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Kishan-saroj-kavitakosh.jpg

गीत कवि की व्यथा १

ओ लेखनी विश्राम कर
अब और यात्रायें नहीं

मंगल कलश पर
काव्य के अब शब्द
के स्वस्तिक न रच
अक्षम समीक्षायें
परख सकतीं न
कवि का झूठ सच

लिख मत गुलाबी पंक्तियाँ
गिन छ्न्द, मात्रायें नहीं

बन्दी अधेंरे
कक्ष में अनुभूति की
शिल्पा छुअन
वादों विवादों में
घिरा साहित्य का
शिक्षा सदन

अनगिन प्रवक्ता हैं यहाँ
बस छात्र छात्रायें नहीं

गीत कवि की व्यथा २ 

इस गीत कवि को क्या हुआ
अब गुनगुनाता तक नहीं

इसने रचे जो गीत जग ने
पत्रिकाओं में पढे़
मुखरित हुए तो भजन जैसे
अनगिनत होंठों चढे़

होंठों चढे़, वे मन बिंधे
अब गीत गाता तक नहीं

अनुराग, राग विराग
सौ सौ व्यंग-शर इसने सहे
जब जब हुए गीले नयन
तब तब लगाये कहकहे

वह अट्टहासों का धनी
अब मुस्कुराता तक नहीं

मेलों तमाशों में लिये
इसको फिरी आवारगी
कुछ ढूँढती सी दॄष्टि में
हर शाम मधुशाला जगी

अब भीड़ दिखती है जिधर
उस ओर जाता तक नहीं

ताल सा हिलता रहा मन 

धर गये मेंहदी रचे
दो हाथ जल में दीप
जन्म जन्मों ताल सा हिलता रहा मन

बांचते हम रह गये अन्तर्कथा
स्वर्णकेशा गीतवधुओं की व्यथा
ले गया चुनकर कमल कोई हठी युवराज
देर तक शैवाल सा हिलता रहा मन

जंगलों का दुख, तटों की त्रासदी
भूल सुख से सो गयी कोई नदी
थक गयी लड़ती हवाओं से अभागी नाव
और झीने पाल सा हिलता रहा मन

तुम गये क्या जग हुआ अंधा कुँआ
रेल छूटी रह गया केवल धुँआ
गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात
हाथ के रूमाल सा हिलता रहा मन

कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की 

कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की
देखिए तटबंध कितने दिन चले

मोह में अपनी मंगेतर के
समंदर बन गया बादल
सीढियाँ वीरान मंदिर की
लगा चढ़ने घुमड़ता जल

काँपता है धार से लिप्त हुआ पुल
देखिए सम्बन्ध कितने दिन चले

फिर हवा सहला गई माथा
हुआ फिर बावला पीपल
वक्ष से लग घाट के रोई
सुबह तक नाव हो पागल

डबडबाए दो नयन फिर प्रार्थना के
देखिए सौगंध कितने दिन चले

नदिया के किनारे

कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना

धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनुष
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना

दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना

लो विसर्जन आज वासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित
मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना

नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा

नींद सुख की
फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल ।

छू लिए भीगे कमल-
भीगी ॠचाएँ
मन हुए गीले-
बहीं गीली हवाएँ

बहुत सम्भव है डुबो दे
सृष्टि सारी
दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल ।

हिमशिखर, सागर, नदी-
झीलें, सरोवर
ओस, आँसू, मेघ, मधु-
श्रम-बिंदु, निर्झर

रूप धर अनगिन कथा
कहता दुखों की
जोगियों-सा घूमता-फिरता हुआ जल ।

लाख बाँहों में कसें
अब ये शिलाएँ
लाख आमंत्रित करें
गिरि-कंदराएँ

अब समंदर तक
पहुँचकर ही रुकेगा
पर्वतों से टूटकर गिरता हुआ जल ।

अनसुने अध्यक्ष हम

बाँह फैलाए खड़े,
निरुपाय, तट के वृक्ष हम
ओ नदी! दो चार पल, ठहरो हमारे पास भी ।

चाँद को छाती लगा
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अंधेरों में
घिरा निर्जन महल

और इस निर्जन महल के
एक सूने कक्ष हम
ओ भटकते जुगनुओ ! उतरो हमारे पास भी ।

मोह में आकाश के
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम प्रशंसा-पत्र
कोई भीड़ से

अश्रु की उजड़ी सभा के,
अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी! बिखरो हमारे पास भी ।

