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लवली गोस्वामी की रचनाएँ

प्रेम पर फुटकर नोट्स- 1 

जिन्हें यात्राओं से प्रेम होता है
वे यात्री की तरह कम
फ़क़ीरों की तरह अधिक यात्रा करते हैं
जिन्हें स्त्रियों से प्रेम होता है
वे उनसे पुरुषों की तरह कम
स्त्रियों की तरह अधिक प्रेम करते हैं
प्रेम के रंगीन ग़लीचे की बुनावट में
अनिवार्य रूप से उधड़ना पैवस्त होता है
जैसे जन्म लेने के दिन से हम चुपचाप
मरने की ओर क़दम दर क़दम बढ़ते रहते हैं
वैसे ही अपनी दोपहरी चकाचौंध खोकर
धीरे- धीरे हर प्रेम सरकता रहता है
समाप्ति की गोधूलि की तरफ
टूटना नियति है प्रेम की
यह तो बिलकुल हो ही नहीं सकता
कि जिसने टूट कर प्रेम किया हो
वह अंततः न टूटा हो

प्रेम में लिए गए कुछ चिल्लर अवकाश
प्रेम टूट जाने से बचाने में मदद करते हैं
वह जो प्रेम में आपका ख़ुदा है
अगर अनमना होकर छुट्टी मांगे
तो यह समझना चाहिए
कि प्रेम के टूटने के दिन नज़दीक़ हैं
पर टूटना मुल्तवी की जाने की कोशिशें ज़ारी है

प्रेम आपको तोड़ता है
आपके रहस्य उजागर करने के लिए
बच्चा माटी के गुल्लक को यह जानकर भी तोड़ता है
कि उसके अंदर चंद सिक्कों के अलावा कुछ भी नहीं
यह तुम्हारे लिए तो कोई रहस्य भी नहीं था
कि मेरे अंदर कविताओं के अलावा कुछ भी नहीं
फिर भी तुमने मुझे तोडा

हम दोनों खानाबदोश घुमक्कड़ों के उस नियम को मानते थे
कि चलना बंद कर देने से आसमान में टंगा सूरज
नीचे गिर जाता है और मनुष्य का अस्तित्व मिट जाता है

आजकल लोग कोयले की खदानों में
ज़हरीली गैस जाँचने के लिए
इस्तेमाल होने वाले परिंदे की तरह
पिंजड़े में लेकर घूमते हैं प्रेम
ज़रा सा बढ़ा माहौल में ज़हर का असर
और परिंदे की लाश वहीं छोड़कर
आदमी हवा हो जाता है

कुछ लोगों में ग़ज़ब हुनर होता है
पल भर में कई साल झुठला देते हैं
फिर अनकहे की गाठें लगती रहती है
साल दर साल रिश्तों में और एक दिन
गाठें ही ले लेती है साथ की माला में
प्रेम के मनकों की जगह

प्रेम कभी पालतू कुत्ता नहीं हो पाता
जो समझ सके
आपका खीझकर चिल्लाना
आपका पुचकारना
आपका कोई भी आदेश
वह निरीह हिरन सी
पनैली आँखों वाला बनैला जीव है
आप उस पर चिल्लायेंगे
वह निरीहता से आपकी ओर ताकेगा
आप उसे समझदार समझ कर समझायेंगे
वह बैठ कर कान खुजायेगा
अंत में तंग आकर आप
उसे अपनी मौत मरने के लिए छोड़ जाएंगे

जब भी सर्दियाँ आती हैं मेरी इच्छा होती है
मैं सफ़ेद ध्रुवीय भालू में बदल जाऊँ
ऐसे सोऊँ की नामुराद सर्दियों के
ख़त्म होने पर ही मेरी नींद खुले
जब भी प्रेम दस्तक देता है द्वार पर
मैं चाहती हूँ मेरे कान बहरे हो जाएँ
कि सुन ही न सकूँ मैं इसके पक्ष में
दी जाने वाली कोई दलील
जो खूबसूरत शब्द हमसे बदला लेना चाहते हैं
वे हमारे छूट गए पिछले प्रेमियों के नाम बन जाते हैं

