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रंजना सिंह ‘अंगवाणी बीहट की रचनाएँ

माँ शारदे वंदना 

करती सदा, ये कामना,
मन में बसे, ये भावना।
करती रहूँ, माँ याचना।
तेरी करूँ , मैं साधना।

करबद्ध माँ, है प्रार्थना,
जन-मन बसे,सद् भावना।
दुख का नहीं, हो सामना,
माँ हाथ को, तुम थामना।

पूजा करूँ ,कर अर्चना,
मन भक्ति ले,उर भावना।
कर दूर दुख, दुख हारिणी,
आ बस ह्रदय,जग तारिणी।

माँ तू जगत, वर दायिनी,
माँ वत्सला,मृदु भाषिणी।
तू धर्म का, व्रत पालिनी,
तू ही सकल,तम हारिणी।

माँ शारदे ,सुर साधिका,
मम् उर बसो,लय धारिका।
कर दूर तम, माँ सारथी,
हर पल करूँ,माँ आरती।

दर्पण छवि तोहार कन्हैया

दर्पण छवि तोहार कन्हैया ,
दर्पण छवि तोहार।
वंशी धुन मधुर लगे कर्ण प्रिय,
सुनूँ बारम्बार।

नैन थके नहीं देखि तोहे,
प्यास बढ़े दिन-रात।
विनय सुनो मोहे मुरारी!
कर दो मेरा श्रृंगार ।
कन्हैया कर दो मेरा श्रृंगार ।

ज्यों जानती मैं वशीकरण,
देती तुझ पे जादू डाल।
हर पल अपने पास बैठा
पूछती दिल का हाल ।
कन्हैया पूछती दिल का हाल।

रक्तिम सिंदूर भर माँग में,
माथ पर बिन्दी सजा।
मोतियन हार गले पहना ,
और उलझे केश सँवार।
कन्हैया उलझे केश सँवार।

विद्यापति-महिमा

चौपाई-
विद्यापति कवि रचना भारी,
जिनके नाम जपे त्रिपुरारी।
मिथिला के कवि वो भगवाना,
विद्यापति कविवर गुणखाना।

जन्म लिए कवि बिस्फी गामा,
मात – पिता हर्षित गृह धामा।
बर्ष आठ में लिख कर दोहा,
शिव सिंह का ह्रदय वो मोहा।

विद्यापति मनहर इक धामा,
जहाँ बहे नित गंग -ललामा।
विद्यापति गणपति के नंदन,
सकल जगत करता अभिनन्दन।

विद्यापति सबके उर सागर,
तीन लोक में हुए उजागर ।
गंगा, कमला, कोशी ,काशी,
ये सब विद्यापति के दासी।

राजा शिव के कवि दरबारी,
विद्यापति जग में गुणकारी।
जब शिव महिमा गीत सुनाया,
उगना बन शिव भू पर आया।

दिवस-मास-सालों जब बीता,
शिवांगी कैलाश पर रीता।
तब भवानी हो अति अधीरा,
भेजी क्रोध समीप सुधीरा।

क्रोधित हो विद्यापति दारा,
झाडू ले उगना को मारा।
तभी राज विद्यापति खोला,
ये शिव हैं पत्नी से बोला।

सुनते ही भागे कैलाशी,
रोती रही सुधीरा दासी।
विद्यापति विह्वल हो रोता,
कैसे चैन बिना शिव होता।

दोहा-
विद्यापति गुणगान से,
हर्षित सकल समाज।
कर जोड़ विनती करते,
हम सब कविगण आज।।

माता-पिता – 1

माँ-बाप के उपकार,
देते हमें उपहार।
सेवा करें हम आज,
जीवन मिले तब ताज।

माँ से बने परिवार,
विष्णु पिता अवतार।
माँ शब्द है अहसास,
तो बाप शब्द है खास।

नूतन रचे इतिहास,
सपना दिखे जब खास।
मिलता जगत सम्मान,
शुभ फल मिले परिणाम।

माँ का मिले आशीष,
पग पे झुका दो शीश।
माता-पिता का हाथ,
रखना सदा तू साथ।

बूढ़े हुए माँ -बाप,
समझो वचन ये आप।
पा जिन्दगी में प्यार,
रह माँ जिगर में यार।

दशरथ लाल

दशरथ सुत हँसत लाल,
मनहर लगत पग चाल।
चलत लटपट चितचोर,
छवि निरखत नयन मोर।

मिलत ह्रदय सुख विशाल,
छितरल घन लट सुभाल।
दिख कर सुत चपल खेल,
दशरथ मन मुदित भेल।

शिशु सृजन जग अवतार,
हरत जन दुख अरि मार।
बजत करतल भरमार ,
जय -जय दशरथ कुमार।

पवनसुत अतुलित शक्ति,
प्रभु पद कमल प्रिय भक्ति।
सियमय सकल जग जान,
धर सब प्रभु चरण ध्यान।

