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लक्ष्मीकान्त मुकुल की रचनाएँ

पांव भर बैठने की जमीन

यहां अब नहीं हो रही हैं सेंध्मारियां
बगुले लौट रहे हैं देर रात अपने घोसले में
पहुंचा रहे हैं कागा परदेश तक संदेशा
कई सालों से गूंजी नहीं है
उल्लुओं की चीत्कार
किसी वारदात का वहां अता-पता तक नहीं
चमघींचवा खुश दिख रहा है इन दिनों
उधेड़ते हुए मरे पशुओं की आखिरी खाल
हड्डी बीनने वाले लोग
अदहन पर चढ़ी दाल में नमक सिझा रहे हैं
राह चलते पेड़ के पत्ते झड़ने लगे हैं
खेतों में दम तोड़ती नदियां
सोख ले रही हैं पहली ही घूंट में पानी की धर
बादलों के टुकड़े
बझ रहे हैं आंख मिचौनी के खेल में
मकई की लंबी गांछों की ओट में दुबका
कोई भूल नहीं पाता गांव की पतली पगडंडी
कबूतरों के झुंड आकाश में घूमने चले जा रहे हैं
क्षितिज के पार सुनने लहरों का संगीत
गेंहूं के चौड़े खेतों के बीच
नहीं दिखता बिजू का तना हुआ लोहबान
मेंड़ों पर जाते ही उतर आयी है
पशुओं की तीखी भूख
खाली शाम में अब किसान
बतरस में नहीं उलझे हैं इन दिनों
वे गुनगुना रहे हैं धन ओसाने के गीत
सुनाई देने लगी है शिवाला से
घंटियों के टुनटुनाने की आवाज
वैसे ही लौट रही हैं आस्था की पुरानी यादें
चलें हम भी लादे कन्धें पर उम्मीदों के पठार
जैसे मुंह अंधेरे में उड़ती चिड़िया
आखिर खोज ही लेती है
पांव भर बैठने की जमीन।

पथरीले गांव की बुढ़िया 

जल रही हैं उसकी बुझती आंखों में
संमत की लपटें
बुढ़िया है वह बथान की रहने वाली
मानों कांप रही हो करवन की पत्तियां
तुम्हें सुनाने को थाती है उसके पास
राजा-रानी, खरगोश, नेवले
और पंखों वाले सांप की
कभी न सूखने वाले ढेर सारी कहानियों की स्रोत
रखी है जंतसार और पराती की धुनें
चक्का झुकते ही
पूफट पड़तीं उसकी कंठ की कहरियां
बंसवार से गुजरते ही
मिल जायेगा पीली मिट्टी से पोता उसका घर
दीवालों से चिपके मिलेंगे
हाथी घोड़ा लाल सिन्होरा
पूफल पत्तियों के बने चितकाबर चेहरे
मिल जायेंगी किसी कोने में भूल रहीं
उसकी सपनों की कहानियां
एक सोयी नदी है बुढ़िया के
घर से गुजरती हुई
खेत-खलिहान
धन-पान के बीचों-बीच निकलती जाती
वह हो जाती पार नन्हीं-सी डेंगी पर
सतजुग की बनी मूरत है बुढ़िया
उजली साड़ी की किनारीदार
धरियों के बीच झूलती हुई
गुजार ले आयी है
जिन्दगी की उकताहट भरी शाम
रेत होते जा रहे हैं खेत
गुम होते जा रहे हैं बिअहन अन्न के दानें
टूट-पूफट रहे हैं हल-जुआठ
जंगल होते शहर से झउफंसा गये हैं गांव
…दैत्याकार मशीन यंत्रों, डंकली बीजों
विदेशी चीजों के नाले में गोता खाते
खोते जा रहे हैं हम निजी पहचान…
सिर पर उचरते कौवे को निहारती
तोड़ती हुई चुप्पी की ठठरियां
लगातारलाल चोंच वाले पंछी 11
गा रही है झुर्रियों वाली बुढ़िया
जैसे कूक रही हो अनजान देश से आई
कोई खानाबदोश कोयल
और पिघलता जा रहा हो
पथरा चुका सारा गांव।

हजार चिंताओं के बीच

भोर के खिलाफ
उठता है कोर से धुआं
और धुंध्लके को चीरता हुआ
पहुंच आता है मेरे गांव में
मां रोटियां नहीं बेल पाती
सीझ नहीं पाती लौकी उसके चूल्हे पर
तड़पफड़ाकर सूख जाते हैं
दीवाल की योनियों में
अंखुवाकर उगे कुछ मदार
भूल जाते पिता
रेत होती नदियों के घाट
धूल भरी आंध्यिों के बीच
झुझला जाता है मेरा तटवर्ती गांव
बूढ़ी मां का पफौजी बेटा
चला जाता है बीते वसंत की तरहलाल चोंच वाले पंछी 13
धुल जाती है कुहरे में
नन्हों की किलकारियां
महुआ बीनती हुई
हजार चिंताओं के बीच
नकिया रही है वह गंवार लड़की
कि गौना के बाद
कितनी मुश्किल से भूल पायेगी
बरसात के नाले में
झुक-झुककर बहते हुए
नाव की तरह
अपने बचपन का गांव।

