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राजेंद्र तिवारी ‘सूरज’की रचनाएँ

गलियाँ 

मै अपने गाँव की गलियों में बचपन ढूँढ लेता हूँ,
मै अपने घर के दरवाज़ों में दर्पण ढूँढ लेता हूँ |

मेरे लहज़ों में अल्फाज़ों में मेरा गाँव बसता है,
मै गौरेयों की पंगत में वो सावन ढूँढ लेता हूँ |

मेरा दम घुटने लगता है शहर की बेवफ़ाई में,
मै घर की नीम की साये में मधुबन ढूँढ लेता हूँ |

मेरी अम्मा अभी भी घर के आँगन में महकती हैं,
मै उनकी लोरियों में अपनी धड़कन ढूँढ लेता हूँ |

मेरी दादी का सुरमा मेरी आँखों में बसा है यूँ
दुवायें याद करके अपना मरहम ढूँढ लेता हूँ |

मै अपने गाँव की गलियों में बचपन ढूँढ लेता हूँ,
मै अपने घर के दरवाज़ों में दर्पण ढूँढ लेता हूँ |

नश्तर

ग़मों के गीत गुनगुनाऊं क्या?
कुछ तुम्हें फिर नया सुनाऊँ क्या?

आँधिया कब की रुक गयीं हैं ..दोस्त ..
उनको आवाज़ दे बुलाऊँ क्या ?

उसके ज़ख्मों में ताज़गी है अभी ..
फिर से नश्तर वहीं चुभाऊँ क्या?

दोस्त महंगे से हो गए हैं अब …
दुश्मनों को गले लगाऊँ क्या?

इश्क..क्या है ये जानना है तुम्हें ?
फिर से ख़ुद अपना घर जलाऊँ क्या ?

ग़मों के गीत गुनगुनाऊं क्या?
कुछ तुम्हें फिर नया सुनाऊँ क्या?

सियासत

सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला |

वो भाई जो कल तक हंसी का था रहबर
जो मेरे लिए जां की बाज़ी लगाता ..
जो मेरी हर एक चाह के वास्ते
ख़ुद अपनी ख़ुशी की बली था चढ़ाता ..

सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला ||

न जाने ये नफ़रत की कैसी हवा है ..
न जानूं ज़हर है …न जानूं दवा है ..
उसे खोके ..ख़ुद को कहाँ जाके ढूँढू ..
ऐ मौला तेरे पास कुछ रास्ता है ?

के नफ़रत के काटों ने मन बाँट डाला ..
कि ममता की लोरी का धन बाँट डाला ..

सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला ..

रुख़सती

न जाने क्या कमाया है..न जाने क्या गवांया है ..
गणित जीवन का सच्चा हो.. बस ऐसी रुख़सती देना |

के जाते वक़्त सबको ..प्यार से मैं अलविदा कह दूँ ..
मेरे मौला मेरे इस दर्द में भी …इक हँसी देना |

मेरी ऑंखें बहुत धुंधला गयी हैं ..कुछ महीनों से..
अगर राहें अन्धेरी हों .. तो थोड़ी रौशनी देना |

मेरे पोते बहुत ही दूर मुझसे जा के रहते हैं ..
हों मेरे साथ जब जाऊँ .. सुबह ऐसी नयी देना |

न जाने अपने बच्चों को ..कितनी बार डाँटा है ..
उन्हें एक बार जी भर प्यार कर लूँ ..वो ख़ुशी देना |

सुना है माँ मेरे बच्चों की.. उस दुनिया में अब भी है..
मैं सारा शुक्रिया कह दूँ.. बस एक ऐसी घडी देना |

कहाँ जाऊँगा .. मन डरता ..अकेलेपन से है मेरा ..
अगर लौटूं तो पोतों की हमारे ..दोस्ती देना |

गणित जीवन का सच्चा हो.. बस ऐसी रुख्सती देना ||

होली

गली गली में रंग है मगर ये लाल है बस ..
हर एक शख़्स है सहमा हुआ डरा सा यहाँ ..

गीत होली के कहाँ अबकी बार गाये गये ..
न कान्हा वाले राग अबकी गुनगुनाये गये ..
कातिलों ने दिया है हुक़्म सिर्फ़ नारे हों ..
बचे न कोई भी इस रक्त की होली से इस बार ..

जगह पिचकारियों की ली है तलवारों ने यहाँ ..
ग़ुलाल अबकी खूँ के रंग में हुये हैं तब्दील ..
गले कटे हैं यहाँ कौन गले आ के लगे ..
ये गली ख़ून की होली में यूँ नहाई है ..
फिर से इंसानियत का क़त्ल गली में है हुआ ..

होली तो सिर्फ़ बहाना थी खूं में रंगने का |
होली तो सिर्फ़ बहाना थी खूं में रंगने का ||

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