावर पेड़ों ने भी हथियार
निष्कवच खड़े थे तब
पराजित ठूँठ ।

तभी बर्फ़ ने अंक में भर
समो लिया
वहाँ सुरक्षा में पनपता
भरा-पूरा संसार
सतत संपर्क का
क्तिया-व्यापार ।

पास ही फैली थी हरी दूब
बाहर की गतिविधियाँ का
ब्यौरा देती जड़े
बगल में सहमी लेटी थीं नदियाँ
तालाब की मछलियाँ
अनंत शिशुओं को कोख में छिपाए
अनगिनत बीज
माँ की गोदी में उछलते-मचलते
धरती के आँगन में गुपचुप
ख़ुशियों का मेला ।

अंतस से बेख़बर
सतह को रौंद रहीं
शत्रु सेनाएँ
फहरा रही
पताकाएँ
बज रहे बिगुल ।

अंदर सभाओं में
जन्मते वसंत के सपने ।

धरा पर फैल गई सूरज की किरणें
पेड़ों की कोंपल
ट्यूलिप से भरा बगीचा
नाच उठी नदियाँ
बच्चों की अलमस्त टोलियाँ
शत्रु के ठीक नीचे
वसंत का रंग बिखरा था ।

वसंत की आस-2 

दबी साँसों की भाप से पिघलने लगी है बर्फ़
लगे है ज़िंदगी की धड़कन अभी रुकी नहीं ।
यूँ तो कब के उतर चुके इस शहर से झंड़े
ये ऊँची इमारतें पूरी झुकी नहीं ।

ध्वस्त परकोटे, सींखचे, दीवार, ज़ंजीरें
लोगों को घूरती निगाह पर हटी नहीं ।
नया जोश, नया राज, नया सूरज औ’ चाँद हैं
गर्दिश की घटाएँ फिर भी छटी नहीं ।

बड़े फरेबी औ’ खुद्दार हैं ये ठूँठ बने पेड़
वसंत देखने की चाह अब भी मिटी नहीं ।

नई हवा 

बहुत हो चुकी बातें नई हवाओं की
आओ चुपचाप इस नदी की धुन सुनें ।

बहुत शोर है, हंगामों से भर गया शहर
चलो यहाँ से किसी जंगल की राह लें ।

बहुत गर्म है काले सागर के पार की रेत
यहाँ बैठकर उसके लिए दुआ करें ।

कटने लगे है शीश यहाँ रहनुमाओं के
इस सभ्यता के शौक में कुछ और ख़ून दें ।

नुचे पंखों के सपनों से पट गई है यह सड़क
दम तोड़ती धुकधुकी की आवाज़ तो सुनें ।

यहाँ तो चोलियों के दाम बिक रही है रुह
हम भी इस बाज़ार में कुछ स्वप्न बेच लें ।

बर्फ़ीली हवाओं में कहीं दब गई जो आग
वहीं कहीं उसकी बग़ल में बसर करें ।

यारों ने दखल कर लिया यह स्वर्ग का कोना
इस नरक की आग से फौलाद बन निकलें ।

कितनी ख़ुश है ये भीड़ जला होली मार्क्स की
आओ प्रह्लाद के दर्शन वहाँ करें ।

सहमा है जंगल, पहाड़, औ’ काला सागर
स्पार्टा के गाँव से ही कोई मंत्र लें ।

स्पार्टकस : कहते हैं आदिविद्रोही दस स्पार्ट्कस का जन्म बल्गारिया के दक्षिणी नगर संदान्स्की के पास हुआ था।

चासेस्कू के कत्ल की रात

धरती के इस उजले हिस्से में
नए साल की पूर्व संध्याएँ
मनुष्य के हित-साधन
सलीब ढोते ईसा के
सूली पर चढ़ने का उत्सव है ।

गिरजे की मधुर घंटियों के बावजूद
बहुत भयानक यह कांड
दहशत भरा दृश्य
कील छिदी हथेलियों और पंजों से
टपकते ख़ून की धार
बारिश के पनालों में वह निकली है
लोग देखते
खामोश, निर्निमेष
यह दुख की नहीं
बर्फ़ के सुकून में रंगा
ख़ुशी का उत्सव है ।

लाल मदिरा के खनकते ग्लासों में
संजय द्ष्टि से
दिखा रहा लगातार दूरदर्शन
बख़ारेस्त के पुराने भवन का दृश्य
अस्थाई अदालत
सात कुर्सियों पर सात लोग
सामने पुरानी बैंच पर
उकडू बैठे चासेस्कू दंपति
ईसा की बलि में
देख रहा यूरोप
यह शोक का नहीं
आनंद का उत्सव है ।

