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शब्दवती

मैंने जाना शब्द कैसे पनपते हैं भीतर
तुम मुझे शब्दवती करते थे हर बार
मन की कोख हरी होती थी बार-बार
ऐसे मैं शब्दवती होती थी…

तुमने मुझे शब्दवती छोड़ा था
मैंने अकेले तुम्हारी शब्द-संतानों को जन्म दिया
पाला पोसा और सहेजा
देखो तुम सी ही दिखती है तुम्हारी पुत्री पीड़ा
जो जन्म से गूंगी ही है
और ये तुम्हारा पुत्र ‘प्रेम’
बिलकुल तुम पर गया है
तुनक मिजाज, बात-बात पर रूठना
सताना और फिर मुस्कुराना…

तुम्हारी याद बहुत सालती रही
यादों के घर में पालती रही मैं तुम्हारी संतानों को
तुम कहते थे मैं अकेले प्रेम नहीं कर सकती
लेकिन मैंने तुम्हारे अंश को अकेले पाला है

सुनो…अब मुझे जाना होगा
जानती हूँ तुम कभी वापस नहीं आओगे…
तुम्हारा पुत्र प्रेम और पुत्री पीड़ा को यहीं छोड़े जा रही हूँ
जब कभी दुनियावी रिश्तों से फुर्सत मिले तो
खोज लेना अपनी संतानों को
अपने प्रेम को…
पीड़ा पीछे-पीछे चली आएगी…

(न जाने क्यों मुझे लगता है / तुम कभी नहीं खोज पाओगे प्रेम / तो सुनो, तुम जहाँ हो वहीं ठहर कर प्रतीक्षा करना / प्रेम…तुम्हें खुद खोज लेगा एक दिन)

मन समझते हैं आप?

यकीनन वो स्त्री नहीं थी।
सिर्फ और सिर्फ “मन ” थी।
मन से बनी, मन से जनी
मन से गढ़ीऔर मन से बढ़ी।

जिससे भी मिलती मन से मिलती।
अपने मन से दूसरे के मन तक
एक पुल बना लेने का हुनर था उसके पास।
इस पुल से वो दूसरे मन तक पहुँचती थी।
उन टूटे फूटे मन की दरारें भरती , मरम्मत करती।

जानती थी, सोने चांदी से मरम्मत नहीं की जाती।
मन की दरारें मन की मिट्टी से ही भरी जाती।
उसके बनाये मन के पुल पे चलकर लोग आते
जाते समय इक मुट्ठी मन की मिट्टीभी लिए जाते।

(वो इस बात पे मुस्काती और कहती मन समझती हूँ मैं )

धीरे-धीरे मन के पुल टूटने लगे।
मिट्टी की कमी से आसुओं की नमी से
रिश्ते जड़ों से छूटने लगे
अब वो पुल नहीं बना पाती|
इतनी मिट्टी वो अकेले कहाँ से लाती?

धीरे धीरे उसका मन बीत गया
जैसे कोई मीठा कुआँ रीत गया।
वो राह तकती है , कोई आता होगा
साथ में इक मुट्ठी मन की मिट्टी लाता होगा।

वो अब भी मुस्काती है और कहती है
ओह, मन नहीं समझते न आप?

आख़िरी ख़त

जब मैं खुश होती
प्रेम से भर जाती
तुम्हें गुलाबी खत लिखती
नाराज और दुखी होती
तुम्हें ‘आखिरी खत’ लिखती
मैंने अनगिनत बार लिखें हैं तुम्हें
आखिरी खत

मेरे $खतों को महज प्रेम का विवरण जान
छिपा दिए तुमने
कभी किताबों में
कभी दराजों में तो कभी का$गजों के बीच

दरअसल विवरण नहीं वो स्मरण थे
वरण थे…मरण थे

कभी आंखों में नहीं बसाई तुमने
$खतों की खुशबू
सोचा बेजुबान हैं
भला खत भी कभी कहते हैं मुझे पढ़ो…!

