Skip to content

Kumar Virendra-.png

अउर का 

अक्सर देखता
बाबा को चलते-चलते राह-डरार से
बतियाते; कहीं करहा में, हरी दिख जाएँ दूबें, उन्हें छूते, हालचाल पूछते; लौटते
बखत कवन-कवन तो दिशाओं को प्रणाम करते; खेतों से कहते, ‘ठीक है, भाई
धेयान रखना, अब त काल्ह भेंटेंगे’; कबहुँ जब बरखा होती
मत पूछिए, उससे छपक-छपक, हँसी-मज़ाक़
करते; नदी जाते, हाथ जोड़
खड़े हो जाते

मैं तो टेल्हा-टहलुआ, देखता, चटपट नक़ल करता

कभी-कभी देखता
बगीचे में जब पेड़ों को अँकवारी में ख़ूब भर लेते
मचान पर पालथी मार बैठ जाते; और चिरइयों के खोंते देख-देख, गजबे मुसकाते; मैं भी
खोंते देख, इसलिए मुसकाता, कि बाबा मुसका रहे; पूछता तो कहते, ‘अरे, ई सब बचवन
को देखो कइसे चहक रहे, मन तो हरियाएगा ही न…’; फिर जो भी बह रही
होती हवा, बाबा की लगुआ ठहरती, तनि खैनी दबा, झूम
झूम, गवनई शुरू कर देते, दूर तलक जो
सुनते, पोरे-पोर सराबोर
हो जाते

कबहुँ ऐसा, उधर हल चल रहा, इधर जोताए खेत में

उठक-बैठक कर
रहे होते, अपनी देह तो माटी मलते ही, मेरी देह
भी मलते, फिर कहते, ‘आ जा पाठा, एक पकड़ हो जाए, और, एक पकड़ कौन कहे
कई पकड़ लड़ता, बाबा हर बार चित कर देते, लेकिन बाबा तो अजबे बाबा, आख़िर
में कइसे तो पटका जाते, पीठ थपथपाते कहते, ‘वाह रे मरदे, ई
बुढ़वा को तो पछाड़ ही दिया, रे मरदे…’; और जब
नदी नहाने जाते, कान्हे बैठा लेते
कि कुश्ती में हार जो
गए थे

बान्ध से धीरे-धीरे
नाहीं उतरते, सँभलते तनि दउड़ जाते
कहता, ‘अरे ढिमला जाओगे, भाई, अउर देखो घाव लगेगा, मुझे मत कहना
कि मना नाहीं किया’, बाबा हंसते, कह पड़ते, ‘अरे यार, तोहे दोस काहे दूँगा
अउर मैं गिरूँगा काहे, ज़मीन पर थोड़े न हूँ, मैं तो उड़ रहा
हूँ’, पूछता, ‘चिरईं जइसन ?’, अपनी बाँहें
पाँख जस फहराते, लहराते
कहते, ‘अउर का

तो अउर का…!’

अन्ततः

वे धरती पर जनमे हैं
गहरी होंगी जड़ें, फूलेंगे-फलेंगे, होंगे छायादार
उनके हिस्से की धूप, ख़ाली जगहों के लिए भी होगी, राह में नदी होगी तो सभ्यताओं
का इतिहास जानेंगे, पहाड़-जँगल मिलेंगे आदिमानवों का लोक गाएँगे, अपने खेतों से
प्यार करेंगे, उससे बेदख़ल होने की पीड़ा को रक्त में शामिल कर
लेंगे, वे सपनों को बयारों की तरह बाँचेंगे, आदमी
को आदमी होने में देखेंगे, इस
विज्ञान के साथ

साँसें लेंगे कि भरम और मिथक में बहुत का अन्तर नहीं होता, और यह
भी एक बड़ी राजनीतिक साज़िश कि
मुर्दे भविष्य रचते हैं

वे भले किसी प्रदेश के
नागरिक होंगे, लेकिन उनके सफ़र में अयोध्या भी
होगा मुजफ़्फ़रनगर भी, दिल्ली भी होगी जिसकी चर्चा में यह बात अक्सर आएगी, कि वहाँ
राष्ट्र का एक ऐसा शासक था जो गाँधी के हत्यारे को राष्ट्रभक्त बतानेवालों को अपने बहुमत
से अलग नहीं करता था, बस दिल से माफ़ नहीं करने का बयान देता था
वह भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस के समान ही उनको भी
आज़ादी का महानायक मानता था जो
अँँग्रेज़ों के मुख़बिर थे

वे धरती पर जनमे हैं कि धरती पर ही जनम सकते हैं, बड़े होंगे
एक दिन कहेंगे, ‘हम तब जनमे, जब
एक पड़ोसी से

युद्ध के लिए
हमारे पास वे तमाम सुविधाएँ थीं
जो होनी चाहिए, लेकिन गोरखपुर हो, मुजफ़्फ़रपुर, या कोई और, अस्पतालों में
नीन्द में हमेशा के लिए डूबते बच्चों के लिए, अन्ततः जिस नाख़ुदा पर भरोसा था
वह भी ऐसा, पता नहीं किस खोह समाया, देख सकता था न
सुन सकता था, पिताओं-माँओं का बादल की
तरह फटना, बन जाना अपने
ही जीवन में

प्रलय !’

अन्ह 

वह पहले भी आती होगी कि नदी
पहले भी थी

गढ़ती होगी, लेकिन
ध्यान उस दिन गया, जब वह घास की गठरी
गोद में रखे, लरक-ढरक रही थी, किनारे, किनारों की तरह, तभी तो, तीव्र वेग थी पुरवइया
तब भी आ न रही थी आवाज़, बस जब पोंछती आँचर से लोर, लगता रो रही है और जाने
क्या, चुप भी नहीं हो रही, मैं जो रोज़ खन्ता की नारी में पहुँच जाता, जहाँ
जँगली बेर के पेड़ ही पेड़, एक पेड़ पर बैठ तोड़ रहा था
बेर, देख रहा था उसे, वह गठरी पकड़े
ऐसे ढरक रही थी, लगता
माई रो रही

वह भी जब कोई ओरहन-बेओरहन
मुझे मारता

किसी से कितना
कहती, गोद में बैठा साथ भीगने लगती
चुप मैं ही पहले होता, और उसका लोर पोंछते कहता, ‘अब चुप हो जा…’, लेकिन उससे इहाँ
कौन कहे, गोद में है भी तो घास की गठरी, मैं कितना भी, बाँस की छिउँकी से, बेर तोड़ने की
जुगत भिड़ाता, नज़र चली ही जाती, क्यों तो पेड़ से उतर, भीरी चला गया
और पाछे खड़ा रहा, ‘तुम काहे रो रही हो, का हो गया है
बोलो…’, सुनते ही वह अकबका-सी गई
लेकिन पोंछते लोर, ‘कुछुओ
ना, बाबू’ कह

खुरपी-गठरी उठा चल पड़ी, राह सँग
फिर, तिरछे

उसे जाते देखता रहा
और सोचता रहा, ‘रो काहे रही थी ?’, दूसरे दिन तनि
देर से चहुँपा, खन्ता की नारी में, और जैसा कि बिन चढ़े पेड़, कहाँ मन भरनेवाला बेर से, चढ़के अभी
बैठा ही था, देखा, जहाँ नदी किनारे भुराड़, जिसका जल ही बधार में जान, दु घूँट पी, गठरी उठा, दूर
आर पर बैठ गई, चारों तरफ़ ताकने लगी, फिर आँचर में कवन तो मन्तर पढ़ने लगी
पढ़ लिया, हाथ से बार-बार भुइँँया छू रही, छूते ऐसे देखे जा रही
जैसे हहर रही हो, फिर वही, गोद में गठरी ले
ढरकने लगी, मैं फेर के फेर में
कवन है, का बात

जो डहकती है रोज़, गोद में गठरी पकड़े
बताती नहीं

तबहुँ चला ही गया
और वह फिर ‘कुछुओ ना, बाबू’ कह, जाने लगी
जाने लगी तो पाछे हो लिया, ‘बताओ न, का दुःख है, हमार आजी गोइँठा बेचती है, पइसा चाहिए ?’
वह मुड़ के जब देखने लगी, लगा साँचो अपनी माई ही देख रही, ‘कुछुओ ना, बाबू, जा घरे जा’ उचर
सर पे हाथ फेर, जाने लगी, उसे जाते दूर तक देखता रहा, जादा कर भी क्या
सकता था, मेरे गाँव की थोड़े जवार की थी, सोचा आजी से
कहूँगा, वही बताएगी, ना बताएगी तो लेके
आऊँगा, टालेगी नहीं मेरी बात
कहती भी तो है

‘दुःख से अइसी भवधी, बेटा, लगें सगे
सब सगे…’

सँकट, कि आजी को
अइसन जाड़-बुखार, पूछते का, ले आते कइसे
तो भी आना तो था ही, बेर का चस्का जो, लेकिन अगले दिन, बेर के लिए नहीं, ई सोच के आया
अबकी पूछ के रहूँगा, लेकिन जहाँ किनारे दो दिनों से देख रहा था, वहाँ दिखी नहीं, दिखी भी तो
छोर पे बनकट में, गँवे उतर चल पड़ा, इस बार जेब में बेर भी थे, पता नहीं क्यों
खा नहीं पा रहा था, सोचा उसे दे दूँगा, लेकिन कुछ क़दम दूर
ही था, देखा, अबहीं कवनो मन्तर नाहीं पढ़
रही, दूध गार रही, और इस बार
जितना गार रही

उतना ही ढरक रही, सूख रहा गारा हुआ
दुख रही वह

सन्न रह गया, कि ऐसा
करते अपनी माई को भी देखा था जब बबिया मू गई
थी, घर के कोने में बैठ, गारती, भीगती रहती, पूछता, कुछुओ ना बोलती, आजी ने बताया, ‘छाती
चुराए, कवन नवजात को मुँह धरावे, बुझावे आपन पीर, बेटा…’, मैं काठ बना खड़ा रहा, और उसे
नहीं जैसे साक्षात् माई को देखता रहा, कहते बन रहा था न देखते, लौटने लगा
फिर क्या तो हुआ, मुड़कर देखा, वह कुछ दूर चली गई थी
दौड़ते गया, ‘सुनो’, रुक गई, ‘रोज इहँवा
का करने चले आते हो, डर
नाहीं लगता ?

