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आश्रय देता नहीं जगत,पर

असमय कुदरत ने दे डाला
उसको है अभिशाप।
आश्रय देता नहीं जगत,पर
वह निश्छल निष्पाप।

बचपन में वह हुई सुहागन
माँग पड़ा सिन्दूर !
छोड़ चली अम्मा बाबू को
नइहर से वह दूर !
सिसक सिसककर वह डोली मे
करती गयी विलाप।

स्वप्न संजोये वह सतरंगी
पहुंची जब ससुराल!
आन पड़ा दुख उसके ऊपर
मुंह बाये विकराल !
जीवन साथी छूट गया जब
हुआ उसे संताप।

विधवा उसको किया भाग्य ने
मिले कहाँ से प्यार !
निष्कासित कर दिया ससुर ने
बहे अश्रु की धार !
बिना दोष वह सजा भोगती
किया न जिसने पाप।

अब उसको हर नजर घूरती
ताने देते लोग !
व्यथित हुआ जब मन उसका तब
अपनाया फिर जोग !
किन्तु जानवर कहाँ नही हैं ?
जरा सोचिए आप।

पनघट पर नयनों की गागर मैं छलकाती रे

व्यथा किसी से कुछ भी अपनी कब कह पाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।।

देख तुम्हारी छवि को ही ये सूरज आँखे खोले
सोंच तुम्हें बेसुध हो जाती जब कोयलिया बोले
पनघट पर नयनों की गागर मैं छलकाती रे।।
आती है जब—
आ जाओ हरजाई वरना तुमको दूंगी गाली
बिना तुम्हारे जग लगता है बिल्कुल खाली खाली
और मस्त पुरवायी दिल मे आग लगाती रे।।
आती है जब—-
मैं हूं प्रियतम प्रेम दिवानी जबसे सबने जाना
बुलबुल मोर पपीहा निशदिन कसते मुझपर ताना
मुई चाँदनी देख मुझे बस मुंह बिचकाती रे।।
आती है जब—

मुझे गुलाबी भी दिखता है तुम बिन बिल्कुल काला
तुम दीपक हो इस जीवन के आकर करो उजाला
तुम बिन साजन जली जा रही जैसे बाती रे।।
आती है जब—

 

पर कोई उम्मीद नहीं

इधर उधर बेचैन घूमता,
गीत विरह के गाता है !
ढाई आखर के उलझन में,
पागल मन घबराता है !

आस मिलन की उससे करता,
पर कोई उम्मीद नहीं !
जिधर देखता हूँ छवि उसकी
दूर तलक है नींद नहीं !
पल पल उसकी यादों का बस,
झोंका आता जाता है !
ढाई आखर —

भावों में विह्वल हो जाता,
धड़कन ये बढ़ जाती है !
हृदय चूमता उसकी छवि को
वो मुझको तड़पाती है !
उसमें ही दिल खोया रहकर
दिल को ही समझाता है !
ढाई आखर —

बैठी दोनों भोली आँखे
रात रात भर रोती हैं !
घात लगा जिसमे पीड़ायें
अपना आँचल धोती है
जाने किस दुनिया से चलकर
आँसू राह बनाता है।।

हुई हवायें गर जहरीली

अगर संतुलन धरा का बिगड़ा,
जिन्दा न रह पाओगे।
हुई हवायें गर जहरीली
घुट घुट कर मर जाओगे।।

बेकार ना जाये बूंद कोई
जल की बरबादी रोको!
जनसंख्या विस्फोट हो रहा,
बढ़ती आबादी रोको!
भूखे प्यासे रहेंगे बच्चे,
फिर कुछ ना कर पाओगे।।

सदा रखो ओजोन सुरक्षित,
परा बैगनी किरने रोको!
हरे पेड़ ना कटने पायें
मिलकर सभी जने रोको!
अगर समन्दर लगेगा जलने,
कैसे भला बुझाओगे ?

हरियाली धरती पर लाओ,
पर्यावरण न हो दूषित
धरती माँ से प्यार करो तुम
मानवता कर दो पोषित!
कहर प्रकृति ने अगर ढा दिया,
मिट्टी मे मिल जाओगे।।

हिन्दुस्तानी माटी में

उधम,सुभाष,भगत सिंह, जन्में
इस बलिदानी माटी में।
दुनिया का हर रतन छुपा है
हिन्दुस्तानी माटी में

इसी देश के ॠषि मुनियों ने,
ज्ञान दिया विज्ञान दिया !
इस धरती ने शून्य दशमलव,
दे जग में अहसान किया !
ईश्वर की हर कला मिलेगी,
इस कल्याणी माटी में।

जननी, जन्मभूमि औ’ गुरु की,
घर – घर पूजा होती है !
यहीं पे पावन गंगा बहती ,
पाप सभी के धोती है !
जियें मरें हम देश की खातिर
लिखें कहानी माटी में।

जग जननी ने इसी धरा पर,
आकर के अवतार लिया !
मानवता के हर दुश्मन का,
गिन गिन कर संघार किया !
कण -कण में हैं आदि शक्ति माँ
इसी पुरानी माटी में ।

