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Kumar-krishan-kavitakosh.jpg

बड़े होते बच्चे 

बार-बार सोचता हूँ-
बच्चे याद करें अपना छोटा सा गाँव
याद करें बचपन की शरारतें
अपने मम्मी-पापा, दादा-दादी, नाना-नानी

बच्चे करें याद-
काफल के, खुमानी के पेड़
गुल्ली-डंडा, पिट्ठू, अख़रोट का खेल
पनघट को, खेतों को करें याद-

मैं भूल जाता हूँ-
बच्चे रहते हैं हज़ारों मील दूर महानगर में
बहुत बड़े बनिये की करते हैं नौकरी

बनिया जानता है-
बुखार की तरह बढ़ना चाहिए उसका टर्न ओवर
बनिये के बलॉटिंग ने चूस लिया है-
बच्चों का एक-एक लम्हाँ
उसने ख़रीद ली है पूरी तरह बच्चों की नींद
उनके सपने

भूल चुके हैं वे पूरी तरह बचपन का गाँव
नहीं लौट सकते वे लाख चाहने पर भी
काफल के पेड़ के पास
वे नहीं लौट सकते उन दीवारों के पास
जिनकी मोरियों में रहती थीं लोरियाँ
वे नहीं लौट सकते स्कूली कोट के पास
नहीं लौट सकते बूढ़ी खाँसी के पास
बच्चे अब बच्चे नहीं बड़े हो गये हैं
सत्तू की जगह सिजलर
मालपुए की जगह पास्ता खाने के आदी हो गये हैं
सोचता हूँ-
जब गाँव के तमाम बच्चे चले जाएँगे धीरे-धीरे
बनियों के पास
तब कैसे पहुँचेंगे-
गाँव के तमाम बूढ़े मरघट तक।

हस्ताक्षर 

अधिकतर हस्ताक्षरों की नहीं होती कोई भाषा
नहीं होता कोई मतलब
फिर भी जानते हैं वे बात करना
वे करते हैं बड़े-बड़े फैसले
बड़ी-बड़ी सन्धियाँ, दुरभिसन्धियाँ
अरबों-खरबों का व्यापार

हस्ताक्षर होते हैं भाग्यविधाता
बदल सकते हैं किसी की भी किस्मत
जो नहीं जानते पढ़ना-लिखना
उनके भी होते हैं हस्ताक्षर
बैलमुती लिपि हैं वे
आ जाए जिस किसी काग़ज़ पर
बन जाता है वह-
दुनिया का सबसे ताकतवर दस्तावेज़

हस्ताक्षर निरर्थक लगते हुए भी होते हैं सार्थक
प्राणहीन लगते हुए भी होते हैं-
सबसे अधिक प्राणवान

हस्ताक्षर करते हैं वकालत
वे जानते हैं देश और दुनिया को खरीदना

किसने कब किया होगा कहाँ हस्ताक्षर को ईजाद
मैं नहीं जानता
पर इतना जनता हूँ-
जब पहली बार बिका होगा
एक मनुष्य दूसरे के पास
तब किये होंगे बिकने वाले ने अपने हस्ताक्षर
पूरा घरबार हैं हस्ताक्षर
भय मुक्त द्वार हैं हस्ताक्षर
हस्ताक्षर आधार हैं, सरकार हैं।
हस्ताक्षर व्यापार हैं, अधिकार हैं।

कैथलीघाट 

कल तक विश्वास था मुझे
जब तक रहेगी धरती
तब तक रहेगा कैथलीघाट[1]
आज जान चुका हूँ मैं इस धरती का सच
किसी वक़्त भी आ सकता है कोई जयप्रकाश
या फिर कोलम्बस की दुनिया का कोई आदमी
जैसे बिक गया वाकनाघाट[2], बिक गया दियुंघाट[3]

बिक गया महाराष्ट्र में लवासा
बिक गया दाड़लाघाट[4]
बिक गया कुल्लू का सौ एकड़ वाला गाँव
बिक गया मलाजखंड, दिल्ली-राजहरा
बिक गया कोरबा, मुक्तिबोध का राजनांदगाँव
वैसे ही बिक जाएगा एक दिन कैथलीघाट
कोई नहीं जान पाएगा यह बात-
यहाँ ‘सत्यप्रिया’ में रहने वाला लिखता था-
ज़िन्दगी के असंख्य गीत
पता नहीं तब क्या नाम होगा इस जगह का

मेरे देखते ही देखते गौड़ा[5] बन गया यशवन्त नगर
सावड़ा[6] सरस्वती नगर
मेरे देखते ही देखते-
ग़ायब हो गयी कैथलीघाट से लालटेन
ग़ायब हो गयी हुकुमचन्द की दुकान
सायबू की साइकिल, हरनाम सिंह की बैलगाड़ी
जिसमें लटक लिया करते थे हम कभी-कभार
स्कूल आते-जाते
विक्टोरिया के सिक्के की तरह

ग़ायब हो जाएगा एक कैथलीघाट लोगों के ज़हन से
जैसे गायब हो रही आदमी की टाँगों से धोती
ग़ायब हो रही गुलेल
गायब हो रहे हैं खाना चित्ति के घर
ग़ायब हो रही है हँसी
ग़ायब हो रही है राग की आग

मेरे देखते ही देखते गायब हो गयी-
बच्चों के बस्तों से तख्ती-स्लेट, कलम-दवात
चूल्हे का धुआँ, हुक्के की गड़गड़ाहट
काँसे की थाली, कोदे की रोटी
कौणी का भात, घराट का आटा
मटके का पानी, अंजीर का साग
जैसे पुस्तकों से उड़ गये ऋ, लृ के अक्षर
उड़ गया महाकाव्य
उसी तरह
ग़ायब हो जाएगा एक दिन-
कैथलीघाट
मुझे पूरा यकीन है

उसका कसूर है बस इतना-
वह पैदा हुआ एक राष्टीय राजमार्ग पर
उसके पास है अपना छोटा-सा रेलवे स्टेशन
अपना छोटा-सा विलायती इतिहास
उसके पास है अपना पानी, अपना जंगल
अपने खेत अपना गाँव
उसके पास है स्वर्ग की छतरी की छाँव।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें कालका-शिमला राष्ट्रीय राजमार्ग पर वह जगह जहाँ कवि रहता है
  2. ऊपर जायें राष्ट्रीय राजमार्ग 22 से सटा वह स्थान जहाँ हाल ही में जे.पी. विश्वविद्यालय बना है
  3. ऊपर जायें राष्ट्रीय राजमार्ग 22 पर वह जगह जहाँ लगभग सौ बीघा ज़मीन पर प्रदेश का सबसे महँगा लग्जरी होटल ‘डेस्टीनेशन’ बना है
  4. ऊपर जायें हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले का वह स्थान जहाँ अंबुजा सीमेंट कारखाना स्थापित किया गया है
  5. ऊपर जायें हिमाचल प्रदेश के सोलन, शिमला और सिरमौर जिलों का सन्धि-स्थल जहाँ दो पहाड़ी नदियों का संगम है
  6. ऊपर जायें शिमला जिले के हॉट कोटी नाम से प्रसिद्ध स्थान जहाँ इन दिनों बिजली-परियोजना पर काम चल रहा है

भरमौर 

बहुत मुश्किल है-
भरमौर[1] के अंगतू-भगतू का मुक्त होना
धर्मराज की कचहरी[2] से
ऐसे समय में –
जब इरावती गा रही हो विधुत-वीणा पर-
सलिल-शक्ति-गीत
भरमौरिये कर रहे हैं पार वैतरणी नदी[3]

पुत्र पाने की चाह में-
निरन्तर जारी है पशुबलि का सिलसिला
चौरासी मन्दिरों की पूजा
मणिमहेश की यात्रा में
गुज़र जाएगी अभी एक और सदी
धर्मराज की कचहरी में देते रहेंगे हाज़िरी-
जरमू, धरमू, देविया, बसौरिया बार-बार
बजाता रहेगा बुधिया-
लक्षणा देवी[4] के मन्दिर की घंटियाँ बार-बार।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले का आदिवासी क्षेत्र
  2. ऊपर जायें भरमौर में एक ही स्थान पर चौरासी प्राचीन मंदिर हैं। उनमें एक मन्दिर ‘धर्मराज की कचहरी’ के नाम से जाना जाता है
  3. ऊपर जायें इन्हीं मन्दिरों के बीच में एक स्थान पर ‘वैतरणी नदी’ बनायी गयी है
  4. ऊपर जायें राजा मेरु वर्मा के राज्यकाल में सातवीं शताब्दी में बनाया गया ‘लक्षणा देवी’ का मन्दिर भी भरमौर के इन्हीं चौरासी मन्दिरों के बीच बना हुआ है

रिश्तों के रफ़ूगर

आ रहे हैं मेरे सामने से भागते हुए
रिश्तों के रफ़ूगर
जैसे आती है जैन साधवियों की कतार
आते हैं नेपाल के, बिहार के मजदूर
लोगों के घर बनाने
आती है गाढ़िया लोहारों की टोली
कर जाती है तैयार तमाम भोथरे औज़ार

रिश्तों के रफ़ूगर लगते हैं बड़ी जल्दी में
मैं नहीं जानता वे आये हैं किस जगह से?
जा रहे हैं कहाँ?
मैं दौड़ता हूँ उनको रोकने के लिए
लगाता हूँ आवाज़-
‘मुझे भी करवाने हैं कुछ रिश्ते रफ़ू’

वे नहीं रुकते बस भागते चले जाते हैं
भागता हूँ मैं भी उनके पीछे
रुक जाता है अन्ततः एक
झट से पूछता है प्रश्न-
‘इस सदी में कैसे पहचान लिया तुमने हमें?’
मैं कहता हूँ उत्तर देते हुए-
‘तुम्हारी शक्ल मिलती है कुछ-कुछ
मेरे दादा के साथ
लोग कहते थे उनको रिश्तों का रफ़ूगर
दूर-दूर से आते थे उनके पास
रिश्तों की मरम्मत करवाने
उन्होंने नहीं लाँघा था कभी
किसी पाठशाला का दरवाज़ा
नहीं जानते थे किताबों की भाषा
बस जानते थे गिनना प्यार के पहाड़े
बनाते थे बेवल की- धम्मन की रस्सियाँ
कमाते थे शाम तक दो आने’

हम नहीं रुक सकते
अभी तुम्हारे पास
पहुँचना है हमें शाम होने से पहले
उस गाँव तक
बो रहे हैं जहाँ कुछ लोग रिश्तों के बीज
हमें करना है वहाँ आस्था का अनुष्ठान
करनी है पावन पृथ्वी पर-
निष्ठा की प्रार्थनाएँ
फोड़ने हैं प्रवंचना के सन्देह के ढेले
करनी है विश्वास की वर्षा जिससे-
न पड़े भविष्य में फिर किसी को तुम्हारी तरह
रिश्तों के रफ़ूगर की ज़रूरत।

कल्पा-सांगला को याद करते हुए 

इस बार ले आये हम कल्पा[1] से अपने साथ-
किन्नर-कैलाश की आस्थाएँ
पार्वती-पर्वत की पिघलती हुई तकलीफ़
सांगला[2] के, छितकुल[3] के नंगे पहाड़ों से
मनुष्यता की गन्ध
सतलुज की, बसपा[4] की कराहती हुई पुकार

ठीक ही कहा था तुमने मुक्तिबोध-
‘पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी हमको
नीली झील की लहरीली थाहें
जिसमे प्रतिपल काँपता रहता अरुण कमल एक’

सांगला की धरती पर-
कहाँ से, कैसे पहुँचा होगा मनुष्य पहली बार
सोचता हूँ बार-बार
सांगला के घर हैं मनुष्यता के-
ख़ूबसूरत, दुर्लभ अजायबघर
जहाँ खाते हैं आज भी लोग-
नंगे जौ के सत्तू

पीते हैं चुरू[5] का दूध
गाते हैं ज़िन्दगी का गीत
वे नहीं जानते-

शहरी हाट में किस दाम से
बिक रहे हैं तमाम आदिवासी फल
फूट रहे हैं सांगला की ज़मीन पर
किन्नौरी मटर के अंकुर बेशुमार

वाशिंगटन का संगोष्ठी-कक्ष कर रहा चर्चा-
होरी-धनिया की बिरादरी पर
छेरिंग दोरजे उठा रहा कमरूनाग[6] की पालकी

एक गाँव से दूसरे गाँव तक।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले का आदिवासी क्षेत्र
  2. ऊपर जायें हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले का आदिवासी क्षेत्र
  3. ऊपर जायें हिन्दुस्तान का अन्तिम गाँव
  4. ऊपर जायें तिब्बत से आने वाली एक नदी जो छितकुल नामक स्थान पर भारत में प्रवेश करती है
  5. ऊपर जायें याक की तरह लम्बे बालों वाली आदिवासी गाय
  6. ऊपर जायें सांगला का लोक देवता

महाकाव्य के बिना

शीर्षक मित्र कवि लीलाधर जगूड़ी से यह शब्द इस कविता के लिए उधार लिया गया है

लाखों-करोड़ों वार सहकर भी
भरती रही वह हर बार
कलम की भूखी चोंच का मुँह
छोटे से दवात में छुपी
कपड़े की नन्ही लीर

हम पढ़ते रहे महाभारत
रटते रहे रामायण
करते रहे याद रामचरितमानस की चौपाइयाँ

एक बार भी नहीं सोचा हमने
लीर और कलम के रिश्ते के बारे में
कितनी पीड़ा सहकर पहुँची होगी
कलम की चोंच में छुप कर
काग़ज़ के पृष्ठों तक लीर की तकलीफ़
भूल चुके हैं हम-
लीर और कलम के दर्द में शामिल होकर ही
लिखा जा सकता है कोई महाकाव्य
छोटी चिन्ताएँ खिल सकती हैं बस
छोटी कविताएँ बन कर
मेरे मित्र! सही कहा था तुमने
गुज़र जाएगी यह सदी महाकाव्य के बिना।

हरिपुरधार 

बुरास के घने जंगल में लाल फूलों से लदी
इस धरती की सबसे ख़ूबसूरत धार[1] है हरिपुरधार[2]
हरिपुरधार है आस्थाओं का अस्पताल
महाशक्ति का उत्तुंग शिखर
वह है नारी का सर्वोच्च सम्मान
किसी अबला के आक्रोश की आग है हरिपुरधार

रहती है वहाँ शिरगुल देवता की बहन-
भगियाणी माता
चौपाल के, सिरमौर के लोगों की कुल देवी
शिमला के लोग जानते हैं उसे ‘उलटी देवी’ के नाम से
कहते हैं-
वह भागती है कुछ लोगों के पीछे
छीन लेती है उनका सुख-चैन
कर देती है सर्वनाश
उसका नाम लेते ही डर जाते हैं कुछ लोग
जैसे डर जाते हैं मुजरिम पुलिस की पगड़ी से
डर जाते हैं लोग साँप का फन देखकर
दोस्तों-
जितनी बार मरेगी घुट-घुट कर कोई अबला

उतनी ही बार बनेगी वह भगियाणी देवी
डरते रहेंगे नींद में भी कुछ लोग

डरे हुए लोग खोजते हैं मन्दिर के अन्दर
भगियाणी देवी होने का सच
वे नहीं जानते-
भगियाणी देवी का सच मन्दिर के अन्दर नहीं
मन्दिर के बाहर-
हर गाँव, हर घर में मिलेगा
उसके मिलने की
सबसे बड़ी सम्भावना है वहाँ-
जहाँ अन्दर से बन्द रहते हैं दिन भर
घरों के दरवाज़े
जहाँ से नहीं आती कभी किसी के
हँसने की, रोने की आवाज़
जहाँ नहीं खनकतीं कभी चूड़ियाँ
देखती हैं बस बेचैन आँखें-
झरोखों से लगातार-
हरिपुरधार।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें किसी पहाड़ की सबसे ऊँची जगह
  2. ऊपर जायें हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले की एक ऊँची धार जहाँ भगियाणी देवी का मन्दिर बना है। वह चौपाल और सिरमौर के लोगों की कुल देवी है। शिमला के आस-पास के लोग उसे ‘उलटी देवी’ के नाम से जानते हैं। उनका मानना है कि वह कुछ लोगों के पीछे पड़कर उनका सुख-चैन छीन लेती है।

