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दोहा / भाग 1

लोट चुकी जिस पर विकल, मोर मुकुट की नोक।
जो जन-मन-मल शेक हर, दायक दिव्यालोक।।1।।

जिसमें कसकीली भरी, परम रसीली हूल।
राधे देना वह मुझे, निज चरणों की धूल।।2।।

राधे तू गोविन्द में, तू गोविन्द स्वरूप।
हो सकती है दूर क्या, कभी सूर्य से धूप।।3।।

तू जब तक मुझ पर कृपा, करती माँ न विशेष।
तब तक मेरी ओर वह, कैसे तके ब्रजेश।।4।।

माँ तेरी ही दृष्टि से, फिरती उसकी दृष्टि।
कह दे उस घनश्याम को, करे इधर भी वृष्टि।।5।।

भर कर अखियाँ-शुक्तियाँ, अंजलि दूँ सहमान।
श्याम-सिन्धु धोये हृदय, मेरा मलिन महान।।6।।

मुझसे पूछो तो कहूँ, किसके नयन विशाल।
राधा के लोचन बड़े, जिसमें स्थित गोपाल।।7।।

माधव के उर में यदपि, बसते दीनअनाथ।
राधा-उर को देखिये, बसते दीनानाथ।।8।।

पड़ा रो रहा पालने, उपनिषदों का तत्व।
नन्द भवन में विश्व का, मूर्तिमान अमरत्व।।9।।

जिसके दर्शन के लिये, मुनि मिल जाते धूलि।
वही यशोदा हाथ से, पिटते खाता धूलि।।10।।

दोहा / भाग 2

कुंचित चिक्कण चिकुर वर, मेचक मृदुल महान।
मोहन-श्रुति में पढ़ रहे, मोहन-मन्त्र-विधान।।11।।

श्याम-सुदामा-मिलन का, दृश्य परम अभिराम।
मानो तप से मिल रहा, गले लगा परिणाम।।12।।

ताता-ताता बोलने, लगा बाल घनश्याम।
पहले कहना सीखता, अपना भाता नाम।।13।।

श्याम दृगों में तीन रँग, श्वेत श्याम अनुराग।
इस त्रिगुणी शुचि जाल में, फँसते जन बड़ भाग।।14।।

मोहन आँखे आप की, नौका के आकार।
जो जन इनमें बस गया, वही बस गया पार।।15।।

नयन-तुरंगों की कढ़ी, जिनकी लाज-लगाम।
धर्म-यान की धाज्जियाँ, देखी ठाम-कुठाम।।16।।

कानों से यों कह रहे, तेरे नयन विशाल।
तुमसे सुन हम देखते, दुखिया को तत्काल।।17।।

श्रुतियों तक तेरे न क्यों, पहुँचे लोचन नाथ।
श्रुतियाँ तुझको गा रहीं, फैला-फैला हाथ।।18।।

तू चाहे मिल या न मिल, इसकी मुझे न चाह।
तेरी चाह मिटे नहीं, थमें न पल भर आह।।19।।

तेरी चाह पुनीत है, तेरी राह पुनीत।
फिर क्यों यह होगी नहीं, मेरी राह पुनीत।।20।।

दोहा / भाग 3

हे प्रभु अब तो खोल दो, अपने कृपा-कपाट।
हाथ पकड़ भीतर करो, मेटो बिकट-उचाट।।21।।

मैं इस दिल का क्या करुँ, अपनी वस्तु सँभाल।
तेरे दर्शन के बिना, सब कुछ मुझे बवाल।।22।।

रोम-रोम खूँटी बनी, नश-नश भीने तार।
आह-आह की रागिनी, देती है झंकार।।23।।

ओ वीणाधर निर्दयी, मत कस यों मम तार।
अँगुली का तो स्पर्श दे, दे मिजराब उतार।।24।।

इनको समझ न रागिनी, हैं ये मेरी आह।
तुझै रुला दूँ जो नहीं, तू भी कहना वाह।।25।।

गमक मूर्छना में भरी, केवल एक पुकार।
सुन तू लय में लय हुआ, क्या कहता मन-तार।।26।।

तूने अपने हाथ से, कसे सकल ये तार।
बहुत सुन चुका रागिनी, अब तो इन्हें उतार।।27।।

तुम हो चन्द्र चकोर में, मैं मछली तुम नीर।
बिना तुम्हारे किस तरह, चेतन रहे शरीर।।28।।