बाहर पटाखों में मगन बच्चे
अंधेरे आसमान में आतिशवाजी की छटा
खंडहरनुमा कमरे में
येरुशलम का नज़्ज़ारा
अभी कुछ दशक पहले
बड़े भाई से रुठा था चासेस्कू
मचल कर बनाया
न्यारा घरोंदा

अभी कुछ बरस पहले
पूँजी की आवत से
जूझा था चासेस्कू
झोंक में दिलाई कसम
कम खाने, ग़म खाने की

अभी कुछ दिन पहले
विशाल भब्य सभागार की
सभा में
गरजा था चासेस्कु
दि ललकार
प्रेस्त्रोइका के भूत को भगाने की

खेमों की तरह लड़ा था चासेस्कु
अपने-परायों की सेना में घिरा था चासेस्कु
तफ़ानी हवाओं के सामने अड़ा था चासेस्कु
और आज इस अदालत में खड़ा था चासेस्कु

हो रही थी प्रश्नों की बौछार
बछीं और तीरों की मार
व्यंग्य, विद्रूप, हुंकार
अपने दर्प में सबसे बड़ा था चासेस्कु ।

जब उसे पकड़ा
रहा बिल्कुल अकेला
निहत्था
लोग ही लोग थे चारों और
पहचाने, अनजाने
जड़ प्रतिमाओं की अभेद्य दीवार
तमाम झंड़े शोक में झुके थे
सैनिकों के चेहरों पर बेरहम सख्ती
समझ गया चासेस्कु
यह कत्ल की रात है ।

सैनिक पोशाक पहन
बेगम को जगाया
चुपचाप तोपबग्घी में आ बैठा
यह भी तो होना है
सबको एक दिन सलीब ढोना है ।

रात भर जगती रही अदालत
पढ़े जाते रहे आरोप
मौन में तना चासेस्कु
करता रहा बार-बार वार ।

ख़त्म हुआ तमाशा
चमड़ी गंडासों की धार
घना हो आया सन्नाटा
बाहर बर्फ की सफ़ेदी पर
फैल गई गर्म ख़ून की धार
खिल उठे हज़ारों गुलाब

लौट आए घरों को
भारी पग लोग
ईसा के उत्सव में चुपचाप सो जाओ
यह चासेस्कु के कत्ल की रात है।

यह आख़िरी रात है

दख़ल हो चुका है शहर
कालीन पर फैले शब्दों को समेटो
किले और कविता के मेल की
यह आख़िरी रात है ।

रह गए की माया छोड़
फिलहाल इस जंगल में छुप जाओ
यहाँ बुझी आदिम राख में
अभी पहले गीत की महक है
जंग लगे शब्दों को
खुली हवा में सुखाओ

कवच और तमगे हटा
निर्वसन पड़े रहने दो
उनमें कुख हरापन भर जाए
जंगल का राग
थोड़ी आग
सरसराहट, साँय-साँय
हलचल से भाग
कविता में जीवन बचाने की
यह आख़िरी रात है ।

अंधेरे का रोना छोड़
फिलहाल पकड़ी नदी का यह पाट
शब्दों को उसकी धार में
बिखेर दो
घुल जाए कालिख
छुटे मैल
भर जाए कलकल
तरंग
प्रवाह
इस पत्थर की सान पर घिस
तैयार करो
दफ़्तर के सींखचों से बाहर
कविता को लाने की
यह आख़िरी रात है ।

कितना कहा सभी ने
दरबार नहीं है कविता का घर
कुर्सी नहीं है कवि का आसन
बाज़ार की भीड़ में
गश्त लगाती है वह
ज़रुरी हो तो
जंगल का पेड़
पहाड़ का पत्थर
नदी का प्रवाह
बादल का पंख
बर्फ़ का फ़ाहा बन
शहर में आती है वह
कबूतर के उजले पर हैं ये शब्द
उजास और पावन
बोझ नहीं सहते
बंधक नहीं रहते
घोंसला जल गया तो
आकाश में उड़ो

भर जाए नीलिमा
बहती बयार
विस्तार
वहीं बादलों के ऊपर
इंतज़ार करो
नगर पर निशाना साधने की
यह आख़िरी रात है ।

‌साथ-साथ 

य’ राग सम प’ आ गया है
बतियाते चलने लगे हैं क़दम
शहर में बिखर गई धूप
बादल तक गोरा रंग छा गया है ।

सड़क की सूनी गोद भरी
तार झनझनाए
यहाँ हवा में कहवा की महक है
मैं यू’ ही बैठा हूँ
तुम, लौट आओ ।

