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Kavitagaur.jpg

सोच 

सोच
टूटे दरख़्त
टूटे घर
टूटे रिश्ते

बड़े होटल
बड़े काम्पलेकस
बड़े देश
बड़ी लालसा
बड़ी रिश्वत
बड़ी शत्रुता
बड़ा काण्ड
बडा स्वार्थ
बड़ा आतंकवाद

छोटी सोच
छोटा दाम
छोटे विचार
फिर भी आज का
आदमी महान

आया बसंत 

आया बसंत, आया बसंत
रस माधुरी लाया बसंत
आमों में बौर लाया बसंत
कोयल का गान लाया बसंत
आया बसंत आया बसंत

टेसू के फूल लाया बसंत
मन में प्रेम जगाता बसंत
कोंपले फूटने लगी
राग-रंग ले आया बसंत
आया बसंत आया बसंत

नव प्रेम के इज़हार का
मौसम ले आया बसंत
बसंती बयार में
झूमने लगे तन-मन
सोये हुए प्रेम को आके जगाया बसंत
आया बसंत आया बसंत

वृक्ष और मनुष्य

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि उसमें वो त्याग और परोपकार
का भाव नहीं होता

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि उसमें दूसरों द्वारा पहुँचाए कष्ट
सहने की ताकत नहीं होती

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि वह अपनी जड़ें खोदने वाले
को कभी शरण नहीं देता

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि वह करता नहीं क्षमा
याद रखता है और बदला लेता है

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता
क्योंकि अपना सब कुछ मनुष्यों के
लिए अर्पण करने वाले वृक्ष को भी
मनुष्य नहीं बख़्शता
काट डालता है
क्योंकि वह जलता है वृक्ष की नम्रता से
वृक्ष की कर्त्तव्य-निष्ठा से

मनुष्य कभी वृक्ष नहीं बन सकता

बचपन

बचपन की तलाश है
कहीं खो गया है बचपन
गलियों में रो रहा है बचपन

होटलों में ढाबों में धो रहा है बरतन
काँच की चूड़ियों में पिरो रहा है शबनम
बीड़ियों में तंबाखू समो रहा है बचपन

गोदियों में बचपन खिला रहा है बचपन
योजनाएँ सारी ध्वस्त है
कहीं भी खिलखिलाता नज़र नहीं
आ रहा है बचपन

तलाश 

गुलाब बनने को तैयार हैं सब
बरगद कौन बनना चाहता है
गुंबद बनने को तैयार हैं सब
नींव की ईंट कौन बनना चाहता है
वाह-वाही पाना चाहते हैं सब
त्याग कौन करना चाहता है

पता है सबको जो बन जायेगा बरगद
वह हिल न सकेगा अपनी जगह से
पता है सबको जो बनेगा नींव की ईंट
सब बढ़ जाएँगे उस पर चढ़ के
पता है सब को जो करेगा त्याग
स्वार्थ पूरे करेगे सब उससे

पर बूढ़ा बरगद फिर भी
सबको शीतल छाँव प्रदान करता है
खुदी हुई नींव की ईंट भी
भटकों को सही रास्ता दिखाती है
त्यागियों का त्याग ही ज्ञान रूपी प्रकाश से
जीवन रूपी नर्क को स्वर्ग बना देता है

इसीलिए आज भी है तलाश सबको
बूढ़े बरगद की छाँव की
पक्की नींव की ईंट की
त्याग में ज्ञान के प्रकाश की

शाम 

शाम होते ही याद आने लगी उनकी
वे होते तो शाम रंगीन होती
वैसे तो रोज शाम होती है
पर कहाँ वो रंगीन होती है
मन जब ख़ुश होता है
तो शाम रंगीन होती है
दुख के पहाड़ टूटें तो
शाम गमगीन होती है
हो चुहलबाजियाँ तो
तो शाम नमकीन होती है
कुछ भी हो जाए चाहे
हर दोपहर के बाद शाम होती है

सच 

सच होता ही है कड़वा सच
सच छुपता ही नहीं छुपाने से ।।

सच बोलता है जो हमेशा
जाता है वह इस ज़माने से ।।

सच को पकड़ कर जो चलता है
पीछे रह जाता है वह ज़माने में ।।

माँ 

माँ की जान कहाँ होती है?
बच्चों में।
माँ की आन कहाँ होती है?
बच्चों से।
माँ का मान कहाँ होता है?
बच्चों में।
माँ की ममता कहाँ होती है?
बच्चों में।
माँ की सुबह कहाँ होती है?
बच्चों से।
माँ की शाम कहाँ होती है?
बच्चों में।
माँ की आस कहाँ होती है?
बच्चों से।
माँ की सोच कहाँ होती है?
बच्चो में।
माँ का अंत कहाँ होता है?
बच्चों में।
माँ की जान कहाँ होती है?
बच्चों में।

बदलाव 

लाना चाहती हूं मैं बदलाव
गंदी राजनीति में
सड़े गले रीति-रिवाजों वें
संकीर्ण विचारों में
टूटते परिवारों में
लोगों की नैतिकता में
नौनिहालों की सोच में
किसानो के हल में
सेना के बल में
विदेश की नकल में
युवतियों की पोषाक में
युवकों के आचार में
व्याप्त भ्रश्टाचार में
वैष्विक संबंधों में
पर मैं अकेली
खदे दी जाति हूँ
हर देश हर शहर
गली कूचों से
फिर भी लगी हूँ
संघर्श में बदलाव के

सावधान

सावधान ओ जंगलवासी
बना रहे हैं तुम्हें जो साथी
बहला-फुसला तुम्हें रहे हैं
सब्ज-बाग वो दिखा रहे हैं
जिनका खुद ईमान नहीं है
ईमान-धरम तुम्हें सिखा रहे हैं
डाल मुसीबत में वो तुमको
अपना धंधा चला रहे है
सांठ-गांठ है पहुंचे हुओं से
तुमको मोहरा बना रहे है
समझो अब तो समझ भी जाओ
इनके झांसे में न आओ
तुम स्वतंत्र हो स्वतंत्र रहोगे
अपने पर से जाल हटाओ
सावधान ओ जंगलवासी
इनके झांसे में न आओे

बसंत 

आया बसंत – आया बसंत
रंग हजार लाया बसंत
कुछ फूलों में कुछ कलियों में
कुछ मधुबन की गलियों में
कुछ पलाष में
कुछ गुलमोहर की कलियों में
कुछ कोयल की कूक में
कुछ आमों के बौर में
कुछ सुंदर नये पत्तों में
कुछ अच्छे मौसम में
कुछ प्यार में
कुछ मुनहार में
प्रेम रस लाया बसंत
आया बसंत आया बसंत
रंग हजार लाया बसंत

घर 

खाली मकान को घर कहते हो
ना बच्चों की किलकारियाँ
न सास की दुलार भरी फटकार
न ननद से तकरार व मुनहार
न ससुर व जेठ के खखारने
का संकेत
न बहु के पायल की मीठी
झुन-झुन सी आवाज
न देवर भाभी का मीठा परिहास
न शाम को पड़ोसिनों की बैठक
न मोहल्ले के बच्चों की धूम-धड़ाका
यह सब ना होते हुए भी
मकान अब घर कहलाते है
फर्नीचर व सजावट से होता है
घर के व्यक्तियों का आँकलन
लोगों के रहने की जगह में
रहते हैं अब लग्जरी सामान
ऐसा ही होता है आज का मकान
नहीं-नहीं आज का घर….आज का घर

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