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एक अश्किया

एक अश्किया[1], ख़ब्ती और उन्मादी आदमी
अभी-अभी गया है सघन काली नींद के गर्त में
गर्त से ही नर्क का रास्ता खोज लिया है उसने
उसके उगले हुए शब्दों का लावा
नींद में भी जला रहा है उसकी जीभ
जहां-तहां झड़ती राख हो गयी है बेतरह ज़हरीली

दुनिया के तमाम आततायियों ने आच्छादित कर ली है उसकी शक्ल
उसके हृदय का दाहगृह
आक्रामक और ख़ूनी इरादों की बिजली से बना है,
जल रहे हैं जहां रफ़्ता- रफ़्ता
उसे अपना क़रीबी और आत्मीय मानने वालों के शव।

जहां भी पड़ीं हैं उसकी शोला निगाहें
वहां दूषित हो गयी है वातावरण की पवित्रता
हवा बन गयी है नाइड्रोजन डाइऑक्साइड
और पीली पड़ रही है उस स्त्री के सुनहले खेतों की हरियाली
जिसने सदा अपनी दुआओं में मांगी है
इस अश्किया की ख़ातिर सुकून की खाट
और खुद के लिए प्रेम की एक अविचलित सुगंध
और परोसे हैं देव लौकिक दृष्टांत उसकी थाली में।

ये फ़ाज़िल, जज़्बाती और स्नेहिल, यानि इंसान बने
इन्हीं अभिलाषाओं के फूल सजाएं हैं
उस स्त्री ने अपने ख़्वाबों के उड़नख़टोले में,
और दिनचर्या के काम करते हुए,
ले रही है, एक भरपूर भ्रमित नींद।

आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं

आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
भीड़ से अलग
किसी तनहाई में ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर।
ट्रेन की गूँजती और खरखराती आवाज़ के साथ
या उसके बाद ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद वही
जब मिले थे पहली बार
नकारते अपनी भाषा का
संगीत, संवाद और लय,
कुछ और कहते हुए से लगते
अपनी आँखों से ।
तभी मैंने जाना था
कि होता है कितना सुखद
होंठों का चुपचाप रहना।

आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब भीड़ से ही कोई व्यक्ति
कह जाएगा तुम्हारी ही अनकही
भीड़ के कोलाहल में भी
फिर ढूँढोगे तुम
ऐसी जगह
जो कर दे तुम्हें
नितांत अकेला
ताकि कर सको तुम तलाश
एक ऐसी विधि की
जो रौशन कर जाए
तुम्हारे मस्तिष्क के
किसी कोने में पड़े
मेरी यादों के
मद्धिम पड़ते दिये।

आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
जब सुबह उठने पर
होगी नहीं कोई खलबली
पर बेचैनी सी
जो दिन भर से
रास्ता ताके बैठी रहेगी
फिर छुएगी तुम्हारा शरीर
लौटते हुए
पा कर अवरुद्ध
उन सभी शिराओं
और धमनियों को
जो भावनाओं और संवेदनाओं को
प्रवाहित किया करतीं थीं कभी
तुम्हारे हृदय तक,
इस मुग़ालते में कि
रात को ही शायद
बेजान पड़ चुके
तुम्हारे शरीर में
हलचल होगी तो सही

आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब इत्तिफ़ाकन ही सही
पर किसी और की सुगंध
तुम्हें मेरी सुगंध
के सदृश लगी
और किसी ज़रिए से
हवा में बहती
पहुँची तुम्हारे तंत्रिका तंत्र तक
तब आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
दिन के उजाले में
तुम्हें अपने आग़ोश में लेती
छाया के साथ
और
रात के अंधकार में
पसरी प्रशांति में
शोर के साथ।

आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब भी मौसम के मिजाज़
जानने की कोशिश की
पीपल की ओट में खड़े हुए
बयारों की तपन से
बचते हुए ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
फिर जब बारिश की बूँदों से
बढ़ेगा तुम्हारा बुखार कहीं
और
जाड़े की रातों में
तुम्हारी रजाई पर
होगा नहीं खोल कोई
तब आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर।