पगडंडी तकते गुज़र गई
कई शाम
तालाब कब से पुकार रहा है
यहाँ भी ठीक है
लेकिन वहीं चलो
यह महक कब से सूना है
इसे भरो ।

यह चाँदनी में घुल गया
हर रंग
ये फूल उन्मुक्त खिल रहे हैं
इनकी पंखुडियों को भरे हैं
कोयल
ये सीपी धीरे से खूल रही हैं
चाँदनी में चमका मोती

और संगमरमर पर तराशे निशान
सुबह के सूरज की आभा में
रक्तिम हो उठे हैं
कितने सुख की नींद जागा हैं
कमलदल
कि उसी क्षण टपकी है
ओस की कनी
यह पूरी बरफ़ पिघल गई है।

चू गई सहमकर
बारिश की बूँद
सारी धरती शावकों के शोर से भर गई है

उठो
पूरा परिवेश बदल गया है
सारस का यह जोड़ा
पहाड़ के वक्ष पर आसीन

बिला गए हैं दिन-रात
देश-परदेश
रंग और राग
केवल मौन
और मौन में आग
सपाट हो गया शहर
स्मृति में भरा ऐंठा है ।

यह कहानी किस्सा बन गई है
यह पहाड़ी साक्षी
और बगीचा प्रमाण
उस जन्म में ये यहीं थे ऐसे ही
सिर झुकाए वह बग्गीवान
सच को भुला रहा है ।

अगवानी में घिर रहे हैं मेघ
बरस रहा पानी
मुझमें वैसे ही छिप जाओ
चीड़ का घेरा बस इतना है ।

अब निकलो यहाँ से
उस सुदूर झील की ओर
कथा के सब जासूस
वैसे ही चौकस हैं
इन्हें मत देखो
ये उस जन्म के परिचित है ।
यहीं मरे थे हम
बचा नही पनाह देने वाला वह बूढ़ा भी

और वह मोनास्तर
इसलिए जल्दी करो
भरो लंबी उसाँस
मानसरोवर झील तक
भले ही हादसे भरा हो उसका किनारा
वह
धरती आकाश तक फैला है
वहाँ कितना पावन है मन
चलो वहीं चलें ।

डविल्स थ्रोट
खेल रही है नदी
भंवरो में
चक्कर काट रही है नदी
खेल में दिपती
दो खंजन आँखें

भंवों के इशारे पर
खांडे की धार नापते पाँव
बुला रही है नदी ।
बाहर भीतर अनहद
घुप्प अंधेरे में
छू रही है नदी ।

जो भी यहाँ आया
डूबा
कभी मिला नहीं ।

ऊँचे पहाड़ के बंद उदर में
गरजती हो तुम
गर्जते हैं सौ पहाड़
ग्रीस का सीना सीमा पार
पत्थरों पर खुदे हैं
तुम्हारी बलि चढ़े नाम
पर्यटक आते हैं
पढ़ने, सुनने
तुम्हारे लेख
तुम्हारे स्वर
तुम्हीं में समाने ।

वे आते हैं
चहकते
खेलते
और डूबकर जाते हैं
अकेले
अस्तित्वहीन
फिर भी बार-बार आते हैं ।

डविल्स थ्राट

डविल्स थ्रोट[1]

खेल रही है नदी
भँवरो में
चक्कर काट रही है नदी

खेल में दिपती
दो खँजन आँखें
भवों के इशारे पर
खाँडे की धार नापते पाँव
बुला रही है नदी ।

बाहर भीतर अनहद
घुप्प अँधेरे में
छू रही है नदी ।

जो भी यहाँ आया
डूबा
कभी मिला नहीं ।

ऊँचे पहाड़ के बंद उदर में
गरजती हो तुम
गरजते हैं सौ पहाड़
ग्रीस का सीना सीमा पार
पत्थरों पर खुदे हैं
तुम्हारी बलि चढ़े नाम
पर्यटक आते हैं
पढ़ने, सुनने
तुम्हारे लेख
तुम्हारे स्वर
तुम्हीं में समाने ।

वे आते हैं
चहकते
खेलते
और डूबकर जाते हैं
अकेले
अस्तित्वहीन
फिर भी बार-बार आते हैं ।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें ग्रीक सीमा पर एक भयंकर गुफ़ा में उफनती नदी किंवदतियों भरी

गाबरोवो

एक दूसरे से ऊबे
अहमन्यता शराब के नशे में डूबे
लोगों को हँसाता है
गाब रोवो ।

हँसी की ख़ातिर
गावदू बन जाते हैं
यहाँ के लोग
अपनी मूर्खता के किस्से
ख़ुशी-ख़ुशी सबको
सुनाते हैं
यहाँ के लोग