उनका आना

कोई सदमा नहीं है उनका आना
अंधियारा छाते ही सुनाई दे जाती
अनचिन्ह पंछी की बेसुरी आवाज
जैसे कोई आ रहा हो खेतों से गुजरते हुए
दबे पांव बुझे-बुझे सन्नाटे में
चवा भर पानी में तैरती मछलियां
पूंछें डुलाती नाप लेती हैं नदी की धर
भुरभुरा देते केंचुए मिट्टी की झिल्लियां
डेग भरते केकडे़ छू लेते
नदी की अंतहीन सीमाएं
उनका आना नहीं दिखता हमारी आंखों से
वे उड़ते हैं धूलकणों के साथ
हमारे चारों ओर खोये-खोये
वे खोजते हैं गांव-गिरांव
पुरुखों की जड़ें
नदी पार कराते केवटों का डेरालाल चोंच वाले पंछी 15
खोज ले जाते हैं घर के किवाड़ में लगी किल्लियां
जिनके सहारे हम रात भर सपनों में डूबे रहते हैं
इस बाजारू सभ्यता में भी
उनका आना
एक अंतहीन सिलसिला है समाचारों का
उनके आते ही हम
खबरों के कमलदह में तैरने लगते हैं
अनसुने रागों में आलाप भरते हुए।

चिड़ीमार

जब काका हल-बैल लेकर
चले जायेंगे खेत की ओर
वे आयेंगे
और टिड्डियों की तरह पसर जायेंगे
रात के गहराते घुप्प अंधरे में
आयेगी पिछवारे से कोई चीख
वे आयेंगे
और पूरा गांव पफौजी छावनी में बदल जायेगा
खरीदेंगे पिता जब बाजार से
खाद की बोरियां
वे आयेंगे
बोरियों से निकलकर सहज ही
और हमारे सपने एक-एक कर टूट बिखर जायेंगे
वे आ सकते हैं
कभी भी
सांझ-सवेरे
रात-बिरात
वे आयेंगे
तो बुहार के जायेंगे हमारी खुशियां
हमारे ख्वाब
हमारी नींदें
वे आयेंगे
तो सहम जायेगा जायेगा नीम का पेड़
वे आयेंगे
तो भागने लगेंगी गिलहरियां
पूंछ दबाये
वे आएँगे
तो निचोड़ ले जायेंगे
तेरे भीतर का गीलापन भी
कभी देखोगे
पिफर आयेंगे चिड़ीमार
और पकड़ ले जायेंगे कचबचिया चिरैयों को
जो पफुदक रही होंगी डालियों पर।

लुटेरे

अब कभी नजर नहीं आते
भयानक पहले की तरह लुटेरे
काले घोड़े पर आरूढ़
और आग बरसाती हुई आंखें
वे पफैल गये हैं नेनुआं की लताओं-सी
हमारी कोशिकाओं में
नहीं दिखती उनके हाथों में कोई नंगी तलवार
कड़ाके की आवाज
कहीं खो गई है शायद इतिहास के पन्ने में
लुटेरे चले आते हैं चुपके
लदे बस्ते में बच्चों की पीठ पर
घुसपैठ करते हैं
चाय की घूंट के साथ हमारे भीतर-और-भीतर
इनसे अब कोई नहीं डरता
मुसीबत में भी
ये हमारे दोस्त बन रहे होते हैं
सुखद होता है कितना दिखना इनके साथ
इनके साथ हाथ मिलाना
होता है आत्मीयता का परिचायक
लुटेरे सड़कों पर नहीं दिखते
सुनाई नहीं दे रही
उनके घोड़े की कहीं टाप
वे उतर आये हैं हमारे चेहरे पर
जब सुबह की ताजी हवा
सरसराने को होती..।

अंगूठा छाप औरतों के लिए विदा-गीत

जब बुदबुदा जाती हवाएं आतुर कंठ से
कि हो रहा है आषाढ़ का शुभागमन
उठने लगतीं सूखी हुई आंध्यिां
अरराने लगता कलूटा दखिनहा पहाड़
टूट-बिखरने लगते अंगने में तुलसी के मंजर
गांव का हर कोना शोर में डूबने लगता
कठिन पलों में भी उबलती हुई गाती रहती
गाती रहती गुस्सैल मनोभावों से
मेघों की गुहार में मंगल गीत
थामे हुए थकान पूरे साल की
खेतों से खलिहान तक हाथे-माथे
मेरे गांव की अंगूठा छाप औरतें
उतरने लगता सूरज उनींदी झपकियों के झीने जाल में
वे गाने लगतीं
हवा के हिंडोले पर बैठकर तैरने लगती पक्षियों की वक्र पंक्तियां
वे गाने लगतीं
गाने लगती तेज चलती हुई लू में चंवर डुलाती हुई
उनके गीतों में अनायास ही उभर जाते
साहूकार के तगादे में अंटते जाते पुरुखों के खेत
कर्ज में डूबते दिखते बगीचे के सखुआ-आम
बह जाते पानी की तेज धर में सपनों के ऐरावत
उनके जाते ही थरथराने लगते तूत के पत्ते
शुरु हो जाता गौरेयों का क्रंदन
पफटने लगती सीवान का छाती
भहराई हुई गलियां भी भेंट करने दौड़ जातीं
जैसे कि फूट पड़ा हो ध्रती का आदिम-राग।