वो बे-पढ़ी चिट्ठियां बहुत कुलबुलाती है
लिफाफों से बाहर आने को
स्याह रातों में उनकी तड़प से
कांप जाती हैं तुम्हारे टेबल की दराज
बंद लिफाफों की चीखों से
हिलती हैं करीने से सजाई गई किताबें

जानती हूं…तुमने नहीं पढ़ा उन खतों को
क्योंकि तुम्हें उनकी खुशबू में जीना है
क्योंकि तुम्हें मरना पसंद नहीं…

(सुनो ….अब जबकि आखरी सांस भी टूटने को और ये आखरी खत भी छूटने को है।
तुम मेरे पहले वाले गुलाबी खत का जवाब दे दो …..मेरे खतों ने तुम्हे साँस साँस जीवन दिया है…तुम इन्हें पढ़कर मुझे मोक्ष दे दो)

घरेलू स्त्री

जिन्दगी को ही कविता माना उसने
जब जैसी, जिस रूप में मिली
खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना…

वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम
लेकिन उसे आता है रिश्तों को गढऩा और पकाना
घर की दरारों में कब भरनी है चुपके से भरावन
जानती है वह…

तुम कविता के लिए बहाने तलाशते हो
वो किसी भी बहाने से रच लेती है कविता
तुम शोर मचाते हो एक कविता लिखकर
वो ज़िन्दगी लिख कर भी ख़ामोश रहती है

रातभर जागकर जब तुम इतरा रहे होते हो
किसी एक कविता के जन्म पर
वो सारी रात दिनभर लिखी कविताओं का हिसाब करती है
कितनी कविताएं सब्जी के साथ कट गईं
कितनी ही प्याज के बहाने बह गईं
और कितनी ही कविताएं सो गयी तकिये से चिपक कर

कड़ाही में कभी हलवा नहीं जला…
जलती रही कविता धीरे धीरे
जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से
हर दिन आँखों से बहकर गालों पे बनती
और होठों के किनारों पर दम तोड़ती है कविता
तुम इसे जादू कहोगे
हाँ सही है, क्योंकि यह इस पल है
अगले पल नहीं होगी
अभी चमकी है अगले पल भस्म होगी

रात के बचे खाने से सुबह नया व्यंजन बनाना
पिछली रात के दर्द से नयी कविता बना लेना
आता है उसे…

और तुम कहते हो
उस घरेलू

प्रेम

1.
चुपके से आता है प्रेम…कैंसर की तरह
एक छोटी सी गाँठ से शुरू होकर
धीरे-धीरे फैल जाता है पूरी देह में
फिर हर कीमोथेरेपी पर एक आस ऐसी उठती है
जैसे डाकिया कोई खत लाया हो

2.
मेरी देह में प्रेम ऐसे ही बहता है
जैसे हरे पेड़ में क्लोरोफिल
और तुम्हारी देह में निकोटिन

3.
चेतावनी के बावजूद
सिगरेट नहीं छूटती…
बिना चेतावनी,
बिन हानि के प्रेम छूट जाता है…

4.
जब व्यस्त थे तुम
प्रेम ग्रंथ लिखने में
तुम्हारे दरवाजों पर
बार-बार दस्तक दे रहा था प्रेम
तुम शब्द-शब्द लिख रहे थे
और वह सांस-सांस सिसकता था
दहलीजों पे।

5.

प्रेमग्रंथ एक दिन पुरस्कार पाते हैं
और फिर दीमक उन्हें बुरादा कर देती है।
प्रेम कोई पुरस्कार नहीं पाता
उस पर दीमक घर बनाती है और
वो बाँबी के भीतर भी सांस लेता है।

स्त्री को कविता की समझ नहीं!

उत्तर-माला

1.

