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मधुकर अस्थाना की रचनाएँ

नाम बदला है

रावण वही
नाम बदला है
लिखा-पढ़ा अगला-पिछला है

गली, मुहल्‍लों, सड़कों
पर आते-जाते वह मिल जाता है
उसके सम्‍मुख राम-लखन का अधर
अचानक खिल जाता है

पीछे मुड़ते
ही सब कहते
इस पोखर का जल गँदला है

चोर-चोर मौसेरे भाई
खाट खड़ी कर देते सबकी
भीतर ही घुटतीं आवाज़ें मर जातीं
इच्‍छाएँ मन की

टिनोपाल से
धुला यहाँ पर
हर बगुले का पर उजला है

कमलनाल अब लगीं
कुतरनें भूखी-प्‍यासी क्रूर मछलियाँ
घिर आतीं नयनों के नभ में बेमौसम
ख़ामोश बदलियाँ

विष्‍णु छोड़कर
बीस भुजाओं पर
नारद का मन मचला है

पढ़-पढ़ कथा तुम्‍हारी

पढ़-पढ़ कथा तुम्‍हारी
राजा राम जी
हम हो गये भिखारी
राजा राम जी

टूटा सेतु फट गयी धरती
नदी हो गयी खूनी
बजी ईंट से ईंट निशायें
रनिवासों की सूनी
सिर पर चढ़ी उधारी राजा राम जी

चढ़े-गिरे सेन्‍सेक्‍स
आत्‍महत्‍या कर रहीं दिशाएँ
रूप बदलकर भूखे मौसम
कब तक प्राण बचाएँ
खुशी हुई बाज़ारी राजा राम जी

सहचर बने घाव-घट्ठे
कुछ काँटे और फफोले
गली-गली में शीश झुकाए
एक हिमालय डोले
समय हो गया भारी राजा राम जी

दीप बुझा कर पृष्‍ठ विगत के
लेकर उड़ी हवाएँ
अधरों तक आकर फिर लौटी
शतवर्षीय दुआएँ
खाली नेह-बखारी राजा राम जी

बढ़ता गया हिसाब

मिला किसे उपचार
यहाँ माथे की सलवट का
बढ़ता गया हिसाब रात भर
सीली करवट का

ऊपर धुँवा आग
है नीचे पछुवा में तेजी
मिली न पाती खुशबू की जो
पुरूवा ने भेजी
खेल मदारी का है अपना
अभिनय मरकट का

बिके हुए सामन्‍त
सहायक सारे बाहुबली
जिन्‍दा बम के सम्‍मुख क्‍या
अल्‍ला बजरंग बली
देख रहे युग-युग से रंग
बदलना गिरगिट का

निर्भय तंत्र लोक
घायल है पंख विहीन परिन्‍दा
ऊपर बाज शिकारी नीचे
किस्‍मत से हैं जिन्‍दा
अभी न अप्रिय जीवन टालें
निर्णय लम्‍पट का

राजा मरने वाला है

बस राजा मरने वाला है
बाट जोहती बैठ रुदाली

महल-
अटारी पर रँगरेली
किसको फुर्सत है रोने की
राजा अमर
हुआ करता है
यही घड़ी है खुश होने की

मिलने वाला आज किसे अमृत है
किसको विष की प्‍याली

आँखों में
है लगे उतरने
अपने दुख अपनी पीड़ाएँ
भाप उठ रही
है समुद्र से
घिरने लगीं मेघ मालाएँ

बुक्‍का फाड़ इधर रोएगी
उधर सजायेंगे दीवाली

खुले केश
काले कपड़ों में
इनको मिला चोर-दरवाजा
देखे कहीं न
इस असगुन को
नयी उमंगों वाला राजा

गोपन सम्‍बंधों की गाथा
लिख जाती माथे पर गाली

जब चाहेंगे जिबह करेंगे

बकरी है यह अपने घर की
जब चाहेंगे जिबह करेंगे

टपकाती है
शहद रात-दिन
तीरों की परवाह न करती
बँधी नहीं
खूँटे से किन्‍तु
भागने की यह चाह न करती
कूट-पीस कर इसे बना दे चटनी
फिर भी कुछ न कहेगी
सबकी ख़ैर मनाती सारी
पीड़ाएँ चुपचाप सहेगी
पाँच साल
दुश्‍मनी निभा कर
जब चाहेंगे सुलह करेंगे

कटने या
दूही जाने को
बनी हुई है इसकी काठी
तब तक
एक छत्र शासन है
जब तक दहलायेगी लाठी
घास-फूस भूसी-चोकर पर
गुज़र कर
रही बड़े मजे से
बने टूट जाने को इसके
सारे सपने रोज़ बुझे से
अपनी सीख पास में अपने रखो
बाद में जिरह करेंगें

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