धूमकेतु 

उसके टुकड़े तेज धर बरछी की तरह
चले आ रहे हैं हमारी ओर
देखना मुन्ना
अभी टकरायेगा वह धूमकेतु
हमारी ध्रती से
और हम चूर-चूर हो जायेंगे
चांद-तारों के पार से
अक्सर ही आ जाता है धूमकेतु
और सोख ले जाता है हमारी जेबों की नमी
बाज की तरह फैले उसके पंजे
दबोच लेना चाहते हैं जब हमारी गर्दनें
पड़ जाता है अकाल
बुहार ले जाती है सबको महामारी
और गइया के थन झुराये-से
बिलखने लगते हैं बच्चे
कौवा नहीं उचरता हमारे छज्जे पर
सुगना बंद कर देता है गाना
हमारी जीभ भी पटपटाने लगती है
ऐसे नहीं आता धूमकेतु
ले आता है सदियों पुराना दस्तावेज
जिसमें मिल्कीयत लिखी होती है पृथ्वी
उसी के नाम
साथ लाता है मंदाकिनियां
और पद्मिनियां भी
जलते हुए ज्वालामुखी के क्रेटर-सा
खोज करता है कोई बारूदी सुरंग
हजारों परमाणु बमों का
परीक्षण कर रहा था वह अंतरिक्ष में
अब तुरंत आयेगा
हमारी ओर
अपने लश्करों के साथ
जितना हो सके अब
बचाना मुन्ना मेरी यादें
अपना गांव, अपनी हंसी
और दादी मां की कहानियां
बचाना
बस नुकीली चीख की ही तो देर है।

जंगलिया बाबा का पुल

जेठ की अलसायी धूप में
जब कोई बछड़ा
भूल जाता है अपना चारागाह
तो जम्हाई लेने को मुंह उठाते ही
उसे दिख जाता है
सपफेद हंस-सा धुला हुआ
हवा में तैरता जंगलिया बाबा का पुल
दादी अक्सर ही कहा करतीं
कि उनके आने के पूर्व ही
बलुअट हो गयी थी यह नदी
और धीरे-धीरे छितराता हुआ जंगल भी
सरकता गया क्षितिज की ओट में
स्मृति शेष बना यह पुल
कारामात नहीं है मात्रा
जिसकी पीठ पर पैरों को अपने
ओकाचते हुए हम
भारी थका-मांदा चेहरा लिए
लौट आते हैं अपने सीलन भरे कमरे में
जब कभी उबलती है नदी
तो कई बित्ता उपर उठ जाता है यह पुल
और देखते-देखते
उड़ते-घुमड़ते बादलों के बीच जा
चीखने लगता है
क्या सुनी है आपने
किसी पुल के चीखने की आवाज?
कौंध्ती चीख
जो कानों में पड़ते ही
चदरें पफाड़ देती है
यह मिली-जुली चीख
है बंधुओं
जो हरे-भरे खेत को महाजन के हाथों
रेहन रखते हुए किसान की
और नेपथ्य की घंटी बजते ही
दरक जाते जीवन-मूल्यों की होती है।

पल भर के लिए

पल भर के लिए
नहीं थी उनके लिए
कोई टाट की झोपड़ी
या फूस-मूंजों के घोंसले
वे पंछी नहीं थे
या, कोई पेड़-पौधे
हल जोतकर लौटते हुए मजदूर थे
टूट-बिखर कर गिरते हैं
जैसे पुआलों के छज्जे
ध्माकों से उसी तरह
वे पसर गये थे
पोखरे के किनारे पर
ओह! पल भर के लिए
ईख में के छुपे दैत्य
बंद कर दिये होते अपनी बंदूक
वे कुछ भी हो गये होते
आंधी-पानी या खर-पात
जरा-सा के लिए भी
अगर छा गया होता धुंध्लका

इंतजार 

थका-हारा आदमी
जब भी कभी भारी टोकरी लादे
समीप आने लगता
उसे देखकर न जाने क्यों
घरघराने लगता है
बांस का पुल
मेरे गांव का।

तस्वीर

हाथी के दांत
देखे जा सकते थे चिड़ियाघरों के
अंधेरे में डूबी कंदराओं में
बहाना कुछ भी हो सकता था
कैमरे ताने अपलक खड़े थे लोग
डरी-सहमी और खिली आंखें
अवाक्!
बड़े सुलझाने में लगे थे
अतीत के खाये-पफंसे धगे
हम छान आये थे
स्कूल के जमाने की दुबकी स्मृतियां
औचक खड़े थे बच्चे
अगले युग की पुस्तकों में
उन्हें देखनी थी इन
उजले दांतों की तस्वीर।

धुन

मटमैला अंधेरा
घेरा बनाता मौन था
पक्षियों की तड़फड़ाहट से
सूर्यग्रहण के पुराने किस्सों की ताजगी में
डूबता जा रहा था आकाश
बूंदा-बांदी की घड़ी
बेहाथ हो चली थी
कांप रही थी जौ की बालियां
पेड़ भूल रहे थे पतझड़ का मौसम
सारंगी धुन पर
कोई सुबह से ही बैठा गा रहा था
फसलों का धीमा संगीत।

कथन

आसान तो बिल्कुल नहीं
पार हो जाना खिड़कियों से
टहलता चांद अब दुबका था
काले बादलों के मेले में खोया
ट्रापिफकों का शोर
खुरच देता मौसम का गुनगुना स्वभाव
बसों में हिचकोले खाती
टूट चुकी होती सुबह की भूखी नींद।
घर गांव से दूर भी हो सकता था
जैसे दीखता है अकेले पटिये पर
पसरा बांस का किला
पहाड़ तोड़ते बारूद की चमक से
बचाया जा सकता था आंख-कान
सुना जा सकता था
बीहड़ घाटियों में मचा चिड़ियों का शोर
ठेकेदार के कुत्तों से
छिपायी जा सकती थी दो जून की रोटियां
खेला जा सकता था
धूल-कीचड़ में सने बचपन में खेल
घिसते-पिटते पत्थरों की दुनिया से
लौटा जा सकता था किसी भी रात।