देवता के दरख्त की त्रासदी 

जिस दिन कटा देवता का वृक्ष
सहम गयी पूरी अमराई
टूट गये उसी दिन आस्था के तमाम धागे
नष्ट हो गयीं मन्नतों की चुनरियाँ
दादी कहती थीं-
‘उस पेड़ में रहते हैं प्रत्यक्ष देवता
जानते हैं हर मनुष्य की तकलीफ़
पल भर में हर लेते हैं तमाम दुःख
रोक लेती हैं देवता के वृक्ष की बाँहें
गाँव में आने वाला अमंगल’
दोस्तों ! देव-तरु था पूरे गाँव का हौसला
पूरी बस्ती की हिम्मत
वह था एक जन-विश्वास
बेशुमार चिड़ियों का घर
दूसरों को बचाने वाला नहीं रोक पाया इस बार
अपने ऊपर होने वाला प्रहार
नहीं फोड़ सका कुल्हाड़ी चलाने वालों की आँखें
‘जन-हित’ में दे दी देव-द्रुम ने अपनी जान
भू-अधिग्रहण में मारा गया आख़िर सुर-तरु
कानूनी जबड़ों ने ख़त्म कर दिया उसका हर-भरा वंश
ख़त्म हो गये उसके साथ ही-
लोक-निष्ठा के तमाम बीज
देव-तरु था लोक राग, लोक-आग का विनायक
वह था बादल राग, अग्नि राग, वायु राग, जीवन राग
सभी कुछ एक साथ
शोक में डूबा रहा बहुत दिनों तक पूरा गाँव
उसकी नींद में आता रहा बार-बार
देवता का दरख्त
आता रहा सपनों में उसका वार्षिक अनुष्ठान
जिसके आसरे साल भर के लिए
हो जाता था बेफिक्र पूरा गाँव
बच्चे करते रहे याद गुड़ का हलवा
होने लगी औरतों को फ़िक्र-
चुनरी बाँधने की
लोग सोचते रहे-
कौन सुनायेगा अब बादल राग, वायु राग
कौन ढूँढ़ेगा बस्ती की चिन्ताओं के हल
कौन रोकेगा अमंगल
इसी उधेड़बुन में बेहिसाब बाँसुरियाँ-
बजाने लगी पेड़ों की पीड़ा
गूँजने लगा जंगल में दरख्तों का दर्द
एक दिन ले लिया गोद ग्राम कन्याओं ने
सुर-तरुओं से भरा एक ख़ूबसूरत जंगल।

राम अवतार

गली-दर-गली नंगे पाँव घूमते हुए
अपने कन्धों पर उठाये पूरी दुकान
हर रोज देखता हूँ मैं पाजामे वाले राम अवतार को
सोचता हूँ-
आखिर कब तक बचा पाएगा
वह अपने डिब्बे में मूँगफली
ऐसे समय में-
जब बेशुमार लोग लौट रहे हैं शॉपिंग मॉल से
एक ख़ूबसूरत मुस्कान के साथ
एक कमीज़ के पैसों में तीन-तीन कमीज़ें लेकर
राम अवतार रत्ती भर भी नहीं जानता-
बनिये और बाज़ार का बीजगणित
उसने सीखा है बस अपने पिता से-
घण्टी बजाकर मूँगफली बेचना

बेचारा राम अवतार नहीं जानता-
मूँगफली की जगह लोग
अंकल चिप्स के शौक़ीन हो गये हैं

अंकल चिप्स वाला अंकल जानता है-
दुनिया की तमाम भाषाएँ
उसे आता है दुनिया की नब्ज़ देखना
वह जानता है घंटियों को गूँगा करना
हमारी जो ज़ुबान बोलती है भाषा
वह उसी का स्वाद बदलता है
वह बनाता है-
सौन्दर्य की, स्वाद की परिभाषा
सपनों की, सोने की भाषा।

पुरखों की गन्ध

जितनी बार देखता हूँ अपने पोते का चित्र
उतनी ही बार सोचता हूँ-
कितने वंशों, गोत्रों, ख़ानदानों के ख़ून से
बनता है एक मनुष्य
इस बार जब आया था पूना से
मुंडन-संस्कार पर
लौटते समय अपने सिर पर हाथ फेरते-
कह गया था एक बहुत बड़ी बात-
‘मैं पापा की तरह हो गया’
बच्चे एक दिन जब बनते हैं पिता
तब वे भी सोचते हैं इस पृथ्वी के तमाम पुरुषों की तरह-
उनका पुत्र बने उनसे भी बड़ा आदमी
उसके पास हो बड़ा सा बँगला, बड़ी सी कार
उसके हों देश-विदेश में बड़े-बड़े बाज़ार
बहुत कम सोचते हैं पिता-
दुनिया को बड़ी करने की बातें
करने लगते हैं तमाम पिता रिश्तों का व्यापार
नींद में भी सृष्टि की देवी से करता हूँ प्रार्थना-
बड़े बँगले में ले आना तुम
पोते के सपनों में अंजीर का, अख़रोट का पेड़
बरसात के मौसम में जहाँ खेलते थे उसके पिता
एक बार ज़रूर ले जाना तुम उस जगह
जहाँ उसके पिता ने पहली बार सीखा था-
जीवन का अंकगणित
शायद वहीं कहीं मिल जाए उसे
अपने पुरखों की गन्ध
मिल जाएँ लोक-वर्णमाला के
बचे हुए बीज।

दादी का पंचतन्त्र

बहुत बार सोचता हूँ-
दादी के पंचतन्त्र के बारे में
सोचता हूँ कहाँ लुप्त हो गयीं
राक्षसों की वे जातियाँ
जो एक आवाज़ पर रख दिया करते थे-
तमाम तरह के गहने, हीरे-जवाहिरात
अपनी गुफा के बाहर
शादी-ब्याह के लिए
दादी अकसर सुनाया करती थी-
गुफाओं की रहस्यमयी कहानियाँ
दादी ने नहीं देखे थे कभी राक्षस
नहीं देखे थे कभी उनके हीरे-जवाहिरात
पर उसने सुने थे अपनी दादी से
राक्षसों की ईमानदारी के बेशुमार किस्से
वह कहती थीं-
‘राक्षस होते हैं बेहद ईमानदार, वादे के पक्के
होते हैं अत्यन्त बलशाली
बड़े धनवान
पर वे नहीं जानते रोटियाँ पकाना
उनको आता था बस कच्चा मांस खाना
वे नहीं जानते थे आग के बारे में
नहीं जानते थे राग के बारे में’
दादी सुनाती थीं-
‘एक दिन चखा दिया
सेवकराम साहूकार ने
राक्षसों को मालपुये का स्वाद
उस दिन से राक्षस हो गए ग़ुलाम
माँगने लगे बार-बार मालपुआ
माँगने लगे दाल-रोटी
उन्होंने छोड़ दिया कच्चा मांस खाना
सेवकराम ने ख़ाली कर दीं
राक्षसों की रहस्यमयी गुफाएँ
ख़ाली कर दीं उनकी तमाम तिजोरियाँ
वह माँगता रहा-
दाल-रोटी मालपुए के बदले हीरे-जवाहिरात
हो गए कंगाल धीरे-धीरे
गुफाओं के राक्षस
रोटी की भूख ने मार दिये
धीरे-धीरे तमाम राक्षस’
दोस्तों ! बड़ी ख़तरनाक होती है-,
नमक की मार
नमक का प्यार
लग जाए एक बार जिस जीभ से
बढ़ जाती है उस शरीर की प्यास
नमक ईमान है स्वाभिमान है
मनुष्यता की पहचान है
नमक ख़ूबसूरत सपनों की खान
मनुष्य की जान है
नमक जब कभी बन जाता है गाली
बाहर से नहीं मनुष्य अन्दर से मरता है
नमक खाने से बार-बार डरता है।

पिंजरे की पहेली

उसे आता है काग़ज़ को
ख़ूबसूरत पन्ने में बदलना
उसे आता है-
पुराने कोट में सपनों को छुपाना
उसे आती हैं कई तरह की भाषाएँ
उसने सीख लिए हैं कई तरह के राग
वह नहीं जानता-
कैसे चिड़िया लाती है अपने मुँह में छुपाकर
अपने बच्चों के लिए पूरा खेत
कैसे पहुँचाती है नदी घोंसलों तक
वह जीवन भर तलाशता रहा वह स्कूल
जहाँ सीखा था चिड़िया ने घर बनाना
उसने गुज़ार दिया पूरा एक जीवन
नहीं सीख सका फिर भी
चिड़ियों की तरह प्यार करना
चिड़ियों की चोंच जानती है-
प्यार की, वार की भाषा
नहीं जानती वह व्यापार की भाषा
अपने पंखों के भरोसे
जान लेती हैं चिड़ियाँ
पूरी दुनिया का सच
बिना किसी मशीन के जान जाती हैं-
धरती के अमंगल की ख़बर
नहीं समझ पाई वह आज तक-
बहेलिये के पिंजरे की पहेली।

औरत और तवे की गुफ़्तगू

बहुत बार सोचता हूँ-
सदियों पुराना है औरत और तवे का रिश्ता
दोनों बने हैं शायद एक दूसरे के लिए
गुज़र जाता है आग से लड़ते-लड़ते ही
दोनों का पूरा जीवन

रोटियाँ तवे पर डालने से पहले
औरत करती है याचना-,
जैसे भी हो बचा लेना मेरी अँगुलियाँ
मैं पोंछ सकूँ अपने और बच्चों के आँसू
डाल सकूँ माँग में चुटकी भर सिन्दूर
सजा सकूँ हथेलियों पर मेहँदी के फूल
खिला सकूँ चिड़ियों को चावल
उकेर सकूँ बच्चों की तख़्ती पर वर्णमाला के अक्षर
सिखा सकूँ अपने दूध पीते बच्चे को
अँगुली पकड़ कर चलना

तवा सुनता है उसकी दर्द भरी आवाज़
कहता है धीरे से-
मेरी तो नियति ही है तपना और तपाना
बन चुका है मेरा शौक आग से खेलना
बँट रहे थे जब इस धरती पर तमाम तरह के काम
सुन लिया मैंने भी ग़लती से उस गुफ़्तगू को
उसी दिन जान गया मैं
तुम्हारे साथ होने वाली साजिश का सच
नहीं जलतीं तुम्हारी ख़ूबसूरत अँगुलियाँ
गर एक भी औरत हुई होती शामिल
उस दिन की बैठक में
वह तो पुरुषों की सभा थी
क़ायदे-कानून बनाने वालों की सभा
उनको तुम्हारी अँगुलियाँ नहीं मुस्कान चाहिए
तुम्हारी थकान नहीं बस काम चाहिए
मैं तुम्हें देता हूँ एक बीज मन्त्र-
तुम्हारी मुक्ति राम में नहीं लगाम तोड़ने में है
वह मन्दिर की घंटियाँ बजाने में नहीं
कन्धे से कन्धा मिलाने में है
बहुत जी चुकी तुम दिल से
अब दिल और दिमाग़ दोनों से जीना सीखो।

विडम्बना 

हम चले गये एक बार
एक आदमी के साथ
सात समन्दर पार
बिक रही थीं वहाँ इस धरती के
सबसे अच्छे मनुष्य की कुछ चीज़ें-
उसका चश्मा
उसका पैन
उसकी घड़ी
उसके फटे हुए जूते
उसका पुराना कोट
हमने सोचा-
ले जाएँगे आज इसे हम अपने घर
पूरी दुनिया से कहेंगे-
हमारे पास हैं इस धरती के
सबसे अच्छे आदमी की चीज़ें
हमारी आँखों के सामने
देखते ही देखते
ले गया ख़रीद कर-
उन चीज़ों को
इस धरती का सबसे बुरा आदमी।
साज़िश

जितनी बार जाते रहे पिता हरिद्वार
लाते रहे खुदवाकर उतनी ही बार
पीतल के, कांसे के लोटों पर अपना नाम
बर्तनों को चमकाते-चमकाते
माँ ने गुज़ार दी पूरी उम्र
छोटे से चम्मच पर भी नहीं खुदा
कभी माँ का नाम

जानते थे पिता-
बहुत पुरानी है पुरुषों के नाम लिखवाने की
परम्परा
देख चुके थे बहुत बार पुराने बर्तनों पर
दादा -परदादा के नाम
पुश्त-दर-पुश्त जलते रहे
चूल्हे की आग पर
परिवार की तमाम औरतों के हाथ
औरतें रखती रहीं उपवास
माँगती रहीं ईश्वर से
पतियों की लम्बी उम्र
नहीं किया कोई उपवास पिता ने
कभी माँ के लिए
शामिल हूँ मैं भी कुछ हद तक
पिता की परंपरा में
लिखता हूँ तरह -तरह की कविताएँ
लगवाता हूँ अपने घर के दरवाज़े पर
अपने और अपने बेटों के नाम की तख़्ती।

औरत

दोस्तो !
जैसे एक नदी में होती हैं सैकड़ों नदियाँ
एक पहाड़ में होते हैं असंख्य आग के घर
उसी तरह-
एक औरत में होती हैं अनगिनत निर्मला पुतुल
असंख्य तसलीमा नसरीन, दर्जनों कात्यायनियाँ
दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने के लिए
वह करती है पुरुष से प्यार
करती है होम अपनी तमाम इच्छाएँ
स्वाह सैकड़ों सपने
एक औरत अपनी माँ का घर छोड़ कर
बनाती है अनगिनत घर
बदलती है दीवारों को घर में
जोड़ती है घर से घर
वह जलाती है-उम्मीद के, विश्वास के उपले
वह जानती है घोंसलों की हकीकत
जानती है सपनों का छल
दुनिया का सच
औरत है आग ही आग
फिर भी बाँटती है राग इस धरती पर।

वांगतू-करछम के पहाड़

वांगतू-करछम: हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के वे स्थान जहां इन दिनों जयप्रकाश विद्धुत परियोजनाएँ बन रही हैं

उन्होंने नहीं सोचा था कभी
एक दिन आएगा कोई जयप्रकाश
ख़त्म कर देगा एक झटके में
उनकी सदियों पुरानी ठसक
बारूद भरने वाले हाथ नहीं जान सकते
कैसे रोते हैं पहाड़
चीख़ते हुए, कराहते हुए पहाड़
मरते हैं दिन में सौ-सौ बार
जयप्रकाश तुम ख़त्म कर रहे हो
जिन पहाड़ों का अस्तित्व

वे साध रहे हैं अन्दर ही अन्दर एक प्रलय-राग
सुनो उस राग की आग
समझो धरती पर गिरते
उनके आँसुओं का आक्रोश
पहाड़ नाना-नानी, सत्तू-पानी
गुड़धानी, सृष्टि की कहानी
मनुष्यता की आधानी
सभी कुछ एक साथ हैं
जंगल का विश्वास हैं पहाड़
मनुष्य का श्वास हैं पहाड़
नदी की आस हैं पहाड़
जीवन की प्यास हैं पहाड़।

दिनों वर्तन

बारूद भरने वाले हाथ नहीं जान सकते
कैसे रोते हैं पहाड़
चीख़ते हुए, कराहते हुए पहाड़
मरते हैं दिन में सौ-सौ बार

जयप्रकाश तुम ख़त्म कर रहे हो
जिन पहाड़ों का अस्तित्व
वे साध रहे हैं अन्दर ही अन्दर एक प्रलय-राग
सुनो उस राग की आग
समझो धरती पर गिरते
उनके आँसुओं का आक्रोश

पहाड़ नाना-नानी, सत्तू-पानी
गुड़धानी, सृष्टि की कहानी
मनुष्यता की आधानी
सभी कुछ एक साथ हैं
जंगल का विश्वास हैं पहाड़
मनुष्य का श्वास हैं पहाड़
नदी की आस हैं पहाड़
जीवन की प्यास हैं पहाड़।

लोग रखते हैं घरों में सहेज कर
पुरानी घड़ी
पुराना ग्रामोफोन
पुरानी तलवार
पुराने सिक्के
पुरानी मूर्तियाँ
पर कोई नहीं रखना चाहता घर में-
बूढ़ा आदमी
बूढ़ा आदमी होता है-
बोलता हुआ इतिहास
गुनगुनाता हुआ श्वास
टूटता हुआ विश्वास
वह होता है-
बची-खुची दया का दास।

गम्भर (एक)

पिछले साठ बरसों में
पी चुका हूँ मैं अनगिनत नदियाँ
खा चुका हूँ तमाम देशी-विदेशी खेत
सिखर दोपहर में बैलों के कन्धों से
हल और हेंगा उतार कर
जब शरीर माँगता है पानी
गुनगुनाने लगती है गम्भर[1] मेरे भीतर
धीरे-धीरे कहती है मेरे कान में
बस अब और नहीं बुझा सकती मैं तुम्हारी प्यास