हँसता है पूरा देश
हँसता है यूरोप
अपनी बेहूदगियों का
हर वर्ष
त्यौहार मनाता है
गाबरोवो ।

क्या सचमुच ऐसे हैं
इस नगर के वासी ?
ख़ूब बनाते
फैलाते
नए-नए किस्से
किताबें छपवाते हैं ।

उर्वर है कल्पना
शीत से ठिठुरी धरती पर
उजली हँसी का वसंत
खिलाता है
गाबरोवो ।

कितना बड़ा जिगरा
जुटते हैं उत्सव में
दुनिया के बेजोड़ हँसोड़
छोड़ते पैने तीर
ख़ुशी में मगन
सुनता पूरा शहर
संकीर्णता का सारा बोध
मिटाता है
गाबरोवो ।

गाबरोवो : बल्गारिया का मध्यवर्ती शहर जो स्वय पर हंसने के लिए प्रसिद्ध है

बर्फ़ 

अब किसी भी समय झरेगी बर्फ
उसी के रंग में रंग जाएगा
आसमान
और बीच का पूरा विस्तार
उसी में ढंक जाएगा
शहर
सड़के, इमारतें और पेड़

वह अब कभी भी गिरेगी
नज़र के सामने या नींद में।

अपने रुप सा खुला है उसका स्वभाव
चौड़े में चल रही है उसकी तैय्यारी
घिर रहे हैं पारदर्शी बादल
मौन साधे खड़े है पेड़
आह्लाद में आस लगाए नगर
वह गिरेगी
निरंतर
तमाम असमानताओं, दाग-धब्बों को
ढकती हुई
बदल जाएगा पूरा परिदृश्य
कोई नहीं होगा
न हलचल न हवा
बस उसका एकछ्त्र राज होगा
समरस ।

नगण्य हो जाएगा
जीवन का सब क्रिया-व्यापार
केवल प्रकृति की मनोहर क्रीड़ा होगी
उसके संग ठिठोली करते
बच्चे होंगे बस

इस संसार का सूनापन भरते ।

कितने विचित्र 

कितने विचित्र हैं हम
नहीं है हमारे धर्म में मूर्ति
फिर भी मूर्त के पार
कहां जा पाते है।

कितने विचित्र हो तुम
आत्मा को भी मूर्ति का
आकार पहनाते हो
फिर इसे मंदिर में बिठाते हो
बताओ यह गोचर शरीर
मंदिर है या मूर्ति ?

जो भी सही
व्यक्त में अव्यक्त को पा जाते हो ।

यूरोप से बेहतर कौन जानता है

यूरोप से बेहतर कौन जानता है ?
सूरज देवता है
उसकी अनगिनत बाहें
धरती और शरीर को कहां-कहां
परसती जगाती हैं ।

निष्प्राण अंकुर
आँख मिलते ही
जीवित हो जाते हैं
पीलिया मारे शरीर
हो जाते रक्तवर्ण
लहलहा उठता जीवन
सारा वन
यूरोप से बेहतर कौन जानता है ?

कितने खुशनसीब हैं
पूरब के देश
जहाँ खुली खिली है धूप
बिन पीड़ा फली हैं
तमाम अभिलाषाएं
करारी रोटी सी सिकी
ताम्रवर्णी देह

केवल एक छोटी सी ॠतु है
वसंत
उत्सव और हंसी की
उसी से जुड़ा है जीवन
साहित्य और दर्शन
कैसे जाने बारहमासे की
धड़कन
रुठे देवता के कोप की मार
सहते जन-जन
यूरोप से बेहतर कौन पहचानता है ?

यह रचना 

अब तुम ही कुछ करो
तुम्हारा भरोसा है ।

सूरज के पास गया
फिर चंदा के
तारों की पंचायत में फरियाद सुनाई
रास्ते में चांदनी से की सिफारिश
जंगल
पहाड़
वादियां
ताल, नद, समुद्र
कहां-कहां नहीं गया
बात कुछ बनी नहीं ।

सभी तलाश में थे
कविता नहीं
पंक्ति, प्रतीक या बिंब
बन जाने की अभिलाषा में थे ।

इसलिए अब आया हूं तुम्हारे पास
तुम्हारा भरोसा है।

कैसा हो
इस चराचर में फैल जाओ
फिर बताओ
कौन कहाँ है ?