मैं लूँ तुमको भी नहीं, लेने दूँ बिश्राम।
क्या जानोगे है पड़ा, किसी ढ़ीठ से काम।।29।।

मेरा मन है कालिया, बिषधर कुटिल महान।
नाथ इसे नाथो तभी, मैं समझूँ बलवान।।30।।

दोहा / भाग 4 / तुलसीराम शर्मा ‘दिनेश’
तुलसीराम शर्मा ‘दिनेश’ »
जिस पर तुम हो रीझते, क्या देते यदुबीर।
रोने-धोने सिसकने, आहों की जागीर।।31।।

यों न हँसी में दो उड़ा, सुनकर मेरे पाप।
तुम निराश करके सदा, हरते हो जन-ताप।।32।।

मुझको तुझसे भी अधिक, मिलता है आनन्द।
तेरी ठोकर में भरा, मोहन परमानन्द।।33।।

अल्प वेदना से मुझे, होता है दुख घोर।
मुझको दे वह वेदना, जिसका ओर न छोर।।34।।

खोजूँ तुझे शरीर में, बता कौन सी ठोर।
रोम-रेाम में तू रमा, परम चतुर चित-चोर।।35।।

तुझे खोजने के लिए, जब तक खुए न आप।
तब तक तू मिलता नहीं, मिटता अमिट न ताप।।36।।

उसे खोजने के लिए, मत जा तू हरिद्वार।
तेरा अन्तःकरण ही, है साँचा हरि-द्वार।।37।।

इन आँखों से तुम किसे, दीखो कैसे नाथ।
आँखें तुमसे देखतीं, तुमसे सहज सनाथ।।38।।

दुःख आए तो दुःख को, सुख की ज्यों चुचकार।
शायद उसमें ही कहीं, छिप आया हो यार।।39।।

नहीं प्रकृति सी पतिब्रता, जग में नारी अन्य।
मूक-पंगु पति की सदा, करती टहल अनन्य।।40।।

दोहा / भाग 4

जिस पर तुम हो रीझते, क्या देते यदुबीर।
रोने-धोने सिसकने, आहों की जागीर।।31।।

यों न हँसी में दो उड़ा, सुनकर मेरे पाप।
तुम निराश करके सदा, हरते हो जन-ताप।।32।।

मुझको तुझसे भी अधिक, मिलता है आनन्द।
तेरी ठोकर में भरा, मोहन परमानन्द।।33।।

अल्प वेदना से मुझे, होता है दुख घोर।
मुझको दे वह वेदना, जिसका ओर न छोर।।34।।

खोजूँ तुझे शरीर में, बता कौन सी ठोर।
रोम-रेाम में तू रमा, परम चतुर चित-चोर।।35।।

तुझे खोजने के लिए, जब तक खुए न आप।
तब तक तू मिलता नहीं, मिटता अमिट न ताप।।36।।

उसे खोजने के लिए, मत जा तू हरिद्वार।
तेरा अन्तःकरण ही, है साँचा हरि-द्वार।।37।।

इन आँखों से तुम किसे, दीखो कैसे नाथ।
आँखें तुमसे देखतीं, तुमसे सहज सनाथ।।38।।

दुःख आए तो दुःख को, सुख की ज्यों चुचकार।
शायद उसमें ही कहीं, छिप आया हो यार।।39।।

नहीं प्रकृति सी पतिब्रता, जग में नारी अन्य।
मूक-पंगु पति की सदा, करती टहल अनन्य।।40।।

दोहा / भाग 5

उसके शासन में नहीं, पक्षपात की भूल।
निर्भय होकर झगड़ती, जहाँ अग्नि से तूल।।41।।

चित के चरणों में चुभा, जिनके प्रेमल-फाँस।
आँसू पड़ते आह-युत, कढ़ते लम्बे साँस।।42।।

लाखों ही खुशियाँ भरीं, मेरे रोने बीच।
इन्हें न आँसू समझना, प्रेम-लता की सींच।।43।।