बहुत मुश्किल है इस धरती को सींचना मेरे लिए
तमाम घड़ों से कह दो-
वे गाएँ मेरे लिए

अपना अन्तिम विदाई गीत
मुझे नहीं पता था-
तुम हो सकते हो कभी इतने क्रूर
मुझसे जीवन लेकर
कर दोगे समाप्त एक दिन मेरा जीवन
तुम्हारे दादा-परदादा नहीं थे कभी-
तुम्हारे जैसे स्वार्थी, निष्ठुर, अगम्भीर, अदूरदर्शी
मेरी हलकी सी आवाज़ पर-
दौड़े चले आते थे मेरे पास
निहारते थे मुझे लगातार

करते थे इबादत मेरी बार-बार
अपने दोनों हाथों से चलाती थी मैं उनके घराट[2]
पहुँचाती थी उनकी अस्थियाँ सागर तक

तुमने नहीं ली कोई सीख कभी
मेरी बड़ी बहन सरस्वती से भी

लुप्त हो जाऊँगी मैं भी एक दिन उसी की तरह
पानी-पानी माँगते हुए
जब चले जाओगे तुम इस धरती से
तब कोई नहीं ले जाएगा तुम्हारी अस्थियाँ सागर तक
तुम बचाना चाहते हो यदि मनुष्यता
तो घड़े और घराट की तकलीफ़ से पहले
महसूस करो मेरी तकलीफ़
मत बाँधों मेरे हाथ और पाँव
बहने दो मुझे अपनी पुरानी ठसक के साथ
गुनगुनाने दो मुझे मानवता का गीत।

  1. ऊपर जायें पास से बहने वाली एक छोटी नदी, जिसका पानी हमारे घर तक आता है
  2. ऊपर जायें पनचक्की

गम्भर (दो)

गाँव के लगभग हर आदमी के पास
होती है उसकी छोटी सी गम्भर
अपने हल्क़ में उतारता है जिसे वह घूँट-घूँट
पीता है उसे बूँद-बूँद
महसूस करता है अपने भीतर
उसकी तमाम ऊर्जा-एनर्जी
उसकी हरकतें-शरारतें
उसकी सरसराहट

गम्भर को गम्भर बनने में लग जाते हैं
अनगिनत वर्ष
गम्भर जन्म से ही जानती है भागना
वह दौड़ते हुए, भागते हुए
लड़ते हुए, लड़खड़ाते हुए
गुज़ार देती है अपनी पूरी उम्र
उसकी नियति में है भागना
आ रही है सदियों से भागती
भागते हुए ही पार करनी हैं उसे
अभी और कई सदियाँ।

गम्भर (तीन)

हर शहर के पास नहीं होती
उसकी अपनी नदी
वहाँ रहने वाले लोग नहीं जानते
किस भाषा में बोलती है नदी
गाती है कौन से राग में जिन्दगी का गीत
उसे देखने-सुनने
छूने की इच्छा में
गुज़ार देते हैं वे पूरी उम्र
इस दुनिया को छोड़ते समय
करते हैं मन ही मन प्रार्थना-
यदि हो फिर से एक और जन्म
तो वह हो किसी गम्भर के किनारे
किसी सूखे शहर
सुखी नदी के पास
नहीं पैदा करना मुझे
नहीं जन्म देना किसी ऐसी जगह
जहाँ कन्धों पर
नदी की पालकी उठाने में
बीत जाए पूरा दिन
जहाँ चालीस नील गायें
मर जाएँ एक साथ तड़प-तड़प कर
किसी गम्भर की तलाश में।

गम्भर (चार) 

भागते हुए भी नहीं भूलती गम्भर
पहाड़ों को प्यार करना
नहीं भूलती अपना रास्ता
अपना कर्म
अपना धर्म
वह जानती है अच्छी तरह-
रास्तों को तोड़ना, मोड़ना
उसे आते हैं बनाने नये-नये रास्ते
गम्भर है पहाड़ की रिसती हुई तकलीफ़
बाँटती है पीड़ा में भी
प्रेम के पेड़े
बुझाती है प्यास।

लौट आओ

कितनी ज़रूरी है घर के अन्दर-बाहर धूप की उपस्थिति
नहीं जान सकता यह काँचीपुरम का कृष्णन
इसे जान सकता है कुमार कृष्ण
कुमार कृष्ण अच्छी तरह जानता है
बर्फ का बीजगणित, पट्टू का इतिहास
पुआल का ताप, देवदारु के जीवनानुभव की गरमाहट
खेत-खलिहान, पगडण्डियों का व्याकरण
बैलों के कन्धों की सूजन
जितना कठिन है पहाड़ पर चढ़ना
उससे भी मुश्किल है

पहाड़ को कविता में पूरी तरह छुपा लेना
कुमार कृष्ण तुम पहाड़ और कविता दोनों एक साथ हो
घराट[1] का पसीना, कठफोड़े की भूख

लाल किले से कविता पढ़ने का तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं।
लाल किले की प्राचीर से शब्द उड़ाने वाले नहीं गाते
चरवाहों के गीत

उनकी कविता में उड़ते हैं टेड ह्यूज के कौवे
उग्रवादी ध्वनियों की जगह थरथराता है

नीत्शे और कामू का मृत्यु-भय
आखिर क्यों भूल जाते हैं वे
लूणा का दर्द, पूस की रात, मीर की, ग़ालिब की तकलीफ़
राम विलास शर्मा की जगह याद आता है उनको सार्त्र
काशी के घाट पर गिन्सबर्ग का नौकाविहार।

नहीं गाये उन्होंने
महाबलीपुरम के मछुआरों के गीत
नहीं गायी पटना के प्लेटफार्म पर
पत्तल चाटती औरत की ग़ज़ल।

दादर की खोली में
पूरी तरह बचाकर रखी है अभी भी
प्रवासी मजदूर ने रिश्तों की गरमाहट
इसीलिए लौट आता है वह साल में एक बार गाँव
जैसे लौट आते हैं अपनी-अपनी नौकाओं में मछुआरे
फटे हुए तम्बुओं में लौट आते हैं बाजीगर
लौट आता है रात उतरने पर
फ्लाईओवर के नीचे हिन्दुस्तान
लाल किले के मंच पर चढ़े हुए कवि
तुम भी लौट आओ चाँदनी चौक में
आई.टी.ओ.पुल नहीं है तुम्हारी जगह
सोचो, ठीक तरह से सोचो-
तुमको कहाँ होना चाहिए इस वक़्त।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें पनचक्की

वह सोचता है 

बाज़ार से लौटा हुआ आदमी
पड़ोसी के घर में
गोश्त की तरह कट-कटकर बिकने वाली डबलरोटी को
दस फुट के फासले से देखता है
तकड़ी और बही की दोस्ती महसूसता हुआ
खीसे के रुपये की औकात के बारे में सोचने लगता है

हड़ताल से लौटा हुआ आदमी
राजा के बारूद के बारे में सोचता हुआ
महसूस करता है लफ़्जों की कमजोरी
स्कूल से लौटा हुआ बच्चा
किताबों के सच
आन्दोलन के सच के बारे में सोचकर
भाग जाना चाहता है राजधानी की ओर।

विदेश-यात्रा से लौटा हुआ राजा
नहीं सोचता कुछ भी;
वह लौट जाना चाहता है फिर से विदेश-यात्रा पर

खेत से लौटा हुआ किसान
बीज और पृथ्वी के रिश्ते के बारे में सोचता है और
हल के फाल को आग के हवाले कर देता है।

सूर्य 

तुम आये गाय के थन से उतर आया दूध
राजा के हाथ की कैंची चीरने लगी
अनगिनत उद्घाटन
दिन भर जंग लड़ता रहा एक आदमी
दूसरे आदमी ने प्रार्थना की तुम्हारे स्वागत में
तीसरे ने तालियाँ बजाईं
राजा के शरीर की मालिश में
बिता दिया पूरा दिन चौथे आदमी ने
तुम्हारे जाने से पहले ही
राजा सो गया।
कविता और तमाशागर

मैंने अपनी एक कविता में
अनगिनत घर बो दिये
आदमियों की बेहतरीन फसल की प्रतीक्षा में
मजबूत पेड़ों की प्रतीक्षा में
एक कविता में बो डाले बेशुमार जंगल
खतरे के निशान को पार करती हुई
तमाम नदियों को रोकने की कोशिश की
मैंने एक कविता में।
मैं उस कविता को लेकर
स्कूली बच्चों के पास गया
उन्होंने कहा-
“आदत पड़ चुकी है हमें देशभक्ति के गीत गाने की
तुम अपनी कविता किसी तमाशागर को दे दो।”
तमाशागर पगड़ी बाँध रहा था
जब मैं उसके पास पहुँचा
मेरी कविता को सुनकर बोला-
मुझे ठीक करना है अपना फटा हुआ डमरू
तुम एक काम करो,
आज मेरे साथ चलो और देखो
कैसे खिंचे चले आते हैं लोग
वैसे मैं हर रोज एक-सी भाषा बोलता हूँ।

बहुत कुछ एक-सा है तुम्हारा और मेरा काम
हम दोनों करते हैं भाषा का धन्धा
एक भाषा करती है लोगों को अन्धा
दूसरी देती लोगों को कन्धा
यह दूसरी बात है कि हमारे शब्दों पर बजने वाली
तालियों की गरमाहट कम हो गई है
हम दोनों इसके बारे में
मिलकर सोचेंगे किसी एक दिन
तुम गलत समय पर आये हो
यह दफ्तरों में
ठण्डे भोजन को पेट के सुपुर्द करने का वक़्त है,
मुझे इसी मौके के लिए डमरू तैयार करना है।

हिमायत

गन्ने की तरह गाँठदार
अमरूद की तरह अनगिनत बीजवाली
लिखो तुम कविताएँ बेशुमार
वर्णमाला के अक्षरों में
अ से ज्ञ तक
बचा लो मेरे दोस्त,
पृथ्वी की मिठास।

घर

एक दिन मैंने उस घर के पास से गुजरते हुए
ठहाकों का शोर सुना-
मैं रुक गया।
एक दिन मैंने उस घर के भीतर
किसी को सिसकते हुए सुना-
मैं रुक गया।
एक दिन मैंने
किसी नये जन्मे बच्चे के
रोने की आवाज़ सुनी-
मैं उस घर के सामने रुक गया।
एक दिन उस जगह से गुजरते हुए
मैंने देखा-
वहाँ कोई घर नहीं था

बैल: एक

जब भी बरसता है पानी
पोखर में लौट आता है मौसम
उसकी बूढ़ी हड्डियाँ
खुशी से काँपने लगती हैं।

वह जानता है अच्छी तरह
अगली सुबह होगी उसके सामने
नर्म घास
हाँक दिया जाएगा वह खेतों की ओर
बार-बार हाँकने का दूसरा मतलब
बैल है।
जब भी बदलता है मौसम
वह उगाता
करोड़ों रोटी के दरख़्त
फिर भी लोग देते दुहाई
पोखर के ग्राम-देवता की
बूढ़े बैल की मशक्कत लौट आती
खुरों के पास हर बार
मौसम बदलने पर।
मेरे कुछ दोस्तों के लिए
रोटी के दरख़्त उगाने वाला वह जानवर
एक खतरनाक मौत है।

बहुत जल्दी पहचान लेते हैं लोग
उसके सींगों का भय
वैसे भी पहचान करवाने का
खूबसूरत करिश्मा है भय।
गाँव से शहर तक खाँसता है वह
बूढ़ा पंजर
खेत जोतने से लेकर
ठेले खींचने तक की मशक्कत
कभी बहस का मुद्दा नहीं बनती

वैसे हर मौसम में नलवाड़ी[1]
उसके बिकने की दास्तां है।
बैल खूँटे से बँधा
रोटी का नक्शा है
फिर-फिर पलोसने से
थरथराता है बार-बार।

शायद तुम नहीं जानते,
यह जानवर
कितनी साजिशों में शामिल है गाँव में

साल में
खड़ा होता है कितनी बार
कचहरी के कठघरे में

रोटी के दरख़्त उगाने वाला वह जानवर
होता है कितनी बार नीलाम
रोटी के लिए तय करती हैं कितनी बार
झूठी शहादतें उसका भविष्य
मेरे कुछ दोस्त इसे नहीं जानते।
मेरे दोस्त नहीं जानते
बैल किस तरह बनता है जूता
लगातार ज़मीन से लड़कर
घिसते हुए
टूटते हुए
जीने का नाम
जूता है
बैल का असली रूप वही है
जूता बैल की मशक्कत की
अन्तिम इच्छा है।

वैसे आसान काम नहीं
उस जानवर को
कविता के खूँटे में बाँधना
जो हर बार
नये नाम से लाँघता है नया दरवाजा।
जितनी बार झुकता है वह
पोखर के पानी पर
महसूस करता है एक पूरा दरख़्त
फटी हुई गर्दन पर।
फटी हुई गर्दन की तकलीफ़
फैल जाती है पोखर में
जिसे पीकर
लौट आता है वह हर बार
मौसम बदलने पर।

कुछ दिनों से
जीभ की लार में उतरा
उसका गुस्सा
खाने लगा है रोटी के दरख़्त
इसीलिए हो गया है ज़रूरी
उसके बारे में बात करना
मेरे कुछ दोस्त इसे नहीं जानते।

लिखे हैं मेरे कुछ दोस्तों ने
दर्जनों निबन्ध
उस जानवर के बारे में
आया है जिक्र जिसमें कई बार
उसकी टाँगों का
उसके सींगों का
उनके लिए
रँभाने वाली मशीन है बैल
मैं जिसे
मार खाया चमड़ा कहता हूँ
जिसकी पूरी ताकत
करवा दी थी खत्म
हल जोतने से पहले रामसिंह ने।

नहीं फैला सकता देर तक
झूठा डर
मार खाया हुआ चमड़ा
दोस्तो,
चाहे झूठा हो या सच्चा
डर-तो-डर है।

जब भी रुकता है पानी
बिदक उठते हैं अचानक
जानवरों के रेवड़
घबरा जाता है रामसिंह का पूरा परिवार
फूल उठता है
मरा हुआ चमड़ा
लगता है रँभाने
रामसिंह के जूतों में
बैलों का रेवड़।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें पशुओं का मेला

बैल: दो

जिस दिन तुमने
ज़मीन को खेत कहा
उसी दिन बाँध दी रामसिंह ने
एक चमकदार घण्टी
तुम्हारी उस मजबूत गर्दन के साथ
जिसकी ताकत का सहारा लेकर
तुमने की थी हिम्मत
पहली बार ज़मीन को उखाड़ने की।
तुम करते रहे प्यार
घण्टी को
बच्चों के खिलौने की तरह

खाते रहे मार हर बार
मौसम बदलने पर।

घास खाने से लेकर
ज़मीन खोदने तक
हर संघर्ष के साथ बजती रही
तुम्हारे गले की घण्टी
सोता रहा सिखर दोपहर में रामसिंह
इसकी आवाज़ पर।

तुम नहीं जानते
गर्दन के नीचे लटकी घण्टी
अलार्म है तुम्हारी हर हरकत का।

रामसिंह ने पहचान ली ऐन वक़्त पर
तुम्हारी गर्दन की ताकत
बरसात महीने के पन्द्रहवें दिन
बाँध दिया तुमको
एक मजबूत खूँटे के साथ।

रामसिंह जानता है अच्छी तरह
तुम रोटी
जूता
लगातार संघर्ष करने वाली
भूरी ताकत
एक साथ हो
जो फैला सकती है किसी भी वक़्त
सींग की दहशत।

मेरे दोस्त,
कोई मायने नहीं सींग की दहशत के
उखाड़ सकती है
तुम्हारे कन्धों की ताकत
ज़मीन में गड़े खूँटे
नहीं तोड़ सकती दहशत
रामसिंह की घण्टी।
फैलने लगी है तुम्हारी भूरी ताकत
काले, सफेद, लाल कई रंगों में।

हर जूते से आ रही
हल के लोहे की आवाज़
फटी हुई गर्दन चमक रही
गोल रोटियों में।
तुम्हारे खून के पक्ष में
गवाही देने को
हो गई हैं तैयार लाठियाँ
मेरे दोस्त,
यह रामसिंह की घण्टी उतारने का
सही वक़्त है
तुम एक-दूसरे के
कन्धे खुजलाना शुरू कर दो
और शामिल कर दो
खुद को रेवड़ में।

तीसरे खेल की तलाश

भिन्न हैं उनकी चिन्ताएँ, खुशियाँ और तकलीफ़
पशुओं के पर्व, पानी की पूजा
बच्चे के जन्म पर
धूप और तारों से समय को पकड़ती
औरतों के दुःख।

पीपल की जड़ें प्रतिदिन लिखतीं चौपाल की डायरी
गाय के थन बच्चों की उम्र
तुलसी के पौधे घरों का इतिहास
छत की मुँडेर परिवार की सम्पन्नता।