वक्त आ गया देश हमारा,
योग का पाठ पढ़ायेगा !
दर्शन आकर करेगी दुनिया,
भारत राह दिखायेगा !
अब भी जीवित हर विद्या है
इस विज्ञानी माटी में ।

बेखौफ डोलती हैं

आँखो की हरकतो से
कोई बचा नहीं है
करती हैं वार ये तो
सबसे नजर बचाके।

जादू से ये भरी हैं
बेखौफ डोलती हैं !
पर आशिकों के दिल को
पहले टटोलती हैं !
करती हैं प्यार ये तो
सबसे नजर बचा के।

इस झील मे जो उतरा
वापस न लौट पाया !
कातिल हैं और ठग ये
जग ने यही बताया !
करती है रार ये तो
सबसे नजर बचाके।

अच्छा यही है इनके
संग उम्र भर निभाना !
ये रूठ जायें फिर तो
बेरंग ये जमाना !
देतीं हैं खार ये तो
सबसे नजर बचा के।

दिखने में भले भोली
बेमौत मारती हैं !
हो जायें मेहरबाँ तो
किस्मत संवारती हैं!
होती हैं चार ये तो
सबसे नजर बचा के।

हाथ में रख इस ह्रदय को

आज तुम मुझको बुलाओ
और मैं आऊँ प्रिये !
हाथ में रख इस ह्रदय को
साथ मैं लाऊं प्रिये !

ये हवायें, वादियाँ ये
छेड़ती हैं तान जैसे !
फूल,कलियाँ और पंछी
गा रहे सब गान जैसे !
यदि सुनो तुम मन लगाकर
जिन्दगी का गीत कोई
आज मैं गाऊँ प्रिये !

पाँव में रच दूं महावर
मैं तुम्हारे, तुम कहो तो !
तोड़ मै लाऊॅ गगन से
सब सितारे, तुम कहो तो !
तुम कहो तो अंक भरकर
लाज अधरों पर तुम्हारे
फिर सजाऊँ मैं प्रिये !

मोह लेता है मुझे ये
केश का खुलना,बिखरना !
खनखनाना चूड़ियों का
और ये सजना संवरना !
यदि न मानों तुम बुरा तो
कर दूं अर्पित स्वयं को फिर
मैं तुम्हें पाऊँ प्रिये!

मगर अब हो गया खारा

कसम से था बहुत मीठा
कभी इस झील का पानी
मगर अब हो गया खारा
नहाया था यहीं तुमने।

जब पहली बार देखा था
हया सिमटी दुपट्टे से !
खड़ी बेफिक्र सी थी तुम
सनम लिपटी दुपट्टे से !
तुम्हे सब याद ही होगा
मेरे मासूम से दिल को
चुराया था यहीं तुमने

सितारे सो गये थे सब
जहाँ सारा ये सोया था !
अकेले हम ही दोनों थे
लिपट तुमसे मैं रोया था !
तुम्हें सब याद ही होगा
रख काँधे पे सर मेरा
सुलाया था यहीं तुमने।

हसीं उस रात का आलम
हुई थी धड़कने पागल !
मुझे घेरे हुए थे उफ !
तुम्हारी जुल्फ के बादल !
तुम्हें सब याद ही होगा
मुझे बाँहों में भर शम्माँ
बुझाया था यहीं तुमने।

छेड़ा है संगीत भ्रमर ने

जब जब तितली कोई उड़कर
फूलो पर मंडराती है
सच कहता हूं याद तुम्हारी
मुझको बेहद आती है।

पतझड़ के दिन बीत गये हैं
आया है ऋतु राज यहाँ !
छेड़ा है संगीत भ्रमर ने
सजा है दिल का साज यहाँ !
बैठ कली मुस्कान ओढकर
बस अनुराग जगाती है।

देखूं अल्हड़पन कलियों का
नृत्य करें तरुणाई में
जाने कितनी मादकता है
सच इनकी अंगड़ाई में !
चाह यही बस गले लगा लूं
मन कितना जज्बाती है।

भूल न पाया कभी तुम्हें मैं
बसी हुई तुम अंतर में !
ऐसा क्या है प्रिये तुम्हारे
जादू,टोना मंतर में !
अहसासों में सांस तुम्हारी
आज तलक महकाती है।

धीरे धीरे बदल रही है

अपने देश की परिभाषा अब
धीरे धीरे बदल रही है।

हक पहले था करो खिलाफत
सत्ता के इस मनमानी की !
लेकिन अब तो नही रह गयी
सीमा कुछ बेईमानी की !
ताकतवर यूं हुई बुराई
कमी नजर आ जायेगी ।।

धर्म कभी जब राजनीति पर
अपना बर्चस्व बढ़ाती है !
बना अपाहिज लोकतन्त्र को
फिर मनमानी करवाती है !
मन्चो पर भी देखा अक्सर
नीयति सबकी फिसल रही है।।

मँहगाई छू रही गगन को
मुश्किल से हो रहा गुजारा !
कमर तोड़ दी पाँच साल मे
मिली चोट पर चोट दुबारा !
रोजगार छिन गया करोड़ो
बैठी आशा पिघल रही है।।

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