धूसर मिट्टी की जोत में

पहाड़ों की निर्जन ढलानों से उतरना
कोई अनहोनी नहीं थी उनके लिए
बीड़ी फूंकते मजदूरों की ओर
मुड़ जाती थी फावड़ों की तीखी धर
सरपतों के घने जंगल में दुबके
मटमैले गांवों की गरमाहट से
सांझ दुबकती जाती उंगलियां गिनते
चटखने लगती गलियां
बिच्छुओं के डंक टूगते ही
आसमानी जिस्म पर्दों की ओट में कांपने लगता ।।
छंटने लगती धुंध्ली बस्तियों की
सदियों से लिपटी स्याही
चिड़ियों के चोंच दौड़ जाते
बीछने वन खेतों में उगी मनियां
धूसर मिट्टी की जोत में
अंकुरण का चक्र फिर घूमने लगता।

लाल चोंच वाले पंछी(कविता)

नवंबर के ढलते दिन की
सर्दियों की कोख से
चले आते हैं ये पंछी
शुरु हो जाती है जब धन की कटनी
वे नदी किनारे आलाप भर रहे होते हैं
लाल चोंच वाला उनका रंग
अटक गया है बबूल की पत्ती पर
सांझ उतरते ही
वे दौड़ते हैं आकाश की ओर
उनकी चिल्लाहट से
गूंज उठता है बधर
और लाल रंग उड़कर चला आता है
हमारे सूख चुके कपड़ों में
चुन रहे खेतों की बालियां
तैरते हुए पानी की तेज धर में
पहचान चुके होते हैं अनचिन्ही पगडंडियां
स्याह होता गांव
और सतफोड़वा पोखरे का मिठास भरा पानी
चमकती हैं उनकी चोंच
जैसे दहक रहा हो टेसू का जंगल
मानो ललाई ले रहा हो पूरब का भाल
झुटपुटा छाते ही जैसे
चिड़ीदह में पंछियों के
टूट पड़ते ही
लाल रंगों के रेले से उमड़ आता है घोसला

पौधे 

जैसे पौधे झुकते हैं
हदस के मारे
चाहे लाख दो
खाद-पानी
कभी-कभी साहस की कमी से भी
कुनमुना नहीं पाते हैं पौधे
दिन-ब-दिन
गहराती जाती सांझ की स्याही के
भीतर तक पसारते हैं अपनी जड़े
वे उगते हैं
पत्थरों पर हरी दुबिया की तरह
हमारे अनिश्चितता के
पसरे कुहरे के बीच में
लालसा की तरह उगते हैं पौधे।

बदलाव 

गांव तक सड़क
आ गई
गांव वाले
शहर चले गये।

विटप तरु 

विटप तरु
दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं था अंध्ड़ का
लेकिन वह पास थी
नालियों में खर-पातों से साथ बहती हुई
बिल्कुल करीब पहुंची थी
रेड़ के पौधे की जड़ों में
उसकी बस्ती में तूपफान जैसी
शैतानी आत्माओं का बोलबाला था
स्यारों की रूदन
सरसराने लगती थी कानों में
बांसों, पुआलों और सूखे पत्तों की खड़खड़ाहटों में
बिखरता जा रहा था समूचा वजूद
लेकिन वह पास ही थी
धरती के अंदर भी/या, ठीक हमारे पार्श्व में
जहां छिपे होते हैं भविष्य के कुहरे में बीज
वहीं उगा होता है वर्तमान का विटप तरु।

अंधेरी दौड़ में

रेतीली महलें
जूझ रही हैं आंध्यिों से
खड़खड़ा रही हैं अब भी खिड़कियां
ध्क्कमधुकी में चड़चड़ा रहे हैं
कमरों को टिकाये सारे दरवाजे
अपनी बाहों के सहारे
समय की तमाम मर्यादाओं के साथ
प्रलय की इस अंधेरी दौड़ में
आते-जाते रहते हैं हम सब भी
अपने कलेजे के टभकते सवालों के द्वंद्व में।

कोचानो नदी

1

फटने लगतीं सरेहों की छातियां
डंकरने लगतीं
बधर में चरती हुई प्यासी गायें
कोचानो के घाव तब टीसने लगते
जेठ की तपती दुपहरी में
जब होहकारने लगती लू
चू-पसर आती आंसू की पतली धर
कीच-काच से सूखे घाट भर जाते
हमें अचरज होता
तट के वृक्ष भी विद्रोही भाव में खड़े दीखते
रिसते हुए पानी पी
कैसे जीयेंगी मछलियां
लोग कैसे तैर पायेंगे?
ये सवाल
रूधें गले में फंसे जाते
होने लगती थी जब कभी अंबाझोर बारिश
बाढ़ में सोपह हो जाती थीं पफसलें
उखड़ जाते थे
जामुन और गूलर के पेड़
गायब हो जाती थी दिन-दुपहरिया
तटों पर उगी
कंटीले बबूल की झलांस
दहा जाते थे शैवाल और जलकुंभी के रेले
तो भी उग आता था जीवन
यंत्राणाओं से भरे उस युग में भी
मिल ही जाती थी
सांस भर लेने की कोई सुराख
बहने लगती थी नदी
दूर जाते ही गांव से
तीखी धर वन हमारी ध्मनियों में।