प्रेम चासनी की लगी, जिनके ओंठों चास।
अन्य साधनों में मिले, उनको कहाँ मिठास।।44।।

प्रेम अग्नि की देखिये, कैसी अद्भुत बात।
जिसमें जल कर ही सदा, शीतल होता गात।।45।।

जिनको रुचता हो सुनें, निर्गुण का व्याख्यान।
यहाँ चटोरे हो गये, वेणु-तान से कान।।46।।

प्रेम वस्त्र की देखिये, कैसी उलती रीत।
ज्यों-ज्यों धारण कीजिए, त्यों-त्यों लाज व्यतीत।।47।।

प्रेमी अटपट बोलता, होकर निपट अचेत।
मन्त्र न तन्त्र न यन्त्र है, कुपित प्रेम का प्रेत।।48।।

प्रेम रहित नर मृतक-सम, हरि को कब स्वीकार।
हरि जाता न समीप भी, समझ अरक्त शिकार।।49।।

रुकता कब आतंक से, आत्मिक प्रेम-प्रवाह।
रोक सके असि-गरल क्या, मीरा की कुछ चाह।।50।।

दोहा / भाग 6

कृष्ण ने ‘हे गो’ कहा, कह न सकी फिर ‘विन्द’।
आ पहले लजा रखी, ऐसा वह गोविन्द।।51।।

चातक तेरा प्रण तनिक, देना मुझे उधार।
तेरा तो उपकार हो, मेरा हो उद्धार।।52।।

जो मैं होता कवि कहीं, रचता ऐसे गीत।
शत-शत बार अधीत भी, लगते वे अनधीत।।53।।

कविते जो तू कृष्ण को, छू न सकी इस बार।
तुझको भी धिक्कार है, मुझको भी धिक्कार।।54।।

तुम्हे रिझाने का प्रभो, समझा एक उपाय।
सब उपाय तज पंगु हो, रोऊँ हो अनुपाय।।55।।

दुःख-सुख में सम भाव रह, खेलमात्र सब जान।
ताश-खेल में हार कर, रोते नहीं सुजान।।56।।

खेल भले ही खूब तू, कर्म-ताश का खेल।
मजा हार में भी समझ, हँस कर ताश बगेल।।57।।

दो-दो सारी इन्द्रियाँ, देने का क्या अर्थ।
एक जगत-हित दूसरी, ईश्वर-प्राप्ति सदर्श।।58।।

अरे सुधारक जगत की, चिन्ता मत कर यार।
तेरा मन ही जगत है, पहले इसे सुधार।।59।।

दाँत दिखा मत जगत को, पीस दुखों पर दाँत।
तृण धर हरि की शरण जा, कौन गिन सके दाँत।।60।।

दोहा / भाग 7

शूर कौन-धारण किए, जिसने पंच ककार।
करुणा कीर्तन कीर्तिवर, केशव काव्य उदार।।61।।

सोने वालों साँस ये, हैं सोने के मोल।
सोने में खोओ न यों, सुनो सुनहले बोल।।62।।

क्रूर कौन-धारण किये, जिसने पंच ककार।
क्रोध, कृपणता कुटिलता, कटुता कपट कटार।।63।।

उसे रिझा सकते नहीं, ये सोलह शृंगार।
खुद रखता सोलह कला, वह बाँका भर्त्तार।।64।।

जड़ को मुँह न लगा कभी, कहन पेट की बात।
कहता टेलीफोन सब, उससे उसकी बात।।65।।

आई बेला मरण की, घर्घर बोला कण्ठ।
घर-घर करता ही रहा, अब भी रे नर शण्ठ।।66।।

अपना मुँह तो पोंछते, पाकिट डाल रुमाल।
दुखिया के आँसू कभी, पोंछे पूछा हाल।।67।।

जलती जिसके चित्त में, पक्षपात की आग।
उसके पुण्य जला सकल, भाल छोड़ती दाग।।68।।

जो तू बसना चाहता, यार दृगों में यार।
पिस तू सुरमें की तरह, सारी रड़क बिसार।।69।।

जिसने आगत अतिथि का, किया न स्वागत-मान।
उसने बस भगवान का, किया घोर अपमान।।70।।

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