लेखनी को हम बनाए
गीतवंती बाँसुरी
ढूंढते परमाणुओं की
धुंध में अलकापुरी

अग्नि-घाटी में भटकते,
एक शापित यक्ष हम
ओ जलदकेशी प्रिये! सँवरो हमारे पास भी ।

बड़ा आश्चर्य है

नीम तरू से फूल झरते हैँ
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य है

रीझ, सुरभित हरित -वसना
घाटियों पर
व्यँग्य से हँसते हुए
परिपाटियों पर
इँद्रधनु सजते- सँवरते हैँ
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य है

गहन काली रात
बरखा की झड़ी में
याद डूबी ,नींद से
रूठी घड़ी में
दूर वँशी -स्वर उभरते हैँ
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य है

वॄक्ष, पर्वत, नदी,
बादल, चाँद-तारे
दीप, जुगनू , देव–दुर्लभ
अश्रु खारे
गीत कितने रूप धरते हैँ
तुम्हारा मन नहीँ छूते
बड़ा आश्चर्य है

हार गये वन 

सैलानी नदिया के सँग–सँग
हार गये वन चलते–चलते

फिर आयीँ पातियाँ गुलाबों की
फिर नींदेँ हो गईं पराई
भूल सही, पर कब तक कौन करे
अपनी ही देह से लड़ाई
साधा जब जूही ने पुष्प-बान
थम गया पवन चलते–चलते

राजपुरूष हो या हो वैरागी
सबके मन कोई कस्तूरी
मदिरालय हो अथवा हो काशी
हर तीरथ-यात्रा मजबूरी
अपने ही पाँव, गँध अपनी ही
थक गये हिरन चलते–चलते

बना न चित्र हवाओं का

बिखरे रँग, तूलिकाओं से
बना न चित्र हवाओं का
इन्द्रधनुष तक उड़कर पहुँचा
सोँधा इत्र हवाओं का

जितना पास रहा जो, उसको
उतना ही बिखराव मिला
चक्रवात-सा फिरा भटकता
बनकर मित्र हवाओं का

कभी गर्म लू बनीं जेठ की
कभी श्रावनी पुरवाई
फूल देखते रहे ठगे-से
ढंग विचित्र हवाओं का

परिक्रमा वेदी की करते
हल्दी लगे पाँव काँपे
जल भर आया कहीँ दॄगोँ में
धुँआ पवित्र हवाओं का

कभी प्यार से माथा चूमा
कभी रूठ कर दूर हटीं
भोला बादल समझ न पाया
त्रिया–चरित्र हवाओं का

झुके फाइलों पर 

झुके फाइलों पर अब, घुँघराले केश
बिसरे सन्देश, याद केवल आदेश।

भोर ही निकलते हम
काँधे पर सूर्य लिए
दफ्तर से घर तक हम ढोते हैं शाम
अँधियारी गलियों में
दरवाजे पर अँकित
पढ़ा नहीं जाता फिर अपना ही नाम
मन नहीं भटकता अब परियों के देश
बिसरे सन्देश, याद केवल आदेश।

तारे अब लगते हैं
चावल के दानों से
अनचाहे आस-पास बढ़ रहा है उधार
पहली तिथि, पन्द्रह दिन
पहले आ जाये तो
पन्द्रह दिन आयु घटाने को तैयार
फबता है साबुन से उजलाया वेश
बिसरे सन्देश, याद केवल आदेश।

इन्द्रधनुष को देखे
कितने ही बरस हुए
अर्थ नहीं रखता कुछ प्रात का समीर
जाने कितने पीछे
छूट गया वँशीवट
खो गया कुहासे में यमुना का तीर
हम न किसी राधा के द्वरिका-नरेश
बिसरे सन्देश, याद केवल आदेश।

बीत चला यह जीवन सब

बीत चला यह जीवन सब
प्रिय! न दो विश्वास अभिनव
मिल सको तो अब मिलो, अगले जनम की बात छोड़ो

भ्रान्त मन, भीगे नयन
बिखरे सुमन, यह सान्ध्य-बेला
शून्य में होता विलय
यह वन्दना का स्वर अकेला
फूल से यह गन्ध, देखो!
कह चली, `सम्बंध, देखो!
टूटकर जुड़ते नहीं फिर, मोह-भ्रम की बात छोड़ो! ‘

यह कुहासे का कफ़न
यह जागता-सोता अँधेरा
प्राण-तरू पर स्वप्न के
अभिशप्त विहगों का बसेरा
योँ न देखो प्रिय! इधर तुम,
एक ज्योँ तसवीर गुमसुम,
अनवरत, अन्धी प्रतीक्षा, के नियम की बात छोड़ो!

