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KAAMI SHAH.jpg

अगर कार-ए-मोहब्बत में मोहब्बत रास आ जाती 

अगर कार-ए-मोहब्बत में मोहब्बत रास आ जाती
तुम्हारा हिज्र अच्छा था जो वसलत रास आ जाती

गला फाड़ा नहीं करते रफ़ू दरयाफ़्त करने में
अगर बेकार रहने की मशक़्क़त रास आ जाती

तुम्हें सय्याद कहने से अगर हम बाज़ आ जाते
हमें भी इस तमाशे में सुकूनत रास आ जाती

फ़क़त ग़ुस्सा पिए जाते हैं रोज़ ओ शब के झगड़ में
कोई हँगाम कर सकते जो वहशत रास आ जाती

अगर हम पार कर सकते ये अपनी ज़ात का सहरा
तो अपने साथ रहने की सहूलत रास आ जाती

अगर में सच कहूँ तो सब्र ही की आज़माइश है 

अगर में सच कहूँ तो सब्र ही की आज़माइश है
ये मिट्टी इम्तिहाँ प्यारे ये पानी आज़माइश है

निकल कर ख़ुद से बाहर भागने से ख़ुद में आने तक
फ़रार आख़िर है ये कैसा ये कैस आज़माइश है

तलाश-ए-ज़ात में हम किसी बाज़ार-ए-हस्ती में
तिरा मिलना तिरा खोना अलग ही आज़माइश है

नबूद ओ बूद के फैले हुए इस कार-ख़ाने में
उछलती कूदती दुनिया हमारी आज़माइश है

मिरे दिल के दरीचे से उचक कर झाँकती बाहर
गुलाबी एड़ियों वाली अनोखी आज़माइश है

ये तू जो ख़ुद पे नाफ़िज़ हो गया है शाम की सूरत
तो जानी शाम की कब है ये तेरी आज़माइश है

दिए के और हवाओं के मरासिम घुल नहीं पाते
नहीं खुलता कि इन में से किस की आज़माइश है

दिल की आवाज़ में क़याम करें

दिल की आवाज़ में क़याम करें
आ मिरे यार आ कलाम करें

तितलियाँ ढूँडने में दिन काटें
और जंगल में एक शाम करें

आईनों को बुलाएँ घर अपने
और चराग़ों को एहतिमाम करें

उस के होंटों को ध्यान में रख कर
सुर्ख़-फूलों को इंतिज़ार करें

जिस के दम से है ये सुख़न आबाद
ये ग़ज़ल भी उसी के नाम करें

हर एक गाम में रंज-ए-सफ़र उठाते हुए

हर एक गाम में रंज-ए-सफ़र उठाते हुए
मैं आ पड़ा हूँ यहाँ तुझ से दूर जाते हुए

अजीब आग थी जिस ने मुझे फ़रोग़ दिया
इक इंतिज़ार में रक्खे दिए जलाते हुए

तवील रात से होता है बर सर-ए-पैकार
सो चाक तेज़ हुआ है मुझे बनाते हुए

ये तेज़-गामी-ए-सहरा अलग मिज़ाज की है
जो मुझ से भाग रही है क़रीब आते हुए

है एक शोर गुज़िश्ता मिरे तआक़ुब में
मैं सुन रहा हूँ जिसे अपने पार आते हुए

शरीक-ए-आतिश ओ आब-ओ-हवा ओ ख़ाक रहे
मिरे अनासिर-ए-तरतीब शक्ल पाते हुए

बहुत क़रीब से गुज़री है वो नवा-ए-सफ़ेद
मिरे हवास का नीला धुआँ उड़ाते हुए

मैं इम्तिज़ाज-ए-क़दीम-ओ-जदीद हूँ ‘कामी’
सो हम-अस्र ही पढ़ना मुझे बुलाते हुए

इक नए मसअले से निकले हैं

इक नए मसअले से निकले हैं
ये जो कुछ रास्ते से निकले हैं

काग़ज़ी हैं ये जितने पैराहन
एक ही सिलसिले से निकले हैं

ले उड़ा है तिरा ख़याल हमें
और हम क़ाफ़िले से निकले हैं

याद रहते हैं अब जो काम हमें
ये उसे भूलने से निकले हैं

नबूद ओ बूद के मंज़र बनाता रहता हूँ 

नबूद ओ बूद के मंज़र बनाता रहता हूँ
मैं ज़र्द आग में ख़ुद को जलाता रहता हूँ

तिरे जमाल का सदक़ा ये आतिश-ए-रौशन
चराग़ आब-ए-रवाँ पर बहाता रहता हूँ

दुआएँ उस के लिए हैं सदाएँ उस के लिए
मैं जिस की राह में बादल बिछाता रहता हूँ

उदास धुन है कोई उन ग़ज़ाल आँखों में
दिए के साथ जिसे गुनगुनाता रहता हूँ

अजीब सुस्त-रवी से ये दिन गुज़ते हैं
मैं आसमान पे शामें बनाता रहता हूँ

मैं उड़ाता रहता हूँ नीले समुंदरों में कहीं
सो तितलियों के लिए ख़्वाब लाता रहता हूँ

ये मुझ में फैल रहा है जो इजि़्तराब-ए-शदीद
तो फिर ये तय है उसे याद आता रहता हूँ

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