जीवन-मरण काल चक्र

क्यों करते मनमानी यारा
हम हैं टूटने वाले इक तारा।
जन्म लिया जब मानव में
तो मरना भी है तन सारा।

बचपन नादानी में बीता
युवावस्था मद में रीता
बुढ़ापा जब सामने आता
अंतर्मन है बहुत घबराता।

किया अहम् जो जीवन में
वो सिर पकड़ है पछताता
मोह जाल में फँसकर बन्दा
छुड़ा सका न जीवन फंदा।

समय चक्र बीतता जाता
पता नहीं कुछ लग पाता।
जीवन रंगमंच है अनमोल
रखना सबसे है मेलजोल।

न कर गर्व तू मूर्ख प्राणी
ढ़ल जाती है ये जवानी।
जैसे सूरज उगता सबेरे
फिर दोपहरी से शाम अंधेरे।

जग में कुछ शाश्वत नहीं
जीवन-मरण है सत्य यही।
काल चक्र का चलता रहता
ज्ञानयुक्त ग्रन्थ गीता कहती।

तन नाश मृत्यु है करती
आत्मा अजर अमर होती।
नेक कर्म कर जाना ज्ञानी
यही रहेगी जग में निशानी।

बने समरस जगत सारा 

सभी मिलकर चलें जग में,
बने समरस जगत सारा।
सजायें प्रेम गुलशन में,
खिलायें फूल नव प्यारा।।

नहीं कोई बड़ा जग में,
नहीं कोई यहाँ छोटा।
सभी हैं सम यहाँ भाई,
नहीं सिक्का यहाँ खोटा।

रहें सद्भाव से हम सब,
बने ये देश जग न्यारा।
हिया में नेह को रख कर,
बनायें देश को प्यारा।।

हमारा देश युग-युग से,
रहा समरस सुनो भाई!
यहाँ हर वर्ण बसते हैं,
यहीं गंगा नदी माई।

हमारा मंत्र है समरस,
हमें संस्कार है अपना।
सभी जन हो बराबर में,
सफल हो देश का सपना।

जलायें दीप समता का,
चलें सब राह एक होकर।
करें हम दूर कंटक को,
मिलें सबसे गले लगकर।

बलात्कार

मात-पिता का सुमिरन करके,
औ शारद को शीश नवाय।
ध्यान लगाकर श्री गणेश का,
अशीष जगत् गुरू का पाय।

भय नारी का मिटे ह्रदय से,
दिल हौसला चमक छितराय।
माँ दुर्गा का धरे ध्यान जो,
उससे नरपिशाच घबराय।

दुष्ट पापी जब बढ़े जग में,
दुर्गा रूप नारी अपनाय।
उठा खड्ग सर काटे धर से,
उठै न दुष्ट हाथ-पैर भाय।

देख दानवता नर ह्रदय का,
अंतर्मन मेरा पछताय।
चेतो नर चेतो तुम अब भी,
काहे तेरा मति भरमाय।

मानो दुष्ट मेरी बात तुम,
क्यों आँचल औरत शरमाय।
बंद करो अब बलात्कार को,
न तो अति का अंत हो जाय।

भाई दूज

लगा चंदन तिलक भाई,
बहन अब गीत है गाई।
जियो तुम युग,युगों भाई ,
कि भैया दूज तिथि आई।

सलामत तुम रहो भाई,
बहन देने दुआ आई।
रहो खुशहाल तुम भाई,
करें दीर्घायु देवी माई।

यशस्वी हो सदा जग में,
नहीं कंटक चुभे पग में।
तिलक माथे लगाऊँ मैं,
मधुर तुझको खिलाऊँ मैं।

सुगंधित है घना भाई,
बहन का प्यार जो पाई।
रहे आबाद घर आँगन,
करें सब देव आ गायन।

सदा अहिवात से भाभी,
भरी हो मांग सौभागी।
सुभग भैया लगे मेरे,
युगल जोड़ी अचल तेरे।

सदा आबाद पीहर भी,
रहे आबाद पी घर भी।
बहन सिरमौर हो भाई,
पले हम गोद में माई।

नज़र में है बसा बचपन,
भले अब आयु हो पचपन।
बहन करती दुआ रब से,
निहारूँ पथ खड़ी कब से।

घड़ी पावन सुनो आई,
सजी थाली बहन लाई,
लगा चंदन तिलक भाई,
कि भैया दूज तिथि आई।

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