सूखे हुए पोखर में पहलवानी करते बच्चे
चोरी का गुड़ खाकर जितने खुश होते हैं
उतनी ही खुश होती हैं
खट्टे के पेड़ तले छोटी-बड़ी लड़कियाँ।
बीज के गुल्लक और सपेरे की बीन में

घर के कन्धों पर चढ़ी लौकी का ठसका।

पूरी तरह मौजूद है
बहुत अधिक होने लगी हैं वहाँ
लकड़ी, घास और पानी चुराने की वारदातें

आलू-अदरक के बीज गुम होते हैं कभी-कभी
गुड़ और आग बाँटने वाले बच्चे
गुल्ली- डण्डा, चोर-सिपाही के खेल के अतिरिक्त
ढूँढ़ रहे हैं कोई तीसरा खेल।

छेरिंग दोरजे 

आप यकीन मानिए-
छेरिंग दोरजे के लिए
सलमा सुलतान के सन्देशों का
कोई महत्व नहीं

वह पहाड़ों की गन्ध में जीता
ऐसा शख़्स है
जिसके लिए
किसी भेड़ का देर तक मिमियाना
खूँखार जानवरों के हमले की
पूर्व सूचना है।

बड़े सँभालकर रखे हैं उसने
उनसे बचने के लिए
अपने पुरखों के
जंग लगे पुश्तैनी औजार
इनके रहस्यात्मक किस्से सुनाकर
अपने पोतों को
नींद के हवाले करता है
रात उतरने पर
छेरिंग दोरजे।
यह वह वक़्त है
जब दुनिया भर के किस्सों को लेकर
सलमा सुलतान आती है
मेरा बच्चा तब मुझसे
उसके जूड़े में लगे हुए
फूल का रंग पूछता है
खबरों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं
वह आदमी की पहचान
गन्ध से नहीं रंग से करता है।

आप यकीन मानिए-
छेरिंग दोरजे
पेड़ों की बिरादरी में काँपने वाला
एक ऐसा दरख़्त है
जिसकी अपनी कोई गन्ध नहीं
वह जंगल की गन्ध में
ऐसे दब गई है
जैसे धुएँ की गिरफ़्त में
रोटी का स्वाद ।

वैसे उस पेड़ के बारे में
कुछ भी बात करना
आसान काम नहीं
फिर भी लोग अरसे से
उसकी हँसी को
शब्दों के चेहरों को सौंपते आए हैं
जिसमें न जंगल बोलता है
न पेड़ की गन्ध
आप सोच रहे होंगे
मैं प्रकृति-चित्रण कर रहा हूँ
नहीं, मैं आपको
उस शख़्स के बारे में बताना चाहता हूँ
पहाड़ पर खड़े
उस मजबूत पेड़ के बारे में
जो हर मौसम की मार खाता हुआ
ज़मीन को जंगल में बदलने के लिए
जिन्दा है।
पहाड़ों में घिरी
जिस ज़मीन पर रहता है
छेरिंग दोरजे
उसका कोई नाम नहीं
ज़मीन का वह हिस्सा
किसी गाँव में नहीं बदला गया
जनगणना के आँकड़ों में।

ऊन के धागों को
गर्म कपड़ों में बदलने के लिए
जाना जाता है छेरिंग दोरजे
इस बेनाम ज़मीन पर।
सुबह से शाम तक
ऊन को बदशक्ल करके
नमक खरीदता है छेरिंग दोरजे
बना डाली है उसने आदत
कड़ाके की सर्दी में
ऊनी कपड़ों के बिना रहना।

नहीं सीख पाया वह आज तक
नमक के बिना रोटी निगलना
छेरिंग दोरजे की बूढ़ी पत्नी
एकमात्र बेटा-मारे गये
पिछले साल की बीमारी में
इस साल उड़ा ले गया
गीली लकड़ियों का धुआँ
एक आँख की रोशनी
छेरिंग दोरजे की पुत्रवधू कहती है-
चार दर्जन पहाड़ों को लाँघकर
कोई शहर है
जहाँ ठीक होती है आँखों की रोशनी
उसने नहीं देखा कभी शहर
सुना है
बहुत-से खूबसूरत घरों का नाम
शहर है
जहाँ मवेशियों को भी पिलायी जाती है
जिन्दा रहने की दवा
यह बात सुनी है उसने
जंगल के पार टाशी के मुँह से।

आसमान में उड़ते
किसी जहाज की आवाज़
उसके लिए शहरी गुर्राहट है
जिसके भय से बच्चे
घर से बाहर निकलकर
रोना शुरू करते हैं
जब-जब सुनती गुर्राहट डोलमा
तब-तब याद आती एक बात-
तुम्हारे बाप ने वादा किया था
वह मरने से पहले एक बार
ले जायेगा शहर की भागती हुई ज़मीन तक

एक दिन अचानक
बादल फटा उस घाटी में

यह खबर भी सुनी लोगों ने
सलमा सुलतान के मुँह से
पुत्रवधू और पोतों समेत
घायल हो गया छेरिंग दोरजे
टाशी का गाँव पूरी तरह लुढ़क आया
छेरिंग दोरजे की बेनाम ज़मीन पर।
इस हादसे के बाद
अधमरे लोग लाये गये
आसमान के रास्ते से
शहरी इमारतों तक
घूमने लगे छेरिंग दोरजे के जहन में
चार दर्जन पहाड़
आठ दर्जन भेड़ों के अक्स।
ज़मीन से बहुत ऊपर थी
छेरिंग दोरजे की घायल पीठ
पहली बार महसूस किया
घायल दोरजे ने
लोहे की चारपाई का सुख ।

छत से लटकी रोशनी को देखकर
झन्ना गया पूरा शरीर
सुन्न हो गया पूरा जहन
आसपास की चीज़ों को देखकर
भूल गया वह
भूखी भेड़ों के अक्स
उसके मुँह से निकली

बस एक लम्बी चीख
रेंगती रही देर तक पूरी इमारत में
वह जानता था केवल चीखना
चीssख ना
नहीं जानता था
बेनाम ज़मीन का बाशिन्दा
वर्णमाला के अक्षरों से जुबान सुखाना।

जितने लोग लाये गये शहरी इमारतों में
रफ्ता-रफ्ता हो गये पागल
गूँगे-बहरे-घोषित किया विशेषज्ञों ने
पर असल बात तो यह थी कि वे सब
नहीं थे पागल
नहीं थे गूँगे-बहरे
उनके पास थे शहरी भाषा के बिना
आदमी और औरतों के पूरे शरीर
किया जा सकता था जिनको इस्तेमाल
ठेले खींचने के लिए
या बनायी जा सकती थीं ब्लू फ़िल्में
उनके लिए
छत ले लटकी रोशनी
सूरज की आँख थी
जिसे चूमना चाहते थे वे
पूरी ताकत के साथ
ताकि लौट सकें
चार दर्जन पहाड़ियों को लाँघकर
शहर की पागल ज़मीन से दूर
भेड़ों के रेवड़ में।

कविता

कविता धूप का गीत
जंगल की खुशबू ही नहीं
कविता पानी के पत्थरों का
दर्द भी है।

एक सुन्न चट्टान के नीचे
दब जाता है
जब दिन
कविता हथौड़े की तरह
पूरी ताकत के साथ
उसे तोड़ती है।

वह शब्दों के जंगल में
कुल्हाड़ी की आवाज़ है
फिर-फिर लौटती
शब्दों से टकराकर।

कविता जुलूस में भटकी
शब्दों की गुर्राहट है
वह भाषा की
नदी में तैरती
शब्दों की का़ग़जी नौका है
जिसे देखकर खुश होते हैं बच्चे
डूब जाने तक।

गाँव: एक चित्र 

यहाँ दिन
थन के स्पर्श से आरम्भ होकर
इसी स्पर्श पर
होता है समाप्त
आवाज़ लगाकर आता है
कमरे के अन्दर
पशुओं के गले से
रँभाता हुआ समय।

स्कूली बच्चे
उठाये शहर का गणित
देश का इतिहास
जीते रहे रोज
सिसिफस का मिथक
दौड़ाते कच्ची तख्तियों पर
दादा की लाडली नदियाँ
रटते दिन भर
संविधान, आज़ादी, शिष्टाचार की बातें
ले आते बस्तों में भरकर
सुअरगन्धी गालियाँ
वर्षों से जिसे सुनते आये
भूमि जोतते बैल।

नहीं जानता परमानन्द
स्कूली तौर-तरीके
फर्क नहीं कोई उसके लिए
नेता और डंगर के मरने में।

पीटता हुआ वक़्त को
गीले चमड़े की तरह
डंगरों की गन्ध से आदमी की
करता है पहचान परमानन्द
समय को पीटना है जिसका पेशा
जो जानता है
गाँव के सारे मवेशी
मरते हैं ओबरों में
अस्पतालों में नहीं।

विद्याधर का जयपुर

विद्याधर[1]
तुमने बनाया सुन्दर रक्तवर्णी शहर
आग का फूल
बुधपुरा[2] के पत्थरों को दिया नया जीवन
लाख-घर में बदलते चले गए रफ्ता-रफ्ता
लाल पत्थरों के घर

तुम गोदते रहे मकराणा[3]
छुपाते रहे रियासत का सोना
मकराणा के शरीर में
चन्द लोगों ने चढ़ा लिया है अपने दाँतों पर
तुम्हारे राजा का सोना
खत्म हो गई है बाड़सोत[4] की ताकत
तुमने तो बन्द किया था पूरा शहर
हैं।
दरवाजों के अन्दर
बड़ी चौपड़ की भागमभाग में
कोई नहीं करता याद तुमको

भयभीत है तुम्हारा तोपखाना देश*
विद्याधर।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें वह व्यक्ति जिसने जयपुर शहर का नक्शा बनाया था।
  2. ऊपर जायें जयपुर के निकट का वह स्थान जहाँ पत्थरों की खानें हैं
  3. ऊपर जायें संगमरमर
  4. ऊपर जायें देहरी

गुड़गू मामा

बाज़ार से गुजरते हुए मेरा बच्चा
एक ज़रूरी चीज़ खरीदने की माँग रखता है
मिठाई या चाबी वाले खिलौनों में
उसकी कोई दिलचस्पी नहीं
वह गब्बर -गन खरीदने की बात करता है।

मैं टालने की कोशिश में कहता हूँ-
‘यह पटाखों का नहीं
बरसात का मौसम है
बरसात के मौसम में हर पटाखा
धोखे के पास सोता है
बारूद की तासीर जानना चाहते हो तो
धूप में तपे हुए दिन से पूछो
धूप और बारूद दोनों ही
धमाके के बहुत करीब होते हैं।’

बच्चा कुछ नहीं सुनता
एक ही साँस में कहता है-
‘पापा, गुड़गू मामा तो बरसात में ही पटाखे चलाता है
बार-बार गरजकर डराता है
आसमान से ज़मीन तक फैली
चमकदार आँखें
न खेलने देती हैं न सोने
मैं गब्बर-गन से मुकाबला करूँगा
गुड़गू मामा पानी बरसाता है तो कोई बात नहीं
मैं आग के सामने पटाखे गर्म करूँगा।’

बच्चा लगातार बोलते हुए पूछता है-
‘गुड़गू मामा की शक्ल किससे मिलती है?’

‘मैं नहीं जानता बेटा,
मैं तो बस इतना भर जानता हूँ
यह शब्द मुझे मेरे दादा से मिला
मैंने तुम्हें सौंप दिया
वैसे लोग इसे
आसमानी बिजली भी कहते हैं
उससे मुकाबले की बात
मैं नहीं सोच सका
तुम भी अपने साथ
पूरे स्कूल को शामिल कर लो।

गब्बर-गन खरीदने से पहले
बहुत ज़रूरी है एक बात जानना
बन्दूक के साथ होना
जंगल के साथ होना है।

गुड़गू मामा डर तो सकता है
पूरी तरह मर नहीं सकता।
गुड़गू मामा ने तुम्हारे हर पटाखे में
पानी भर दिया है
तुम स्कूल के गीत में
उसकी हरकतें भर दो
गब्बर-गन खरीदने की जगह
खुद को
पटाखों की तकलीफ़ में शामिल कर लो।’

डरावने मौसम की प्रतीक्षा

जिन्दा रहने के लिए
माँगती है ज़मीन पूरा आकाश
नीले चेहरे को जिसके छुपा लिया
गाँव के ताल ने।

क्या हो गया
तालाब पर फैली टहनियों को
मवेशियों की जीभ का दर्द पीते
तालाब नहीं तीर्थ है यह
मवेशियों का कच्चा मांस खाने वाले
गिद्धों का
कैद है जहाँ
मेरे बचपन का आकाश।

ब्रश की तरह खड़े
इसी की बगल में
अमृता शेरगिल, शोभासिंह के
चीड़ देवदार
बनाते आकाश पर
ज़मीन की तस्वीरें
मैंने सुना
बहुत कम रह गई है अब
धूप बेचने वाले
सौदागर की उम्र
उसका सिकुड़ता शरीर नहीं बाँट सकता
बर्फ और अँधेरे के सिवा
कुछ और बनती जा रही
बर्फ की चट्टान
मेरे गाँव की ज़मीन।

क्या बात है कि बोना चाहता हूँ
ज़मीन की काली तस्वीरें
दादा के बंजर खेतों में।

बरसाती नदी बखूबी समझती है
डंगरों की भाषा
जमाने की चाल
बचपन में सच बोलने के लिए
राजा ने दादा से
कटवा ली थी जीभ।

बैल को बैल नहीं
नाम से पुकारते रहे दादा
पढ़ाते रहे उम्र भर पशुओं को
गाँव का इतिहास
उखड़े नहीं अब तक
खेत में लगाए दादा के ओड्डे
कामयाब रहा चाहे बरसाती पानी
मेंड़ तोड़ने में हर साल।
रखते हुए शहरी सड़कों का हिसाब

मील के पत्थर
नापते हैं हर रोज
पूरा देश
नहीं नाप सकीं जंगली पगडंडियाँ
मेरे गाँव के अनहोनेपन को
बचपन में जिसे घेर लिया था
पहाड़ों ने।

पहाड़
पहाड़ों के अन्दर पहाड़
नीली गुफा
बौने अँधेरे
बूढ़ा राक्षस
परिकथाएँ।

टूटती आधी रात
नींद की सुन्न चट्टान
धँसती नजर अँधेरी गुफा में
सुबह की प्रतीक्षा में
खूँटों से बँधे डंगर
चबाते हैं रात
पसरा है बाहर थके खलिहान-सा
स्याह तालाब
चारों ओर सड़ रहे वर्षो से
फूल बनने को आकाश के बीज
नहीं खिला कोई फूल
इस तालाब में।

रसोई की मटियाली दीवार पर
मिटाती रही माँ हर त्योहार
दादी परदादी के हाथ के निशान
जलाती रही राख के डण्डे
नये त्योहार की प्रतीक्षा में।

गाँव की खण्डहर बावड़ी पर
करता रहा मैं इन्तजार
डरावने मौसम का
जिसका संवाद दिया मुझे
रात का गीत गाने वाले पक्षी ने
सूखती
जमती
भरती
बावड़ी के करीब
सुनाती रही माँ
बुजुर्ग पेड़ों, नीले दायरों, बूढ़े राक्षसों
बावड़ी के साँपों की रहस्यात्मक कहानियाँ।

लाख के दानों का घर: जयपुर

लाख के दानों, कपास के फूलों पर जिन्दा है
जयपुर
लाल पत्थरों के घर सोचते हैं हमेशा
लाल आग के बारे में।

हर वक़्त मौजूद है शहर में
राजा की किलेबन्दी

हम जितनी देर रहते हैं इस जगह
राजा के ठाठ के बारे में सोचते हैं
नाहरगढ़ के किले पर चढ़कर
छोटे-से गाँव में बदल जाता है जयपुर
वहाँ से नहीं नज़र आते लोग
पकी हुई ईंट की तरह लगती है ज़मीन
बाँहों को चूड़ियाँ
पैरों को चमड़े की चप्पल पहनाती
राजा जयपुर की ज़मीन

सांगानेरी चादर और कादर बख्श की रजाई में
जब भी आता है कोई सपना
मैं खुद को पाता हूँ राजा की गिरिफ़्त में
प्रहरियों से घिरा सड़क पर।

हवा महल के झरोखों से कोई नहीं देखता
कादर बख्श की आँखों का सपना
कादर बख्श हमेशा देखता है
हवा महल के झरोखे।