2

पड़ाव से उतरते ही
जाने लगता किसी अनचिन्ही बस्ती में
घने बगीचे की टेढ़ी-मेढ़ी
राहों की दिशा में पांव पड़ते ही
बोल पड़ते लोग
‘कहां है भाई साहब का मकान?’
और पोंछने लगते
यात्रा भर की थकान अपनी मुस्कानों से
आगे बढ़ते ही मिल जाता
लाल चोंच वाले पंछी 43
हंसता हुआ कोचानो का कगार
झुरमुटों में टंगे दीखते बया के घोसले
चिड़ियों के झुंड पंख पसारे
चले जाते अमृत पफलों के बाग में
जहां बाजार के कोलाहल की
गंध् तक नहीं जा पाती।

3

झींगा मछली की पीठ पर
तैरती नदी में
नहा रहे थे कुछ लोग
कुछ लोग जा रहे थे
काटने गेहूं की बालियां
पेड़ों की ओट में
अपना सिर खुजलाते
देख रहे थे तमाशा
कुछ लोग
सूरज के उगने
दिन चढ़ने
और झुरमुटों में दुबकने की घड़ी
कंघों पर लादे उम्मीदों का आसमान
पूरा गांव ही तन आया था
उनके भीतर
जो खोज रहे होते थे
कोचानो का रोज बदलता हेलान
क्षितिज की तरफ वह
आवाज भर रहा है अंध
आंखों से दीख नहीं रहा उसे कुछ भीद्ध
कुछ लोग चले जा रहे थे तेज कदम
जिध्र लिपटते धुंध् से
उबिया रहा था उसके
नदी पार का गांव।

4

खिड़की से तैरती
आ रही है बधवे की आवाज
ये मंगलकामनाएं नहीं हैं मात्रा
शायद रची जा रही हों
विकल्प काल की अग्नि)चाएं
पत्तों में दुबके हैं चूजे
अनंत आकाश
छिना जा रहा है परिन्दों के पंखों से
ठचके बस यात्रियों से
छिना जा रहा है सरो-सामान
लोगों से घर-बार छिना जा रहा है
चला आ रहा है
आडियो-विडियो गेम का कर्णभेदी संगीत
सिमटती जा रही है बच्चों की
कॉमिक्स-बुक्स और जंगली होते स्कूल में पूरी दुनिया
लाल चोंच वाले पंछी 45
देखो-दूर उध्र हवा में लटका
झूल रहा है रावण का अध्जला पुतला
कहीं दुहराई न जाए पिफर से
लंका कांड की पुरानी पड़ चुकी रीलें
धुप्प अंध्यिारे में भी
चले जा रहे हैं वे लोग
डूबकियां लगाने कोचानो का गांव
हम भी चलें बंधु…
अब चिड़िया चहचहाने लगी है
हमारी प्रतीक्षा में।

5

डर जाता हूं चौंककर गहरी नींद मंे
कि कहीं रातोंरात पाट न दे कोई
मेरे बीच गांव में बहती हुई नदी को
लंबे चौड़े नालों में बंद करके
बिखेर दे उफपरी सतह पर
भुरभुरी मिट्टी की परतें
जिस पर उग आये
बबूल की घनी झाड़ियां
नरकटों की सघन गांछे…
सुबह पिफराकित करने वाले लोग
खोजते रह जायेंगे नदी के कछार
चकरायेंगे देखकर वहां काक भगौआ
और जंगल में स्यारों की असंख्य मांदें
46 लाल चोंच वाले पंछी
हकसे-प्यासे पंडुक-समूह
पहाड़ों से उतरेंगे दिन तपते ही
सोते की तलाश में खुरेचेंगे जमीन
अथाह तप्त जल राशि में पकती
मछलियों की भींनी गंध्
और कंटीले पेड़ों से जूझते हुए
बहा देंगे अपने रक्त की वैतरणी
कीचड़ में लोटने आयेंगी भैंसें
जब जल रहा होगा सूरज
ठीक हमारे सिर के उफपर
और नीलगायों के झुंड में
बिला जायेंगी वे अनायास ही
जायेंगे हम कभी उस दुर्गम वन में
अपनी लग्गी से तोड़ लायेंगे दातून
जिस पेड़ में नदी का पानी
पग धेते बहता हुआ
चढ़ आया होगा उसकी फूल-पत्तियों तक
तब कोचानो हमारे दांतों के बीच नाचेगी
और हमारी शिराओं में भी
भागने लगेगी अपनी पूरी विराटता के साथ
घुमाव लेती हुई नीम अंधेरे में।

सिंयर-बझवा

दौड़ रहे हैं उनके पांव
समय के हाशिए की पीठ पर
वे सियर-बझवे हैं
शिकारी कुत्तों के साथ उछलते हुए
जैसे कोई प्रश्न प्रतीक
घुल गये हैं उनके शब्द
स्यारों की संगीत में
उनके चिकरते ही
फूट पड़ती है आदिम मानुष की
धूमिल होती स्वरलहरियां
जो गड्डमड्ड हो चुकी हैं
अनगढ़ी सभ्यताओं से रगड़ खा के
खोता जा रहा है मकई और ईख के खेतों में
उनकी पदचाप
रात गये स्यारों की आवाज
सीवाने पर अब भी
सिसकियों की ओस में भिनती रहती हैं
जैसे खामोशी में दपफन होती
चट्टानी खेतों की कब्र में
अनायास ही चले जा रहे हों सियर-बझवे