बाबू, मुरघटिया है न इहाँ, बउराह
हो का…’

‘देखो, ई बइर
ले लो, रोजहीं घरे ले जाता हूँ, चाची
खाती है, दीदी, फुआ, आजी भी, ले लो’, और बगली से निकाल, सब उसकी अँजुरी में
रख दिया, देख रहा था, वह बस देखे जा रही, इस तरह थिर, माथे गठरी हिल न पा रही
उसकी आँखों में कुछ वैसा ही था, जैसा माई की आँखों में कभी-कभी
पता नहीं काहे, उससे दूर जाते, बेरी-बेरी इहे कहे
जा रहा था, ‘हमरी माई कहती है, ई
जो बइरवा है, ई बहुते
मीठ, साँचो

ई त मीठे-मीठ, बहुते मीठ…!’

अन्हार 

दिवाली के दिन
सब जलाते घर-आँगन, दुआर-बथान
पर दीये, एक बाबा ही, जो एक थरिया में, तेल-भरे पाँच दीये
ले निकलते घर से, और जो पुरनका इनार, पहले जलाते उसी
पर एक दीया, फिर सीधे बधार में पहुँच, खेत के
एक मेंड़ पर, फिर एक दीया बग़ीचे
में ठीक बीचोबीच

इसके बाद, एक
नदी किनारे, और अन्त में, एक वहाँ
जहाँ बेर-बबूर बीच, गाँव के मृत बच्चे गाड़े जाते, मैं जो बाबा
के सँगे-सँग, देेखता जब पँचदीये जला चुके, सुस्ताने कि खैनी
खाने के बहाने, कुछ देर बैठे रहते, पूछता, ‘बाबा
इनार प दीया काहे जराते हो, पानी
देता है, इसलिए ?’

बाबा हाँ में मूँड़ी
हिलाते, फिर पूछता, ‘खेत प दीया
काहे जराते हो, अनाज देता है, इसलिए ?’ बाबा फिर हाँ में
हिलाते मूँड़ी, इसी तरह पूछता, ‘बगीचे में दीया काहे जराते
हो, आम फरता है, इसलिए ? नदी किनारे दीया
काहे जराते हो, नहाते हैं हम
लोग, इसलिए ?’

फिर जब पूछता
‘बाबा, ई बताओ, इहँवा दीया काहे
जराते हो, इहाँ तो इनारो नाहीं, खेतओ नाहीं, बगीचओ नाहीं
नदिओ नाहीं ?’ बाबा, अब तक हाँ में, जो खाली मूँड़ी हिलाते
मौन तोड़ते कहा, ‘हँ बेटा, इहँवा इनार, खेत, बगीचा
नदिओ नाहीं, तबहुँ जरा देता हूँ
एगो दीया, कि आज

अँजोर अन्हार न लगे…!’

अरे अदिमी हूँ

जब छोटा था

इहे समझता
बाबा नहीं रहे, आजी को नींद नहीं आ रही
मन बझाने को घूम रही, पाछे-पाछे जाता, देखता, ‘हे, हट-हट, हे हट-हट’ कर रही
और ज़ोर-ज़ोर से, बूझ नहीं पाता, जब इहाँ कवनो दूसर जीव-जनावर नाहीं, फिर
किसे भगा रही, जब बड़ा हुआ, दुआर पर देख-रेख को सोने लगा
बूझ गया, आजी रात-बिरात क्यों चली आती है
असल में बाबा की तरह उसकी
भी नींद टूट जाती

जब पड़ोस में केहू का बच्चा रोता

हालाँकि बाबा
की तरह, बच्चा देर तक रोए, पूछने को
पड़ोसी के दुआर नहीं जाती, पर इतनी ज़ोर से ‘हे, हट-हट, हे हट-हट’ करती
कि उसकी आवाज़ से, बच्चे के माँ-बाप महटियाए हों, शरम से आलस छोड़
उठ जाएँ, तनि पियाएँ, छेरियाया हो तो आँगन में घुमाएँ, तबीयत
ख़राब तो बहुरिया की न सही, सास की ही
आवाज़ आए, बन्द हो, ‘हे, हट
हट, हट-हट’

तब कहीं गँवे जा सो जाए

कभी कहता
‘ई सब का करती रहती हो, जो
हित हैं, नहीं बोलेंगे, जो बैरी, किसी दिन कुछ कह देंगे, न घटा सो घट
जाएगा…’, कहती, ‘अरे अदिमी हूँ, बेटा, पाथर थोड़े हूँ जो केहू का भी
बच्चा रोवे, करेज न फटे, तनि कोशिश करने में का
जाता है, चुप लगा जाए, आ जाती है
नींद, न आए तो बेटा
दिन-भर

मन हरियर नाहीं रहता !’

आधे गाँव की भौजी 

होगी, सबकी ससुराल में
होगी नाइन, पर मेरी ससुराल की नाइन जैसी
और कहीं कोई नाइन कहाँ, मेरी ससुराल की नाइन लगने को
लगती है सरहज, कहने को कहते भौजइया, और भले ही हो
गई है साठ की, पर आज भी उसके ऐसे
कमाल, ऐसे जलवे, ऐसे

मज़ाक़, ऐसे करतब, ऐसे-ऐसे
कि अपनी सास तो दूर, साली-सरहज भी, देखें तो देख-देख
शरमाएँ, गाड़ लें मुँह, हँसते-हँसते फूल जाए पेट, पानी-पानी हो आए आँख, और पाहुन
पाहुन तो जैसे कैसे भी, अपने प्राण ले दुआर-दालान, खोरी कहीं भी, भाग निकलने को
ढूँढ़ें राह, पर वह ढूँढ़े से भी न मिले, कि वह बैठी होती वहीं, फिर कौन ऐसा
पाहुन, जो बने पाड़ा, खुलवा के लुंगी, वह भी ससुराल में
बड़ी अजीब है नहीं, अजीब में

अजीब है मेरी ससुराल
की नाइन, एक बार का आँखों देखा यह, गाड़ा जा रहा था साली
का माड़ो, और भौजियों में हज़ार भौजी, सालियों में हज़ार साली, सरहजों में हज़ार सरहज
कि पाहुन तो पाहुन, देवर तो देवर, जो उसके ससुर लगते, लगते जो उसके भसुर, उनको भी
घोले हुए आटे, हल्दी, उबटन से लुक-छिप, भकोलवा बाबा बना के ही लिया
दम, और आँगन में का मरद का मेहरारू, क्या बच्चे
सब के सब होते रहे लोटपोट

ऐसे गड़ा माड़ो, कि सुधर जाएगी
दुनिया, नहीं सुधरेगी ई गाँव की ई नाइन, और नहीं सुधरेगी तो न सुधरे
चाहता भी कौन, इसीलिए तो सुनते सब, सब बूझते, रहते मौन, ऐसे लोगों के गाँव की ऐसी
है नाइन, ऐसी जो का सुख का दुःख, दौड़ी आती ख़ाली पाँव, दिन हो या रात, और गर्भवती
का उल्टा बच्चा भी, सीधा कर देती जनमा, बुढ़ियों-जवनकियों की कमर
का, भगाती फिरती चोर, दबाती फिरती उनकी देह
जिनके कई, छूता न कोई

जबकि ख़ुद नाइन का कौन
आपन, मरद गया जवानी में बिदेस, लौटा न बुढ़ापे तक देस
बाक़ी कसर बेटे-बहुओं ने कर दी पूरी, कर दिया अलग, एक दिन हँसते-हँसते पूछ ही लिया
‘ए भौजइया, तू नाइन पूरे गाँव की, तोहार कौन नाइन ?’, पता नहीं बूझा कि क्या, चली गई
मुसकाते, ऐसी ही ऐसी, अपने रंग में माटी, अपनी माटी की नाइन, तभी तो
जब एक दिन, ऐसे गिरी खटिया पर, लगा कि बचेगी न अब
देखते-देखते, हो गया पूरा गाँव जमा

और एक मुँह से कहा
सबने, ‘कोई गाँव क्या, समूची धरती पर
मिलेगी कहाँ ऐसी, अपने गाँव की सिर्फ़ ई नाइन नाइन नहीं
अरे आओ भाई, कवनो जुगत भिड़ाओ रे भाई, गाँव अन्हार
होने से बचाओ भाई, ई भौजी जी भौजी
भौजी आधे गाँव की !

