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ख़ुद को दुनिया में जो राज़ी-ब-रज़ा कहते हैं

ख़ुद को दुनिया में जो राज़ी-ब-रज़ा कहते हैं
अपनी हस्ती से वो इक बात सिवा कहते हैं

मौत आती है तो इक फ़र्ज़ अदा होता है
इन को धोका है क़ज़ा को जो क़ज़ा कहते हैं

दर्द दिल को तिरी यक-गूना मुराआत से है
नुक्ता-चीं इस को भी अंदाज़-ए-जफ़ा कहते हैं

हरम ओ दैर हुए तर्क-ए-अमल से रूस्वा
देखिए अहल-ए-अक़ीदत इसे क्या कहते हैं

सूरतें हैं ये दो एहसास-ए-दरूँ की ऐ ‘ज़ेब’
हश्र में जिन को सज़ा और जज़ा कहते हैं

मुझ से बढ़ कर है कहीं उन का मक़ाम ऐ साक़ी

मुझ से बढ़ कर है कहीं उन का मक़ाम ऐ साक़ी
मस्त रहते हैं जो बे-बादा-ओ-जाम ऐ साक़ी

क़तरे क़तरे को फिरें तेरे सुबू-कष लाचार
है ये किस के लिए ग़ैरत का मक़ाम ऐ साक़ी

मर्हमत से तिरी हो जाएँ न मय-कष-बद-दिल
संग-दिल है तिरी महफ़िल का निज़ाम ऐ साक़ी

‘जेब’ भी अर्ज़-ए-हक़ीक़त में है अक्सर मोहतात
अहल-ए-महफ़िल में ये एहसास है आम ऐ साक़ी

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