होने लगा है जौहरी बाज़ार में
पतंग और सुपारी का व्यापार
नाच रहे हैं लाल दीवारों पर बच्चे
किले से ऊँची पतंग उड़ने पर
जलेबी चौक के दरवाजे पर
गुड़- चना बेचते आदमी की आँखों में
जिन्दा है निर्धनता की पुरानी वर्णमाला
दस रुपये के टिकट से
जल्दी देखना चाहते हैं लोग-
राजा का सिंहासन
राजा का बिस्तर
राजा के कपड़े
राजा के शस्त्र।

नहीं करती किसी मौसम का इन्तजार
कादर बख्श की सुई
कपास के फूलों को सिलते हुए दिन-रात
वह हो गई है पहले से पैनी
पहले से पुख्ता।

आमेर की पगडण्डियों पर कोई नहीं गाता
बिहारी के दोहे
लाख की पीड़ा की ग़ज़ल है जयपुर।

धूप: पेड़ और रोटी की खुशबू 

मेरे घर के अन्दर
धूप अब नहीं आती
उसे रोक लिया है बड़ी मजबूती से
बगल में खड़े पेड़ों ने।

प्रतिदिन करता हूँ मैं नाटक
लकड़ियों की आग से गरमाने का
लकड़ियाँ -जो चुराकर लाते हैं
मेरे बच्चे
मेरे देश में पेड़ों का काटना
अपराध है।

धूप मेरे घर की समृद्धि है
पेड़ देश की समृद्धि
पेड़ के साथ जन्म से लेकर
मेरा एक घनिष्ठ सम्बन्ध है।

पेड़ पैदा होने से लेकर मरने तक
जिस्म के जलने की
जिन्दा शहादत है
पेड़ भागती हुई ज़मीन को पकड़ने वाली
बाँहों का नाम है
पेड़ जंगल में भटकी
रोटी की खुशबू है
मेरी माँ ने
पेड़ों को तोड़ने की कला
मुझे सिखा दी थी बचपन में
जिसे मैंने अपने बच्चों को सिखाया
मेरे बच्चे
लकड़ियाँ चुराने वाले गिरोह में
शामिल हैं।

मैंने बहुत बार
जंगल जलने के साथ
ज़मीन को जलते देखा है
जिसकी गन्ध मेरे घर में
अब नहीं आती
मेरे घर में आती है गन्ध
बगल में खड़े पेड़ों की
बार-बार, बार-बार
जो जंगल में भटकी
रोटी की खुशबू है।

सुरंग से गुजरकर देखें 

उस सुरंग से गुजरने का मतलब है
गोल अँधेरे की गिरफ़्त में आ जाना
अँधेरा नहीं जानता
रोशनी के बदरंग पेड़ों की चमक
नहीं जानता सुरंग के ऊपर चलने वाले
सूरज के घोड़ों की शक्ल
पर जनता है-
सुरंग के ऊपर लेटा पहाड़,
फट रहा है
रिस रहा है
गल रहा है।

कभी-कभार आने लगी हैं
बिदके हुए घोड़ों की आवाज़ें
सुरंग के अन्दर
उस सुरंग में लगातार सोते हुए
महसूस किया है कई बार चरनदास मोची ने
पहाड़ का फटना
पहाड़ फटने का मतलब
पूरे शहर का फटना है
कई बार कर चुका जिसका जिक्र
आते-जाते लोगों से
कीमती बूटों में
पूरे जोर से कील ठोकता हुआ
सुरंग के बाहर बैठा चरनदास।

सुरंग में प्रवेश करने से पहले लोग
डालते हैं एक नजर चरनदास पर
दूसरी जूतों पर
तीसरी नजर में स्वयं को
कर देते हैं लम्बी सुरंग के हवाले।

घर पहुँचने की हड़बड़ी में
भूल जाते हैं वे
चरनदास की बात
आधी सुरंग में पहुँचकर
उलटे-सीधे कदमों से
निकल आती जब कोई कील
जूते से बाहर
याद आता तब चरनदास
पहाड़ फटने की बात
तेज रफ्तार से भागते पाँव में धँसती
पूरी ताकत के साथ
जूते की कील
सुरंग से निकलकर कम होता
पहाड़ फटने का भय
बढ़ने लगता
पाँव का दर्द
चरनदास भरता पहाड़ फटने का भय
एक और जूते के अन्दर।

तालाब की झुर्रियों वाली ज़मीन

दरख़्तों की
टहनियों पर ठहरी
गाँव की छाँव
हर रोज हो जाती सिफर
लापरवाह सूरज की पीठ पर।
सूरज के हाथ हैं
बैल की पीठ से भी ठण्डे
कटते हर रोज मेरी दहलीज पर।

बदलते प्रतिदिन चितकबरे मवेशी
मेरे गाँव का मौसम
एक चिड़िया दूसरी चिड़िया को भेजती
गुपचुप सन्देश
चहकता पंखों पर बन्दूक का आतंक
करते हैं परेशान
ग्राम-कन्याओं को
काँच की चूड़ियों के आवारा टुकड़े
देते उम्र को मीठी तसल्ली।
आकाश के खुले छाते पर
नहीं ठहरती
पसीने की नदी पर
काँपती धूप।

नहीं काँपता गाँव के पोखर में
नीला आकाश
मेरे पत्थर फेंकने से अब
काँपती है तो काँपती है
तालाब की झुर्रियों वाली ज़मीन
जिन्दा है जिस पर
बोझ ढोते खच्चरों के
घुँघुरुओं का संगीत।

मवेशियों के त्योहार पर

उस घाटी के पेड़ों में
ज़मीन की नहीं
डंगरों की गन्ध है
जिनकी पीठ के बाल फँसे हैं
दरख़्तों की खाल के साथ जगह-जगह
मरी-मरी धूप में
पूँछ उठा-उठाकर पीठ खुजलाना
मवेशियों की आदत बन चुकी है।

उस घाटी में जब होता है
मवेशियों का त्योहार
पूरे गाँव के बैल नहीं खोदते ज़मीन
वे आँख बन्द करके सुनते हैं
खुद के बिकने की दास्तां।

चरनदास गुजरता है जब
गुलाबसिंह की ज़मीन से
लगते हैं रँभाने
गिरवी रखे हुए बैल
गुलाबसिंह के आँगन में।

बखूबी जानते हैं वे
चरनदास की गन्ध
बचपन के सभी त्योहार मनाये हैं
चरनदास के साथ
चरनदास नहीं थपथपा सकता
बैल की पीठ
मवेशियों के त्योहार पर।

घाटी में उगे
घने जंगल से गुजरते हुए
दरख़्तों की खाल में फँसे
बालों में ढूँढ़ता है
बैलों की गन्ध और
लौट आता है अपने आँगन में
झड़े हुए बालों को पलोसकर।

तीसरी कहानी 

गाय-बैल की कहानी के अतिरिक्त
कोई तीसरी कहानी नहीं है तुम्हारे पास
हाँ है बेटी!
तीसरी कहानी आदमी की कहानी है
बड़ी भयानक है वह
डर जाओगी तुम उसे सुनकर
पत्थर घिसने की गन्ध आ रही है
उठो चक्की के मुँह में दाने भर दो
इससे पहले कि खत्म हो जाए लालटेन का घासलेट
तुम चूल्हे पर चढ़ा दो तवा
और तेज कर दो लकड़ी की आँच।

खूबसूरत लड़की 

मैंने तो उगाई थी बेशुमार ककड़ियाँ
फिर भी नहीं आई वह खूबसूरत लड़की उसे चुराने
मेरी कविता का खेत आखिर पक गया
वह नहीं आई
मैं ढूँढ़ता रहा उसे बहुत से घरों में
ढूँढ़ता रहा अपने बच्चों की किताबों में
कहीं नहीं मिली मुझे वह खूबसूरत लड़की
एक दिन शहर की सड़क पार करते हुए
मैंने उसे अचानक देखा –
वह एक खूबसूरत तस्वीर से चुपचाप खड़ी
पता नहीं क्यों हँस रही थी।

आग जलाने वाला आदमी 

पता नहीं क्यों
रेलगाड़ी में सफर करते
मुझे अक्सर याद आ जाते हैं दादा
नहीं देखी थी कभी दादा ने
बड़ी बोगी वाली रेलगाड़ी
अंग्रेज की हेकड़ी तोड़ने में एक बार
उठा डाली थी दोनों हाथों से
कई मन लोहे की रेल-पटरी
आँखों की रोशनी से उसी दिन
मरहूम हो गये थे दादा

बहुत छोटा था
तब जानता था मैं-
दादा के कम्बल में है कोई जादू
वह झट से सुला देता है बच्चों को
बहुत बार मैंने
रोती हुई बहन को

उसी कम्बल में सोते देखा था
मैं यह भी जानता था उस वक्त-
हुक्का पीते समय
शायद आग ले जाते हैं दादा अपने मुँह में
और छुपाकर रख देते हैं कहीं अन्दर चुपचाप
तब नहीं जानता था मैं
कम्बल और नींद का रिश्ता
दिन-भर रस्सियाँ बटते हुए
नंगे पाँव चलते रहे दादा
आँगन की गरमाहट महसूस करते हुए
अपने हाथों से मापते रहे मेरी उम्र

ज्यों-ज्यों बड़ा हुआ
मैं जानने लगा
एक मजबूत ताले का नाम दादा है
एक मजबूत पहरेदार
किसी वक्त भी पीट सकता है
अपनी मजबूत लाठी से
किसी भी आहट की हरकत को
सबसे पहले जागने वाले
सबसे बाद सोने वाले
इन्सान थे दादा
आग जलाने और दबाने का काम करते रहे वह
अपनी अन्तिम साँस तक।

सागर से लौटते समय
सागर के पास भी है अपना छोटा-सा-सागर
वह नहीं जानता नदियों की तकलीफ़
लहरों का आक्रोश
सागर का सागर
बादल और पृथ्वी की उम्मीद का नाम है
सागर के पास भी हैं- प्रेमशंकर- शोभाशंकर
जिनके पास मौजूद हैं
रिश्तों के बीज की अनगिनत बोरियाँ
राग की आग
गोविन्द द्विवेदी, वीरेन्द्र मोहन भी हैं उसके पास
वे जानते हैं अच्छी तरह
छोटे-छोटे क्षणों की गुदड़ी
पूरी तरह फट जाने पर भी
कहीं छुपाकर रखती है अपने भीतर
दोस्ती की गरमाहट
सागर के पास भी है एक शिव कुमार श्रीवास्तव
वह उम्र भर छुपाता रहा रंगों में सागर
बतियाता रहा शब्दों से चुपचाप
उड़ाता रहा अकेला एक पतंग
सिलता रहा लोकतन्त्र का फटा हुआ कुर्ता
सागर के पास हैं चिरौंजी की बर्फी
खोये की जलेबियाँ
तेन्दूपत्तों के आँसू
कुछ तिराहे, कुछ चौराहे
सागर के पास भी है एक छोटा-सा पहाड़
ताप के ताये हुए दिनों को याद करते हुए
देख रहे हैं त्रिलोचन उस पहाड़ पर
गुलाब और बुलबुल का सपना
डाकघर के पास रहने पर भी
बहुत कम खटखटाता है डाकिया
त्रिलोचन शास्त्री का दरवाजा
मैं नहीं दूँढ़ पाया सागर के पहाड़ पर
कोई छोटा-बड़ा तिरिछ
काट खाये थे जिसने बहुत पहले
उदय प्रकाश के पिता
मैं सोचता रहा लगातार-
भयानक तिरिछ के बारे में
त्रिलोचन शास्त्री के बारे में
आखिर एक-न-एक दिन
किसी को तो मारना ही होगा तिरिछ।

वक्त बहुत कम है

वक्त बहुत कम है-
कविता की जेबों में जल्दी से भर लो
फटे-पुराने रिश्ते
नरगिस के फूलों की खुशबू
चूड़ियों की खनखनाहट
बैलों की घण्टियाँ
चाँद-तारों की कहानियाँ
हो सके तो छुपा लो कहीं भी
दादी का, नानी का बटुआ
थोड़ा-सा पानी
थोड़ा -सी आग
थोड़ा-सा छल
थोड़ा-सा राग
कविता के आँचल में बाँध लो चुराकर
थोड़ी-सी नफरत
थोड़ा-सा प्यार
लोहे की टोपी
हँसुए की धार
आधीअधूरी -सी छोटी-सी खुशियों का-
रख लें छुपाकर कोई अखबार।

किसी को मारने के लिए

किसी को मारने के लिए
कोई ज़रूरत नहीं तेज धार वाले हथियार की
किसी को मारने की सबसे आसान तरकीब है-
खत्म कर दो उसकी यादों को
एक-एक करके कम कर दो उसके सभी दोस्त
उन तमाम दरवाजों पर ठुकवा दो ताले
जहाँ चाय के लिए थकता नहीं
इन्तजार का दरख्त
तेज धारवाले हथियार का
इस्तेमाल करना है तो
कत्ल कर दो-
उसके सभी विश्वास, इरादे और सपनें
उसके उम्मीद-भरे कुर्ते में कर दो-
छोटे- छोटे सुराख
छीन लो उसकी हँसी की दातुन
बंजर कर दो रिश्तों के तमाम खेत
चश्मा लगाकर इण्टरनेट पर देखते रहो-
क्या था उस शख्स के मरने का सही समय।

कुमार विकल के निधन पर (एक)

हमेशा की तरह आज भी निकली है धूप
हमेशा की तरह आज भी थोड़ा ठण्डा है फाल्गुनी दिन
कहीं कोई खास नज़र नहीं आता बदला हुआ
हाँ, लाल औजारों से कविता को धार देने वाला
कहीं चला गया है एकाएक-
वह पंजाबी लोहार
उसका इस तरह चले जाना
आदमी और कविता दोनों के लिए एक दुःख-भरी खबर है
जिसे मैं पढ़ता हूँ बार-बार और सोचने लगता हूँ-
एक छोटी-सी लड़ाई के बारे में
तेईस बरस पहले मैंने पहली बार उस शख्स को
जब लल्लन राय के घर देखा था
वह कविता और रावलपिण्डी दोनों पर
एक साथ बात कर रहा था
वह जान चुका था बहुत समय पहले
रंग खतरे में हैं
इसीलिए धूमिल की तरह कोई
मुनासिब कार्रवाई करना निहायत जरूरी है
वह लड़ता रहा लगातार-
‘एक छोटी-सी लड़ाई
छोटे लोगों के लिए
छोटी बातों के लिए’
बनाता रहा एक खूबसूरत तस्वीर
आने वाले कल की
सिलता रहा वह पंजाबी फकीर
रावलपिण्डी की फटी हुई लोई
निभाता रहा क्लर्क और कविता का रिश्ता।

कुमार विकल के निधन पर (दो)

कुमार विकल तुम चुपचाप छोड़ गए चण्डीगढ़
तुम्हारी कविताओं में मौजूद हैं- सैकड़ों चण्डीगढ़
कविता की आखिरी किताब में दर्ज तुम्हारी उदासी
दुःखों की तफसील के पहले पन्ने पर
अपनी पत्नी का नाम लिखकर
तुम जिस जादूगर की तलाश करते रहे
हमें नहीं पता था तुम उसे ढूँढ़ लोगे इतनी जल्दी
तुम्हारी कविता के शब्द को जितनीबार थपथपाया
वह मुझे हर बार गर्म और गीला मिला
पंजाबी अंदाज में लोहड़ी माँगता
कभी किसी साइकिल पर, रिक्शा में
या फिर लोकल बस के दरवाजे से लटका
बन्दूक की गोलियाँ खाता
तुम चण्डीगढ़ में भी अपने साथ लेकर आए थे
एक पूरी रावलपिण्डी
जिसे तुमने सँभाल कर रखा पचास बरस तक
अब वजीराबाद से नहीं आएगा
कोई दूसरा कुमार विकल
नहीं लिखेगा कोई माँ की झुर्रियों पर महाकाव्य
तुम छोड़ चुके हो निरुपमादत्त के नाम
अपनी आखिरी चिट्ठी
अब किस जगह भेजे वह उस चिट्ठी का उत्तर!