इहाँ का तो इहे जानूँ

माई मन्दिर जाती
पूजा करती, जिस दिन नहीं जाती
आँगन में जहाँ तुलसी चौरा, गिराती उहाँ जल सूर्य को, जैसा
कि आज भी, लेकिन आजी को कभी मन्दिर जाते न आँगन
में ही पूजा करते देखा, हाँ कभी-कभी देखता
जल गिराते भी तो, एक नहीं
दो-चार लोटा

दुआर आगे जो आम
का पेड़, उसकी जड़ों के चारों ओर, लेकिन इसके
लिए वह, माई की तरह बेर ढरकने तक भूखे-प्यासे नहीं रहती, भोरे उठते गोबर पाथती
और मुँह धो कुछ खा लेती, और ई कि पेड़ को जल देने का काम, सुबह ही नहीं, दुपहर
या शाम को भी करती, ऐसा करते माई की तरह कुछ बुदबुदाती भी नहीं
वह तो माई की तरह परसाद भी नहीं देती, माँगो, ज़िद करो तो
कहती, ‘चुप रहs, दुकान चलूँगी तो लाई किनवा
दूँगी’, फिर क्या, ख़ुश हो जाता

एक दिन पूछा
‘आजी, तू मन्दिर काहे नाहीं जाती, माई
तो जाती है, इहाँ एगो पेड़वे है, उहाँ तो बहुते भगवान हैं’, आजी ने
सर पर हाथ फेरते, यही कहा, ‘बेटा, उहाँ का तो पता नाहीं, अउर
इहाँ का तो इहे जानूँ, ई जो पेड़वा है न, आज जल दूँगी
मेरे बाद भी छाया, मेरे बाद भी फल देगा
सूख गया तो, चूल्हे का

दुःख भी बूझेगा !

ई ऊ गाँव है

 सुरुज उग रहा था

आजी घर के
पिछवाड़े गोबर सान रही थी
कई लोग नारे लगाते दुआर पर चढ़े, मैं जो लोइया ढोने के
लिए खड़ा, आजी संग आया, देखा, बाबूजी चिल्ला रहे हैं
उनकी चिल्लाहट कई बार सुनी थी, यह पहली
बार, जो उनकी आँँखें धधकती
हुई, लाल दिखीं

सुरुज उग रहा था

और आजी जैसे उसकी
ओट में, कान आड़े सुन रही थी, बाबूजी बौख रहे थे
‘तुम लोगों को मालूम है, का कर रहे हो, अरे गाँव में दो-चार गो तो घर हैैं उनके, आज
राम के नाम पर ईंट माँग रहे हो, कल राम के नाम पर उनकी हत्या करोगे…अरे सोचो
भले रहते हैं गाँव के पश्चिम में, हर ख़ुशियाँ मनाते हैं, हमारे पुरुब में…उतरो
अबहीं उतरो, दुआर से…’, और अच्छा हुआ कि बिन कुछ
बोले, वे चले गए, आजी उन्हें दूर तक
घूरते देखती रही

सुरुज उग चुका था

मैं लोइया ढो-ढो दे
रहा था, आजी गोबर पाथ रही थी, लेकिन जाने
कहाँ तो खोई हुई थी, पूछा तो कहा, ‘असहीं बेटा, ला आज सब पाथ देती हूँ
कई दिनों से सड़ रहा है’, जब पाथ लिया, तो मुँह धोते जाने का सूझा, दुआर
पर नाद बनाने को जो रखी थीं ईंटें, उठा-उठा आँगन में रखने लगी
मैंने पूछा, माँ ने पूछा तो यही जवाब दिया, ‘अरे
दुआर पर रहे चाहे आँगन में, का
फरक पड़ता है’

सुरुज उग चुका था

लेकिन आजी को कहीं डूबा
देख, लगता था, सुरुज उगा न चाँद निकला है, दो कौर
खा, जब डेउढ़ी में खटिया पर ओठँगी थी, पास गया, ‘आजी, मालूम है, तू काहे उदास
है, बााबूजी ने ईंट को लेकर जो चीखा-चिल्लाया, उसी कारन न ?’, आजी कुछ देर चुप
रही, फिर जाने का तो ढूँढ़ते मेरी आँखों में कहा, ‘बेटा, अब तुम सब भाई, जल्दी
जल्दी बड़े हो जाओ, बड़े हो जाओ, बेटा, कि अपने बाप-पितिया के
पाछे खड़े हो सको, बेटा, बात ईंट-भर की नहीं
है, ई ऊ गाँव है, बेटा, जहँवा

हर कमजोर अदिमी

मुसलमान है !’

लीजिए, अब पढ़िए यही कविता मराठी अनुवाद में
अनुवादक हैं — मराठी कवि विजय चोरमारे

हे असं गाव आहे…

सूर्य उगवत होता

आज्जी घराच्या
मागच्या बाजूला शेण कालवत होती
काही लोक घोषणा देत थेट दरवाजात आले, मी शेणगोळे करत
उभा होतो, आज्जीपाठोपाठ आलो, बघितलं तर वडिल त्यांच्यावर ओरडताहेत
वडिलांचं रागावणं अनेकदा बघितलं होतं, पण असं पहिल्यांदाच
त्यांचे डोळे धगधगणारे लालबुंद दिसले

सूर्य उगवत होता

आणि आज्जी दरवाजाच्या आडोशाला उभी राहून ऐकत होती
वडिल संतापून बोलत होते,
‘तुम्हाला कळतंय का, तुम्ही काय करताय,
अरे गावात दोन-चारच घरं आहेत त्यांची, आज
रामाच्या नावावर विटा मागताय,
उद्या रामाच्या नावावर त्यांचे खून कराल…जरा विचार करा
मावळतीकडं राहतात गुण्यागोविंदानं
सगळे सणवार आपल्यासोबत साजरे करतात…
निघा, निघा इथून….’
आणि बरं झालं ते बिनबोलता निघून गेले
ते लांब जाईपर्यंत आज्जी त्यांच्याकडं बघत राहिली

सूर्य उगवला होता

मी शेणगोळे करून देत होतो, आजी शेणी थापत होती, पण कुणासठाऊक
कुठं हरवली होती, विचारलं तर म्हणाली, ‘काही नाही बाळा,
दे आज सगळ्या शेणी थापून टाकते
किती दिवसांपासून पडून राहिलंय शेण’
शेणी थापून झाल्यावर तोंड धुवायला निघालो तर
जनावरांसाठी रांजण बनवायला दरवाजाजवळ ठेवलेल्या विटा
एकेक करून अंगणात ठेवायला लागली
मी विचारलं, आईनं विचारलं तर म्हणाली, ‘अरे
दरवाजात असल्या किंवा अंगणात असल्या
काय फरक पडतो’

सू्र्य उगवला होता

परंतु आज्जीला कुठंतरी हरवलेलं पाहून वाटत होतं
ना सू्र्य उगवलाय ना चंद्र
कोरभर भाकरी खाऊन सोप्यातल्या खाटेवर पहुडली होती आज्जी
तिच्याजवळ गेलो, म्हणालो, ‘आज्जे, माहिताय तू का उदास आहेस ते
वडिल विटांवरून ओरडले म्हणून ना ?’
आज्जी थोडावेळ गप्प राहिली, थोड्या वेळानं माझ्या डोळ्यात
काहीतरी शोधत असल्यासारखी म्हणाली, ‘बाळा, आता तुम्ही सगळे भाऊ
लवकर लवकर मोठे व्हा,
मोठं होऊन बाळा, बापाच्या मागं आधाराला उभे राहा
बाळा, गोष्ट विटांपुरती नाही

हे असं गाव आहे, जिथं

प्रत्येक दुबळा माणूस

मुसलमान आहे !’

मूळ कविता : कुमार वीरेन्द्र
अनुवाद : विजय चोरमारे

ई कामवा के करी

मेरी आजी
आज तक भोट देने नहीं गई, उसे
कोई रुचि नहीं चुनाव में, नेता और सरकार में, कहने पर भी
कि ‘एगो भोटवा कतना काम के…’, तब भी नहीं गई, कबहुँ
नहीं गई आजी, हालाँकि उसके बेटे, बहुएँ, पोते
पतोहू जाते रहे हैं, जिसे वह
शुरू से ही

निठल्लों का काम समझती रही है

जब समझदार हुआ
तब यही लगा, आजी पुराने ज़माने की है,
पढ़ी-लिखी भी नहीं, उसे का मालूम, का चुनाव का भोट, वैसे है तनिक ज़िद्दी भी,
बताना चाहो तो सुनती नहीं, पर जब समझदार नहीं, था छोटा बच्चा
पूछा था, ‘आजी, तू भोट देने काहे नाहीं जाती ?’,
तब आजी ने
जो बात कही थी, क्या ख़ूब कही थी, और
इतनी जल्दी, और इतनी

आसानी से कह दी थी, लगा था

जैसे उसके लिए
ई भी भला कोई सवाल है, आजी ने
कहा था, ‘अगर मैं भोट देने जाऊँ, तो, ई जो गोबर उठाना है
ई जो गोइँठा लाना है, ई जो झाड़ू लगानी है, ई जो जाँता से
सतुआ पीसना है, ई जो लेदरा सीना है, ई जो
बुलाहटा पुराना हैै, ई सब कामवा
के करी, ई सब

तोहार इनरा गाँधी…?’

ई सब

अपना हो चाहे
किसी और का, उसे आम के पेड़ों
से बहुत लगाव था, बाबा की तरह कबहुँ अँकवारी भरती तो नहीं
भीरी से गुज़रती, किसी पेड़ को एक बार छूती ज़रूर, और कबहुँ
देखती, कटते कोई पेड़, आम-महुआ, कोई भी
पेड़, यह नाहीं कहती, ‘काहे
काट रहे हो…?’
कहती

‘ई पेड़वा को मुआ काहे रहे हो, भाई…?’

केहू कहता, ‘का
कहें, परेशानी है तनि…’, कुछ पइसा देके बचा
लेती, केहू नाहीं मानता, झगड़ा-झँझट थोड़े करती, कहती, ‘पेड़वो तो सवाँग
हैं, मुआवे के नाहीं, जियावे के चाहीं’, एक बेर पूछा, ‘तुम तो अजीबे हो, एक
तो गोइँठा बेचके पइसा बटोरती हो, कबहुँ इनको-उनको
तो कबहुँ जे मुआवे पेड़, उसे दे देती हो
ई बताओ, सब पइसवा
दे ही दोगी

मैं कइसे पढ़के जज-कलटर बनूँगा…?’