कहते हो तो यही सही
सरगम में ‘स’ से शुरु कर
‘न’ पर आ जाऊँ ।

इतनी भी क्या जल्दी है
देखो न छूट गया
यह पूरा आकाश
ये घुमड़ते बादल
और मेखला पर्वत की
नदी किनारे के शैवाल
खिली धूप
कितना कुछ छूट रहा ।

छूट रहीं अनगिन पांतें
उपमाएं
और लहराती लय
आखिर जाना कहाँ है
राग जब छिड़ ही गया
उसे क्षितिज तक जाने दो
अनंत है गोचर
अनंत है जीवन
दिन, बरस, युगांतर
अतृप्त रह जाए
कोई गम नहीं
इस क्षण में जीने दो ।

घिर रही है काली
घनघोर घटाएं
फैल रही फूलों के देश की
महकती हवा
आर-पार
यह आकाश छूता सधा पहाड़
वादियों की छाया
निर्लिप्त नींद में सोयी
दिशाएं
बांक में खिंचे इंद्रधनु
यह नुकीली पहाड़ी
मैदान में उतर खो गई है ।
उर्बर घाटी में
रक्ताभ लाल गुलाब खिले
स्पर्श कोमल पंखुड़ियां
कब से प्यासी हैं
इन्हें कुछ खिलने दो ।

यहीं हैं
स्तारा प्लानीना की सुंदर श्रंखलाएं
चेरी के वृक्ष
रस के भार से झुके हुए
यह पतली रोसित्सा नदी की धार
वारना की सुनहरी रेत में
बिला रही है
फैले किनारों में सिमटा
रहस्य भरा सागर
इस तक जाने दो ।

इसके अक्षय भंडार से
सजेगी रह रचना ।

सुनहरी रेत पर शाम

दिन भर रश्मियों के ताप से
गुनगुनाई
काले सागर की सुनहरी रेत
शरीर को गुदगुदा रही है ।

बिछी स्वर्णिमा
गरजते सागर
और अनंत तक फैले आकाश के
तीन लोकों में
एक साथ उपस्थिति के बाद भी
अव्यक्त सत्ता के सतत बोध के सिवा
कुछ भी नहीं है यहाँ ।

घिरती शाम ने
लील लिए तमाम रुपाकार
खोलीं मन की आंखें
तुम्हें याद आई वह स्मृति
जब
सागर ऐसी ही संध्या में
देह धर
बाँह पकड़
वक्ष में भींचे
अपने भीतर उतार के द्वार
दिखाई
अमूल्य निधियां
अलौकिक लोक
फिर छोड़ गया किनारे ।

मैं जानता हूं
तुम पूरा समय
उसी की याद में खोई थीं
उसी अपरुप रुप में डूबी
अविस्मरणीय संयोग सुख में
सोयी थीं ।

अंधेरे में भी कौंध रही
उसी की खुमारी ।

मैं चीर डालूंगा काले सागर के वक्ष को
अजदहे सा फुंकार
लोगों को पीड़ा में भरमाता है
पास बुला
महारास रचाता है
ये स्वागत में फैली सुनहरी बाहें
यह आकाश का तंबू
बांसुरी की टेर
और चीत्कार
एक छ्ल है, जादू है
मनुष्य को मनुष्य से छीनने का ।

तुम जहन्नुम में जाओ
मैं अपनी दुनिया में लौट जाऊंगा
शराब में झूमते
नाचते ओ’ गाते
आबाद घरोंदों मेंc चला जाऊंगा
नहीं चलता यहां
सागर का जादू
उन्हीं का हो जाऊंगा ।

चांद तक फैल गई है
हंसी
सरसों के खेतों को जगा रही है
हंसी,
वैभव में क्षुद्रता का अहसास
करा रही है हंसी ।

असंभव है
सागर किनारे प्यार
अनुभव की विराटता में तान
छूंछा लौटाता है
आओ विदा लें
इस फरेबी से ।

शिशु मन

पर्त-दर-पर्त
पहाड़ों की
इस सूनी
अंधियारी घाटी में
खेल रहे दो शिशु मन
सब कुछ से बेखबर ।

दिशाओं में फैली
यह खुशबू
बता रही है
पहाड़ी पर चीड़ों के जंगल है
पास ही कहीं
छोटी सी नदी
किसी गुफा से निकल
उसी में समा रही है ।

उसी में समा रही है
यह सड़क ।
इस बियाबान में
दूर तक फैल गया है
मीरा के गीत का दर्द ।

देखो न
सीने की धड़कन रुक गई है
थम गई नदी
वह बयार
इसे मत गाओ
आसमान से उतरकर
यहां आओ
जोगन
इस पोशाक के बारे में
कुछ बताओ
इसमें छुप गए हैं
तमाम तारे
केवल झांक रहा पूरा चाँद ।
बहुत तेज है रोशनी
चेहरे पर
आ जाता है
भीतर का रहस्य
इसे भी ढक दो ।