बाढ़ का पानी कोरी ज़मीं को डुबो कर लौट जाता है
धरती की देह पर फिर भी छूट जाते हैं तरलता के छोटे गह्वर
दुःख के कारणों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होता
बस एक – सा पानी होता है जो सहोदरपने के नियम निबाहता
उम्र भर दुःखों के सब गह्वरों में झिलमिलाता रहता है

भय कई तरह के होते हैं, लेकिन आदमियों में
कमजोर पड़ जाने का भय सबसे बलवान होता है
अंकुरित हो सकने वाले सेहतमंद बीज को
प्रकृति कड़े से कड़े खोल में छिपाती है
बीज को सींच कर अपना हुनर बताया जा सकता है
उसपर हथौड़ा मारकर अपनी बेवकूफी साबित कर सकते हैं
यों भी तमाम बेवकूफ़ियों को
ताक़त मानकर ख़ुश होना इन दिनों चलन में है

रोना चाहिए अपने प्रेम के अवसान पर
जैसे हम किसी सम्बन्धी की मौत पर रोते है
वरना मन में जमा पानी ज़हरीला हो जाता है
फिर वहाँ जो भी उतरता है उसकी मौत हो जाती है
त्यक्त गहरे कुऐं में उतर रहे मजदूर की तरह

तुम्हारी याद भी अजीब शै है
जब भी आती है कविता की शक़्ल में आती है

तुम किसी क्षण मरुस्थल थे. रेत का मरुस्थल नही. वह तो आंधियों की आवाजाही से आबाद भी रहता है. उसमे रेत पर फिसलता सा अक्सर दिख जाता है जीवन. तुम शीत का मरुस्थल थे जिसमे नीरवता का राग दिवस – रात्रि गूंजता था. तुमसे मिलने से पहले मैं समझती थी कि सिर्फ बारिश से भींगी और सींची गई धरती पर उगे घनघोर जंगल में ही कविता अपना मकान बनाना पसंद करती है, सिर्फ वहीं कविता अपनी आत्मा का सुख पाती है. तुमसे मिलकर मैंने जाना बर्फ के मरुस्थलों में भी निरंतर आकार लेता है सजीव लोक. शमशान सी फैली बर्फीली घाटियाँ भी कविता के लिए एकदम से अनुपयोगी नही होती. जीवन होता है वहाँ भी कफ़न सी सफ़ेद बर्फ़ानी चादर के अंदर सिकुड़ा और ठिठुरता हुआ. कुलबुलाते रंग – बिरंगे कीट – पतंगे न सही लेकिन सतह पर जमी बर्फ की पारभाषी परत के नीचे तरल में गुनगुनापन होड़ करता है जम जाने की निष्क्रियता के ख़िलाफ़. मछलियों के कोलाहल वहाँ भी भव्यता से मौजूद रहते हैं.

जिसे बस चुटकी भर दुःख मिला हो
वह उस ज़रा से दुःख को तम्बाकू की तरह
लुत्फ़ बढ़ाने के लिए बार – बार फेंटता मसलता है
जिसने असहनीय दुःख झेला हो वह टुकड़े भर सुख की स्मृतियों से
अनंत शताब्दियों तक हो रही दुःख की बरसात रोकता है
उस गरीब औरत की तरह जो जीवन भर शादी में मिली
चंद पोशाकों से हर त्यौहार में अपनी ग़रीबी छिपाती है
संतोष से अपना शौक़ श्रृंगार पूरा कर लेती है

सब कहाँ हो पाते हैं छायादार पेड़ों के भी साथी
कुछ उनकी छाल चीर कर उनमें डब्बे फंसा देते हैं
जिसमे वे पेड़ों का रक्त जमा करते हैं
दुनिया में दुःख के तमाशाई ही नहीं होते
यहाँ पीड़ा के कुछ सौदागर भी होते हैं

मैं प्रेम की राह पर सन्यासियों की तरह चलती हूँ
जीवन की राह पर मृत्यु द्वारा न्योते गए अतिथि की तरह