सिर पर हाथ
फेरते कहती, ‘फिकिर ना कर
सब हो जाएगा…अब का करूँ, बेटा, का करूँ…अदिमी हूँ
तो अदिमी को मुआवत, कइसे देख सकती हूँ…’, और जब
तक छोटा था, इहे समझता-बूझता रहा
नाहीं, कवनो फरक नाहीं
ई सब पेड़ भी

हमारे जइसन ही

अदिमी हैं !

उखड़न

गाँव के एक छोर पर उनका टोला था
वे गाँव में, हर कहीं, नहीं रह सकते थे

गाँव में हर कहीं आ-जा
सकते थे, राह के बीचोबीच चल नहीं सकते थे
किनारे चलते, जो गाँव में हर कहीं रहनेवाले, उनको आते देख, और किनारे हो जाते; वे हिन्दू थे
ऐसे हिन्दू, अपने टोले के लोगों को छोड़ किसी और से आँख नहीं मिला सकते थे; वे जब किसी
दुआर पर जाते, दस हाथ दूर खड़े रहते; ज़मीन पर बैठ सकते थे, खाट-चौकी पर
बैठे कभी नहीं दिखते; उनके हल चलाने, बुआई करने, फ़सल काटने
में छूत नहीं थी; वे खैनी माँग सकते थे न खिला सकते
थे; खेत-खलिहान से अलग, पगड़ी बाँधे
घूम भी नहीं सकते थे

उनके बच्चे सज-धज के क्या, बाल भी नहीं बना सकते थे
हालाँकि, उनकी बीवियाँ-बेटियाँ, हर सिंगार कर सकती थीं

लेकिन वे रोज़ नहीं, किसी
ख़ास मौक़े पर करतीं, तब भी घात से बच नहीं पातीं
यह कोई जानकर भी कुछ नहीं कर पाता था; एक बार एक ने घाती का गर्दन हँसुआ से उतार देने की
जुर्रत क्या की, बधार में पेट फाड़, अँतड़ी निकाल, नदी में बहवा दी गई, तब भी उसका मरद, घाती के
आगे ही हाथ जोड़े रहा, अपनी बीवी पर ही हज़ार लांक्षन लगाते गरियाता रहा; गाँव में
उनके लिए कोई पंचायत नहीं बैठती, कोई भी कहीं भी हुक्म सुना सकता
था; यह भी कि उसके खेत में शौच नहीं करना, करने पर
लउर कोंच दी जाएगी; और हुक्म के ख़िलाफ़
जो, उसके ख़िलाफ़ पूरा गाँव; वे
हिन्दू थे और जाने

कैसे हिन्दू थे, मलिकारों के बच्चों के आगे भी सर झुकाते थे
ब्राह्मणों को ईश्वर मानते, परछाईं बीघे-भर, दूर रखना चाहते

ताकि उनको दोबारा जल
से शुद्ध न होना पड़े; बनिये उनसे इतना अलगाव नहीं
रखते थे, पैसे-अनाज ले सामान सहज ही दे देते; उधार नहीं ले सकते थे, उन पर कोई भरोसा ही नहीं
करता था, भरोसा तब किया जाता, जब वे जिसके बंधुआ, वह कहता देने के लिए; जिस नाव से लोग
नदी पार करते, उस नाव से वे भी पार कर सकते थे, लेकिन तब जब गाँव में हर कहीं
रहनेवाले न बैठे हों; वे कोई संकट हो तब भी क़स्बे पैदल ही आते-जाते
दिखते, जबकि टमटम ख़ूब चला करते थे, जिन्हें गाँव के
दो-चार घरवाले मुसलमान ही ज़्यादा चलाते थे
वे मुसलमानों से भी नीचे थे; थे तो
हिन्दू ही लेकिन ऐसे

जिनके दु:ख में पूरा गाँव शामिल नहीं होता था, उनके मालिक दो
दिन चुप रहते, लेकिन जल्दी ही, काम पर, बुला लेते; वे चले आते

उन्हें मना करते कभी नहीं
देखा, देखा भी तो मना करने पर मार-मार गतान करते
तमाशा देखते लोगों को; वे अपने दु:खों को ही नहीं, अपनी हँसी-ख़ुशी को भी, अपने टोले से बाहर सबसे
साझा नहीं कर सकते थे; उनके चेहरे दिन क्या रात में भी भले बरते दिखते, लेकिन उन्हें ठहाके लगाते तो
कभी नहीं सुना जा सकता था; सोचता ऐसे क्यों हैं ये, और सोचता ही रह जाता; देखता
जिस कुँए से सब पानी पीते, वहाँ से वे प्यासे ही गुज़र जाते, नदी जाकर
पीते पानी, लेकिन उस घाट पर जहाँ मुरघटिया; वे हिन्दू थे
लेकिन जाने कैसे हिन्दू थे, जिनके लिए धरती
पर बस अपना एक टोला था, वह
भी दूर एक कोन पर

कोई खेत, बधार, बगीचा नहीं, इसलिए एक टिकोरा क्या दातून
भी तोड़ने से डरते थे; वे ग़ैर थे, समझ में नहीं आता, कैसे ग़ैर थे

कि उनकी ही औरतें नार
काटने को बुलाई जातीं, उनके छूने से मालिकों के चराग़
अछूत क्यों नहीं होते थे, कैसे ग़ैर थे कि अपनी बीवियों संग कई दिन ढोलक बजाते नाचते-गाते, गूँज से
भर देते हर दिशा; और उन्हीं की तरह, वे भी जाने कैसे ग़ैर थे, जिनकी औरतें घर के कपड़े धोने के लिए
ले जातीं, साल में एक बार अनाज माँगने आतीं, उनके गदहे खेत में तनि चर क्या जाते
गदहों की तरह मार पड़ती; और वे जिनके सूअर, तनि गुज़र क्या जाते रात
डीह में उगे तेलहन से, घर ही में उनकी औरतें रौंद दी जातीं
और बात, उनके मरद महुआ का दारू पी जब
तब खुलेआम नाम ले लेते, हमरी
वाली संग फलाँ ने…

हालाँकि सुबेर होते, गोड़ पर गिर, माफ़ी माँग लेते; वे हिन्दू थे
जाने कैसे हिन्दू थे, मन्दिर की चारदीवारी से भी दूर खड़े होते

रामनवमी की पूजा देखने
परसाद की आस में; जैसे आस में मलिकारों के किसी
काज-परोजन में खाने को कबसे खड़े, टुकुर-टुकुर ताकते बच्चों संग; अपने उन बच्चों संग जो कभी
स्कूल नहीं जाते थे, कुछ जाते भी तो एकदम पीछे बैठते, एक मामूली ग़लती पर भी इतनी मार खाते
स्कूल आना धीरे-धीरे बंद कर देते; अपने पिताओं के कामों में हाथ बँटाते दिखते, मरे
जानवरों की चाम छीलते सीखते दिखते; वे हिन्दू थे, कैसे हिन्दू थे, सुनता
एक मालिक को एक बार जाने किस कारण मानुस-बलि की
ज़रूरत पड़ी, उनके एक बच्चे की दे दी गई
माँ-बाप कुछ ही दिनों में हुक से
मर गए; वे हिन्दू थे

हिन्दुओं के एक बड़े गाँव के, एक कोन पर, रहनेवाले
हिन्दू थे; जो ख़ुद नहीं आए थे, बुलाकर, बसाए गए थे

बसाए गए थे ‘परजा
पवनी’ के नाम पर, बसे रहने के लिए, मनुष्य
होने के नाते हर हक़ हासिल करने को; लेकिन वे ऐसे हिन्दू थे, जो हिन्दू होकर भी, हिन्दुओं के गाँव
में मुसलमानों से ज़्यादा असुरक्षित थे; थाना-कचहरी उनकी ख़ातिर नहीं थे, वे एक लोकतन्त्र के ऐसे
नागरिक थे, जिन्हें भोट देने का मतलब था अपने हाथ कटवा लेना, आँखें फोड़वा
लेना; वे हिन्दू थे और हिन्दुओं का ही गाँव छोड़कर जाने को विवश
थे; गाँव का एक टोला जो कभी मधुमक्खियों के खोते
समान घना हुआ करता था, धीरे-धीरे छेंहर
होते, उजड़ने लगा; एक दिन
आजी से पूछा

“ऊ जो काका-काकी, भइया-भौजी, सुकवा
सोमारू थे, ऊ कहँवा गए, लउकते नाहीं…”

आजी ने कहा
“चिरईं-चुरुँग थे, कब तक ठहरते
उड़ के चले गए अपने बन में…”; बाबा से पूछा, कवन तो सोच में पड़ गए
जब कहा, “आजी कहती है, उड़ के बन में चले गए, ऊ, अब नाहीं आवेंगे”
बाबा ने कहा, “ठीके कहती है तोहरी आजी, बेटा; कब तक
ठहरते, उड़ के बन में चले गए कि अपने मन
से चर सकें धरती पर, उड़
सकें अपने मन
से, आसमान में…!”