गांव बचना 

बचना मेरे गांव
बाढ़ में डूबते
ओस में भींगते हुए बचना
बच्चों की खिली आंख में
खेतों की उगी घास में
गांव बचना
ताकि हदस न जाये नीम का पत्ता-पत्ता
उजड़ न जाये सुगिया का महकता बाग
भस न जाये कुओं की चौड़ी जगत
मेरे प्यारे गांव!
मलय पवनों के साथ
आ रहीं विषध्र हवाओं से बचना
मेरे लौटने तक
सबको नींद में डराते हुए
हजार बांहों वाले दैत्यों से बचना
बचना बूढ़ों की जलती हुई भूख में
बोझ ढोती औरतों की प्यास में
गांव बचना
कि इस युग में कुछ भी नहीं बचने वाला
माटी कोड़ती
सुहागिनों के मंगल-गीत में बचना
बचना दुल्हिन की
चमकती हुई मांग में
बचना
जैसे बच जाती हैं सात पुश्तों के बाद भी
धुंध्ली होती पूर्वजों की जड़ें!।

लाठी

घर की किवाड़ के ठीक सटे
खड़ी है एक टिकी लाठी
जो पल्ला खुलते ही
जोर से थरथराने लगती है
पिता पूजते थे
इस लाठी को
बीज बोने से पहले
और चल देते थे निडर होकर
रात-बिरात
इसको देखते ही
अभर आता है उनका थका हुआ चेहरा
छूते ही मचल उठता है
मेरा छुटपन
शान है यह लाठी
पिता की खिली हुई मूछों की तरह
जिसमें खोजता हूं
मकई के दानें
पगडंडियों की धूल
कुओं की मिठास
और चिड़ियों की चहचहाकट
खिड़की खोलते ही
नदी की ओर से आता है एक झोंका
पिफर तो हमारी नींद में भी
बजने लगती है यह लाठी
कितने काम आती है यह
सबसे बुरे दिनों में भी
जैसे छेद रहा हो
अभावों से भरा हुआ अनंत आसमान
हम सबकी नींव टिकी है
बस इस पर ही
हटते ही इसके यह घर-बार
खंडहर-शेष बच जायेगा
पर कमजोर है यह इतना
जिससे अब की नहीं जा सकती
कभी भी फसलों की रखवाली।

रास्ते 

डाले जा चुके खत
डाक की पेटियों में
कल चले जाएंगे वे संवेदित स्वर
पूरब जंघाओं के लाल चीरे से निकलते
तुम्हारे खेत की मेड़ों पर
बादल फुदके होंगे धन वाले
पनीवट की राह में
उछल आये होंगे
जैसे उतावले थे मंडियां जाने को घरों से
निकले किसी दिन चावल के बोरे
मत हकलाना तुम
घूमते हुए मेरे गांव की संकरी गलियां
लौटेंगे कभी उजाले के आस-पास
जैसे दुनिया की सबसे लंबी पगडंडी से
गुजरता रोज सुबह सूरज
उग ही आता है मेरे तिकोन वाले खेत के बीच।

धीमे-धीमे 

दूध के दांत का टूटना
सतह पर पसरी दूबों के गले में
बांधने का पुराना खेल था
पुराने किस्से थे नानी के गांव के
ईख की धरदार पत्तियों के बीच डूबती
खेतों की मेड़ें कभी न बन सकने वाली
सीमायें थीं सीवानों के बीचों-बीच
सीना ताने ज्वार के पौधे थे
झलांसों की खेती
न उपजने का आधर थी
कई-कई सालों तक
अधभूखे लोग थे, पेट जलने की
चिंताएं घास चरने गई थीं उन दिनों
उन दिनों चमगादड़ों का चीखना
अपसकुन का संकेत नहीं माना जाता
नहीं की जाती आशाओं में हेरा-फेरी
बबुरी वनों की निपट अहेरी
बेकार की बातें नहीं थीं
लहरों से जूझते समुद्री गांवों में
बच्चों का खोना खेल नहीं माना जाता
कोमल धगों के संबंध
बिखरे नहीं थे उन दिनों
बुझी नहीं थी दीया-बाती की
जलती-तपती लपटें
तब धीमे-धीमे चलते थे लोग
धीमे-धीमे पौधे बढ़ते थे
आंधी धीमे-धीमे चलती थी

पुकार 

चोर बत्तियां घूम गयी थीं
फूस की झुग्गियों की राह में
चले आये थे बच्चे
बधर के कामों से लौटकर
चांद उगा नहीं था
करीब-करीब उगने को था
काली माई के चबूतरे पर खड़े
नीम की पुलुईं पर
कबूतरों के जोड़े
बझ गये थे दानें टोहने की होड़ में
बैलों की घंटियां टुनटुना रही थीं लगातार
टूटता जा रहा था नादों में पसरा
निस्तब्ध्ता का जाल
चिड़ियों के बोल गुम थे
बेआवाज था पत्तों का टूटना
खेतों में पसरा पानी लाल हो चुका था
पश्चिमाकाश के सामने
हरियाली सिकुड़ती जा रही थी
झाड़-पफुनूस की लताओं में बुझती-सी
पुकार उठी थीं धरती की थनें
जैसे गोहरा रही हो मां की घुटती हुई रूह
घुमड़ो आकाश!
रेत होती नदियों में बह निकले कागज की नाव
जुड़ा जाये छाती देखकर पेड़ों की हरीतिमा।