जिन्दगी की किताब में हर सबक के साथ प्रश्न क्यों पूछे जाते हैं?
हर प्रश्न के उत्तर वक्त की, उत्तरमाला में क्यों छिपाए जाते है?
किताबों के भीतर ये उदास प्रश्न अकेले में बहुत घबराते हैं
अपने -अपने उत्तर को खोजते एक दिन खुद खतम हो जाते हैं।
दशरथ मांझी की तरह हर प्रश्न अपने उत्तर को खोजता है।
छैनी हथोडा लिए जैसे खुद को खोदता है।
क्यों हर प्रश्न अधूरा है अपने उत्तर के बिना
जब उत्तरमाला है , तो क्यों देखना है मना?

2.

कौन जाने वो मन की कौनसी तलहटी में जाकर छिपता है
जब बाहर नहीं है कोई चोट, तो भीतर क्यों दुखता है
ये प्यास, ये खोज , ये तलाश ख़तम नहीं होती
उत्तर मिल ही जाएगा अबकी , ये आस कम नहीं होती
जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है
जैसे हर उत्तर, प्रश्न का दूसरा हिस्सा है।
किताबें जानती हैं, ये सदियों का किस्सा है।

3.

रोज आधी रात को जिन्दगी की किताब से निकलकर
सभी उत्तर चुपके से उदास प्रश्नों के गले लग जाते होंगे।
उनके प्रेम को देखकर आसमान के तारे मुस्काते होगे
मछली तैरना भूलकर गहरे में डूब जाती होगी।
चांदनी आवाज देकर चाँद को बुलाती होगी
भोर होते ही उत्तर फिर उत्तरमाला में सिमट जाते है
प्रश्न फिर उदास होकर उत्तर की प्रतीक्षा में लग जाते है
हर प्रश्न उदास हैं, सिर्फ अपने उत्तर की आस है
एकदूजे के बिन अधूरे से,कहने भर को किताब में साथ हैं।
क्या हो, जो किसी दिन उत्तर नहीं मिले,
वक्त की उत्तरमाला के पृष्ट हवा ले उड़े
उफ़ ये ख्याल प्रश्नों को बहुत सताता है,
कभी -कभी कोई प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है।

 

गलत सोचा

जेलर के हर कोड़े पर निर्दोष कैदी ने सोचा
बस अब ये आख़िरी होगा, गलत सोचा।
पिंजरे में कैद चिड़ियाँ ने जख्मी चोंच से
फिर एक बार पिंजरा काटा, सोचा
बस अब पिंजरा टूटा, गलत सोचा।
उसके अनगिनत झूठ सुनकर सोचा
बस अब ये झूठ आखरी होगा, गलत सोचा।

मन्नत के धागे बांधते समय सोचा
पत्थर का देवता अनगिनत लाल धागों में
हरा धागा पहचान लेगा, गलत सोचा
बरसों तक पुराने घर को अपना मानते रहे, सोचा
भला एक रस्म से घर छूटता है क्या, गलत सोचा।

फिर बरसों तक नये घर को अपना कहते रहे सोचा
एक दिन ये नयाघर “अपना घर” होगा गलत सोचा।
एक ठूंठ को बड़े प्रेम से बरसों सींचा किये, सोचा
एक दिन हरे पत्ते उगेंगे, गलत सोचा।

प्रेम बीज बोते रहे, प्रेम लहराएगा हरा होकर, सोचा
सौ गुनी फसल होगी अबकी, गलत सोचा।
दर्द के बीज कभी नहीं रोपें, सोचा
बिन बोये कुछ नहीं उगता, गलत सोचा।

बजते झुनझुने को तोड़ कर फिर जोड़ने से
वो फिर से बज उठेगा ये तुमने गलत सोचा।
देर से घर आने वालो ने रस्ते में रुक कर सोचा
घर कहाँ जायेगा वहीं मिलेगा, गलत सोचा।

बहती नदी, रोती आखें छोड़ गए, सोचा
वापस आने पर वहीं मिलेगी गलत सोचा

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