एक चाभा 

कहँवा से उमड़-घुमड़
आए बादल, और ई बरसन बरसे, खेतों में
लग गया पानी, फिर का, फिकिर तितिर बन उड़ी कवनो ओर, शुरू हो गया
लेव लगाना, धान का बीया छींटने को, रोहिन नक्षत्र में, छिंटा जाए, बखत पे
हो जाए शुरू रोपाई, बाबा दूर लेव लगा रहे, बगीचे में मैं
रोहिनिया आम की रखवारी में, दिन-भर
में एक-दो टपकने जो
लगा था

बरखा रुकी थी, तो था तो
डरार प ही खड़ा, पर जाने कहँवा खोया, सुबेर से
एगो टपका भी, बित्ते-भर पानी जो पेड़ चहुँओर, टपकते लुका गया, जिधर से आई आवाज़
लात-हाथ से ऐसे घँघोर दिया, गरई मछरी भी उतरा जाती, पर ई आम, टपका तो सही, गया
कहँवा, ग़ज़बे छक-छका रहा था, बरखा जइसन पसीना बहवा रहा था
लेव लगा जब आए बाबा, और कहा, तो बाबा तो बाबा
शुरू हुई फिर ढूँढ़ा-ढूँढ़ी, और बाबा ने
धर ही लिया, लुकाया
था जहाँ

ढूँढ़ रहा था कहँवा तो
येने-ओने, और कहँवा तो वह जड़ तर ही थथम
गया था, अहा, रोहिनिया रे रोहिनिया, का पियरा के पका था, निहार-निहार ‘बाबा की जय बाबा
की जय’ करने लगा था, बाबा का क्या, थके-हारे लौटे थे, डरार प बैठ खैनी बनाते, लेव-खेत को
ताके जा रहे थे, जिसमें घास छान-छान मेंड़ प फेंक रहे थे बाबूजी, जितना
साफ़ खेत, उजियाएगा बीया उतना, बाबा खैनी बना रहे
थे, इधर मैं चोंप गार रहा था, बाबा पीट
रहे थे खैनी अब खाने ही
वाले थे, गया

और कहा, ‘बाबा
अबहीं मत खाओ खैनी, कहते हो न
तो खा के कहो, लो, ई चाभो एक चाभा’, बाबा जानते थे, ज़िद्दी है, सुनेगा
नहीं, तो रसगर रोहिनिया एक चाभा चाभने के बाद, बाबा का भी मिज़ाज
रोहिनिया जइसन डभा गया; मुस्कुराने लगे, जब एक
चाभा और चभाते कहा, ‘काहे बाबा, अब
बताओ अब, मिहनत
का फल

मीठ होता है न !’

एगो आम

गुहाड़ी सिंह की
आँख से देखा जाए, और सोचा जाए दिमाग़
से तो एगो आम है एक लाख का, तभी तो पता नहीं, कौवे ने गिराया ठोर मारके कि सुग्गे ने
कि कवनो अउर चिरईं-चुरुँग ने, जतन कर डाल दी खटिया पेड़ पर ही कि तेरी तो, आओ रे
अब देखता हूँ किसके बाप की मजाल, जो ठोर मारे हमरे आम को, तो
ये तो गुहाड़ी सिंह, लेकिन इनसे भी कम नहीं चटकन
बाबा, जो बीन न ले जाए कोई आम
ख़ाली अगरम-जगरम
के बजाय

कसके पछुआ खोंस
घूमते रहते हैं बगीचे में, देखते हैं जब या होता है
आभास, किसी के आने-जाने, होने का, लगाने लगते हैं किसी पेड़ का तेज़ी से चक्कर, ताकि
लोग भूत समझ भाग जाएँ, सुनने में आता है, चटकन बाबा आम-रखवारी ख़ातिर नहीं, डरते
हैं भूतों से इतना, ख़ुद भूतों की तरह, पछुआ खोंस, लगा धूर-माटी घूमते
हैं भर-रात, समझें भूत अपनी बिरादरी का, और बस हाल
चाल जान छोड़ दें उन्हें, वैसे कोई और बड़
बुजुर्ग है भी नहीं घर में, करे
जो रखवारी

ऐसे में करें तो क्या
करें चटकन बाबा, लेकिन सुनिए, चटकन बाबा को
जैसी करनी है, करते हैं रखवारी, पर पहलवान जी की रखवारी का, बयान करना ही क्या, सोचिए
उनके बगीचे से एगो कच्चा आम उठाया क्या चटनी के लिए कवल ने, ऐसा मारा उल्टा दाँव पकड़
उसे कि चित और अधमरु हो गया कवल, और टाँग दिया पहलवान ने बाँध गमछी
से वहीं डाल पर, कि आम रे यादव जी के और खाए चटनी ‘नान्ह’
इस तरह ई ऊ गाँव है, ऊ, जहाँ एक बच्चे के
ढेले से, टूटा एक आम और दो
सिंहों में भँजीं

इतनी लाठियाँ, चलीं
गोलियाँ, अन्ततः गिर के ही रही एक पक्ष की
एक लाश, और कर दिया बर्बाद एगो आम ने, बोरा भर-भर पैसा रखनेवाले एक मुखिया को
जो फिर मुखिया न बना भले, मुखिया जी बना रहा ज़रूर, तो एगो आम रे एगो आम, तोहके
देखा जाए तो तू रे आम, है एक ही, पर जतने मीठ ओतने तीत रे इयार
अक्सर आता नहीं समझ में रे एगो आम, ई गाँव, गाँव है
कि है गढ़ गँवारों का, जहाँ लोग भरी
बन्दूक़ रख सिरहाने, करते
हैं रात-भर

रात-रात-भर

तेरी रखवारी रे रखवारी !

ऐंगी-ढेंगी

झूम रही थी बुनी, झुमा रही थी बुनी
आँगन में रे पानी लहरा रही थी बुनी

और चिरइयाँ थीं
रामजी की चिरइयाँ, जो ढूँढ़ रही थीं चाउर
कि कुछुओ आउर; मनेमन धो रही थीं मन, धो रही थीं तन; भीरी जाने को दौड़ता
फुर्र से इस कोन, फुर्र-फुर्र उस कोन, कबहुँ केने तो उड़ जातीं, केने से तो उड़-उड़
आतीं, कहता कइसे, रह-रह चह-चह करतीं, तनि फुरफुरा चोंच
से चोंच जुड़ा, का बूझे केहू बात कवन, तबहुँ
कहाँ माननेवाला, जो कहन थी
बड़ी गहन थी

‘देखो, एगो बात सुनो, रामजी से कहना, हमरी आजी नू

बखार नाहीं भीगे
तसला-कठवत लगा, रातभर जागती है
पानी फेंकती है, एतना पइसा दें, छप्परी छवा जाए; कहना, हमार धँवरा बैला, जब से मू गया
बाबा फिकिरे, बाग में मचान पर बैठे रहते हैं, अबकी मेला में एगो कसहुँ कीना जाए, खेतिया
ना होई खाएँगे का; कहना, हमरे गाँव में बहुते हो गए हैं चोर, खुरुखुरु हो
तनिको, माई जाग जाती है, फिर ऊँघी आती ही नाहीं
अउर काल्ह नू, ऊ जो काकी है न, उसकी
बकरिया को साँप काट दिया
देखो, हमर नाम

भोलेबाबा है, बाकी सँपवा बतिया सुनते ही नाहीं, कहना

हम कहें त सुनें
केहू को काटे नाहीं; अब, तुमही बताओ, का
जाऊँ इस्कूल, हिसाब ना आवे तो माहटर साहेब, जब-तब मार देते हैं, बताना, उनको तनि बुद्धि
दे दें; अउर देखो, पहिले मैं मारामारी नाहीं करता, तबहुँ पिटवाने को, सब हमरे नाम लगा देते हैं
तनि पूछ के आना तो मैं अब का करूँ, कहँवा जाऊँ; सुनो, हमरी जो नानी
है न, बीड़ी पीती है, छोड़ती ही नाहीं, कथा कहते खोंखने
लगती है, माई के बाद, एगो उहे है, जो गाके
सुनाती है, कहना, सपने में
आ समझाएँ

हमरी बात तो ‘बुढ़ऊ नतिया’ कह, टरका देती है, पूछना

लोग झूठ काहे
बोलते हैं, पानी पर चलेवाला पँवरिया
पिलुआ जो पिए, पँवरना आ जाए, कहँवा आया, डूब ही गया संगतिया, जताना
दुखी हूँ, जहँवा गाड़ा गया, जामुन का बीया छींट दिया है बड़हन होगा, अँकवारी
भरूँगा रोज, सुनो, ए रामजी की चिरइयाँ, जो कहा सो कहना
बिसरना ना बिसरने देना, नाहीं तो जानती ही हो
हमरी आजी को, तोहे तो दु-चार
दाना छींट देगी, बाकी
ऊ तोहरे

जो रामजी, किए जो जादा ऐंगी-ढेंगी, अउर
भेंटा गए, कबहुँ कतहुँ, मार मूसर मार मूसर

पूजा करेगी !’