परिदृश्य

आवाज भरने तक
बच्चों के अधखिले होंठ
कंपकपा जाते थे, गायों की थनें
बादलों वाली रात में चौड़ी हो जाती
खेखरों की आवाजों से
गहन शून्य में पफटने लगते थे कान
आलू बोने दिन
ढलने ही वाले थे सर्दियों की शाम
अतिशीघ्र उतरने लगती, बेर की नन्हीं
पत्तियां डुलने लगतीं
बजने लगता अज्ञात कोने में झुरझुरा संगीत
हुक्के फूंकते ऊँघ रहे थे बूढे़
ओसारे की खाट पर पसरे हुए
मथ रहे थे बचपन की बुझी जोत से
गुनगुनी सुबह से उदास शाम तक की दंतकथाएंद्ध
दौड़ती बकरियों का अंकन था उनका स्मृति-रेख
बहकती दूर चली जाती दूर पेड़ों की ओट में
सींक-सा ओझल होता चांद तैरने लगता था
तितलियों के पंख बेताब होते थे
गांव था नहरों से घिरा हुआ
आतुर तैरने को पफुरगुदी चिरैया की शक्ल में
भावाकाश की नींद में खरांटे भरते हुए
घास काटती औरतें मुंह बाये
देख रही थीं हवा में उछलते
लाल-पीले पफतिंगों का मेला
दुध्मुहे नन्हें तेज कर रहे थे रोना-धेना
तेजी से भाग रहे दिनों की मानिन्द
देख रहे थे सिरपिफरे गवईं बदलते परिदृश्य
आकाशी सूंढ़ में लटके भाग रहे थे घर-द्वार
लोग-बाग गुम हो रहे थे अनजाने में दुबकते
मानों यूं ही चुपचाप!

गान 

चली आ रही शाम
अब डूबने को आया सूरज
सहमी हैं सीधी गलियां
कोने-कोने में
कर रहे हैं झींगुर-गान
गांव-गिरांव की नींद में
कुनमुनाते दीख रहे हैं बच्चे
मुडेरों पर उचर रहे थे कौवे
गा रहे थे खेतों के पास
कतारब लोग
कोई पराती गीत
अनसुना राग।

दुबकी बस्तियों की चिंताएं 

झांझर आसमान में चिड़ियों के पंख
उड़ान भरते ही बजने लगते थे
तेज चलती हवा के
झकोरों का चलना; हांफना तेज होने लगता
घरों की भित्तियों से टकराते हुए
मल्लाहों के गीत गूंज जाते, नाव सरकने लगती
मुड़ती दरियाव के झुकाव और खोती हुई उफंघती
नदी के किनारे की राह पकड़े
बहते पानी में चेहरा नापते बचपन के खोये झाग
बह चुके थे, कुओं में उचारे गये नाम
कुत्तों को काटने के किस्सों के साथ
पहुंचे थे जंगल घूमने की राह में
गर्मी में सूख चली नदी के बीच सिंदूर-आटे का लेप
चढ़ाना जारी रखा मां ने, बहनों की बामारियों की
खबरों को सूरज
रोज सुबह अपनी किरणों के साथ लाता
वन देनी के चबूतरे पर चढ़े प्रसाद
स्यारों के भाग माने जाते
गूंगी बस्तियों के लोग हल की मूठ पकड़े धन की जड़ों की
गीली सुगंध लेने आये मोरियों के धुप्प अंधेरे में बिला जाते
पतंग उड़ाने का भूत, कटी डोरियों में लिपटा हुआ
सारसों के गांव में ओझल हो चुका होता
पहेलियों में दुबकी बूढ़ों की कहानियां
सहेजते बच्चे कौड़ा की कुनकुनी चिनगारियों की टोह में
दूर देश चले जाते
सामने पड़े साल भर के रास्ते को छोड़
छमाही पथरीली पगडंडियां ही उनका साथ देतीं
घरों की परछांही लांघते धुरियाये पांव
सूतिका गृह के गंध् की ओर मुड़ जाते
वहां हमारा ठेठपन भी साथ दे रहा होता
तब होती पासऋ आंखों में चमकती हुई
पहाड़ी में दुबकी बस्तियों की
अंतहीन चिंताएं!।

उगो सूरज 

उगो सूरज
बबूल के घने जंगल में
गदरा जाये सारे फूल
महक उठे आम की बगिया
कूकने लगे कोइलर
भैंस चराने जाते हुए
चरवाहों की टिटकारी में
सूरज उगो
भोआर होती धन की बालों में
सूखी पड़ी बहन की गोद में उगो
सूरज ऐसे उगो!
छूट जाये पिता का सिकमी खेत
निपट जाये भाइयों का झगड़ा
बच जाये बारिश में डूबता हुआ घर
मां की उदास आंखों में
छलक पड़े खुशियों के आंसू
गंगा की तराई में
कोचानो के आस-पास
गूलर के छितराये हुए पेड़ों में उगो
सूरज उगो
ताकि मनगरा जाये
अभावों से झवंराया मेरा बदन
सुबह के झुरमुटों में
खेलते हुए सूरज!
कर दो ऐसा प्रकाश
कि चढ़ते अश्लेषा
ध्नखर खेतों में
मिलने लगे हमें भी सोना।

