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ख़ुर्शीद अहमद ‘जामी’ की रचनाएँ

ख़ुर्शीद अहमद जामी.jpg

ऐ इंतिज़ार-ए-सुब्ह-ए-तमन्ना ये क्या हुआ 

ऐ इंतिज़ार-ए-सुब्ह-ए-तमन्ना ये क्या हुआ
आता है अब ख़याल भी तेरा थका हुआ

पहचान भी सकी मेरी ज़िंदगी मुझे
इतनी रवा-रवी में कहीं सामना हुआ

चमका सके न तीरा-नसीबों की रात को
हम-राज़ हैं तेरे माह ओ अंजुम तो क्या हुआ

मुझ से कहीं मिला ग़म-ए-दौराँ तो इस तरह
जैसे मेरी तरह से है वो भी थका हुआ

जामी फ़ज़ा-ए-मौसम-ए-गुल यूँ उदास है
जैसे कहीं क़रीब कोई हादसा हुआ

बे-ख़्वाब दरीचों में किसी रंग-महल के 

बे-ख़्वाब दरीचों में किसी रंग-महल के
फ़ानूस जलाए हैं उम्मीदों ने ग़ज़ल के

यादों के दरख़्तों की हसीं छाँव में जैसे
आता है कोई शख़्स बहुत दूर से चल के

दुख दर्द के जलते हुए आँगन में खड़ा हूँ
अब किस के लिए ख़ल्वत-ए-जानाँ से निकल के

सोचूँ में दबे पाँव चले आते हैं अक्सर
बिछड़ी हुई कुछ साँवली शामों के धुंदलके

चमकते ख़्वाब मिलते हैं महकते प्यार मिलते हैं 

चमकते ख़्वाब मिलते हैं महकते प्यार मिलते हैं
तुम्हारे शहर में कितने हसीं आज़ार मिलते हैं

चले आते हैं चुपके से ख़्यालों के मह ओ अंजुम
मेरी तारीक रातों को बहुत ग़म-ख़्वार मिलते हैं

दबे लहजे में ये कह कर नसीम-ए-जाँ-फ़ज़ा गुज़री
चलो उन रेग-ज़ारों से परे गुल-ज़ार मिलते हैं

ग़जल को तजरबात-ए-ज़िंदगी की धूप की ‘जामी’
नए उस्लूब मिलते हैं नए मेयार मिलते हैं

हर एक दर्द को हर्फ़-ए-ग़ज़ल बना दूँगा 

हर एक दर्द को हर्फ़-ए-ग़ज़ल बना दूँगा
चला तो हूँ के तेरी रह-गुज़र दिखा दूँगा

ग़म-ए-हयात मेरे साथ-साथ ही रहना
पयम्बरी से तेरा सिलसिला मिला दूँगा

अगर वहाँ भी तेरी आहटें न सुन पाऊँ
तो आरज़ू की हसीं बस्तियाँ जला दूँगा

न इंतिज़ार न आहें न भीगती रातें
ख़बर न थी के तुझे इस तरह भुला दूँगा

कुछ और तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म सही ‘जामी’
कुछ और अपने चराग़ों की लौ बढ़ा दूँगा

इक उम्र साथ साथ मेरे ज़िंदगी रही 

इक उम्र साथ साथ मेरे ज़िंदगी रही
लेकिन किसी बख़ील की दौलत बनी रही

मेयार-ए-फन पे वक़्त का जादू न चल सका
दुनिया क़रीब हो के बहुत दूर ही रही

महकी हुई सहर से मेरा वास्ता रहा
जलती हुई शबों से मेरी दोस्ती रही

तंहाईयों के दश्त में कुछ फूल से खिले
रक़्साँ शब-ए-फ़िराक़ कोई चाँदनी रही

कितने ही फ़साने याद आए कितने ही सहारे याद आए

कितने ही फ़साने याद आए कितने ही सहारे याद आए
तूफ़ान ने बाहें फैला दीं जिस वक़्त किनारे याद आए

दीवार से लग कर सोचूँ की उम्मीद का सारा दिन गुज़रा
जब रात हुई तो हम को भी सब ख़्वाब हमारे याद आए

पैमान-ए-वफ़ा के सीने से फिर आज लहू टपका ‘जामी’
जो राह में थक कर बैठ गए अहबाब वो सारे याद आए