कठिन 

नदियों की कोई नागरिकता नहीं होती
फिर भी जहाँ कहीं
से गुज़रती हैं, सींचती हैं; वृक्षों के पास भी, नहीं होती
नागरिकता, फिर भी देते हैं छाया; पहाड़ों से पूछोगे, कोई एक न बता पाएगा, है नागरिकता, तब भी
क्या वे तुम्हें दृढ़ रहना नहीं सिखाते, उनके साहस और धैर्य को कैसे भूल सकते हो; चलो छोड़ो, यह
बताओ, कभी किसी चिड़िया से पूछी है उसकी नागरिकता, क्यों नहीं पूछी, एक
रूठ जाएगी तो सब रूठ जाएँगी, हो जाएँगी तुम्हारे ख़िलाफ़, घर
से ही नहीं जीवन से भी बिला जाएगी चहचहाहट; तुम्हें
धूप प्रिय है, है बारिश, क्या इसलिए नहीं
पूछोगे नागरिकता; सोचो
यह जो तुम
पूछ रहे इनकी-उनकी नागरिकता, किसलिए
कि ये मानुष हैं
नहीं, तुम ग़लती कर रहे हो, सिर्फ़ मानुष से देश
नहीं बनता, देश बनता है नदियों, वृक्षों, पहाड़ों, चिड़ियों, धूप, बारिश, जाने कितना कुछ से, जो अछोर
ख़ैर बताओ, तुम ऐसे कितने मानुष को जानते हो, जिनमें कोई नदी नहीं होती, जो किसी वृक्ष की तरह
नहीं लगे, जो विकट में साथी नहीं किसी पहाड़ की तरह; बताओ, ऐसे कितने को जानते
हो, जिनकी ख़ुशी में कोई फुदकती चिड़िया नहीं देखी, जिनके दु:ख में टूटे
पँख नहीं मिले तुम्हें; ऐसे मानुष जिनसे तुमने थोड़ी धूप नहीं
माँगी; जिनकी बारिश में अपने स्वप्न सिरजते
कोई यात्रा नहीं की; बताओ, ऐसे
कितने को जानते हो
क्या ठीक-ठीक गिनती करके बता सकते हो
देखो, तुम ताक़तवर हो
अपनी ताक़त का दुरुपयोग कर रहे हो; अरे ढूँढ़ते
रह जाओगे, ऐसा कोई नहीं मिलेगा, जिसमें नदी न सही वृक्ष न हो, पहाड़ न सही कोई चिड़िया न हो
न हो धूप-बारिश; चलो मान लेते हैं, तुमने ढूँढ़ ही लिया ऐसे मानुषों को जो नदी, वृक्ष, पहाड़, चिड़िया
धूप, बारिश से विहीन, तो क्या उनके भीतर झाँककर बता सकोगे, वे अपने ही भीतर
कितना बचे हैं; देखो, तुम मूढ़ नहीं हो, मूढ़ता एक हद के बाद क्षम्य
हो सकती है; तुम तो सनकी हो सनकी, अपनी सनक
में कैसी और कितनी क्रूरताएँ किए जा
रहे हो, तुम्हें पता ही नहीं, नहीं
पता तुम्हें; काश
तुम जान पाते, किसी देश के नागरिक होने से
कितना कठिन होता है, कितना ज़्यादा कठिन
मनुष्य होना !

कील 

‘गाँव आधा-आधा बँट गया

नदी का तो केेवल
काम था बहना, लेकिन वह भी बँट गई
हवा बँट नाहीं सकती थी, आसमान बँट नाहीं सकता था, जो खेत
बधार-बगीचे थे, ऊ तो नाहीं बँटे, उन तक पहुँचने की हर डगर बँट
गई, गोहार होने लगी तो छोरे-छोर, ललकार गूँजने लगी
फिर एक-एक कर सारे हरवे-हथियार बँट गए
तो जो होना था आधा-आधा, हो
चुका, तो एक दिन

गोली चली, अउर एगो लाश गिरी

दूर तक छींटों से लाल
हो गई धरती, फिर हाहाकार गूँजा, अउर हाहास बन
घुमड़ने लगा, कि ऊ, आधा हो सकता था न किया जा सकता था…’, कहते-कहते चुप हो गई
‘फिर, फिर का हुआ, आजी ?’, ‘वही जो नाहीं होना चाहिए था, हवा का तेज झोंका भी आता
लगता, केहू किवाड़ी खुलवा रहा, कतहुँ कुकुर भउँकता, लगता लोग आ रहे हैं मार
करने, बिलाई रोती सरग टूटने जइसा लगता, रात घाती लगती, सुबेर
भी साँझ जइसन, ई तो आँगन में चिरइंयाँ आतीं कि
लगता दिन है, केहू कहता खाने को
लगता पेट भी है

आँसू नाहीं गिरते, जाने सब बदरियाँ कहँवा चली गई थीं

आम के एगो टिकोरा खातिर
छोटहन झगड़ा, अइसन हो जाएगा, सोचा न था, हर बेरी लगता
पता नाहीं कब, तेरे बाप को लोग मार-काट दें, कहीं खपा दें, तेरा बाप भी अइसा कहँवा सुननेवाला
एक बार कह दिया, हम जोम में खून करनेवालों के साथ नाहीं, तो नाहीं, जो हो, फिर तो जो बैरी थे
थे ही, अपने भी बैरी बन गए, तेरे बाबा लोग किसी से का कहते, जब हर मुँह माहुर
अउर तेरा बाप, कतनो समझाओ, बजर बुुुरबक, साइकिल उठा चला
जाता कउलेज, कि इम्तिहान छोड़, घर में नाहीं बैठना
खेतिहर बनूँ चाहे जो, अनपढ़ नाहीं
रहना, तब का करती

घूँघट में छिप, इस राह, उस राह, देखती फिरती

कि जो मेरे बेटे को
मारने आएँगे, सब तो बचकर नाहीं जाएँगे
ऊ तो अच्छा हुआ, जिसका खून हुआ था, उसके घरवाले साथ खड़े हो
गए, कि एगो निरदोस मारा गया, तो बदले में एगो अउर निरदोस, नाहीं
मारा जाना चाहिए…’, कहते-कहते फफक पड़ी आजी, ‘अरे ई
का, अब काहे, ऊ दिन तो बीत गया न…’, ‘हँ बेटा
बीत गया, लेकिन का करें, बेटा, कि
घाव तो सूख जाता है

कलेजे में धँसी

कील नाहीं सूखती !

कुमारवा का चइता

एक घाट पे
कुकुर भौंके, दूसर घाट पे करे
सियार हुआँ-हुआँ हो रामाऽऽऽ चइते मासे, अरे चइते मासे
ई चुनाव हो रामाऽऽऽ, चइते मासेऽऽऽ, खेत-बधार में हँकरे
साँड़, डीह-डीहवाड़ में ढेंचू-ढेंचू करे ख़ूब
गदहवा हो रामा, चइते
मासेऽऽऽ

दिन तो दिन
रात-रात-भर कउआ बोले, जाने
कहँवा से आ-आ मँडराए गिद्धवा हो रामाऽऽऽ, चइते मासेऽऽऽ, अरे चइते
मासे हो रामाऽऽऽ, चइते मासेऽऽऽ, मुरघटिया में बिलगोह जीभ लपलपावे
मन्दिर के चबूतरा पे फुँफकारे विषधरवा हो रामाऽऽऽ
चइते मासेऽऽऽ, अरे चइते मासे हो रामा
चइते मासेऽऽऽ, हो हई
चइतेऽऽऽ

जाने कवन हाथ चले ढेला
गाँव-गाँव नगरी-नगरी छाप रहीं बिरनी, छाप रहे हाड़ा
हो रामाऽऽऽ चइते मासेऽऽऽ, हई चइते मासे हो रामा, चइते मासेऽऽऽ, कतहुँ मकड़ा बुने, जाल पे जाल
कतहुँ गिरगिट बदले रंग हो रामाऽऽऽ चइतेऽऽऽ, कहे तिलचट्टा कहे कनगोजर, अबकी चुनाव में अजबे
उठाव-गिराव हो रामा चइते मासेऽऽऽ, सुखार-दहार में अजबे बहार हो रामा चइते
मासेऽऽऽ, अरे चइते भोटा-भोटी हो रामा हई चइतेऽऽऽ, अरे
लूटs लहार, भूलके सब दुःख-दरदिया हो
रामा चइते मासेऽऽऽ

कहें बकुला-कबूतर
कहें पण्डुक-गौरइया, अबकी चुनाव में सुनऽ हो
भइया, केहू के माई-बाप रूस-अमरीका, कहें चूटा-माटा कहें पिलुआ-फतिंगी, अबकी चुनाव
में केहू के पाहुन-ससुर फरांस-इटली, कहे उल्लू कहे टिटहरी कि हई कवन सूझ-शुभ कि केहू
के इयार-भतार जापान-चीन हो रामा चइते मासेऽऽऽ, अरे चइते चुनाव
हो रामाऽऽऽ चइते, चुनाव हई चुनाव हो रामा चइतेऽऽऽ
अरे दलदल में कइसन हई कइसन
छाँव हो रामाऽऽऽ

चइते मासेऽऽऽ हो रामा चइते मासेऽऽऽ

हो हई चइते मासेऽऽऽ…!

खुदबुदिया 

एक दिन माई से
कहा, ‘तुम तो खुदबुदिया लग रही हो’
और बताया कि खुदबुदिया, ऊ चिरईं को कहते हैं, जिससे सब सुन्दर लागे
जिसे ख़ुश देखना चाहते हों, मुस्कुराने लगी, एक दिन चाची, फुआ-दीदी से
कहा, और बताया तो वे भी मुस्कुराने लगीं, जब बगीचे में
होता, और आम न टपकता, किसी पेड़ से
कहता, बताता, और गँवे
बैठ जाता

अब नहीं तो अब टपकेगा आम

जब उस पेड़ से
न टपकता, किसी और पेड़ से कहता, इतने
में, किसी न किसी पेड़ से टपक ही जाता, जब नदी किनारे ‘भुड़ाड़’ का पानी पीने जाता
का तो सूझता, तनि देर किनारे बैठ जाता, और नदी को ‘खुदबुदिया’ कह, निहारता रहता
एक दिन बाबा से कहा, जब वह मेंड़ पर बैठा, खेत में हल चलाने लगे
ठठाकर हँस पड़े, पूछा, ‘अरे किसने सिखाया तोहे
आजी ने ?’, सिर हिलाया तो
और हँसने लगे

जो मुझे जब-तब जीभ बिराती

एक दिन उस लड़की से
कहा, बताया तो आपन आधा गट्टा, खाने को मुझे
दे दिया, किसी दिन जब वह कहती, आधा गट्टा मैं उसे दे देता, एक दिन भइया सँग होरहा खा
लौट रहा था अकेले, देखा, जिनके घर से ख़ूब दुश्मनी, खेत में गवत खातिर, तेलहन उखाड़ने
से पहिले खैनी बना रहे, दूर ही से घूर रहे, डरा तो नहीं, पर क्यों तो उस दिन
उनसे भी कह डाला, ‘काका, आज तो खुदबुदिया लग रहे हो’
फिर बताया तो मुस्कुराने लगे, गाल
थपथपाने लगे

यूँ तो आजी से कबहुँ-कबहुँ ही कहता

लेकिन जब कहता
वह भी मुस्कुराने लगती, जितना मुस्कुराती, मैं
और कहता, फिर तो हँसने लगती, हँसते-हँसते उसकी आँखों में लोर भर आता, तब नहीं
जानता था, लोर में भी कवनो अन्तर होता है, इसलिए देखते, झट, हाथों से पोंछने लगता
अँकवारी में भर गले लग जाता, उसकी ही बातें याद दिलाते, ‘अरे हो
गया, हो गया, ज़ादा खेत नाहीं पटाते, नाहीं तो सब
फसलवे दह जाएगी, दह जाएगी
तो बोलो, हँ बोलो

हम साल-भर जिएँगे कइसे…!’

