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चाँद शुक्ला हादियाबादी की रचनाएँ

परेशानी का आलम है परेशानी नहीं जाती

परेशानी का आलम है परेशानी नहीं जाती
अब  अपनी शक्ल भी शीशे  में पहचानी नहीं जाती

यहाँ आबाद  है  हर शैय खिलें हैं  फूल आँगन में
मगर घर से हमारे क्यों यह वीरानी नहीं जाती

कभी इकरार  करतें हैं कभी तकरार  होती  है
हमारी बात  कोई भी मगर मानी नहीं  जाती

मैं मन की बात करता हूँ वोह अक्सर टाल जाते हैं
करूँ मैं लाख कोशिश उनकी  मनमानी नहीं जाती

वो मुझको तकते रहते हैं मैं उनको तकता रहता हूँ
कभी  दोनों तरफ से यह निगहेबानी नहीं जाती

कभी मैं हँसता रहता हूँ कभी मैं रोता रहता हूँ
करूँ मैं क्या मिरे दिल से पशेमानी नहीं जाती

मैंने सोचा था सो गये हो तुम

मैंने सोचा था सो गये हो तुम
अपने ख़ाबों में खो गये हो तुम

जाने क्यों हर किसी की आँखों में
अपने आँसू पिरो गये हो तुम

दिल की नज़रों से तुमको देखा था
तब से दिल को भिगो गये हो तुम

ज़िंदगी की उदास रिमझिम में
मेरी पलकें भिगो गये हो तुम

मुद्द्तों से तुम्हें नहीं देखा
ईद के चांद हो गये हो तुम

जिसने मुँह मे ज़बान रक्खी है

जिसने मुँह में ज़बान रक्खी है
उसने अपनी ही ठान रक्खी है

यह तो जाएगी जाते-जाते ही
क्यों हथेली पे जान रक्खी है

साथ जिसने दिया है हर पल-छिन
उसने ही आन-बान रक्खी है

रोज़ मरतें हैं रोज़ जीते हैं
रौनके दो जहान रक्खी है

ऐ फ़लक तू खुला है ख़ाली है
चाँद तारों

जब तोड़ दिया रिश्ता तेरी ज़ुल्फ़े ख़फा से

जब तोड़ दिया रिश्ता तेरी ज़ुल्फ़े ख़फा से
बल खाए के लहराए कहीं मेरी बला से

अब तक है मेरे ज़ेह्न में वो तेरा सिमटना
सरका था कभी तेरा दुपट्टा जो हवा से

हर सुबह तेरा वादा हर एक साँझ तेरा ग़म
लिल्लाह कसम तुझको न दे झूठे दिलासे

आ जाओ तो आ जाएँगी इस घर में बहारें
आँगन मेरा गूँज उठ्ठेगा कोयल की सदा से

तन्हाई में होता है तेरे आने का धोखा
खटके जो कभी दर मेरा पूरब की हवा से

जब तूने क़दम रक्खा है उजड़े हुए दिल में
अब फूल खिलेगें तेरे आँचल की हवा से

पनघट पे तेरा आना वो पानी के बहाने
सर पे लिए गागर तेरा बल खाना अदा से

हम रिंद हैं पर माँग के तुमसे न पियेंगे
छोड़ेंगे यह मैखाना तेरा जायेंगे प्यासे

भरने के लिए माँग में लाया हूँ सितारे
आया हूँ तेरे पास उतरकर मैं ख़ला से

ने शान रक्खी

रोज़ मुझको न याद आया कर

रोज़ मुझको न याद आया कर
सब्र मेरा न आज़माया कर

रूथ जाती है नींद आँखों से
मेरे ख़्वाबों में तू न आया कर

भोर के भटके ऐ मुसाफ़िर सुन
दिन ढले घर को लौट आया कर

दिल के रखने से दिल नहीं फटता
दिल ही रखने को मुस्कुराया कर

राज़े दिल खुल न जाए लोगों पर
शेर मेरे न गुनगुनाया कर

ख़ुद को ख़ुद की नज़र भी लगती है
आईना सामने न लाया कर

रेत पे लिख के मेरा नाम अक्सर
बार बार इसको मत मिटाया कर

दोस्त होते हैं `चाँद’ शीशे के
दोस्तों को न आज़माया कर

है

 

वो ख़ुराफ़ात पर उतर आया

वो ख़ुराफ़ात पर उतर आया
अपनी औक़ात पर उतर आया

भेड़िया रूप में था इन्साँ के
एकदम ज़ात पर उतर आया

जिसकी नज़रों में सब बराबर थे
ज़ात और पात पर उतर आया

वो फ़राइज़ की बात करता था
इख़्तियारात पर उतर आया

हुक़्मे-परवर-दिगार मूसा के
मोजिज़ा हाथ पर उतर आया

चाँद जब आया अब्र से बाहर
नूर भी रात पर उतर आया

तेरी आँखों का ये दर्पन अच्छा लगता है

तेरी आँखों का ये दर्पन अच्छा लगता है
इसमें चेहरे का अपनापन अच्छा लगता है

तुन्द हवाओं तूफ़ानों से दिल घबराता है
हल्की बारिश का भीगापन अच्छा लगता है

वैसे तो हर सूरत की अपनी ही सीरत है
हमको तो बस तेरा भोलापन अच्छा लगता है

हमने इक-दूजे को बाँधा प्यार की डोरी से
सच्चे धागों का ये बंधन अच्छा लगता है

कड़वे बोल ही बोलें ना फीका सुन पायें
हमको ये गूँगा बहरापन अच्छा लगता है

दाग़ नहीं है माथे पे रहमत का साया है
‘चांद’ के चेहरे पे ये चन्दन अच्छा लगता है

 

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