आओ
हम यह सागर पार कर
यमुना के तट पर चलें
चुपचाप सुनें
बांसुरी की धुन
देखें महारास ।

तेज भागती यह कार
अनंत की ओर जा रही
अंधेरे को चीरती
पीछे छूट रहे
नगर और गाँव
इस आकाश गंगा
के नीचे
कहीं धरती होगी
इस अंधेरे
के पार
कहीं सूरज उगेगा
इन उदास किस्सों के
अंत में
हंसी होगी
शरीरों के पास होगा
निराकार
साझा ईश्वर ।

उदास मत होवो
इतना अकेला नही है
यह शून्य

यहां लीला का पूरा संसार है ।

मां की याद

सब कुछ है यहां
स्वजन, परिजन
यार-दोस्त
अच्छे-बुरे
तमाम रिश्ते-नाते
बस तुम नहीं हो ।

चलती बेला जो बताया
नियमित खान-पान
सेहत का ख्याल
सबसे हेल-मेल
मीठी बोली-बानी
बस इन्हीं में
तुम कहीं हो ।

हर पकी उम्र
झुर्रीदार चेहरे
शिथिल चाल में
तलाशता हूं तुम्हें
कि
सुनूं आशीष
मंगल का घेरा
माथे को सहलाता हाथ ।

कुहासे में छिप जाने तक
पीछा करती है नजर
कहीं नहीं यहां
रोटी में मिठास भरते
खुरदरे हाथ
दूर तक सुरक्षा में फैली
लड़खड़ाती रोशनी
ठंडे पकवान पर प्रतीक्षा करता
कातर मन
सिरिस की सुखदायी छांव
कहां यहां ?

क्रिसमस के पेड़

बर्फ ने हमला किया
नेजों से, तलवारों से
निहत्थे थे पर
भागे नहीं क्रिसमस के पेड़ ।

जमकर लड़े
घायल
लहूलुहान
छोड़ गई साथ सब सेनाएं
शावक
शरणार्थी
टूट गिरी शाखाएं
बन गए ठूंठ
सौरभहीन, श्रीहीन पर
डटे रहे क्रिसमस के पेड़ ।

बेरहम शत्रु ने
किए वार-पर-वार
महीनों तक डाला घेरा
लूटे घर
मिटाई पहचान पर
हारे नहीं क्रिसमस के पेड़ ।
जड़ों पर रहा विश्वास
जीवन की आस ।

सुन पुकार
सात समुद्र पार कर
भागा आया सूरज
किरणों के रथ पर चढ़
बजे शंख
आया वसंत
भाग चली बर्फ
पेड़ों ने ली अंगड़ाई
फूटी कोंपल
लौट आई वनश्री
आह्लाद में
नाचा सारा जंगल ।

शब्दों की सुरक्षा

घुप्प अंधेरे में
सड़कों पर छिड़ा हो युद्ध
घमासान ।

दहक रहे हों
गली-मुहल्ले ।

दूर पहाड़ की घाटी में
तीर छिदे शिशु की पीड़ा में मिली
मां के रुदन की आवाज
शहर कंपा रही हो ।

कितना सुकून देता है
सही शब्द का चुनाव ।

ये नहीं होता तो क्या होता
सड़क, घर, पहाड़ पर
जहां भी होता
कर्म की भाषा में मरा होता ।

कितना भरोसा देता है अर्थ
शब्दों की ओट में
खरगोश सा छिप जाता

सुस्ताता
धूप भरे दिन में
निकलकर अचानक
सौंदर्य से सबको लुभाता ।

वृंदावन-येरूशलम

बोरोवेत्स की छत पर
हंसे हम-तुम
लहराया सारा जंगल
लरज उठे चोटी पर चढ़ते तार
मुखर हुए रिला मोनास्तर में
मंत्र
प्रतिध्वनि ने लौटकर
घेरा हमें ।

मन की ढलान पर
सेंत-मेंत
खुले कई आश्रम
जली मोमबत्ती
जोगिया पहन
पहुंचे वृन्दावन
येरुशलम ।

बोरोवेत्स:सोफिया से कुछ दूर बल्गारिया का सबसे ऊँचा खूबसूरत पहाड़।
दिला मोनास्तर:बल्गारिया का सबसे बड़ा पुराना मोनास्तर।

तुम्हें याद है न 

शहर जब गर्म था
अफवाहों से
हम घर से भाग आए थे
बाग की कानाफूसी में
सत्ता के परखचे उड़ाये थे

उस हंसी की आड़ में
बनाई थी लंबी सुरंग
बेधड़क
सीमा के पार निकल आए थे ।
तुम्हें याद है न !