खुश हो जाइए, पंडित जी 

खुश हो जाइए, पंडित जी
कि अब गिद्ध नष्‍ट होने को हैं
कौवे भी पहले जितने नहीं दिखते
कम दिखने लगे हैं काग

पंडित जी खुश हो जाइए
कि जब रहेंगे ही नहीं तो आपके जजमानों के छप्‍पर के उपर
कहां से बैठेंगे गिद्ध्‍
इसलिए बचें गृहत्‍याग की आशंका से
कि होत भोर कौओं की कांव-कांव सुन
गरियाने से छुटकारा मिलने को है
और जुड़वे काग देख
मरनी की ख्‍बर पेठाने से
मिलने वाली है मुक्ति

जी, पंडित जी, हो जाइए खुश
वैसे तो आपके अपनों ने ही गढ़े ये जंजाल
तो भी चिंतन से ज्‍यादा बेहतर है
चिंतित होना उससे बेहतर दुखी होना
और इन सबसे बेहतर है सेहत के लिए खुश होना
आप खुश हो जाइए पंडित जी

लेकिन … लेकिन जब देखता हूं
बिल्‍ली का रास्‍ता काटते
और लोगों को अपना रास्‍ता बदलते या थुकथुकाते
या बकरी के छींकने पर किसी को वापस घर लौटते
कुछ देर रूक फिर बाहर निकलते

लगता है ऐ दुनिया वालों
कि पंडित जी से
इतनी जल्‍दी
खुश हो जाइए पंडित जी, कहना
बहुत बड़ी खुशफहमी है।

चाय पीनेवाले प्रेमी

ये दो प्रेमी
जो अब बूढ़े हो चुके हैं, इस होटल
में, लगातार चालीस वर्षों से, चाय पीते आ रहे हैं, सुना जाता
है, इन्हें इसी होटल में चाय पीते-पीते प्यार हुआ था, हालाँकि
एक सम्बन्ध बनने के पहले से, इस होटल में, चाय
पीते आ रहे हैं, किसी ने इन्हें
इस होटल में

खाना खाते हुए, कभी
नहीं देखा, नाश्ता करते हुए भी, जिन्होंने देखा
चाय पीते देखा, और बातें करते हुए, पर किसी ने इनकी बातें कभी अक्षरशः
स्पष्ट नहीं सुनीं, हालाँकि मुस्कुराते, हँसते, उदास होते और रोते हुए, कइयों ने
स्पष्ट रूप से देखा है, लोगों का मानना है, इन्हें राजनीति और
इतिहास में, कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं
शायद, कि अपने वर्तमान

पर बहस करते, अतीत पर
विचारते, किसी ने आज तक भाँपा तक नहीं, इन्हें जितनी
जल्दी होती है, सड़क पार करने की, उतनी ही जल्दी होती है भीड़ से बाहर निकलने की
पर जाने क्यों, इस भीड़-भरे होटल में, इन्हें कभी जल्दी नहीं हुई, इन्हें अक्सर देखा गया है
जब आते हैं, हाथ में एक पुरानी डायरी होती है, और एक क़लम, पर वह पुरानी
नहीं, इनके कपड़ों से, फूल-सी ख़ुशबू आती है, हालाँकि
फूल, बूढ़े की ज़ेब में न बुढ़िया

के बालों में दिखते, ये एक-दूजे
के प्रेमी, लगातार चालीस वर्षों से, इस होटल में पैदल चलकर
आते रहे हैं, पर इन्हें एक साथ आते हुए, कभी-कभार ही किसी ने देखा होगा, इनके मुहल्ले
के लोग, इस होटल में जब आते हैं, चाय पीने खाना खाने, उन्हें इनके बारे में ‘पागल हैं’ कहते
सुना गया है, बाक़ी और कुछ नहीं, कि वक़्त के इस मोड़ पर, आ चुके हैं ये चाय
पीनेवाले, बाक़ी और कुछ, कहनेवालों में से, कितने कबके
मर-खप गए, कितनों की दिलचस्पी

नहीं रही, अब तो जो हैं
आदर ही करने लगे हैं, पर वेटरों ने इन्हें दिल से
आदर कभी नहीं किया, कि अपने प्रेम-जीवन में इन्होंने, एक बार भी किसी
वेटर को, एक चवन्नी क्या, एक अधन्नी तक नहीं दी, जबकि ये दोनों, शिक्षक
शिक्षिका रहे हैं, किसी-किसी से पता चलता है, कि इनके कुछ
विद्यार्थी, इनका बहुत सम्मान करते थे, कि ये
उनकी ग़लतियाँ ज़्यादातर

माफ़ कर देते थे, और
पढ़ाते थे तो बस पढ़ाते थे, बात नहीं करते
थे, सुनते भले थे, ये चाय पीनेवाले प्रेमी, जो कबके सेवानिवृत्त हो चुके
अब तक ग़ैर-शादीशुदा हैं, पता नहीं, अलग-अलग मुहल्ले में रहनेवाले
अपने घर के ये अकेले प्राणी, जब इस दुनिया से जाएँगे
वह कौन सी अधूरी इच्छा होगी, जिसे पूरी
तरह पाना चाहेंगे

और पाकर छोड़ जाएँगे !

चिन्हासी 

सरग में बिअफइया

सुकवा को छूने के लिए
जैसे ही आगे बढ़ती, आजी की जाने कवन
नींद, टूट जाती, लेकिन उसके उठाने से पहिले ही, मिट्ठू जगाने लगता
‘बबुआ-बबुआ…उठs-उठs…बबी-बबी…उठs-उठs…’ और हम भाई
बहिन, दउरी-छैंटी उठा, निकल पड़ते, महुआ बीनने, तब
बगीचे में, दो महुआ के पेड़, वह भी दु जगह
एक जगह तो रोज़ बीनने जाते
एक जगह

दिन बीच करके कि एक पेड़ साझ

जिस दिन साझीदार
का भाँज होता, उहाँ, हम भूलकर भी नहीं जाते
लेकिन जिस दिन हमारा भाँज होता, उस दिन भी साझीदार घर के, हमारी ही उमर के
भाई-बहिन दउरी-छैंटी लिए चले आते, और बाँध पर बैठ जाते, कि हम कब टकसें तो
जो छुटा-छुपा हुआ पतइयों में, बीन ले जाएँ, ऐसे में हर बार तो नहीं, लेकिन
कई बार, उनका टकटकी लगाए बैठे रहना, सुहाता नहीं, तब
मैं, दीदी, जो खाने को कन भेजती आजी, उन्हें
भी दे आते, वे कुछ कहते नहीं
बस खा लेते

फिर अपनी टुइँया से उन्हें पानी भी पिलाते

धीरे-धीरे ऐसे घुल-मिल गए
कि हम जान-बूझकर उस पेड़ से महुआ कम बीनते, आजी
माई-चाची पूछतीं तो कह देते, ‘का करें, आज तो नीलगाय-घोड़पड़ास खा गए…’, हमारी संगत
में वे इतने ख़ुश होते, कई बार हमारे चहुँपने से पहले चहुँप जाते, और कभी वो हमारा तो कभी
हम उनका महुआ, बिनवा देते, कि एक दिन, उनके चाचा ने देख लिया, हमारा कन
खाते-महुआ बीनते, तो उन्हें बगीचे में ही लोटा-लोटा केे मारा-पीटा
तब ऐसी लगी कठमुरकी, हम बस टुकुर-टुकुर देखते
सुनते रहे, ‘दुस्मन का अन्न खाते हो
आज जान मार देब’

इसके बाद वे दिन बीच करके ही आते

और अब हम कुछ दे
पाते न वे ले पाते, पानी भी पीना होता, नदी किनारे
भुड़ाड़ के पास जाते, एक दिन पता नहीं, का हुआ, आजी से सब बता दिया, और पूछा
‘ऊ हमारे कवन हैं, हम दुस्मन हैं उनके, ई महुआ साझ काहे है ?’, आजी ने कुछ सोचते
हुए कहा, ‘बेटा, ऊ कहते हैं, पेड़ बेचके पैसे बाँट लेते हैं, हम कहते हैं कि
हरियर नहीं कटवाएँगे, पुरखों की चिन्हासी है…’, ‘कैसी
चिन्हासी, आजी !’, ‘बेटा, सुनते हैं कि
तेरे बाबा के बाबा

और उनके घर का कोई खाँटी सँघतिया थे

दोनों ने एक-दूसरे
की जमीन में महुए का पेड़ लगाया, कि एक
भी बचेगा, बड़ा हो चुएगा, जाड़ा में, उसका लट्टा बनवाएँगे, अउर कउड़ा-जुटान
में जो गवनई करने आएँगे, उन्हें खिलाएँगे, कहेेंगे, ‘देखो, ई है, ई हमरी दोस्ती की
मिठाई, अइसन मिठास कुछुओ में नाहीं, कतहुँ नाहीं’, साँचो, ऊ दुनो
सँघतिया पिरित के हर भाव जानते थे, पर का जाने
काहे, ई नाहीं जानते थे, बेटा, कि महुए
के लट्टे की तरह खाली

दोस्ती ही नाहीं, दुश्मनी भी

मिठ होती है !