जिन गुफाओं में संग्रहित पानी तक
कभी रौशनी नहीं पहुँचती
वहाँ की मछलियों की आँखें नहीं होती
खूबसूरत जगहों में पैदा होने वाले कवि न भी हो पाएं
तब भी वे कविता से प्रेम कर बैठते हैं
अगर वे कवि हो ही जाएँ
तो दुनिया के सब बिंब उनकी कविता में
जंगल के चेहरों पर आने वाले अलग – अलग भावों के
अनुवाद में बदल जाते हैं

सोचती हूँ तुम्हारे मन के तल में जमा
काँच से पानी के वहाँ रखे नकार के पत्थरों में
क्या जमती होगी स्मृतियों की कोई हरी काई

मन के झिलमिलाते नमकीन सोते में हरापन कैसे कैद होगा
आखिर किस चोर दरवाजे से आती होगी वहाँ सूरज की ताज़ी रौशनी
जिसमें छलकती झिलमिलाती होंगी दबी इच्छाओं की चंचल मछलियाँ
बियाबान में टपकती बूंदों की लय क्या कोई संगीत बुन पाती होगी

नाज़ुक छुअन की सब स्मृतियाँ तरलता के चोर दरवाजे हैं
बीता प्रेम अगर तोड़ भी जाए तब भी उसकी झंकार
दूर तक पीछा करती है पुकारते और लुभाते हुए
जैसे आप रस्ते पर आगे बढ़ जाएँ तब भी
इस आशा में कि शायद आप लौट ही पड़ें
सड़क पर दुकान लगाये दुकानदार आपको आवाज देते रहते हैं

धरती पर पड़ी शुष्क पपड़ी जैसे भंगुर होते हैं मन के निषेध – पत्र
कोई हल्के नोक से चोट करे तो पपड़ी टूट कर
अंकुर बोने जितनी नमी की गुंजाईश मिल ही जाती है

अगली बार झिलमिलाते जल के लिए
कोई यात्री आपके पाषाण अवरोधों का ध्वंस करे
तो यह मानना भी बुरा नहीं कि कुछ चोटें अच्छी भी होती है
सूरज रौशनी के तेज़ सरकंडों से अँधेरे काटता है
बादलों की लबालब थैली भी आखिर
गर्म हवा का स्पर्श पाकर ही फटती है
जो सभ्यताएँ मुरझा जाती हैं
उन्हें आँख मटकाते बंजारे सरगर्मियाँ बख़्शते है
जंगलों की हरीतिमा अनावरण के
संकट के बावजूद किसी चित्रकार की राह देखती है

पत्थरों के अंदर बीज नहीं होते
लेकिन अगर वे बारिश में भींग गए हों
और वहाँ रोज धूप की जलन नहीं पहुँच रही हो
तब वहाँ भी उग ही आती है काई की कोई हरीतिमा

प्रेम पर फुटकर नोट्स – 2

डरना चाहिए खुद से जब कोई बार–बार आपकी कविताओं में आने लगे
कोई अधकहे वाक्य पूरे अधिकार से पूरा करे, और वह सही हो
यह चिन्ह हैं कि किसी ने आपकी आत्मा में घुसपैठ कर ली है
अब आत्मा जो प्रतिक्रिया करेगी उसे प्रेम कह कर उम्र भर रोएंगे आप
प्रेम में चूँकि कोई आज तक हँसता नहीं रह सका है

आग जलती जाती है और निगलती जाती है
उस लट्ठे को जिससे उसका अस्तित्व है
उम्र बढती जाती है और मिटाती जाती है
उस देह को जिसके साथ वह जन्मी होती है
बारिश की बूंदे बादलों से बनकर झरती हैं
बदले में बादलों को खाली कर देती हैं
प्रेम बढ़ता है और पीड़ा देता है
उन आत्माओं को जो उसके रचयिता होते हैं

एक सफेदी वह होती है जो बर्फानी लहर का रूप धर कर
सभी ज़िन्दा चीजों को अपनी बर्फीली कब्र में चिन जाती है
जिस क्षण तुम्हारी उँगलियों में फंसी मेरी उँगलियाँ छूटी
गीत गाती एक गौरय्या मेरे अंदर बर्फीली कब्र में
खुली चोंच ही दफ़न हो गई