रोटी जैसी गोलाई

मैं शिद्दत से ढूंढ रही हूं रोटी के जैसी गोलाई
मुझे क्यों नहीं दिखती गोलाई
किसी पिज़्ज़ा, बर्गर या केक में
परकाल से खींचा गया गोला भी मुझे दिखता है कुछ कम गोल
स्कूल का ग्लोब, फुटबॉल, गोलगप्पे भी मुझे लगते हैं चपटे
शाही दावतों में भी रोटियों से गोलाई नदारद हैं
देसी होने का दावा करते ढाबों में भी नहीं मिलती
एक अदद रोटी अपनी आदर्श गोलाई में

इस तलाश में मैं, कहां-कहां नहीं गयी
थक कर मैं सो गयी
फिर अनजानी राहों पर निकल पड़ी
अगले पल मुझे लगा
मेरी त्वचा, नसों और हड्डियों का साथ छोड़ रही है
करोड़ों सूरज एक साथ जलते हुए
मेरी आंखों की रोशनी छीन कर अपना प्रकाश बढ़ा रहे हैं
वह उनकी दुनिया थी ,जहां वे मुझे ज़बरन खींच लाए थे
कह रहे थे देखो हमारी ओर
हमसे ज़्यादा गोल नहीं और कोई
मैंने नहीं मानी थी उनकी बात
उनके चंगुल से भागी तो पहुंची सितारों के घर
सभी सितारे एक स्वर में बोले
हम गोल भी हैं और ठंडे भी
अब तुम्हारी तलाश पूरी हुई
वहां कोई खतरा नहीं था
पर हवा बहुत बेचैन थी वहां
इसलिए मैं सितारों की बात से असहमत थी
फिर अगले कदम पर
अंधेरे ने समेट लिया मुझे अपने जंगल में
ज़ोरदार आघात से मेरी नींद खुली
नाक में घुस गई रसोई से आती रोटी की सम्मोहक गंध
तवे और चिमटे की झनझनाती आवाज़ से हुआ दिन का आगाज़
तमाम संभव संसारों में भटकने के बाद
अंतत: मुझे मिली घर की रोटी में एक निरहंकार और आत्मीय गोलाई।

बाइपोलर

वह देवता भी था और राक्षस भी
एक पल में जंगल का दावानल था
अगले पल में महाद्वीपों से घिरा भूमध्य सागर
कभी अभिमन्यू के सामने आया चक्रव्यूह था
तो कभी जाला बुनती मकड़ी
शख्सियत में डायनासोर का वंशज था
फलों, सब्ज़ियों पर लगा हुआ कवक था
लोगों ने दिए थे उसे उपरोक्त संबोधन

कुछ दिन तक
जागती हुई आंखों से
पहुंचता था सपनों की दुनिया में
वहां तैरता था अलग-अलग तरंगदैर्ध्यों पर

कभी वह खुद को आईने में देखता था
तो नज़र आता था झिलमिलाता सितारा
तो अगले पल होता था अमावस्या में विचरण करता प्रेत

फिर कुछ पहरों की करवट के बाद
सड़कों पर घूमता था,
सबकी नफ़रत का बारूद उसकी नसों में बहता था,
घर से, घरवालों से छूटा
खुद को कहता था
दिल की उजड़ी बस्ती का बाशिंदा,
हर मुसाफ़िर में शिकारी बाज़ देखता
खुद असहाय शिकार की तरह छुपता,
एक दिन में कई बार बदलता मौसम था।
हां…. अब अपने पूरे होशो हवास में
एक क्षण के लिए उसने कहा,
वह बाइपोलर डिसऑर्डर का मरीज़ था।

ये सच्चाई कुछ इस तरह भी हो सकती थी,
कि,
उसके मन-मस्तिष्क के झूले का अनवरत घूर्णन,
हो जाता समूची पृथ्वी का घूर्णन।
अगर, विंसेट वॉन गॉग की कूची से
कर देता आसमान को और भी रंगीन,
वर्जीनिया वुल्फ से कलम उधार ले कर
साफ कर देता अवसाद का कचरा,
बीथोवन के संगीत से दोस्ती कर
बदल देता अपनी उन्मादी ऊर्जा को स्वरलहरियों में,
माइकल एंजलो के कौशल से रच देता अप्रतिम आश्चर्य
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को देखता आइज़क न्यूटन की नज़र से,
विंस्टन चर्चिल के जज़्बे से करता विश्व को प्रेरित

ये सब मुमकिन था उसके लिए
अगर सही वक़्त पर रोक लिया गया होता उसे
हर खतरे और खतरे की सुगबुगाहट के आगे
कछुआ बनने से।

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