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गुम हुआ शहर

गुम हुआ शहर हूं मैं
लौटा दो मुझे ढूंढ़कर। मुझी को लौटा दो
किसी तरह।
चले गए हैं वे लोग। जो हर शाम फना होते थे
मेरे लिए/मैं आज भी वैसी ही
फाकाकशी भुगता रहा हूं
चले गए हैं वो कहीं दूर जगमगाते गलियारों में-

घायल कर गए हैं वे मुझे-
ठंडा लहू रिसता हुआ
घाव और खुरंड,
यह सब बिना छुए ही
सहमता रहा हूं मैं
अतीत की यादों के हाथ
जब भी मुझे सहलाते हैं
दर्द बढ़ जाता है।

अब जब भी दोनों वक्त मिलते हैं
मैं वीरान हो जाता हूं,
निस्पंद है सब गलियां, बाजार और चौराहे
मैं बस खुद ही कांपता रहता हूं
न जाने कौन सी दहशत से
जब भी आसमान के आइने में
खुद को देखता हूं,
सिहर जाता हूं यह बढ़ते हुए दाग देखकर
पहचान नहीं पाता खुद को
कौन ढूंढ़ेगा मुझे
और लौटाएगा मुझी को।

एक छोटा सा मसीहा

एक सपना हर सुबह निकलता है हमारे साथ
सद्यःस्नात बच्चों की तरह अंगुली पकड़कर
मिलता है लोगों से जाने-पहचाने/चिड़चिड़े अजनबी
खुशदिल/मायूस
बसों में/गलियों में/दफ्तरों में/चौराहों पर/
बाजारों में/सबसे खिले माथे से मिलता है
और समझाता है जीना सिर्फ ऐसे ही नहीं होता-
ऐसे भी होता है।

सपना दूब-सी भावनाओं का पुतला है
पर तर्क-वितर्क करता है
दूसरों को कन्विंस करने के लिए
हर जगह सींग भिड़ाने को तैयार है
और हमारी जिंदगी की काफी दिक्कतों का जिम्मेवार है
आज तक हम इसकी उंगली सहेजे हुए हैं
घाटा उठा रहे हैं।

सपना बसों की थचकधाती भीड़ में
दफ्तरों में/राशन की लाइनों में
बड़ी उदारता से अपनी सुविधा
दूसरों को दे देता है ताकि अमन रहे
और खुद हर जगह झेलता है व्यंग्य
उपहास, अपशब्द।

पर यह हर वक्त मुस्कराता है।
निठल्ली बेशर्मी से अपना भाषण जारी रखता है
यह उलझता है, लड़ता है, झगड़ता है
कहीं बिदकता है, कहीं अकड़ता है
कहीं जीतता है कहीं हारता है
और हर रोज का जमा-हासिल
सिर्फ एक शून्य पाता है
लोग एक अंधी जिद में कैद है
यह रोज यूं ही घाव और खरोंचें सहता है।

हर शाम को ठोकरें खाता
बदरंग चेहरा लिए हमारे साथ लौटता है यह
रात को अंधेरे में विश्रान्त हमारे सीने में
हल्के-हल्के धड़कता है।
हम खुद को थपथपाते हैं/और सपना सो जाता है
नए दिन की जद्दोजहद की प्रतीक्षा में।

खारिज

एक भटकन सी ढोता रहता हूं
जाने कहां-कहां
परत-दर-परत अपने अंदर तकलीफे कुरेदता हुआ।

आसान नहीं झूठी संतुष्टि का मुखौटा ओढ़े
निर्वाक चलते रहना
अपनी योग्यताओं को भाग्य और विडम्बनाओं
के हवाले से
लुटेरों की अदालत में अपराधी स्वीकार कर लेना।

सुख चाकर है अयोग्य और बदनीयतों के
दरवाजे पर और मुझे आते-जाते देखकर
बेशर्मी से खींसे निपोरता है।

अलमस्त दोपहर में गुनगुनी बालकनी पर
ऐश्वर्य बकबकी जम्हाइयां लेता है
और नीचे सड़क पर मैं घसीटता हूं खुद को
एक अनवरत जिहाद की टूटी चप्पलें फटकारता हुआ
और बड़बोला घोषित कर दिया जाता हूं।

