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गहगह साज समाज-जुत, अति सोभा उफनात

गहगह साज समाज-जुत, अति सोभा उफनात।
चलिबे को मिलि सेज-सुख, मंगल-मुदमय-रात॥
रही पालती पहकि लहै, सेवत कोटि अभंग।
करो पदन पजुहर सिलि, सब रजनी रस-रंग॥
जले दोउ मिलि रसमसे, मैन रसमसे नैन।
प्रेम रसमसी ललित गहि, रंग रसमसी रैन॥
‘रसिकबिहारी’ सुख सदन, आए रस सरसात।
प्रेम बहुत मोरी निसा, ह्वै आयो परभात॥\

कुंज पधारो रंग-भरी रैन

कुंज पधारो रंग-भरी रैन॥
रंग भरा दुलहिन रग भरे पीया स्यामसुंदर सुख दैन॥
रंग-भरी सेज रचो जहाँ सुन्दर रंग-भरयो उलहत मैन।
‘रसिकबिहारी’ प्यारी मिलि दोउ करौ रंग सुख-चैन॥

होरी होरी कहि बोलै सब ब्रज की नारि

होरी होरी कहि बोलै सब ब्रज की नारि।
नन्दगांव-बरसानो हिलि मिलि गावत इत उत रस की गारि॥
उड़त गुलाल अरुण भयो अंबर चलत रंग पिचकारि कि धारि।
‘रसिकबिहारी’ भानु-दुलारी नायक संग खेलें खेलवारि॥

धीरे झूलो री राधा प्यारी जी

धीरे झूलो री राधा प्यारी जी.
नवल रंगीली सबै झुलावत गावत सखियाँ सारी जी॥
फरहरात अंचल चल चंचल लाज न जात संभारी जी.
कुंजन ओर दुरे सखि देखत प्रीतम ‘रसिकबिहारी’ जी॥

कैसे जल लाऊँ मैं पनघट जाऊँ

कैसे जल लाऊँ मैं पनघट जाऊँ।
होरो खेलल जल्द लाड़िलो क्योंकर रिवहज पाऊँ॥
वे तो निलज फाग मदमाते हौं कुल-बधू कहाऊँ।
जो छुवें अंचल ‘रसिकबिहारी’ धरती फार समाऊँ॥

मैं अपनो मन-भावन लीनौं

मैं अपनो मन-भावन लीनौं, इन लोगन को कहा न कीनौं।
मन दै मोल लयौ री सजनी, रतन अमोलक नन्ददुलारे॥
नवल लाल रंग भीनो।
कहा भयो सब के मुख मोरे, मैं पायो पीव प्रबीनौं।
‘रसिकबिहारी’ प्यारो प्रतीम, सिर बिधनां लिख दौनौ॥

रतनारी हो थारी आंखड़ियाँ

रतनारी हो थारी आंखड़ियाँ।
प्रेम छकी रस-बस अलंसाणी जाणि कमल की पांखड़ियाँ॥
सुन्दर रूप लुभाई गति मति हौं गई ज्यूं मधु मांखड़ियाँ।
रसिकबिहारी वारी प्यारी कौन बसी निसि कांखड़ियाँ॥

 

हो झालो दे छे रसिया नागर पनां

हो झालो दे छे रसिया नागर पनां।
सारां देखैं लाज मरां छां आवां किण जतनां॥
छैल अनोखो क्यों कहयो मानै लोभी रूप सनां।
‘रसिकबिहारी’ लणद बुरी छै हो लाग्यो म्यारो मनां॥

ये बांसुरियावारे ऐसो जिन बतराय रे

ये बांसुरियावारे ऐसो जिन बतराय रे।
यों बोलिए! अरे घर बसे लार्जान दबि गई हाय रे॥
हौं धाई या गैलहिं सों रे! नैन चल्यो धौं जाय रे।
‘रसिकबिहारी’ नांव पाय कै क्यों इतनो इतराय रे॥

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