वहीं पाताल से जा रही थी
एक छोटी रेल
आकाश की ओर
संघर्ष छिड़ा था डिब्बे में
स्वर्ग और धरती के बीच

निगाहें बचाकर हम
एक पुस्तकालय में घुस गए
वहां बाइबल और गीता थी
ईसा और कृष्ण
भीड़ के हाथ में
पन्ने और भाले थे
उनके दुशालों में छिपे हम
बादलों तक पहुंचे थे ।

तुम्हें याद है न !

वहां इन्द्र था
भाप से ढका था सरोवर
उसमें होता एक सवेरा था
किरणों में चमकती मछलियां
और जल में ढके शैवाल
न कुछ तेरा था न मेरा था ।

पहाड़ी नदी के किनारे
लातीन में
कोई गीतांजलि गुनगुना रहा था
उस गुफा का संतरी
अंतिम खेप के लिए बुला रहा था
वहां अंधेरे में चमकते खंजरों को
अपने में उतार
कितने लहूलुहान हो गए थे ।
तुम्हें याद है न !

उस मोड़ पर खड़ी बुढ़िया
दर्द की हंसी बन गई
श्रापग्रस्त जंगल
पुराने ग्रीक हीरो की कथा में
अट्टहास कर
उदास हो गया ।

देवास ही नाम था न उसका
जहां दिल ने पंख फड़फड़ाये
वहां था खुला आकाश
देवी का मंदिर
और बलखाती सड़क
फरिस्तों की धकापेल
जंगल गुंजाकर
नंगे पैर भाग आए थे ।
तुम्हें याद है न !

वहीं से शुरु हुआ
गुफा का अंधेरा द्वार
चमकते हीरों पर पहरा देता
काला नाग
कितना उजास था निमंत्रण
कितना तत्पर था तन-मन
उस दैत्य ने
कितना छकाया हमें ।
तुम्हें याद है न !

धू-धूकर जल उठे
क्रिसमस के पेड़
नीला सागर
उसी में कहीं था
बेलग्राद का मोर्चा
तुम्हारे मेजर पिता का चेहरा
कफन के बाहर
एक शून्य का रेगिस्तान था हमारे बीच
गिरजे की दीवार
बर्फ की परतें
खामोशी के मौन में
अचकचाए रुके थे हम ।
तुम्हें याद है न !

ये आंखें 

ये आंखें
मुस्कराना भर जानती हैं ।

खुशी में
फूल बरसाती हैं
दुख में
सिकुड़कर गोल हो जाती हैं
अचंभे में
बच्चों सी तुतलाती हैं ।
ये आंखें
गाना भर जानती हैं ।

उमंग में
वसंत राग गुनगुनाती हैं
रुठन में
मोती टपकाती हैं
असमंजस में
नीरव गीत गाती हैं ।

ये आंखें
बुलाना भर जानती हैं ।

प्यार में
समुद्र की गहराई से
करुणा में
पहाड़ की ऊँचाई से
उलझन में
टिमटिमाते तारों से ।

कितनी गहरी
कितनी नीली
कितनी कोमल
कितनी पनीली हैं
ये आंखें ।

इनमें डूबो
इन्हें देखो
इन्हें छुओ
इनमें तैरो
कितनी रसीली हैं
ये आंखें ।

दुर्दिन

पीछा नहीं छोड़ा यहां भी
दुर्दिन ने
छेक ही लिया मार्ग ।

कितनी मुश्किल से निकल पाया
ध्वस्त खंडहरों के अंबार से
अगतिक स्मृतियों की मार से
जहां आदमी ढोता
असह्य भार ।

यहां हर दिन
निकलते सूरज की लाली थी
बर्फ की ताजगी में नहाकर
निकला नया देश
गोबर लिपा cccccccccccचौका
नई कोंपलों में फूटता जीवन का
परिवर्तन
कितना साफ ।

अभी जब बच्चे
नींद में
सपनों का संसार रच रहे थे
हवा में तैरते
बादल के पंखों पर
परियों के देश का
शोध कर रहे थे
बवंडर ने
सब कुछ मिटा दिया ।

अब यहां भी दब गई है सांस
मलबे में
जीवन पर
बढ़ रहा
स्मृतियों का भार
अतीत में चलने लगा हूं मैं
कितना अच्छा था पिछला साल
उससे भी अच्छा पहला साल ।

जगती कहीं नहीं थी वहाँ 

वहां हर ओर छाया था ईश्वर
हर तत्त्व में समाया था ईश्वर
उसकी एक धुंधली सी झलक से
नाच रहे थे वनपाखी
स्पर्श को लालायित देवदारु
स्वागत में पसरी धरा पर
प्रसन्न वदन दिनकर
जगती कहीं नहीं थी वहां
बस उसके अनुग्रह की माया थी ।