फाँक 

हम चाहे कविता पर बहस करें या सूर्यग्रहण पर
पुश्तैनी आकाश की छत
सपनों की रखवाली में
हमारी पीठ बराबर थपथपाएगी
आलू और चाकू के रिश्ते को दोहराते हुए
अगली शताब्दी में भी हम
ज़िन्दगी की कोई पुरानी धुन गुनगुनाएँगे
सरकण्डे की छत पर
जंगली फलों के बीज खाकर
अपनी चोंच से लिखेंगे काले कबूतर
रिश्तों की गन्ध का आदि-ग्रन्थ
तब रहे या न रहे हावड़ा का पुल
किसी नये रजिस्टर में
स्कूल मास्टर की तरह दर्ज करेगा
कलकत्ता का चावल
आसनसोल के बच्चों की उम्र
किसी विदेशी जहाज की परछाईं देखकर
हुगली में कूदकर
बंगाल की खाड़ी पार कर जाएगी जब
दरभंगा की भूख
जलकुम्भी की तरह फैल जाएगी
दलदल की पीठ पर
कविता की नन्ही-सी फाँक
तब तुम मुझे याद करना।

पत्नी के लिए एक कविता

मुझ से बेहतर जानती है
रोटियाँ पकाने वाली औरत
भूख का व्याकरण
प्यार की वर्णमाला

बाजार जाते समय
जब सजा रही होती हैं अपनी अँगुलियाँ
वह सोच रही होती है तब
आग और लोहे के रिश्ते के बारे में

बच्चों के घर लौटने पर
सब से अधिक खुश नज़र आती है
रोटियाँ पकाने वाली औरत
जब कभी बज उठती है काँसे की थाली
घर के अन्दर
वह भूल जाती है सभी कुछ
दौड़ पड़ती है एकाएक
थाली की आवाज़ रोकने
कड़ाके की सर्दी में
जब दुबके होते हैं हम मोटी रजाई में
रोटियाँ पकाने वाली औरत
पका रही होती है गर्म रोटियाँ

फूलो के पौधों को सींचते हुए
वह माँगती है अपने लिए थोड़ी-सी हरियाली
पसार सके अपने पैर
उगा सके फूल
रोप सके तुलसी का नन्हा-सा पौधा

बेखबर 

उसके पास मौजूद हैं-
दूध की नदियाँ बहाने, सोने की चिड़िया बनाने का शानदार नुस्खा
एक खूबसूरत कूड़ाघर है उसके लिए हस्तिनापुर
इस बात से बेखबर है कलकत्ता की इजरा स्ट्रीट में
अपने कन्धों की दुकान पर पटसन का झाड़ू बेचने वाला आदमी
पंख वाले घोड़े पर सवार होकर वह आएगा
निर्धनता को किसी जंगल की ओर हाँक देगा
वह नहायेगा हमारे साथ गुसलखाने में
खायेगा हमारे साथ रसोई घर में सोयेगा हमारे साथ शयन कक्ष में
उसे देख पाएँगे हम कभी-कभार सुष्मिता सेन के साथ पटसन
के खेतों में
रेशमी खुशियाँ ओढ़कर वह बन्द कमरे से आएगी
उसके स्वागत में हल्का-सा मुस्कुराकर
गायब हो जाएगी।

फर्क 

एक-एक कर के काग़ज़ पर अँगूठे बनते गए खेत
मैं पढ़ता रहा दूर एक शहर में
विलायती भाषा का इतिहास
ओखली, पुआल, खूँटे, उपले
छोटे-छोटे शब्द बनकर चले गए
एक-एक कर के शब्दकोश के भीतर
फटे हुए कुर्ते में देखते रहे पिता
एक रोबदार कमीज का सपना
लोकदेवताओं के दरख्त सींचते
फटा हुआ बस्ता बन गई माँ
रफ्ता-रफ्ता बन गया मैं एक विलायती पोशाक
जो भूल चुका है-
खेत की पहचान सबसे पहले
फसल से नहीं नाम से होती है
किस खेत का नामकरण कब हुआ
इसका उत्तर न मेरे पिता के पास था
न मेरे पास है
इसे जानते हैं राजा के कारिन्दे
किसी टेलीफोन की प्रतीक्षा में
पूरी तरह आवाज़ खो चुकी है भाषा
बदल चुका है मायने
आवाज़ और भाषा का पुराना रिश्ता।

शब्द

वे शब्द जो मुझे मेरे दादा से मिले
उनमें से कुछ सुरक्षित हैं आज भी मेरे पास
वे शब्द जो मुझे मेरी माँ से मिले
मैं भूल चुका हूँ सारे के-सारे
वे शब्द जो सीखे मैंने पाठशाला में
सब के-सब बो दिए रोटी के लिए
वे शब्द जिन्होंने आज गिरफ्तार कर लिया है मुझे-
वे शब्द न मेरी माँ के हैं
न मेरी पाठशाला के
मैं डरता हूँ जिन से बार-बार
मेरा बच्चा खेल रहा है उन से
लगातार।

धरती का व्याकरण 

आखिर कितने लोग हैं जो
लिफाफे में भर कर छुपाते हैं अपना दुःख
कितने लोग हैं जो
अगली सुबह के लिए बचाकर रखते हैं
रात की आग
कितने लोग हैं जो
कम्बल में छुपा कर रखते हैं बुजुर्गों का बचपन
कितने लोग हैं जो
बीजों की रखवाली में काट देते हैं पूरी उम्र
ऐसे लोगों की कमी नहीं
जिनकी सत्तू से बात करते
कट जाती है पूरी यात्रा
जो पढ़ लेते हैं नंगे पैरों से
धरती का व्याकरण
जब तमाम लोग डूबे होते हैं सपनों की आकाशगंगा में
वे चल रहे होते हैं नींद में उम्मीद की बोरियों के साथ
दोस्तो
दुःख और दरिद्रता का रिश्ता
उतना ही पुराना है
जितना हल और बैल का
जितना बैल और खेत का
जितना खेत और किसान का
जितना किसान और दुकान का।

रविवार

हफ्ते भर के थके लम्हों की रजाई है रविवार
वह है
कामकाजी महिलाओं के गीले बालों की खुशबू
समय का कबाड़ी
सुख-दुःख का डाकिया
बस केवल चौबीस घण्टों तक चहकने वाली
गोरैया है रविवार

सोचता है बार-बार रविवार
क्यों नहीं मिलता उसे बाज़ार जाने का मौका
उसके आने पर क्यों कर देते हैं बन्द
कुछ दुकानदार अपने-अपने द्वार

सुबह से शाम तक जलने वाला चूल्हा है रविवार
वह है तार पर उल्टे लटके कपड़ों की कहानी
वह छुपा कर रखता है बच्चों के बस्ते में
रबड़ की गेंद
वे खेल सकें हार-जीत का खेल
भूल जाएँ थोड़ी देर के लिए किताबों का सच
बच्चे जानने लगे हैं-
किताबों के पराजित सच के बारे में
वे जानने लगे हैं-
शहाबुद्दीन है सड़क का सच
किताबों का सच है मातादीन

रविवार छुपा कर रखता है शनिवार की आग
डाल देता है उसे सोमवार के कटोरे में
वह जलती रहे दिन-रात लगातार
हर नए दिन के साथ
दोस्तो उड़ता हुआ घर है रविवार
एक दूसरे की कमीज पहन कर
घूमते हैं जहाँ प्यार और बाज़ार

दोस्तो जिनके पास नहीं आता कभी रविवार
वे करते हैं सूर्य से प्रार्थना-
यदि हो पुनर्जन्म
तो अगले जन्म में आए उनके भी जीवन में रविवार
जान सकें वे सपनों का सुख
जान सकें अपनों का दुःख।

सोचता हूँ 

सोचता हूँ क्या सीखा पृथ्वी की पाठशाला में
भरता रहा सपनों में तितलियों के रंग
नहीं बन पाई एक भी मनुष्य की तस्वीर
एक दिन खूबसूरत कपड़े पहनकर आए
रिश्ते, प्यार और विश्वास
मैंने खोल दिया दोनों हाथों से पूरा द्वार
पलक झपकते ही
वे चले गए चुपचाप बिना मिले
मैंने खटखटाये अनेक दरवाजे
वे नहीं मिले
न फिर से आए कभी घर में
सोचता हूँ
इनके बिना कौन बजाएगा घंटी पृथ्वी की पाठशाला में
कौन बदलेगा सूखे बांस को
खूबसूरत बांसुरी में।

डर

ज्यों-ज्यों छोटा होता जा रहा है सच
त्यों-त्यों बढ़ती जा रही है काग़ज़ की भूख
कागज की भूख है कविता
वह नहीं खा सकती पूरी रोटी
आदत हो गई है उसे आधी रोटी खाने की
डरता हूँ कोई छुड़ा न ले उससे आधी रोटी भी।

अन्दर ही अन्दर 

क्या तुमने सोचा है कभी-
शब्द में कहाँ छुपी होती है कविता
कहाँ छुपे होते हैं मनुष्य
कहाँ छुपा होता है महाकाव्य
कहाँ छुपी होती हैं कहानियाँ
कहाँ छुपे होते हैं तारों में राग
कहाँ छुपी होती है लोहे में आग

क्या तुमने सोचा है कभी-
कहाँ छुपा होता है फूलों में लिबास
घंटी में विश्वास
बांसुरी में गीत
आंखों में प्रीत
चाकू में डर
मिट्टी में घर
आखिर कहाँ छुपे होते हैं ये सब

छुपा होता है सभी कुछ अन्दर ही अन्दर
जैसे छुपे होते हैं सपनें
छुपी होती है उम्मीद
छुपा होता है विश्वास
छुपी होती है मरते समय भी
प्राणों में जीने की आस।

हथेलियों में प्रार्थना

जब तमाम बच्चे
जादूगर के झूठ को सच समझने लगे
मैं हथेलियों में प्रार्थना लिए कहाँ जाऊँ
दोस्तो सच का मुंह टेढ़ा है
दौड़ रहे हैं झूठ के पाँव इस पगड़ी वाली धरती पर

जगह-जगह बिक रहा है अलादीन का चिराग
चलो चलें दादा-दादी का सच ढूंढ़ने
शायद उन्होंने किसी कम्बल में छुपा कर रखा हो
ढूँढ भी लिया तो-
कैसे बचाएंगे उसे जादूगर की तलवार से
जादूगर जानता है-
मनुष्यों को टुकड़ों में काटना और जोड़ना

किसी काम का नहीं दादा-दादी का बूढ़ा सच
हमारा हंसना-रोना, खाना-पीना
पहनना-ओढ़ना, सोना-जागना
सभी कुछ तय करती है कोलम्बस की दुनिया
तभी तो बच्चों के सपनों में आते हैं
पंख वाले घोड़े हवा में उड़ते आदमी
जादूगर की पगड़ी
बच्चों के सपनों में नहीं आते
दादा-दादी, अम्मा-बापू
उनके सपनों में नहीं आती
चिड़िया कि चोंच में छुपी परिवार की भूख
नहीं आती नंगे पांव चलते सपनों की आवाज़
वे नहीं जानते
गर्म होता है कहाँ आँख का पानी
गिरने लगता है हथेलियों पर चुपचाप अपने आप
दोस्तो अगर कभी मिल भी जाए दादा-दादी का सच
तो मत उतारना उसकी पूरी तस्वीर किसी काग़ज़ पर
बेदद खतरनाक है पूरा सच लिखना
तुम बनाना
सिर कटी चिड़िया कि सुनहरे पंखों वाली तस्वीर
टांग देना किसी बिजली के खम्भे के साथ
देखते रहें आते-जाते लोग
उसकी अंतिम सांस तक।

लाल बादलों का घर

वह जानती है-
तकिये के नीचे चाँद छुपाने की कला
जानती है रिश्तों की रस्सी से जीवन को बाँधना
उसे आता है
उम्मीद के छोटे-छोटे खिलौनों से खेलना
लाल बादलों का घर है उसकी मांग

वह कभी-कभार खोलती है
अलमारियों में बन्द किए सपनें
बच्चों की तरह कूदते हैं उसके बुज़ुर्ग कन्धों पर
एक उदास घर के दरवाजे
खुलने लगते हैं उसके अन्दर

वह छुपा लेती है अपनी आँखों में
आस्था कि विश्वास की
रंग-बिरंगी तितलियाँ
बाँध लेती है साल भर के लिए
रेशमी दुपट्टे में करवा चौथ का चांद
वह दौड़ती है सुबह से शाम तक
आग के जंगल में
सींचती है रोटी के पेड़

वह आँखों के किसी कोने में
बचा कर रखती है थोड़ा-सा पानी
दुःखी दिनों के लिए

वह सींचती है लगातार तुलसी की जड़ें
बची रहे हरियाली इस धरती पर।

सत्यमेव जयते 

दीवार पर टंगी खूबसूरत तस्वीर का नाम है-
सत्यमेव जयते
पलट दी हैं तमाम परिभाषाएँ गांधी के बंदरों ने
कत्ल करना अब शौक
डकैती शामिल है कला कि सूची में
शहाबुद्दीन चाकू से नहीं फ़ोन की घंटी से मारता है
तमाम सबूतों के बाद भी
सच ही हारता है
सत्यमेव जयते तीन शेरों के पंजों में जकड़ा
सतयुग का मुहावरा है
पता नहीं क्यों लटका है इस सदी की दीवार पर।

गेहूँ का दाना

मिट्टी में दबी मनुष्य की भूख
जितनी बार होती है गर्म आग पर
उतनी ही बार-
बदलती है अपना रंग अपना रूप
पिस-पिस कर, जल-जल कर
भूख में कराहती आवाज़ है गेहूँ का दाना

वह न हंसना जानता है न रोना
पक्षी की चोंच में उड़ता जीवन है गेहूँ का दाना

वह है भूख में लड़ती गर्म हथेलियाँ
किसान के पांव
धरती में गड़ा अमृत-बीज
जीवन के, कविता के पंख
मनुष्य की नींद है गेहूँ का दाना

वह है सपनों की उम्मीद
मिट्टी की मिठास
बंजर होते खेतों के शोकगीत
मनुष्य का सबसे पहला प्यार
वह है भूख का भगवान
उगने दो उसे पुरानी ठसक के साथ
मत मारो ज़हर देकर
मनाने दो-
पृथ्वी का, मनुष्यता का उत्सव।

शब्द (कविता) 

शब्द जब लिखते हैं रिश्तों की परिभाषाएँ
वे उगते हैं डरने अपनी ही परछांई से
शब्द जब गाते हैं ज़िन्दगी की ग़ज़ल
वे भीग जाते हैं सिर से पांव तक
शब्द जब करते हैं प्रार्थना
बजने लगती हैं तरह-तरह की घंटियाँ
शब्द जब चले जाते हैं हथेलियों के बीच
मौन हो जाते हैं शब्द

शब्द जीवन की आग हैं राग हैं धरती का
तुम चाहे जितना भी छुपा लो उनको शब्दकोशों के भीतर
उनको आता है चिड़ियों की तरह उड़ना

शब्द हंसते हैं, रोते हैं, नाचते हैं, गाते हैं
थकना नहीं जानते शब्द
उनको आता है भाषा कि गोद में आराम करना
शब्द जब गुनगुनाते हैं दादी के होंठों पर
घूमने लगती है सपनों की दुनिया
शब्द जब हुंकारते हैं ज़ुल्म के ख़िलाफ
भगत सिंह हो जाते हैं शब्द

शब्द जब पहुँचते हैं किसी राजा के पास
छटपटाते हैं वे दिन-रात
रोते हैं अपनी नियति पर
वे जानते हैं
किया जाता रहा उनको इसी तरह इस्तेमाल
कोई नहीं करेगा उन पर विश्वास
वे कहलाएंगे धोखेबाज, चालबाज, पाखण्डी, घमण्डी
कुचले जाएंगे वे घोड़ों के नीचे
मारे जाएंगे, पीटे जाएंगे लाठियों के साथ
फिर से लेना होगा जन्म नये शब्दों को
नयी भाषा के साथ इस धरती पर।

चींटियाँ 

धरती पर जहाँ-जहाँ होती है मिठास
वहाँ-वहाँ होती हैं चींटियाँ
चींटियाँ जानती हैं उम्मीद का, भविष्य का व्याकरण
जानती हैं कुनबे की कला
मेहनत-मजदूरी का गणित

काश! मिली होती चींटियों को भाषा
सुना पाती अपनी पीड़ा
दिन-रात मशक्कत करते पाँवों की तकलीफ़
गा सकती कोई दुःख भरी ग़ज़ल

कितना अच्छा होता-
हम अनपढ़, बेजुबाँ चींटियों से सीख पाते
प्यार की परिवार की सही परिभाषा
सीख पाते बोझ बांटने की सीख
सीख पाते साथ-साथ रहना
चींटियाँ न हँसना जानती हैं न रोना
वे जानती हैं पूरी रात प्यार का उत्सव मनाना
वे जानती हैं-हाथ का हुनर ही मिटा सकता है भूख

रोटी की तलाश में भटकती चींटियाँ
कभी नहीं लड़ती पानी के लिए
शायद चींटियों को नहीं लगती कभी प्यास
सिखर दोपहर में-
हम ढूँढ रहे होते हैं छाँव का छप्पर
चींटियाँ भाग रही होती हैं राशन की बोरियों के साथ