यह दिये की काँपती लौ,
और यह पागल पतँगा
दूर नभ के वक्ष पर
सहमी हुई आकाश-गंगा
एक-सी सबकी कथा है,
एक ही सबकी व्यथा है,
है सभी असहाय, मेरी या स्वयम् की बात छोड़ो!

हर घड़ी, हर एक पल है,
पीर दामनगीर कोई
शीश उठते ही खनकती
पाँव में जंज़ीर कोई
आज स्वर की शक्ति बन्दी,
साध की अभिव्यक्ति बन्दी,
थक गये मन-प्राण तक, मेरे अहम की बात छोड़ो!

ज्योँ रजनीगन्धा 

मन की सीमा के पास-पास
तन की सीमा से दूर-दूर
तुमने योँ महकाईँ मेरी गलियाँ,
ज्यों रजनीगन्धा खिले पराये आँगन में

भुजपाशों में भी सिहर उठे जब रोम-रोम,
प्रियतम कहने में भी जब अधर थरथरायेँ
क्या होगा अ़न्त प्रीति का ऐसी तुम्हीं कहो,
जब मिलने की बेला में भी दॄग भर आयें
हृदयस्पन्दन के पास–पास
दैहिक बन्धन से दूर–दूर
तुम छोड़ गये योँ प्राणों पर सुधि की छाया
ज्यों कोई रूप निहारे धुँधले दर्पन में

जीवन की सार्थकता है जब गति हो उसमें
अपना अनुभव कह लो या सन्तों की बानी
जब तक बहता है तब तक ही पावनता है
यमुना जल हो या नयनों का खारा पानी
अन्तर्दाहोँ के पास–पास
सुख की चाहों से दूर–दूर
तुमनें योँ विवश किया जीवन भर जीने को
ज्यों आग कहीँ लग जाय किसी गीले वन में

सम्भव है कभी सुधर जाये सँकेतोँ से
राहों में यदि भटकाये भूल निगाहों की
पर जब साँसों में भी घुल जाये अँधियारा
रोशनी नहीं, है वहाँ ज़रूरत बाँहों की
तम की दहरी के पास-पास
स्वर के प्रहरी से दूर–दूर
योँ धीर बाँधते रहे विलग रहकर भी तुम
ज्यों नदी पार दीवा जलता हो निर्जन में।

नावें थक गयीं

दूर तक फैला नदी का पाट, नावें थक गयीं

शाल वॄक्षोँ से लिपटकर,
शीश धुनती–-सी हवाएं
बादलों के केश, मुख पर
डाल, सोयी–-सी दिशायें
धुन्ध की जुडने लगी फिर हाट, नावें थक गयीँ

मोह में जिसका धरा तन
हो सका अपना न वह जल
देह–मन गीले किये, पर
पास रूक पाया न दो पल
घूमते इस घाट से उस घाट, नावें थक गयीँ

टूटकर हर दिन ढहा
तटबन्ध—सा सम्बन्ध कोई
दीप बन हर रात
डूबी धार में सौगन्ध कोई
देखता है कौन किसकी बाट, नावें थक गयीँ

नींद सुख की

नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल

छू लिये भीगे कमल,
भीगी ॠचाएँ
मन हुए गीले
बही गीली हवाएँ
है बहुत सम्भव, डुबो दे सृष्टि सारी
दॄष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल

हिमशिखर, सागर, नदी
झीलें, सरोवर,
ओस, आँसू, मेघ, मधु,
श्रम-बिँदु, निझर
रूप धर अनगिन कथा कहता दुखों की
जोगियोँ—सा घूमता-फिरता हुआ जल

लाख बाहोँ में कसेँ
अब ये शिरायें
लाख आमँत्रित करें
गिरि-कँदराएँ
अब समुन्दर तक पहुँचकर ही रूकेगा
पर्वतों से टूटकर गिरता हुआ जल

ज्यों रजनीगन्धा खिले पराए आँगन में

मन की सीमा के पास-पास
तन की सीमा से दूर-दूर,
तुमने यों महकाईं मेरी सूनी गलियाँ
ज्यों रजनीगन्धा खिले पराए आँगन में।

भुजपाशों में भी सिहर उठे जब रोम-रोम
प्रियतम कहने में भी जब अधर थरथराएँ।
क्या होगा अन्त प्रीति का ऐसी तुम्हीं कहो
जब मिलने की वेला में भी दृग भर आएँ।

हृदय-स्पन्दन के पास-पास
दैहिक बन्धन से दूर-दूर,
तुम छोड गए यों प्राणों पर सुधि की छाया
ज्यों कोई रूप निहारे धुन्धले दर्पन में।

जीवन की सार्थकता है जब गति हो उसमें
अपना अनुभव कह लो या सन्तों की बानी।
जब तक बहता है तब तक ही पावनता है
जमुना-जल हो नयनों का खारा पानी।

