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को तुम हो इत आये कहाँ ? घनश्याम हौँ, तौ कितहू बरसो

को तुम हो इत आये कहाँ ? घनश्याम हौँ, तौ कितहू बरसो ।
चितचोर कहावत हैँ हम तो ! तँह जाहु जहाँ धन है सरसो ।
रसिकेश नये रँगलाल भले ! कहुँ जाय लगो तिय के गर सो ।
बलि पे जो लखो मनमोहन हैँ ! पुनि पौरि लला पग क्योँ परसो ।

रसकेश का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

मम कौन कहौँ यह कासोँ कहौँ पुनि साँचिय कोऊ न मानत है

मम कौन कहौँ यह कासोँ कहौँ पुनि साँचिय कोऊ न मानत है ।
जिन्ह व्यापी नहीँ या वियोग विथा सो कहा दुख को पहिचानत है ।
रसिकेश कहूँ बिरही जो मिलै बिरही गति सो उर आनत है ।
नर नारि सँयोग वियोग कहा मिलि कै बिछुरै सोई जानत है ।

रसकेश का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

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