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ज़िया फतेहाबादी की रचनाएँ

ख़ुलूस-ओ वफ़ा का सिला पाइएगा

ख़ुलूस-ओ वफ़ा का सिला पाइएगा ।
हुजूम-ए तमन्ना में खो जाइएगा ।

दिए जाएगा ग़म कहाँ तक ज़माना,
कहाँ तक ज़माने का ग़म खाइएगा ।

जिसे दीजिएगा सबक़ डूबने का,
उसे क़तरे क़तरे को तरसाइएगा ।

अँधेरों में दामन छुडाया है लेकिन,
उजालों से बच कर कहाँ जाइएगा ।

बढ़ाए चला जा रहा हूँ पतंगें,
न कब तक मेरे हाथ आप आइएगा ।

उधर हूर-ओ कौसर इधर जाम-ओ साक़ी,
किसे खोइएगा किसे पाइएगा ।

सहर ने रबाब र रग-ए गुन्चा छेड़ा,
‘ज़िया’ की ग़ज़ल अब कोई गाइएगा

तुम चले आए तो सारी बेकली जाती रही

तुम चले आए तो सारी बेकली जाती रही ।
ज़िन्दगी में थी जो यकगूना कमी जाती रही ।

दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है जिस को देख कर,
सुरमगीं आँखों की वो जादूगरी जाती रही ।

उन से हम और हम से वो कुछ इस तरह घुल-मिल गए,
दो मुलाक़ातों में सब बेगानगी जाती रही ।

दिल लगाते ही हुए रुख़सत क़रार-ओ सब्र-ओ होश,
जो मय्यसर थी कभी आसूदगी जाती रही ।

उन के जलवों में कुछ ऐसे खो गए होश-ओ हवास,
आशिक़ी में फ़िक्र-ए सुबह-ओ शाम भी जाती रही ।

ख़ार-ए इशरत में उलझ कर दामन-ए दिल रह गया,
थी जो लज़्ज़त इज़्तिराब-ए रूह की जाती रही ।

वो तो रुख़सत हो गए छा कर दिमाग़-ओ क़ल्ब पर,
याद उनकी दम-ब-दम आती रही जाती रही ।

रंग ले आई वफ़ाकोशी मेरी अन्जाम-ए कार,
मुझ से उनकी बेनयाज़ी बेरुखी जाती रही ।

दिल में रोशन शमा-ए उल्फ़त जब से की हमने ’ज़िया’,
ख़ुदनुमाई, ख़ुदरवी, ख़ुदपरवरी जाती रही ।

शब-ओ रोज़ रोने से क्या फ़ायदा है

शब ओ रोज़ रोने से क्या फ़ायदा है ?
गरेबाँ भिगोने से क्या फ़ायदा है ?

जहाँ फूल ख़ुद ही करें कार-ए निशतर,
वहाँ ख़ार बोने से क्या फ़ायदा है ?

उजालों को ढूँढो सहर को पुकारो,
अन्धेरों में रोने से क्या फ़ायदा है ?

हमें मोड़ना है रुख़-ए मौज-ए दरिया,
सफ़ीना भिगोने से क्या फ़ायदा है ?

तेरी याद से दिल को बहला रहा हूँ,
मगर इस खिलौने से क्या फ़ायदा है ?

सितारों से नूर-ए सहर छीन लो तुम,
शब-ए ग़म में रोने से क्या फ़ायदा है ?

परीशानियाँ हासिल-ए ज़िन्दगी हैं,
परीशान होने से क्या फ़ायदा है ?

वही तीरगी है अभी तक दिलों में
’ज़िया’ सुबह होने से क्या फ़ायदा है ?

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