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आग है आग तिरी तेग़-ए-अदा का पानी

आग है आग तिरी तेग़-ए-अदा का पानी
ऐसे पानी को मैं हरगिज़ न कहूँगा पानी

न रहे आँख में भी दिल से निकल कर आँसू
जा-ब-जा उन को लिए फिरता है दाना पानी

हाल पूछो न मिरे गिर्या-ए-ग़म का मुझ से
उस के कहने से भी होता है कलेजा पानी

सोज़-ए-ग़म ही से मिरी आँख में आँसू आए
सोचता हूँ कि इसे आग कहूँ या पानी

तर्क-ए-मय-ख़ाना गवारा न करूँगा हरगिज़
रास है मेरी तबीअत को यहाँ का पानी

कर दिया सब को तिरे तीर-ए-नज़र ने सैराब
जिस के सीने पे लगा उस ने न माँगा पानी

ऐश दम भर का भी देखा नहीं जाता उस से
चर्ख़-ए-कम-बख़्त की आँखों में न उतरा पानी

तेरे ही जल्वे से है बाग़-ए-तमन्ना की बहार
यही तनवीर है आईना-दिल का पानी

ख़लिश-ए-ग़म से किए जाऊँ कहाँ तक नाले
मेरी क़िस्मत में तो हर रोज़ ये ईज़ा पानी

डूब जाते हैं उमीदों के सफ़ीने इस में
मैं न मानूँगा कि आँसू है ज़रा सा पानी

ज़ब्त-ए-गिर्या से बढ़ी और मुसीबत ऐ ‘जोश’
दिल ये कहता है कि अब सर से है ऊँचा पानी

उस के हर रंग से क्यूँ शोला-ज़नी होती है

उस के हर रंग से क्यूँ शोला-ज़नी होती है
उन की तस्वीर तो काग़ज़ की बनी होती है

अक़्ल ओ मज़हब की जब आपस में ठनी होती है
फिर तो हर राह-बरी राहज़नी होती है

याद आती है जब उन की निगह-ए-नाज़ मुझे
एक बर्छी मिरे सीने पे तनी होती है

किस तरह दूर हों आलाम-ए-ग़रीब-उल-वतनी
ज़िन्दगी ख़ुद भी ग़रीब-उल-वतनी होती है

फल उसे आए न आए ये मुक़द्दर की है बात
छाँव तो नख़्ल-ए-तमन्ना की घनी होती है

शिकवे तौक़ीर-ए-मोहब्बत भी हुआ करते हैं
मगर उस वक़्त जब आपस में बनी होती है

मैं भी पीता हूँ मुझे इस से कुछ इंकार नहीं
वो मगर दामन-ए-तक़्वा में छनी होती है

ज़ब्त-ए-गिर्या से कहीं चाक न हो जाए जिगर
बूँद आँसू की भी हीरे की कनी होती है

इक तुम्हारी ही नज़ाकत है जो है तुम पे गिराँ
वर्ना हर फूल में नाज़ुक-बदनी होती है

इस क़दर ग़ैर है क्यूँ हाल तुम्हारा ऐ ‘जोश’
कभी दिल पर तो कभी दम पे बनी होती है

किताबों ने गो इस्तिआरों में हम को बताए बहुत से ठिकाने तुम्हारे

किताबों ने गो इस्तिआरों में हम को बताए बहुत से ठिकाने तुम्हारे
मगर कुछ वज़ाहत से अपना पता दो समझते नहीं हम ये मुबहम इशारे

हर इक फूल गुलशन में ये कह रहा है हर इक जाम-ए-मय से ये हम सुन रहे हैं
ज़माने की नज़रों में घर है उसी का जो हँस हँस के दिन ज़िंदगी के गुज़ारे

न अहल-ए-हरम ने मदद की हमारी न अहल-ए-कलीसा ने ग़म-ख़्वारियाँ कीं
अगर तू भी तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल न छोड़े कहाँ जाएँ फिर हम मुसीबत के मारे