चींटियाँ जानती हैं जन्म से ही
धरती में मिठास छुपाने की कला
जानती हैं सुरंग खोदने की तकनीक
जानती हैं धरती के अन्दर का तापमान
जानती हैं परिवार पालने का मन्त्र

उनको आते हैं तरह-तरह के घर बनाने
आते हैं तरह-तरह के घर बसाने
चींटियाँ जानती हैं-
घर के अन्दर घर बनाने का हुनर

चींटियाँ हैं मजदूरों की दुनिया
सबसे बड़ी दुनिया इस धरती पर
कल की चिंता में जीती हैं-
अनगिनत सपनों के साथ
अगली बार आऊँ जब मैं इस धरती पर
मुझे सिखाना सबसे पहले-
मिठास ढूंढ़ने का मन्त्र
सिखाना-
घर को घर बनाने की कला
सिखाना प्यार की परिवार की परिभाषा।

पोस्टमैन

धरती पर चलते सरकारी पाँव है पोस्टमैन
वह है बाजुओं वाला अखबार
पंख वाली उम्मीद

चला जाएगा बहुत जल्दी इस धरती पर से पोस्टमैन
जैसे चली गई मोर्स की
लुप्त हो गई टेलीग्राम
चले गए सब तार बाबू

भरा रहता था उसका बस्ता-
कभी ख़ुशी की ख़ुशबू से
वहाँ रहती थी उम्मीद की खनक
कुशलता के सपनों के बेशुमार बीज
उत्सवों का उल्लास
उसके बस्ते में रहते थे तरह-तरह के बादल
पोस्टमैन था उम्मीद का पेड़
अनगिनत दरवाजों की घण्टी
कभी-कभार जब लाता था पोस्टमैन-
लाल स्याही में लिखा पोस्टकार्ड
उस दिन भीग जाती थी सरकारी वर्दी
रिश्तों की आवाज़ का दूसरा नाम था पोस्टमैन

पोस्टमैन सोचता है बार-बार
आखिर क्यों नहीं खरीदते लोग अन्तर्देशीय पत्र
लोग आंखों से नहीं
कानों से पढ़ने लगे हैं चिट्ठियाँ
खत्म हो गया है काग़ज़ का चिट्ठी बनना
खत्म हो गया है क़लम और चिट्ठी का-
सदियों पुराना रिश्ता
सूखता जा रहा है उम्मीद का पेड़

दोस्तो एक दिन-
संग्रहालय में ही मिलेंगी चिट्ठियाँ
पोस्टमैन किसी डिक्शनरी में छुपा होगा
दोस्तो! कभी फ़ेसबुक से फुर्सत मिले तो सोचना-
अन्तर्देशीय पत्र के बारे में
सोचना काग़ज़ और क़लम के रिश्ते के बारे में
सोचना पोस्टमैन के बारे में
क्या पता सूखे बादलों से गिरने लगे वर्षा कि बूंदें
उगने लगे फिर से उम्मीद का पेड़
चलने लगे साहस के पाँव इस धरती पर।

भाषा

पहली बार मिली जब मैं एक पंडित को-
मैं मन्त्र बन गई
पहली बार मिली जब मैं एक वैद्य को-
मैं दवा बन गई
पहली बार गाया मुझे किसान ने थकान के ख़िलाफ़
स्त्री ने बनाया मुझे मंगलगीत
स्कूल से मंदिर तक बजती रही मैं हर बार-
घंटी की आवाज़ पर
काले कोट वाले आदमी ने-
पहली बार जब मुझे नंगा किया सच के ख़िलाफ़
मैं बहुत छटपटाई
मैंने बार-बार किए आत्महत्याओं पर हस्ताक्षर
एक माँ ने बनाया मुझे लोरी
एक दादी ने भजन
जगजीत सिंह ले गए मुझे अपने हारमोनियम के अन्दर
तमाम होंठों पर मैं गुनगुनाई
ईश्वर के मन्त्र में मनुष्य के तन्त्र में
मैंने बदले कई-कई रूप
मैं थी प्रसाद की कामायनी
निराला कि सरोज स्मृति
प्रेमचंद की रंगभूमि
मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस
शिवकुमार की लूणा भी मैं ही थी
अमृता प्रीतम के रसीदी टिकट पर-
मैंने ही करवाये थे साहिर के हस्ताक्षर
भगत सिंह के नारों की सबसे बड़ी उम्मीद
मैं ही थी
सोचा था मैंने-
पूरी दुनिया को पढ़ाऊंगी प्यार की परिभाषा
बस चुनी थी इसीलिए मनुष्यों की दुनिया
नहीं पता था मुझे मैं बनूंगी द्रौपदी
मत करो मेरा चीरहरण
जीने दो मुझे पुरानी ठसक के साथ
मत जकड़ो मुझे किसी मन्त्र में किसी तन्त्र में
मेरा है अपना एक लोकतन्त्र
दौड़ना चाहती हूँ मैं एलियट के वेस्टलैण्ड में
गोर्की की माँ भी हूँ मैं
मैंने ही किए थे बेशुमार सुराख-
लोर्का के नेरुदा के शब्दों में
मैंने ही बिंधा था हर बार-
गालिब का फिराक का तसव्वुर
सूई हूँ मैं
फटे पुराने रिश्तों की आशा
संधियों का सकून
मनुष्यता कि महानायिका
कल्पना कि रानी, सपनों की वाणी
धरती की गुड़धानी
राग-आग की मंजरी
मत काटो मेरे पंख
पाखी हूँ मैं आकाशचारी हंसिका
मैं हूँ फिनिक्स
आता है मुझे जीना बार-बार मरकर भी।

कमरऊ के पहाड़ का अन्तिम बयान 

अपने लिए पक्का मकान
एक खूबसूरत गाड़ी खरीदने के लिए
जिस दिन तुमने गिरवी रख दिया मुझे
इन्द्रप्रस्थ के पास
मैं चुप रहा

एक बार भी नहीं सोचा तुमने
मेरी तकलीफ़ मेरे सपनों के बारे में

मैं था छोटी-छोटी नदियों का पिता
तुम्हारे तमाम लोकदेवताओं का प्रहरी
घास काटती औरतों का राग
लक्कड़हारों की छाँव
मनुष्यों की, मवेशियों की रोटी
इस पृथ्वी का सिरमौर
धरती की खूबसूरत पगड़ी

मैं नहीं था केवल पहाड़
मैं था तुम्हारे पूर्वजों का हौसला
उनकी हिम्मत, उनकी उम्मीद
उनकी प्यास, उनकी आस
मैं था हरी पगड़ी वाला सिपाही
मैंने पैदा किए तुम्हारे भीतर कई-कई पहाड़
पहाड़ बनने में लगे थे मुझे हजारों साल

इन्द्रप्रस्थ के बारूद ने
एक झटके में ख़त्म कर दी
मेरी सदियों पुरानी ठसक
मैं हूँ अब रेहन रखी हुई आवाज़
हवा में उड़ती धूल
गिरवी रखी चीज आखिर
हेकड़ी के बिना जीती है
उसका नहीं होता कोई दर्प, दंभ और दाप
वह तो जीती है उम्र भर मरे हुए सपनों के साथ

अपने पक्के घर की खातिर
तुमने बेच डाला मेरा स्वाभिमान
मेरी अस्मिता, मेरी ठसक
तुमने बेच डाला अपने देवताओं का विश्वास
बेच डाली पुरखों की विरासत
मेरे रोने पर मेरे साथ रोई तो बस अकेली किंकरी देवी
अब मैं चुप नहीं रह सकता
इससे पहले कि वे ख़त्म कर दें पूरी तरह
मेरा वजूद
मुझे रचना होगा एक प्रलय-राग
गुनगुनाना होगा अपनी नदियों के लिए
अंतिम विदाई-गीत
करनी होगी प्रार्थना उन तमाम बच्चों के लिए
जो गा रहे हैं आज भी
एक पुराना पर्वत-गीत।

राजा और किताब

दोस्तो जिन दिनों सोचते हैं लोग
अपने भविष्य के बारे में
उन दिनों मैंने तय किया-
मैं किताब बनूंगा
गणित, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र की नहीं
कविता कि किताब बनूंगा
जो बार-बार बुलाये अपने पास
आज सोचता हूँ-
मैंने क्यों नहीं सोचा राजा बनने के बारे में
सुबह से शाम तक पहनता नये-नये कपड़े
बार-बार डराता नींद में
उड़ता सात समन्दर पार बार-बार
बनाता चाँद पर घर

राजा किताब से नहीं
किताब के सपने से डरता है
तभी तो सपनों को प्रतिबंधित करता है
राजा जानता है सोने की चिड़िया बनाना
जानता है सोने की चिड़िया उड़ाना
उसे आता है वशीकरण का जादू

राजा को प्रेम करने दौड़ती हुई आएंगी किताबें
राजा भी आयेगा छुपने बार-बार किताब के पास
सदियों से आ रहा है छुपता भाषा के
रंग-बिरंगे दुपट्टे में
मेरा यक़ीन मानिये
मैं नहीं आने दूँगा उसे भेस बदल कर
अपनी किताब के अन्दर।

उम्मीद की सूई 

जीवन को सिलती है जब उम्मीद की सूई
गुनगुनाने लगते हैं छोटे-छोटे सपनें
खेलने लगता है बच्चों की तरह मन
वह जीत लेना चाहता है जीवन की जंग
जीत लेना चाहता है तरह-तरह के खेल
घूमना चाहता है अपने पैरों से पूरी दुनिया
छुपा लेना चाहता है अदरक की तरह
खुशियों के तमाम बीज
जीवन को सिलती है जब उम्मीद की सूई
वह बाँध लेना चाहता है अपने दोनों हाथों से
बचे हुए रिश्ते
दूब की तरह छुपा है जहाँ विश्वास
फाँक भर बची है जहाँ मिठास।

कविता के खेत में तारो का सच 

तुम जब भी बात करते हो
तुम्हारे शब्दों में बोलने लगता है पालमपुर
जिसे लोगों ने
चाय की पत्तियों में पूरा पी लिया है
तुम जितनी बार तारो की तकलीफ़ में
अपना बचपन ढूंढ़ते हो
मुझे आती है उतनी ही बार
एक बड़ी कविता कि नर्म कोंपलें
तुम्हारे चारों ओर
तुम्हारी कविता-
पालमपुरी पौधों का रौंदा हुआ उच्छ्वास है
जिसे बिना किसी मुहर के
अनिल बरवाल हर रोज़ तस्दीक करता है
तुम बिना किसी शहादत के
अपने गाँव से लाए हो एक धौलाधारी सच
यह राजधानी है दोस्त
यहाँ सिर्फ़ राजा-महाराजा का सच ही सच होता है
तुम्हारे और तुम्हारे तारो के सच को सुनने की फुर्सत
किसी को नहीं
अनिल बरवाल जब भी सुनता है तुम्हारी कविता
खामोश हो जाता है पूरी तरह
वह जानता है-
चावल की भाषा और कविता कि भाषा के बीच
जो आदमी खड़ा है
लोग उसे 514 नम्बर से क्यों जानते हैं
इस समय जब-
विपक्ष की कुर्सी बुनने में व्यस्त है तुम्हारा पालमपुर
कुछ लोग उसे तारो के दूध से नहीं
चाय की ख़ुशबू से जानने लगे हैं
वैसे दूध और चाय के पौधों का रिश्ता
उतना ही पुराना है जितना कुर्सी और टाट का
ऐसे समय में मुझे तुम्हारा
टाट की मरम्मत में चले जाना अच्छा लगता है
यही वक़्त है जब कविता का खेत
तुम्हारे तमाम औजारों की प्रतीक्षा में है।

घण्टी वाला ईश्वर 

वह हर मंगलवार को आता है वहाँ-
ईश्वर की खोज में
मंगलवार ही है ईश्वर का दिन
वह दर्ज करता है अपनी उपस्थिति घण्टी बजाकर
गुनगुनाता है दादा-परदादा के सिखाये हुए मन्त्र
उसने सुना है मन्त्रों में रहता है ईश्वर
ईश्वर जानता है दुनिया कि तमाम भाषाएँ
जानता है पूरी धरती का दुःख
वह जितनी बार आता है-
उतनी ही बार ले जाता है छुपा कर ईश्वर अपने साथ
कभी फूल में
कभी दूब में
कभी इलायचीदाने में
कभी सिन्दूरी तिलक में
कभी-कभी बाँध देता है पुजारी रोली के साथ
उसकी कलाई पर ईश्वर
उसकी अंगुलियों में होने लगती है एक विचित्र-सी हरकत
वह सोचता है मन-ही-मन
लड़ेगा वह इस हाथ से अन्याय के खिलाफ़
यह उसका नहीं ईश्वर का हाथ है
वह लड़ेगा अत्याचार-दुराचार के खिलाफ़
वह नहीं जानता इस भयानक समय में
उसके ईश्वर से भी शक्तिशाली हैं दूसरों के ईश्वर
उसने तय किया वह घर जाकर एक कविता लिखेगा
उसी क्षण उसे याद आया-
सच को सच और झूठ को झूठ लिखना
इस समय कितना खतरनाक है
इसे ईश्वर भी नहीं जानता
वह ढूंढ़ता है पूरे घर में बाहुबली ईश्वर
जो सदियों से खड़ा है मंदिरों में रंग-बिरंगे परिधान में
वह ढूंढ़ता है घण्टी में
सूखे हुए फूलों में
गोरखपुर की किताबों में आख़िर मिल ही जाता है ईश्वर
वह कुछ नहीं बोलता
बस एक तस्वीर से हंसता है उसकी ईमानदारी पर।

अदरक की गंध वाला कवि

कितना अच्छा होता-
कविता कि रोटी खाने वाले भी सोचते
कुछ-कुछ सुरेश सेन की तरह
ठीक ही कहा था उस दिन तुमने-
एक गंभीर विधा है कविता
जिसे लिख रहे हैं कुछ अगम्भीर लोग
शायद थोड़ा बहुत सोचते हैं उसके बारे में आत्माराम
खेलते हुए बच्चों के मार्फत
दिवंगत माँ की चोलू-बास्केट के साथ अजय
या फिर गांधी के काले पाँव, टूटे-चश्मे से कुल राजीव
उस दिन चार घण्टों की उपस्थिति के बाद
जान गया मैं पूरी तरह
ठीक ही कहते हो तुम-‘कुछ थे जो कवि थे’
ठीक ही कहते हो-
‘ क्या कविता के लय भर में आने से
समस्याएँ हल हो जाएंगी कविता की
क्या कविता को लय में देख
भूल जाएंगे अपने दुःख वे सभी
जो छटनी की तलवार से हुए हैं हताहत
जिनकी ओर पीठ किए खड़े थे सभी कवि
जब बैठे थे वे धरने पर’
प्रिय भाई भूल चुके हैं लोग पूरी तरह-
कविता है एक सामाजिक संवाद
वह है पृथ्वी का राग, शब्दों का सपना
धरती की धरोहर, ज़िन्दगी का बीजगणित
दिलो-दानिश की शरारत
इनसानियत की अध्यापिका, संवेदना का संदूक
वह है आग और राग का बादल
अमर्ष और संघर्ष का दरिया
मुक्तिबोध का चांद, ऋतुराज का अबेकस
केदार का बाघ, सुदामा पाण्डे का प्रजातन्त्र
वह है खुरों की तकलीफ़, मनुष्यता का दुःख
रात में हारमोनियम
वहाँ नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द
वह जानती है बनाना अच्छा आदमी
अच्छा आदमी जो मरता है आधी उम्र में अनगिनत सपनों के साथ
मैंने रास्ते से गुजरते हुए ही देखा है तुम्हारा सुन्दरनगर
आखिर क्यों कहते हैं उसे सुन्दरनगर
आखिर क्या है उस नगर में सुन्दर
तुम्हारे सुन्दरनगर के बारे में मैं नहीं जानता ज़्यादा
पर इतना ज़रूर जानता हूँ-
जैसे टूट-टूट कर पहुँच रहा है लेदा राजधानी तक
वैसे ही आएगा एक दिन कोई जयप्रकाश
और खरीद लेगा तुम्हारा खूबसूरत ‘सलाह’
विकास के रजिस्टर में दफ्न हो जाएंगे तुम्हारे-
तमाम खेत-खलिहान, आंगन-अलाव
राजधानी नहीं समझ सकती
तराशे हुए पत्थरों की पीड़ा
नहीं जानती राजधानी-
रोता है कितनी बार लेदा का पहाड़
लोग खिंचवा रहे हैं अपनी तस्वीरें
खूबसूरत इमारतों के साथ
हो रहे हैं खुश उनको देखकर हर बार
कितना अच्छा होता-
तस्वीरें खिंचवाने वाले लोग समझ पाते एक बार
लेदा के पहाड़ की तकलीफ़
समझ पाते अदरक की गंध वाले कवि का गीत।