चारों ओर से घिरा हूं
न समझने वाले लोगों से
और हर एक की तर्जनी फेंकती है
मेरी ओर असम्बद्ध से सवाल
हर कोई है मेरी आंखें कोंचने को तैयार।

कितना कठिन है हरदम शालीनता के वेश में
ओढ़ लेना एक नजरअंदाजी मानसिकता
कितना जरूरी है दुम हिलाने के बजाय भौंकना!
मुझे ही क्यों घेरता है यह सब
एक अवैध सम्बन्ध की तरह?
बचे-खुचे एकान्त में
थरथराता, किचकिचाता हुआ
आकर खड़ा हो जाता है
निःशब्द ध्वस्त करने को मुझे।

फिर भी
आंखे शिद्दत से सहेज रही है
सूखते से कुछ भविष्यशील सपने-
और इस तकलीफ के वृत्त के बाहर
शर्मा जी सक्सेना जी हिनहिनाते हैं
अचक्कों की तरह मुंह में पान पपोलते हैं
और उत्सवी दिनों का टाइम टेबल बनाते हैं

सब हैरान है
उचक्कों की बारात में
मैं क्यों शामिल नहीं हो सकता।

 

बेशिकायत 

कहीं नहीं, कहीं नहीं वह जमीन
जहां रोप देते हम अपने सुगबुगाते सपनों को
तय कर लिया था तुमने
हर उस जमीन को उखाड़ना
जहां हम पहुंच सकते थे।

संतुष्ट हो तुम कि तुमने
एक विषैली हवा छोड़ दी थी
और हमारे चारों ओर
अव्यवस्थित रिश्तों का जंगल बनता चला गया।

लेकिन तुम खुश थे कि तुम और तुम और तुम तो
सब एक ही हो-
पूरी तरह संगठित, सुरक्षित और व्यवस्थित।

तुम्हारा अट्टहास हमारे इर्द-गिर्द हर वक्त
गूंजता रहा है
और हम जिंदगी के न जाने कितने पड़ावों
पर
तुम्हारे अट्टहास की प्रतिक्रिया में
अपनी उम्मीदों की पोटलियां
फिर-फिर टटोल, सहेज लेते हैं
फिर आसपास के चेहरों में तुम्हारी
टोह लेते हैं
और सहम जाते हैं।

हालात के ऐसे चक्रवात तुमने चलाए
कि हमारे लिए सब दिन बेमौसम हो गए।
हम तुम्हारी प्रचारित गोष्ठियों के
उत्तेजक विषय बनते रहे
और किसी उच्छिष्ट की तरह,
तुम्हारी ऐश-ट्रे के
किसी अधबुझे सिगरेट की तरह
सुलगते रहे,
तुम हमारी तकलीफों को भुनाते रहे
और अपनी पीढ़ियों का सुख जुटाते रहे।

हम अपने सपनों की हर बूंद
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
एक क्षीण होती विरासत की तरह ढोते रहे
एक उर्वरा जमीन का टुकड़ा तलाशते रहे।

मगर तुम (फिर भी)
तिलमिलाते रहे
(शायद अपनी उपलब्धियों की कमी पर नहीं)
इन ऊबभरे रास्तों पर
हमारे अटूट सफर को देखकर…
न जाने क्यों…?

घिरते हुए

क्यों होता है ऐसा
क्यों नहीं हो पाता मैं औरों जैसा
क्यों नहीं भाते मुझे यह सब
सहज से सहज होती सीढ़ियों पर चढ़ते लोग
खुशगवार चेहरों वाले?

क्यों नहीं चाहता इन सबकी तरह मैं भी
ये सब सुख और भड़कीली सुविधाएं
कहां अलग हो जाती है/मेरी और इनकी
आकांक्षाओं की राहें
क्यों नहीं चाहें भी इनकी चाहोंसे
मिल पातीं
क्यों नहीं हो सकता इनकी तरह मैं भी
किसी चकाचौध में गुम।
कैसी फुरसत में ये सब भोग लेते हैं
जीवन का कोमल स्पर्श
और मैं मौन हमेशा कुछ रूखा-सा सहता हूं
और बेचैन रहता हूं!