क़दामत-पसन्दों पे क्यूँ हँस रहे हो ख़ुदा की क़दामत-पसन्दी तो देखो
हज़ारों नहीं बल्कि लाखों बरस से वही कहकशाँ है वही चाँद तारे

मिरे अश्क-ए-ख़ूनीं की गुल-कारियों से ज़माने को रंगीं क़बाएँ मिली हैं
जुनून-ए-मोहब्बत का ये फ़ैज़ समझूँ बयाबाँ में भी हैं चमन के नज़ारे

न ग़म मुझ को गिर्दाब-ए-रंज-ओ-बला का न मुहताज हूँ मैं किसी नाख़ुदा का
सफ़ीने को मौजों की ज़द से बचा कर चला जा रहा हूँ किनारे किनारे

तिरी ख़शमगीं आँख की गर्दिशों ने ज़माने को ज़ेर-ओ-ज़बर कर दिया है
सहारों पे कोई भरोसा करे क्या सहारे तो ख़ुद ढूँडते हैं सहारे

उसी रू-ए-रौशन को हम चाहते हैं उमीदों को तारीक जिस ने किया है
उसी माह-ए-ताबाँ को हम ढूँडते हैं दिखाए हैं दिन को हमें जिस ने तारे

तिरे शौक़ में जो चला जा रहा है जो रस्ते की मुश्किल से घबरा रहा है
कभी अपनी मंज़िल पे जा ही रहेगा मगर शर्त ये है कि हिम्मत न हारे

सुना है कि शाएर हो ऐ ‘जोश’ तुम भी नज़र बाग़-ए-जन्नत पे क्यूँ है तुम्हारी
मुसद्दस में हाली तो ये कह गए हैं जहन्नम को भर देंगे शाएर हमारे

जब दुआएँ भी कुछ असर न करें

जब दुआएँ भी कुछ असर न करें
क्या करें सब्र हम अगर न करें

दास्ताँ ख़त्म हो ही जाएगी
आप क़िस्से को मुख़्तसर न करें

छोड़ता ही नहीं हमें सय्याद
वर्ना पर्वा-ए-बाल-ओ-पर न करें

क़ाबिल-ए-अफ़्व मैं नहीं न सही
न करें आप दरगुज़र न करें

उन को एहसास-ए-दर्द-ए-दिल कैसा
मर भी जाऊँ तो आँख तर न करें

उस की बेचारगी का क्या कहना
जिस की आहें भी कुछ असर न करें

ये भी तश्हीर-ए-शाएरी है ‘जोश’
आप दीवान मुश्तहर न करें

जितने थे तिरे जल्वे सब बन गए बुत-ख़ाने

जितने थे तिरे जल्वे सब बन गए बुत-ख़ाने
अब चश्म-ए-तमाशाई क्यूँ कर तुझे पहचाने

असरार हक़ीक़त के समझे नहीं फ़रज़ाने
तक़्सीर तो थी उन की मारे गए दीवाने

मस्तान-ए-मोहब्बत ने दुनिया में यही देखा
टूटे हुए पैमाने टूटे हुए मय-ख़ाने

फूलों की हँसी से भी दिल जिन का नहीं खिलता
उन को भी हँसाते हैं हँसते हुए पैमाने

वो हाल सुनाऊँ क्या जो ग़ैर-मुकम्मल है
अब तक की तो मैं जानूँ आगे की ख़ुदा जाने

झगड़ा न कभी उठता तू-तू न कभी होती
कुछ शैख़ है दीवाना कुछ रिंद हैं दीवाने

वो मुझ पे करम-फ़रमा होगा कि नहीं होगा
या उस को ख़ुदा जाने या मेरी क़ज़ा जाने

हम कहते रहे जब तक रूदाद मोहब्बत की
हँसते रहे फ़रज़ाने रोते रहे दीवाने

समझा था जिन्हें अपना जब उन की रविश ये है
औरों की शिकायत क्या बेगाने तो बेगाने

वहशत तो नहीं मुझ को ऐ ‘जोश’ मगर फिर भी
याद आते हैं रह रह कर छोड़े हुए वीराने

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