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क़लंदर बख़्श ‘ज़ुरअत’ की रचनाएँ

गम रो रो के कहता हूँ कुछ उस से अगर अपना

गम रो रो के कहता हूँ कुछ उस से अगर अपना
तो हँस के वो बोले है मियाँ फिक्र कर अपना

बातों से कटे किस की भला राह हमारी
गुर्बत के सिवा कोई नहीं हम-सफर अपना

आलम में है घर-घर खुशी ओ ऐश पर उस बिन
मातक-कदा हम को नजर आता है घर अपना

हर बात को बेहतर है छुपाना ही कि ये भी
है ऐब करे कोई जो जाहिर हुनर अपना

क्या क्या उसे देख आती है ‘जुरअत’ हमें हसरत
मायूस जो फिर आता है पैगाम-बर अपना

ऐ दिला हम हुए पाबंद-ए-गम-ए-यार के तू

ऐ दिला हम हुए पाबंद-ए-गम-ए-यार के तू
अब अज़ीय्यत में भला हम हैं गिरफ्तार के तू

हम तो कहते थे न आशिक हो अब इतना तो बता
जा के हम रोते हैं पहरों पस-ए-दीवार के तू

हाथ क्यूँ इश्क-ए-बुताँ से न उठाया तू ने
कफ-ए-अफसोस हम अब मलते हैं हर बार के तू

वही महफिल है वही लोग वही है चर्चा
अब भला बैठे हैं हम शक्ल-ए-गुनाह-गार के तू

हम तो कहते थे कि लब से न लगा सागर-ए-इश्क
मय-ए-अंदोह से अब हम हुए सर-शार के तू

बे-जगह जी का फँसाना तुझै क्या था दरकार
तान ओ तशनी के अब हम हैं सज़ा-वार के तू

वहशत-ए-इश्क बुरी होती है देखा नादाँ
हम चले दश्त को अब छोड़ के घर-बार के तू

आतिश-ए-इश्क को सीने में अबस भड़काया
अब भला खीचूँ हूँ मैं आह-ए-शरर-बार के तू

हम तो कहते थे न हम-राह किसी के लग चल
अब भला हम हुए रूसवा सर-ए-बाज़ार के तू

गौर कीजे तो ये मुश्किल है जमीं ऐ ‘जुरअत’
देखें हम इस में कहें और भी अशआर के तू

सौत-ए-बुलबुल दिल-ए-नालाँ ने सुनाई मुज को

सौत-ए-बुलबुल दिल-ए-नालाँ ने सुनाई मुज को
सैर-ए-गुल दीदा-ए-गिर्यां ने दिखाई मुज को

लाऊँ खातिर में न मैं सल्तनत-ए-हफ्त इकलीम
उस गली की जो मयस्सर हो गदाई मुज को

वस्ल में जिस की नहीं चैन ये अँदेशा है
आह दिखलाएगी क्या उस की लड़ाई मुज को

वस्ल में जिस के न था चैन सो ‘जुरअत’ अफसोस
वो गया पास से और मौत न आई मुज को

बुलबुल सुने न क्यूँके कफस में चमन की बात

बुलबुल सुने न क्यूँके कफस में चमन की बात
आवार-ए-वतन को लगे खुश वतन की बात

ऐश ओ तरब का जिक्र करूँ क्या मैं दोस्तो
मुझ गम-ज़दा से पूछिए रंज ओ महन की बात

शायद उसी का जिक्र हो हर रह-गुजर में मैं
सुनता हूँ गोश-ए-दिल से हर इक मर्द ओ जन की बात

‘जुरअत’ ख़िजाँ के आते चमन में रहा न कुछ
इक रह गई जबाँ पे गुल ओ यासमन की बात

इतना बतला के मुझे हरजाई हूँ मैं यार कि तू 

इतना बतला के मुझे हरजाई हूँ मैं यार कि तू
मैं हर इक शख्स से रखता हूँ सरोकार के तू

कम-सबाती मेरी हरदम है मुखातिब ब-हबाब
देखें तो पहले हम उस बहर से हों पार के तू

ना-तवानी मेरी गुलशन में ये ही बहसें है
देखें ऐ निकहत-ए-गुल हम हैं सुबुक-बार के तू

दोस्ती कर के जो दुश्मन हुआ तू ‘जुरअत’ का
बे-वफा वो है फिर ऐ शोख सितम-गार के तू

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