बदहवास सोये बूढ़े की कहानी

ठूंठे बरगद के नीचे सोया है वह बूढ़ा
चलती है जब गर्मियों की लू
हांपफने लगता जैसे लोहसांय में
कोई चला रहा हो भांथी
कह गई थी सांझ ढलते ही उसे सोनचिरैया
कि आयेगी भिनसारे में कभी ठंढ़ी बयार
दिन चढ़ते ही आयेगी
वह इंतजार में था गहुआ लगाये पड़ा हुआ
जैसे सिला करता हो धगे से
अपने निचाट खालीपन का जाला
पनबदरा चले जा रहे थे चुपचाप
वह लटका था सूई और धगे के बीच
समूचा दिन रेतों में दम तोड़ता हुआ चुप था
सभी चुप थे बूढ़े के बारे में
सांझ की तरह लाल कणिकाएं पफैलाकर
पूरा आकाश चुप था
मां बताती थीः मेरे जन्म के चार बरस पहले ही
चला आया था वह फटेहाल किसी दोपहरी में
यहीं जमीन के एक चकले पर बिता ली थी पूरी जिंदगी
बूढ़ा चुप था
और उसके हाथ करघे की तरह चलते थे बिन रोके-टोके
निकलती थी कुछ थरथराने की आवाज
जो पसरती हुई सीवान को लांघ जाती थी
वह इंतजार था रह-रहकर खांसता हुआ
पीली सरसों और गेहूं की बालियों के बीच मेड़ों पर बैठकर
देखता रह जाता था बटोहियों को जाते हुए देसावर
बस्ती के सारे भूगोल को वह आंखों से नाप लेता था
उसके चेहरे पर तैर आता दादी की
कहानियों का लाल बरन का कठघोड़वा
अमरूद के फलों से भरा हुआ बगीचा
चमक जाती आंखों की छोर से
पेड़ों से लदी हुई नदियों की कछार
जहां वह दौड़ा करता था
लथपथ और बदहवास।

प्रसंग

आजायबघर को देखते हुए
जब कभी आती हैं हमें झपकियां
चले जाते दूर कहीं दूर
बचपन के दिनों की
मां की कहानियों में
किसी दानव के अहाते में पैर रखते ही
थरथरा जाते राजकुमार के पांव
और हमारे भी
या कभी भाग जाते
मनिहारिन के गांव की
अंतहीन गलियों में
जहां बगल से गुजरती थी नदी
जिसमें डूबकियां लगाते ही खो जाया करते थे
नींद उचटते ही
बदल चुकी होती है पूरी दुनिया
हमारी पहचान खत्म हो चुकी होती है
हमें कोई काम नहीं मिल पा रहा होता
हमारे बच्चे भूल गये होते हैं
स्कूल से निकलते हुए
हमारी घरनियां लूट गयी होती हैं
कितनी झूठी आशाएं थीं
मां की वे कहानियां
सपफेद झूठ
जिनको आज संजोते वक्त
सपनों के मोती बिखर जाते हैं
अनायास ही।

अंखुवाती उम्मीद 

अपनी पीठ पर दुःखों के
पहाड़ लादे पिता
चले जाते हैं गंगा जल लाने
और गुम हो जाते हैं बीच राह ही
बनचरों के गांव से गुजरते हुए
दिन-रात बैठकर तब तक
अम्मा सेती रहती शालिग्राम की मूर्तियां
और रह-रह रो पड़ती फफक-फफककर!
मैं पोंछता रहता अपना पसीना
आंगन में छितराये तुलसी चौरा की
झींनी छांव में बैठकर
आवेदन-पत्रा पर फोटो चिपकाता हुआ
काश! ऐसा हो पाता
पिता लौट आते खुशहाल

मां की आंखों में पसर जाती
पकवान की सोंधी गंध
मेरी अंखुवाती उम्मीदों को मिल जाते
अंधेरे में भी टिमटिमाते तारे।

आत्म-कथ्य

देखोगे
किसी शाम के झुटपुटे में
चल दूंगा उस शहर की ओर
जिसे कोई नहीं जानता
दौड़ती हुई रेल के दरवाजे से
लगाऊँगा एक छलांग
और भूल जाऊँगा अपना गांव
खिड़की से झांकता हुआ कमरा
लोग खोज नहीं पाएँगे
कहीं भी मेरा अड़ान
नहीं मिलूंगा पहाड़ों की ओट में
नदी के पालने में झूलते हुए गांव की
गझिन गलियों में भी नहीं मिलूंगा
चाहे जितना भेद डालो
उड़ती हुई पतंगों से भरा-पूरा आसमान
मेरे बच्चे गिलहरियों की पूंछे थामे
मुझे खोजेंगे वन-वन रेती-रेती
बित्ते भर चौड़े नाले की तली
बबूलों से लदे दोआबे में भी खोजेंगे
जब चांद गोल बन रहा होगा
धधक रहा होगा क्षितिज का हर कोना
पक रही होंगी आमों की बौरें
मुझे खोजेंगे
श्मशान से लौटते हुए थके-हारे पांव
पहन लूंगा बाबा की मिरजई
ढूंढ लूंगा कहीं से मुरचाया हुआ बसूला
परिकथाओं से मांग लाऊँगा
वायु वेग का घोड़ा
और चल दूंगा उस अदृश्य शहर की ओर
जब सुबह-सुबह का कोहरा छंट रहा होगा।

खोज

तुम्हारे उगे हुए चेहरे पर
सुबह का उजाला
हमें दिखा था हर बार
जिसमें बच्चे अपनी मांओं के साथ
खोज रहे होते थे सपने
हम भी खोज रहे थे कुछ-न-कुछ
दूर कहीं सीवान पर
बाढ़ में घिरा हुआ अपना घर
जिसमें बने थे
हमारे सपनों को सजाने के लिए ताखें
पुरुखों की बटलोही भी अब
खो गई है तुम्हारे साथ
खो चुका है सपनों से भरा हुआ घर
और खोती जा रही हैं तुम्हारी यादें
कहीं इन्हीं जंगलों में खो गये थे तुम
इन जंगलों में तुम्हें खोजना ही होगा।

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