अन्तर्दाहों के पास-पास
सुख की चाहों से दूर-दूर,
तुमने यों विवश किया जीवन भर जीने को
ज्यों आग कहीं लग जाए किसी गीले वन में।

सम्भव है कभी सुधर जाए संकेतों से
राहों में यदि भटकाए भूल निगाहों की।
पर जब साँसों में भी घुल जाए अँधियारा
रोशनी नहीं, है वहाँ ज़रूरत बाँहों की।

तम की देहरी के पास-पास
स्वर के प्रहरी से दूर-दूर,
यों धीर बँधाते रहे विलग रहकर भी तुम
ज्यों नदी पार दीवा जलता हो निर्जन में।

गुलाब हमारे पास नहीं 

नागफ़नी आँचल में बाँध सको तो आना
धागों बिन्धे गुलाब हमारे पास नहीं।

हम तो ठहरे निपट अभागे
आधे सोए, आधे जागे
थोड़े सुख के लिए उम्र भर
गाते फिरे भीड़ के आगे

कहाँ-कहाँ हम कितनी बार हुए अपमानित
इसका सही हिसाब हमारे पास नहीं।

हमने व्यथा अनमनी बेची
तन की ज्योति कंचनी बेची
कुछ न बचा तो अँधियारों को
मिट्टी मोल चान्दनी बेची

गीत रचे जो हमने, उन्हें याद रखना तुम
रत्नों मढ़ी किताब हमारे पास नहीं।

झिलमिल करती मधुशालाएँ
दिन ढलते ही हमें रिझाएँ
घड़ी-घड़ी, हर घूँट-घूँट हम
जी-जी जाएँ, मर-मर जाएँ

पी कर जिसको चित्र तुम्हारा धुँधला जाए
इतनी कड़ी शराब हमारे पास नहीं।

आखर-आखर दीपक बाले
खोले हमने मन के ताले
तुम बिन हमें न भाए पल भर
अभिनन्दन के शाल-दुशाले

अबके बिछुड़े कहाँ मिलेंगे, यह मत पूछो
कोई अभी जवाब हमारे पास नहीं।

गालियाँ, गोलियाँ सब ओर हमेशा की तरह

गालियाँ, गोलियाँ सब ओर हमेशा की तरह,
और चुपचाप हैं कमज़ोर हमेशा की तरह ।

काली मारूति में उठा ले गए फिर एक लड़की,
झुग्गियों में, लो मचा शोर हमेशा की तरह ।

गांव जा पाऊँ तो पूछूँ कि छत्तों पर अब भी,
नाचने आते हैं क्या मोर हमेशा की तरह ।

बेटियों से भी हमें आँख मिलाने की न ताब,
दिल में बैठा है कोई चोर हमेशा की तरह ।

कैसी घड़ियों में लड़ी प्रीति तुम्हारी ऐ किशन !
आज तक गीले हैं दृग-कोर हमेशा की तरह ।

महक उठे गांव-गांव 

महक उठे गांव-गांव
ले पुबांव से पछांव
बहक उठे आज द्वार, देहरी अँगनवा ।

बगियन के भाग जगे
झूम उठी अमराई
बौराए बिरवा फिर
डोल उठी पुरवाई
उतराए कूल-कूल
बन-बन मुरिला बोले, गेह में सुअनवा ।

घिर आए बदरा फिर
संग लगी बीजुरिया
कजराई रातें फिर
बाज उठी बांसुरिया
अन्धियरिया फैल-फैल
गहराये गैल-गैल
छिन- छिन पै काँप उठत, पौरि में दियनवा।

प्रान दहे सुधि पापिन
गली-गली है सूनी
पाहुना बिदेस गए
पीर और कर दूनी
लहराए हार-हार
मन हिरके बार-बार
जियरा में जेठ तपे, नैन में सवनवा ।

नीम-तरू से फूल झरते हैं 

नीम-तरू से फूल झरते हैं
तुम्हारा मन नहीँ छूते
बड़ा आश्चर्य है ।

रीझ, सुरभित हरित-वसना
घाटियों पर
व्यँग्य से हंसते हुए
परिपाटियों पर

इन्द्रधनु सजते-संवरते हैं
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य है ।

गहन काली रात
बरखा की झड़ी में
याद डूबी, नीन्द से
रूठी घड़ी में

दूर वशीँ-स्वर उभरते हैं
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य है ।

वृक्ष, पर्वत, नदी,
बादल, चाँद-तारे
दीप, जुगनू, देव-दुर्लभ
अश्रु खारे

गीत कितने रूप धरते हैं
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य है ।

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