असीम वैभव बीच
बांसुरी का दिव्य राग
सरोवर के हिये में हलचल
नदियों की कलकल
चीड़ों की सांय सांय
भक्ति के भाव में बेसुध
एक लौ मंगल था
त्रिभंगी मुद्रा पर ढलका हुआ ।

अनंत कामना से जलती
मोम सी काया
विगलित आत्मरुप
अदृश्य में बदल गई
ऐहिक सुख कामना
बनी जन्मांतर की सखी
निर्ब्याज सौन्दर्य केलि में निमग्न
वहां बस राधा थी अपृथक भाव
सृष्टि कहीं नहीं थी वहां
बस अनवरत लीला थी ।

समरस काया 

झक्क सफेद है
यहां की समरस काया
पावनता का बोध कराती हुई
यूरोप बर्फ का देश है ।

गदराये उरोजों से
उभरे हैं यहां के
नयनाभिराम पर्वत
यूरोप पहाड़ों का देश है ।

रंग बिरंगे ट्यूलिप
खुलती हैं गुलाब की पंखुड़ी
तराशी हुई रक्तवर्ण
यूरोप फूलों का देश है ।

स्वच्छ नीलिमा से भरी
ये परदर्शी आंखें
यूरोप सागरों का देश है ।

पहाड़ों को तराशकर
बहती नदियां
और दमकते स्वर्णिम
सागर तट
निर्वसन जंघाएं
यूरोप मुक्त वर्जनाओं का देश है ।

आराधाना 

घर से निकले
तो धुंध ही धुंध थी
चारों ओर

रहस्य में लिपटा सब
मन में अनंत जिज्ञासा
ललक, अभिलाषा
फूल सा खिला मन
नई कोंपल सा
विकसता तन ।

कितना छोटा है
यह खुला आकाश
उसांस भरने को
कितने मंथर हैं
मदमाते बादल
इतर लोकों में जाने को
कितनी उथली है हवा
मंद राग गुनगुनाने को
हंसी का उजास
और कोंपलों से फूटती
आभा
समो लेगी सब कुछ
बस होगा अनंत एकांत
हम-तुम
और यह अटूट रहस्य ।

अब घर लौटे हैं
मिठास से भरे हुए
ठोस और मूर्त
घना हो आया है कोहरा
आकाश, बादल और हवा
हस्तामलकवत
शेष बची
यह मूर्ति
आराधन बन गई है ।

घर की याद

सर्द हवा में ठिठुरी
काफी की आखिरी बूंद
गले में उतार
सड़क किनारे सोच रहा
यह
देश जायेगी या घर ?

बुयुक अदा 

समुद्र की गोद में
पालती मारे
सीपों के मोती सा
जंगल बियाबान में
आदिवासियों के गाँव में
बर्गद की छाँव में शान से पसरा
बयुक अदा
महारानी का द्वीप

श्वेत रेत पर
नितंब पसारे
नीले जल में
पैर पखारे
कर्धनी पहने
केश संवारे
अकेली, चुपचाप
आदिवासी लड़की का
सौंदर्य निखरा
बयुक अदा
महारानी का द्वीप

रानी को भाता था
अकेले में रहना
शीतल छांव औ’
फूलों का गहना
इस्तांबुल
साम्राज्य का भाल था
हर पल षड़यंत्र
हमले और रक्तपात
सेना की भीड़ में
रहना मुहाल था

इसीलिए
रानी ने खोजा
यह नीरव कोना
सागर की गोद में
निश्चिंत होना
कहते हैं
राजा से बड़ी थी रानी
साम्राज्य से ऊंची थी
उसकी राजधानी
बयुक अदा
महारानी का द्वीप

मां कहां 

मां की उंगली थामे
सड़क पर चलता
बच्चा
देख रहा है
मां कहीं नहीं है।

जीवन का अर्थ 

राह किनारे
जीवन के मतलब से हारे
झेल शीत के झोंके दिन भर
खोज रहे वे प्यार अनदिखा
देह अस्थि की अगिन सहारे

पांचवां प्रेम

पांचवें प्रेम में
फिर पछताया पेचीनोव
पूरब के प्रांगण का
अनगिन रहस्य भरा
वह मंदिर
कहां है?

भूली पहचान

वासंती फूल सा
खिला बच्चा
कभी कभार
सड़क पर
मां से मिल जाता है
हाथ हिलाता है
आंखों में ढ़ूंढता
भूली पहचान
तुरत भाग
बच्चों में खो जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.