कुछ हरदम हाथ बढ़ाते हैं कि मैं
उनकी उंगलियां थाम लूं
और तिरस्कृत हो जाते हैं मेरे इंकार से
क्यों मैं इनकी तरह हर तरफ खुलने वाली
राहों पर नहीं चलना चाहता
क्यों मैं अनिच्छाओं के इस वर्तुलाकार
जंगल में ही भटकने को अभिशप्त हूं।

क्यों मैं इनकी तरह जीवन के
रेशमी अनुबन्ध स्वीकार नहीं कर पाता हूं
क्यों मैं लम्हा-लम्हा खुद से टकराता हूं
और पस्त वापस लौट आता हूं।

जन्मदिन

बहुत नाराज है वह मुझसे।

न जाने कहां-कहां होकर आता है वह
उसके दिप-दिप चेहरे में झिलमिलाते हैं
रंगीन शामियाने
सजे-धजे कमरों की जगमगाहटें
मोहक बंदनवार और अल्पनाएं।

बहुत बिजी शड्यूल रहा है उसका
एक अलमस्त विश्रान्ति में अलसाता हुआ
वह मेरे पास आता है
और जब भी आता है एक बेनूरी से
घिर आता है।

कहीं बरसों का सिलसिला है यह।
आते ही/उनींदता हुआ वह शिकायत
करता है/बहुत बोर आदमी हो तुम/
कितनी जर्द और बेतुकी मुलाकातें रही हैं
मेरी तुम्हारी/
बढ़ती जा रही है। तुम्हारे फटे हुए जूते की
तरह तुम्हारी गुस्ताखी!

वह नहीं समझता,
बरसों से अकुला रहा हूं मैं
अपने भीतर हमेशा एक परचम उठाए
छटपटाता और कराहता हुआ
‘सब खुशी हों/सब सुखी हों!’

न जाने कितनी कामनाएं
और आशावान दिन और रातें
बेतुके केसों की तरह
दाखिल दफतर हो जाते हैं।
जिंदगी का हर दिन। किसी भुरभुरी
फाइल के कागज की तरह पलट देता हूं।
हर वक्त हाथों के आस-पास
कुछ ललचाता सा मंडराता रहता है
उंगलियों के बीच से वह कुछ सरक जाता है
एक नामालूम हवा की लहर की तरह।
हर रोज मेरे जेहन में अनजाने सवाल टंग जाते हैं
साल-दर-साल हमारी निरर्थक भेंटों के बीच
बस यही कुछ रह जाता है एक परित्यक्त से रास्ते पर
हर साल जिंदगी और बदरंग छोड़ आया हूं
वहां बस निष्फल प्रयासों की छायाएं हैं
या थूकी हुई तिलमिलाहटों के धब्बे
जिनके लिए खपता रहा। वही मुस्कानें चिपकाए
निजता के वृत्त के भीतर की, धूर्तहोते गए।
बताओ तुम्हीं किन को शामिल करूं
तुम्हारे साथ इस भेंट के समारोह में
इनके भीतर कोई परचम नहीं। बड़े संतुष्ट और
आश्वस्त हैं वे लोग। इनके हाथों के आस-पास
कुछ नहीं मडराता, कचोटता।

(उफ! इनके लिए ऐसे सुखों की कामना तो नहीं की थी मैंने)
बस मेरी और तुम्हारी मुलाकात निरी वीरान ही रहेगी
न जाने कब तक।
न जाने किस आदिम भावुकता से अभिभूत
हर बार तुमसे मिलकर एक सिगरेट जरूर सुलगाता हूं।
और धुएं के बीच कुछ स्वर्णिम-सा कंपकंपाता है
मेरे आस-पास कुछ स्निग्ध सा मचलता है, मंडराता है।

मैं मन ही मन कामना करता हूं
‘सब सुखी हों’
मैं चाहता हूं कोई कहे-‘आमीन’
कितनी बार दोहरा चुका हूं-‘सब सुखी हों’
न जाने कब कोई कहेगा

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