छूँछ

दवँक रही थी पछुआ तो क्या

नदी किनारे
बूँट की रखवारी में, गम्हार तले
ओठँगे मगन हो गा रहा था, ‘अरे कटनी में खटनी बहुते, ऊपर से बहे लुक हो धनी
जा छँहिरा सुसता ल तनि; एके माटी के दुनो परानी, अकेले कइसे सुसताइल बनी
चलऽऽ संगे पिया सोचऽऽ जनि…’, कि तलब हुई खैनी की, उठते देखा
सोन्हू काका, जाने कबसे बैठे हैं, जो आँख मिलते
मुस्कुराने लगे, बूझ गया, गा रहा
था, काका ने टोका
नहीं, बस

सुर सँग हो, हरकाते-टरकाते पछुआ बैठे रहे

और काका ही अकेले
थोड़े, काकी सँगे-सँग, काका अब अकेले होते
कहाँ, घर से निकलते काकी साथ होतीं, एक ही था बेटा, जिस मैना का सुगवा हुआ
उसी के घरवालों ने, मरवा, गँगा में फेंकवा दिया, टूट गए थे दुनो, पैसा ना ताक़त, ना
कवनो गवाह, ऊपर से धमकी, पूछो तो कहते हैं, ‘मुदइयों को लगता है
हमार एके बेटा, अरे जवन-जवन पियार करे, ऊ सब
हमार बेटा’, कि कबहुँ काका-काकी
ने भी परेम-बियाह ही
किया था

तबहीं तो मानुस मारे चाहे दवँकत पछुआ

अपने रँग, सँगे-सँग
पतइयों में से निकाल, पानी पीने को बोतल जैसे
ही बढ़ाया, काका कह पड़े, ‘गा रहे थे, बेटा, सुनते लग रहा था, जवानी के दिन लउट आए…’ इस
पर काकी मुस्कुराते लजा-सी गईं, पानी पी दुनो जाने लगे, इहे सोच कि फसल तो कट चुकी, अब
कवन आसरा, कल भी आ जाते, पाँजा-भर मिल जाती, लेकिन का जानते थे
हार्वेस्टर का हो जाएगा जल्दी जुगाड़, दिन-भर में कट जाएँगे
खेत, भायँ-भायँ हो जाएगा पूरुब-भर बधार
अवगते पछिम न जा, पूरुब
ही चले आते

पछुआ मुँहे आँचर ना चीन्हे गमछी, तो का

चली जा रहीं काकी
हाथ में अचार का कमण्डल लिए, काका छूँछे हाथ
छूँछे हाथ काका को कबहुँ न देखा, जब देखा रिक्शा चला आते, जाते देखा, जिस पर अपने बेटे
सँग मुझे भी स्कूल के लिए बैठा लेते, ढली जवानी किसी की हरवाही करते देखा, बेटे की हूक से
उबरे तो जोताई-बोआई के समय बधारे-बधार दु मुट्ठी अनाज, पाँजा-भर डाँठ
को अचार लिए फिरते देखा, चले जा रहे दुनो परानी, आए थे
अचार के बदले लेने डाँठ, कट चुकी तो का
करते, ‘काका, खैनी नाहीं
खाओगे…?’

सुनते ठिठक गए, ठिठक-सी गई पछुआ भी

नहीं भी होती इच्छा
कैसे कहते ना, चले आए और बैठते कह पड़े
‘आज तो ई गजबे पछुआ, बेटा, दवँक नाहीं रही, लहक रही…’, और खैनी बनाकर दी तो
फिर चलने को दुनो परानी उठ खड़े हुए, ‘काका, होरहा खाने का मन है, देखो ऊ कोन प
हरियर अबहीं बूँट, उखाड़ लो…’, और काका बूँट उखाड़ चले जा रहे
उन्हें जाते देखता रहा, ओठँग इहे सोचता रहा, अगर
पछात बूँट न बोया होता, भायँ-भायँ
बधार में भायँ-भायँ लगते
दुनो परानी

बेआस में पछुआ बाँधे और हाहाकार

सोच रहा था
और देख रहा था कि गम्हार की एक
डाल प पतइयों बीच दो पंछी संगे सुस्ता रहे, लगा, साँचो आज लहक रही पछुआ लह
लह, कि तब तक कानों से टकराए मीठे बोल, चौंक देखा, दूर दुअँठियवा आम के नीचे
काकी पतई ला-ला दे रहीं, काका झोंक रहे पतई, झोर, झोर रहे होरहा
और उनके ‘बोल’ इहाँ तक चहुँपा रही पछुआ, ‘अरे
कटनी में खटनी बहुते, ऊपर से बहे
लुक हो धनी, जा, जा
छँहिरा

सुसता ल तनि…!’

जब तक 

वह जानती थी

कहीं ठहरता
नहीं, इसलिए कितनी भी रात
हो जाए, जब तक नहीं लौटता, दुआर पर जलती रहती ढिबरी
जिस रात नहीं जलती, समझ जाता, कोटे से मिलनेवाला तीन
लीटर किरासन तेल ख़त्म हो चुका है, बनिया
यहाँ ब्लैक में भी, नहीं
मिला होगा

पर आजी अपनी माटी की

कितना भी समझाओ
कहाँ समझनेवाली, ढिबरी जले न जले, जब तक
नहीं लौटता, बैठी रहती, और सिर्फ़ बैठी ही नहीं रहती, अपने आपसे जाने क्या-क्या तो
बतियाती, एक दिन कहा, ‘बउराहिन हो का, एक तो बैठी रहती हो, ऊपर से ई बतियाती
का रहती हो ?’, तब पता नहीं, उसके चेहरे पर कौन सा रँग था, जो
तनिक ठहर के कहा, ‘का करूँ, बेटा, बतियाती
रहती हूँ कि जब तक तू न लौटे
दुआर पर अँजोर
ना सही

अन्हार तो अन्हार ना लगे !’

ठोरवाला

1

जब हेतु उसके
बगीचे में जाता, वह वही आम
देती खाने को, जिस पर सुग्गे के ठोर होते, वह आती हेतु के बगीचे
में, वह भी देता उसे, वही आम, वो ऐसे दिन थे, दोनों के झोरे, बीजू
आमों से भरे होते, लेकिन वे सुग्गे के ठोरवाले
एक आम के लिए, रह जाते
दिन-दिन-भर

भूखे !

2

किसी दिन ऐसा
वह आती, हेतु नहीं जाता, किसी दिन
हेतु जाता, वह आ नहीं पाती, किसी दिन दोनों होते, अपने बगीचे में ताकते
फिरते पेड़-पेड़, बैठे कि नाहीं सुग्गे, और वह आ पाती न वह जा पाता, बिन
बुझाए बूझ जाते कि आज उसे मिला मुझे नहीं, मुझे मिला
उसे नहीं, या आज मिले ही नहीं दोनों
में से, किसी को आम
सुग्गे के

ठोरवाले !

3

और अभी ठीक से
सेयान भी नहीं हुए, एक दिन उसका ब्याह
तय हो गया, उसने बताया, सुग्गे के ठोरवाले आम देते, ‘का सोचते हो…लो खाओ, बाबू
कहते हैं माई भी, तू पराई थोड़े होगी जल्दी बुला लेंगे, फिर पाँच साल बाद गवना करके
भेजेंगे’, और जिस रात उसकी बरात आई, उसके घर के पिछवाड़े बैठा
हेतु, उसकी बकरी से बतियाता रहा, कबहुँ उसकी
बकरी का मुँह अँजुरी में भर लेता
भीग भी लेता

इहँवा कहँवा कोइलर
धरती शोर, सरग टिटिहरी की टीटी टी, टीटी टी
वह बगीचे में चला गया, रात-भर बीनता रहा आम, काका लाख कहते रहे, ‘अबहीं जा
भोरे आना’, भोर हुई बाँध पर बैठे हेतु ने देखा, ओहारवाली आ रही डोली, टुकुर-टुकुर
देखता रहा, और निकल गई दूर, इतनी, धुँधलाने लगे कहार, लगी
लुपलुपाने डोली, तबहुँ वह वहीं खड़ा-गड़ा
ताकता रहा, हाथ में सुग्गे
के ठोरवाला

एक आम लिए !

4

बहुत दिनों बाद
क़स्बे के एक अस्पताल में, मिली वह
कुछ दिनों के लिए शेष, सिरहाने माई गोड़तारी बाबू थे, पता नहीं और कोई क्यों नहीं
था उसके लिए वहाँ, उसकी आँखें कहते-सुनते लबालब होने लगतीं, उसने कहा, ‘मुझे
एक आम खिलाओगे, सुग्गे के ठोरवाला, हेतु ने हाँ में सर हिला दिया
लेकिन क़स्बे में सुग्गे के ठोरवाला आम कहाँ
ढूँढ़े, वह तो, बस, बगीचे में
मिलता है

पर उसने माँगा है
ख़ाली हाथ कैसे जाए, अन्तत: निरउठ ख़रीद
लिया, सिरहाने रखते कहा, ‘इहे मिला, वह नाहीं मिला’, वह मुस्कुराई, लेकिन इतनी ही
जितनी उसके खित्ते में थी, उसने एक आम हेतु तरफ़ बढ़ाया और कहा, ‘काटो’, उसने
काटा तो आम पर दाँतों के निशान उग आए, तब अपने पास ले
जाते उसने कहा, ‘तुमने कहा, कतहुँ मिला ही
नाहीं, ई का है, का ई नाहीं
है, सुग्गे के

ठोरवाला आम !’

Leave a Reply

Your email address will not be published.