सपनों के उत्सव में कालाकोट 

एक वकील जब लिखता है कविता
वह कर देता है तमाम काले कोटों में
छोटे-छोटे सुराख
एक वकील जब लिखता है कविता
वह दर्द के समन्दर में लगाता है छ्लांग
एक वकील जब लिखता है कविता
वह सच के चाकू से छीलता है चमकदार पेंसिल
एक वकील जब लिखता है कविता
मुझे याद आते हैं केदारनाथ अग्रवाल1
याद आते हैं मानबहादुर सिंह2 बार-बार
एक वकील जब लिखता है कविता
वह नहीं होता किसी ख़बर का हिस्सा
एक वकील जब लिखता है कविता
उसकी माँ रोकती है उसे बार-बार
वह जानती है-
उसके परिवार पर टूटेगा जब मुसीबत का पहाड़
वह जाएगी तब किस काले कोट के पास
माँ जानती है-
हर मुसीबत का इलाज़ है काले कोट के पास
काला कोट जानता है पढ़ना हर मुजरिम का चेहरा
माँ काट देना चाहती है बचा हुआ जीवन
सतयुगी मुहावरों के साथ
वह नहीं जानती-
हर बार दम तोड़ता है सच काले कोट के कन्धों पर
एक वकील जब लिखता है कविता
वह जानता है अच्छी तरह-
उसका काला कोट नहीं बचा पाएगा फाँक भर मनुष्यता
नहीं बचा पाएगा मुट्ठी भर सच इस धरती पर
मरते रहेंगे उसकी आँखों के सामने असंख्य होरी
निगलता रहेगा विकास का अजगर
उसके तमाम खेत-खलिहान
काला कोट नहीं रोक पाएगा हत्याएं-आत्महत्याएँ
हार गए हैं राक्षसी तन्त्र के आगे
उसके तमाम वकीली मन्त्र
छुपाए थे उसने जो कभी काले कोट के अन्दर
एक वकील जब लिखता है कविता
वह बनाना चाहता है एक खूबसूरत दुनिया
चोर-सिपाही, कोर्ट कचहरी से मुक्त दुनिया
वह भूल जाना चाहता है-
आई.पी.सी. की तमाम धाराएँ
भूल जाना चाहता है-
हलफनामों की वकालतनामों की भाषा
वह लिखना चाहता है-
प्यार की भाषा का व्याकरण
ऐन उसी वक़्त गूंजने लगती है कानों में-
बेटे के खिलौनों की आवाज़
गूंजने लगती रोटी की थपथपाहट
एक वकील जब लिखता है कविता-
वह छुपाना चाहता है-
फिंगर प्रिंट्स की जगह
हथेलियों की गरमाहट
बनाना चाहता है-
कविता का शानदार घर
खेल सके जिसके आंगन में
बचपन के तमाम खेल अपने बेटे के साथ
कर सके याद-
धूमिल की, पाश की, लोर्का3 की पीड़ा
लिख सके प्रेम कविताएँ बेशुमार
बुन सके रिश्तों की एक मज़बूत चारपाई
वह उड़ाना चाहता है-
कविता के आकाश में पुरखों की पतंग
मनाना चाहता है छोटे-छोटे सपनों का उत्सव
लिखना चाहता है मनुष्यता कि मुकम्मल कविता।

तुम चुप क्यों हो

तुम चुप क्यों हो दोस्त
क्या बंजर हो गया है कविता का खेत
क्या बह गए हैं तुम्हारे कोरे काग़ज़ यमुना के जल में
क्या वैशाख की धूप ने सुखा दिए हैं सम्वेदना के चोये
महानगर के चाकू ने काट डाली है रिश्तों की फाँक
क्या दिल्ली के गणित और कविता के बीजगणित में
फँस गई है कोई फाँस
क्या सपनों की बोरी में
दब गई है शिमला की रात
क्या दिल्ली की गलियों ने ठग लिया चम्बा का भात
मैं जानता हूँ-
हमेशा करती है राजधानी राजाओं की बात
सदियों पुराना है राजा और कविता का रिश्ता
यह दूसरी बात है
राजा को खुश करती थी पहले कविता
आज कुछ दुःखी है कविता से राजा
फिर तुम चुप क्यों हो दोस्त, चुप क्यों हो
इससे पहले कि वाशिंगटनिये कूड़ाघर में बदल डालें
तुम्हारा हस्तिनापुर
तुम कविता के खेतों में
कलकत्ता की पटसन बोना शुरू कर दो
इससे पहले कि सुष्मिता सेन की टूटी चप्पल
बिकने लगे जनपथ पर
तुम ओटावा के बनिये की गिरफ्तारी के इन्तजाम में
जुट जाओ
इससे पहले कि ठूँठ हो जाए-
पूरी पृथ्वी की संवेदना
तुम शिकागो रेडियो के मुँह में
रुई ठूँसने की कोई साजिश रचो
इससे पहले कि नीम की पेड़ की छाँव को
भूलने लगे ज़मीन
तुम कविता की बंकर में कूद जाओ
इससे पहले कि लाल किले पर उड़ने लगें
सोने की चिड़ियाँ
तुम अपने पुराने चीनी पेन को
हाथों में थाम लो दोस्त,
पूरी ताकत के साथ जहाँ ठीक समझो
वहाँ वार करो
पर चुप मत रहो मेरे दोस्त
तुम्हारी चिट्ठी मेरे दरवाजे की
जब भी पीठ थपथपाएगी
मैं हमेशा पाऊँगा तुमको अपने पास
तुम जिसे चिट्ठी कहते हो दोस्त,
वह मेरे लिए-
हातों के हाथ की काँगड़ी है
जो सेंकती है उसके अनगिनत सपने और थकान
सच कहता हूँ दोस्त-
उससे भी बढ़कर वह है मेरे लिए
बेशुमार खिड़कियों वाला एक सुन्दर मकान
भाई साहब की सेहत कैसी है यह भी लिखना
लिखना कि कितना सही है प्रवाल का सच
क्या कभी मिले किताबों के व्यापारी-हस्तिनापुरिये
जिनके लिए कविता मशाल नहीं अरहर की दाल है
यमुना पार करने को बकरे की खाल है
वे नहीं जानते रवाँडा की दहशत से निकलकर आदमी
जब कविता के पास जाएगा
वह पंचनामा काटकर
आज़ादी के ज़श्न की तारीख निश्चित कर देगी।

रावलपिंडी की लोई में कविता – 1 

हमेशा कि तरह आज भी निकली है धूप
हमेशा कि तरह आज भी थोड़ा ठण्ढा है फाल्गुनी दिन
कहीं कोई ख़ास नज़र नहीं आता बदला हुआ
हाँ, लाल औजारों से कविता को धार देने वाला
कहीं चला गया है एकाएक वह पंजाबी लोहार
उसका इस तरह चले जाना
आदमी और कविता दोनों के लिए एक दुःख भरी ख़बर है
जिसे मैं पढ़ता हूँ बार-बार और सोचने लगता हूँ-
एक छोटी-सी लड़ाई के बारे में
तेईस बरस पहले मैंने पहली बार उस शख़्स को
जब लल्लन राय के घर देखा था
वह कविता और रावलपिंडी दोनों पर
एक साथ बात कर रहा था
वह जान चुका था बहुत समय पहले-
रंग खतरे में हैं
इसीलिए धूमिल की तरह कोई
मुनासिब कार्यवाही करना निहायत ज़रूरी है
वह लड़ता रहा लगातार-
‘ एक छोटी-सी लड़ाई
छोटे लोगों के लिए
छोटी बातों के लिए’
बनाता रहा एक खूबसूरत तस्वीर
आने वाले कल की
सिलता रहा वह पंजाबी फकीर
रावलपिण्डी की फटी हुई लोई
निभाता रहा क्लर्क और कविता का रिश्ता।

रावलपिंडी की लोई में कविता – 2

कुमार विकल तुम चुपचाप छोड़ गए चण्डीगढ़
तुम्हारी कविताओं में मौजूद हैं-सैंकड़ों चण्डीगढ़
कविता कि आखिरी किताब में दर्ज तुम्हारी उदासी
दुःखों की तफसील के पहले पन्ने पर
अपनी पत्नी का नाम लिखकर
तुम जिस जादूगर की तलाश करते रहे
हमें नहीं पता था तुम उसे ढूंढ़ लोगे इतनी जल्दी
तुम्हारी कविता में-
पत्नी की साढ़े पांच मीटर पुरानी साड़ी से निकाली गई
बच्ची की थिगलियों वाली कमीज़
चमकती है जब भी
मुझे तुम्हारी आंखें
किसी झील में बदलती नज़र आती हैं
मैंने जितनी बार-
तुम्हारी कविता के शब्द को थपथपाया
वह मुझे हर बार गर्म और गीला मिला
पंजाबी अंदाज़ में लोहड़ी मांगता
कभी किसी साइकिल, रिक्शा में
या फिर लोकल बस के दरवाजे से लटका
बन्दूक की गोलियाँ खाता
तुम चण्डीगढ़ में भी अपने साथ लेकर आए थे
एक पूरी रावलपिण्डी
जिसे तुमने संभाल कर रखा पचास बरस तक
अब वजीराबाद से नहीं आएगा
कोई दूसरा कुमार विकल
नहीं लिखेगा कोई माँ की झुर्रियों पर महाकाव्य
तुम छोड़ चुके हो निरूपमादत्त के नाम
अपनी आखिरी चिट्ठी
अब किस जगह भेजे वह उस चिट्ठी का उत्तर।

साहस के सत्तू 

जब पहली बार मिला मैं उस शख़्स को
मैंने देखा उसकी आँखों में-
पाँती से बिछुड़ने का दर्द
देखा जीवन को बेहतर बनाने का सपना
तकलीफ़देह होता है कितना जड़ों से कटना
इसे नहीं समझ सकता हर कोई
उसने तलाशी अपने लिए एक और ज़मीन-
योद्धा कवि की ज़मीन
दोस्तो, ज़मीन चाहे पाँती की हो या पांवटा की
एक ही है दोनों की राशि
उसने पहुँचाई पाँती की पुश्तैनी आग पांवटा तक
कितनी तकलीफ़ के बाद ज़मीन बनी होगी पहाड़
भूगर्भशास्त्री से बेहतर इसे नहीं जान सकता कोई दूसरा
वह जानता है अच्छी तरह-
ज़मीन के अन्दर का तापमान
जानता है ज़मीन के अन्दर-बाहर होने वाली हरकतें
पहचानता है ज़मीन की गन्ध
वह जानता है धरती के भीतर अभी कितनी बची है आग
कितने शेष हैं नदियों के घर
उसने तय किया-
वह जाएगा साल में एक बार अपने गाँव
लेकर आएगा वहाँ से हर बार कुछ पुश्तैनी बीज
संभालकर रखा था जिसे उसके पिता ने उम्र भर
वह बोएगा पाँती के बीज पांवटा कि धरती पर
उगाएगा जीवन-मूल्यों की फसल
उगाएगा नन्हीं-नन्हीं स्कूली आँखों में बड़े-बड़े सपनें
बांटेगा साहस के सत्तू
जब सो रहा होगा रात को पूरा पांवटा
वह खेल कर आएगा बचपन के खेल
पाँती के पेड़ों के साथ
वह रोयेगा कभी-कभी नींद में पिता को याद करके
‘अर्घ्य’ के पन्ने पलटते-पलटते
वह ढूँढ़ेगा हर बार रिश्तों के बचे हुए बीज
भूगर्भशास्त्री रचेगा तब हर बार एक नया समाज-शास्त्र।

उसकी आँखों में रहते हैं बुरास

वह आदमी
काशी की धोती पहनकर
सीढ़ियों के शहर में आया
और बुरास के जंगलों में
रिश्तों के बीज बोकर
विलायती पतलून पहनकर लौट गया
वह शायद नहीं बनना चाहता था
पूरी तरह विलायती बाबू
इसीलिए लौट गया गंगा के पास
वही गंगा
जो मेरे पहाड़ की रिस्ती हुई तकलीफ़ है
पहाड़ पर
सिर्फ पहाड़ पर ही होते हैं
नदियों के घर
वह शख़्स शायद भूल चुका है पूरी तरह
नारकण्डा कि धुंध
पर शायद नहीं भुला पाया
टेनिस कोर्ट में गुजारे दिन
वह बो गया आलोचना के बीज शब्द
छुपा गया किसी खेल की तरह
पहाड़ी ज़मीन पर
साहित्य का समाजशास्त्र
वह सौंप गया
कविता को धार देने वाले अनगिनत औजार।

गाँव किधर है 

पहली बार बच्चे ने शहर आकर पूछा- ‘गाँव किधर है बापू!’
मैंने सामने उड़ते पक्षी की ओर इशारा किया-
‘वह देखो, पक्षी की चोंच के दाने में
उड़ रहा है गाँव’
बच्चा बड़ा होता गया
बड़े होते गए उसके सवाल
वह भूलता चला गया
गाय और माँ के दूध का अंतर
वह भूल गया-
जूता खोलने और पहनने का फर्क
अट्ठारह साल बीत जाने पर
मैंने एक दिन बच्चे से पूछा-
‘क्या तुम आज भी बोल सकते हो दादी की भाषा?’
बच्चे ने एक दुकान की ओर इशारा किया-
‘पापा उधर देखो
शायद उस सब्जी बेचने वाली औरत के पास बची हो
थोड़ी-बहुत
क्या करेंगे आप उस भाषा का?’
बेटा, वह मेरे हँसने की, रोने की भाषा है
जागने की, सोने की भाषा
मैंने तुम्हारी जेबों में बिजूका के पैरों वाली
जो भाषा भर दी है
वह डराने-धमकाने की चीज है
तुम्हारे सपनों की भाषा नहीं
उधर देखो उधर उस खिड़की की ओर
तुम्हारी माँ ने-
जिसे सौंप दी हैं अपनी दोनों आँखें
उस खिड़की के सरियों पर
झूल रहा है उसका छोटा-सा गाँव
वह हम सब के इन्तजार में पका चुकी है-
अनगिनत सूरज
फिर भी नहीं भूली सरसों का साग खिलाना
ऐसे समय में जब तमाम स्कूल पढ़ा रहे हैं तराजू की वर्णमाला
फिर कौन याद करेगा नीम का पेड़
कौन पूछेगा-‘गाँव किधर है बापू!’

हेंगा 

पेड़ को
उसकी सभी हरकतों के साथ देखना हो
तो हेंगे के पास जाओ
और उससे पूछो-
ज़मीन कितनी गरम है
हेंगा कुछ नहीं कहेगा
वह बढ़ई और किसान दोनों की ओर
इशारा करते हुए
ज़मीन को खेत में बदलते हुए
खुरों की तकलीफ़ के साथ भागता जायेगा।

पेड़ जब भी होता है हरकत में
वह तब हल होता है या हेंगा
हेंगा ज़मीन के साथ घिसने वाले
काठ का नाम है
वह हर वक़्त
बीज की जड़ों के बारे में सोचता है।

हेंगे के साथ होना
ज़मीन के साथ होना है।
पेड़ कितनी तकलीफ़ के बाद
बनता है हेंगा
बैलों को हाँकते हुए सोचता है चरनदास
और टूटी हुए रस्सियों में बटे हुए
पेड़ों को जोड़ते हुए
हेंगा चलाने लगता है।

कोदे की रोटी

ओ साँवली रोटी!
कहाँ खो गई तुम?
अकाल के खिलाफ जंग लड़ने वाली नाजुकमिजाज
तुम्हें ही तो मिला है
सैकडों वर्ष ज़िन्दा रहने का वरदान,
तुम्हारे बारे में जानना चाहते हैं मेरे बच्चे
देखना चाहते हैं तुम्हें बार-बार
लौट आओ, तुम लौट आओ
खेत और आग दोनों तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं।

लेवा 

हम जब भी जाते हैं उसके पास
वह सगी माँ की तरह छुपा लेता है अपनी गोद में
दुलारते हुए कहता है-
तुम मत डरो, मैं हूँ न तुम्हारे साथ
मुझे आता है ठण्ड से लड़ना
सदियों से हर रात लड़ रहा हूँ
कभी न खत्म होने वाली जंग।

घमर

पूरी ताकत के साथ बजाता रहा वह नगाड़ा
अपने आँगन में
एक-एक करके जमा होते गये लोग
बच्चे-बूढ़े, आदमी-औरतें
पूरा आँगन भर जाने पर
उसने अपने-आप से कहा-
अभी शेष है मेरे नगाड़े की ताकत
नहीं भूला पूरा गाँव
आवाज़ की भाषा।

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