कोई हलचल है न आहट न सदा है कोई 

कोई हलचल है न आहट न सदा है कोई
दिल की दहलीज़ पे चुप-चाप खड़ा है कोई

एक इक कर के उभरती हैं कई तस्वीरें
सर झुकाए हुए कुछ सोच रहा है कोई

ग़म की वादी है न यादों का सुलगता जंगल
हाए ऐसे में कहाँ छोड़ गया है कोई

याद-ए-माज़ी की पुर-इसरार हसीं गलियों में
मेरे हम-राह अभी घूम रहा है कोई

जब भी देखा है किसी प्यार का आँसू ‘जामी’
मैं ने जाना मेरे नज़दीक हुआ है कोई

महक उट्ठा यका-यक रेग-ज़ार-ए-दर्द-ए-तंहाई

महक उट्ठा यका-यक रेग-ज़ार-ए-दर्द-ए-तंहाई
किसे ऐ याद-ए-जानाँ तू यहाँ तह ढूँडने आई

बड़े दिलचस्प वादे थे बड़े रंगीन धोके थे
गुलों की आरज़ू में जिं़दगी शोले उठा लाई

बताओ तो अँधेरों की फ़सीलों से परे आख़िर
कहाँ तक क़ाफ़िला गुजरा कहाँ तक रोशनी आई

तुम्हारे बाद जैसे जागता है शब का सन्नाटा
दर ओ दीवार को देता है कोई इज़्न-ए-गोयाई

सुना है साया-ए-रूख़्सार में कुछ देर ठहरी थी
वहीं से जगमगाते ख़्वाब ले कर जिं़दगी आई

सहर का हुस्न गुलों का शबाब देता हूँ 

सहर का हुस्न गुलों का शबाब देता हूँ
नई ग़ज़ल को नई आब ओ ताब देता हूँ

मेरे लिए हैं अँधेरों की फाँसियाँ लेकिन
तेरी सहर के लिए आफ़ताब देता हूँ

वफ़ा की प्यार की ग़म की कहानियाँ लिख कर
सहर के हाथ में दिल की किताब देता हूँ

गुज़र रहा है जो जे़हन-ए-हयात से ‘जामी’
शब-ए-फिराक़ को वो माहताब देता हूँ

सलाम तेरी मुरव्वत को मेहर-बानी को 

सलाम तेरी मुरव्वत को मेहर-बानी को
मिला इक और नया सिलसिला कहानी को

नसीम-ए-याद-ए-ग़ज़ालाँ चली न फूल खिले
वो रेग-ज़ार मिले मौसम-ए-जवानी को

बहुत उदास बहुत मुनफ़इल नज़र आई
निगाह चूम के रूख़्सार-ए-शादमानी को

दयार-ए-शेर में ‘जामी’ क़ुबूल कर न सका
मेरा मज़ाक़ रिवायत की हुक्मरानी को

उन से कहीं मिले हैं तो हम यूँ कभी मिले 

उन से कहीं मिले हैं तो हम यूँ कभी मिले
इक अजनबी से जैसे कोई अजनबी मिले

देखा तो लौह दिल पे तेरे नाम के सिवा
जलते हुए निशान-ए-सितम और भी मिले

कुछ दूर आओ मौत के हम-राह भी चलें
मुमकिन है रास्ते में कहीं जिं़दगी मिले

होंटों की मय-नज़र के तक़ाजे़ बदन की आँच
अब क्या ज़रूर है के वही रात भी मिले

वफ़ा न झूम के जब तेरे गीत गाए हैं 

वफ़ा न झूम के जब तेरे गीत गाए हैं
क़दम उफ़ुक पे अँधेरों के लड़खड़ाए हैं

तेरी क़रीब पहुँच कर भी कम नहीं होते
ग़म-ए-हयात ने जो फ़ासले बढ़ाए हैं

बहुत तवील सही राह-ए-जुस्तुजू लेकिन
बहुत हसीन तेरे गेसुओं के साए हैं

तेरी निगाह मुदावा न बन सकी जिन का
तेरी तलाश में ऐसे भी ज़ख्म खाए हैं

पड़ा है अक्स जो रूख़्सार-ए-शोला-ए-मय का
तो आईने तेरी यादों के जगमगाए हैं

मुसाफ़िरान-ए-शब-ए-ग़म की राह में ‘जामी’
नए चराग़ मेर फ़िक्र ने जलाए ह

शहर के साथ चले रौशनी के साथ चले

शहर के साथ चले रौशनी के साथ चले
तमाम उम्र किसी अजनबी के साथ चले

हमीं केा मुड़ के न देखा हमीं से कुछ न कहा
इस एहतियात से हम जिं़दगी के साथ चले

तुम्हारे शहर में अनजान सा मुसाफ़िर था
तुम्हारे शहर में जिस आदमी के साथ चले

ग़मों ने प्यार से जिस वक़्त हाथ फैलाए
तो सब को छोड़ के हम किस ख़ुशी के साथ चले

जलाओ ग़म के दिए प्यार की निगाहों में 

जलाओ ग़म के दिए प्यार की निगाहों में
के तीरगी है बहुत ज़िंदगी की राहों में

सुना के अब भी सर-ए-शाम वो जलाते हैं
उदासियों के दिए मुंतज़िर निगाहों में

ग़म-ए-हयात ने दामन पकड़ लिया वरना
बड़े हसीन बुलावे थे उन निगाहों में

कहीं करीब कहीं दूर हो गए ‘जामी’
वो ज़िंदगी की तरह ज़िंदगी की राहों में

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