एक बार प्रेम जब आपको सबसे गहरे छूकर
गुज़र जाता है आप फिर कभी वह नहीं हो पाते
जो कि आप प्रेम होने से पहले के दिनों में थे

हम दोनों स्मृतियों से बने आदमक़द ताबूत थे
हमारा ज़िन्दापन शव की तरह उन ताबूतों के अंदर
सफ़ेद पट्टियों में लिपटा पड़ा था
अपने ही मन की पथरीली गलियों के भीतर
हमारी शापित आत्माएँ अदृश्य घूमा करती थीं
यह तो हल नहीं होता कि हम प्रेम के
उन समयों को फिर से जी लेते
हल यह था कि हम मरे ही न होते
लेकिन यह हल भी दुनिया में हमारे
न होने की तरह सम्भव नहीं था

जीवन की ज़्यादतियों से अवश होकर
प्रेम को मरते छोड़ देने का दुःख
इलाज के लिए धन जुटाने में नाकाम होकर
संबधी को मरते देखने के दुःख जैसा होता है

दुःखों के दौर में जब पैर जवाब दे जाएँ
तो एक काम कीजिए धरती पर बैठ जाइये
ज़मीं पर ऐसे रखिये अपनी हथेलियाँ
जैसे कोई ह्रदय का स्पंदन पढ़ता है
मिट्टी दुःख धारण कर लेती है
बदले में वापस खड़े होने का साहस देती है

इन दिनों मैं मुसलसल इच्छाओं और दुखों के बारे में सोचती हूँ
उन बातों के होने की संभावना टटोलती हूँ, जो सचमुच कभी हो नहीं सकती

मसलन, आग जो जला देती है सब कुछ
क्या उसे नहाने की चाह नहीं होती होगी
मछलिओं को अपनी देह में धँसे कांटे
क्या कभी चुभते भी होंगे
जब प्यास लगती होगी समुद्र को
कैसे पीता होगा वह अपना ही नमकीन पानी
चन्द्रमा को अगर मन हो जाये गुनगुने स्पर्श में
बंध जाने का वह क्या करता होगा
सूरज को क्या चाँदनी की ठंडी छाँव की
दरकार नही होती होगी कभी

उसे देखती हूँ तो रौशनी के उस टुकड़े का
अकेलापन याद आता है
जो टूट गए किवाड़ के पल्ले से
बंद पड़ी अँधेरी कोठरी के फ़र्श पर गिरता है
अपने उन साथियों से अलग
जो पत्तों पर गिरकर उन्हें चटख रंगत देते हैं
इस रौशनी में हवा की वह बारीकियाँ भी नज़र आती हैं
जो झुंड में शामिल दूसरी रौशनियां नहीं दिखा पाती
ज़िन्दगी की बारीकियों को बेहतर समझना हो
तो उन लोगों से बात कीजिये जो अक्सर अकेले रहते हों

कभी-कभी मैं सोचती हूँ तो पाती हूँ कि
अधूरे छूटे प्रेम की कथा पानी के उस हिस्से के
तिलमिलाहट और दुख की कथा है
जो चढ़े ज्वार के समय समुद्र से दूर लैगूनों में छूट जाता है
महज़ नज़र भर की दूरी से समुद्र के पानी को
अपलक देखता वह हर वक़्त कलपता रहता है
तटबंधों के नियम से बंधा समुद्र चाहे तब भी
उस तक नहीं आ सकता,
वह समुद्र का ही छूटा हुआ एक हिस्सा है
जो वापिस समुद्र तक नहीं जा सकता
प्रेम में ज्वार के बाद दुखों और अलगाव का
मौसम आना तय होता है

लगातार गतिशील रहना हमेशा गुण ही हो ज़रूरी नहीं है
पानी का तेज़ बहाव सिर्फ धरती का श्रृंगार बिगाड़ता है
धरती के मन को भीतरी परतों तक रिस कर भिगो सके
इसके लिए पानी को एक जगह ठहरना पड़ता है
बिना ठहरे आप या तो रेस लगा सकते हैं
या हत्या कर सकते हैं, प्रेम नहीं कर सकते
जल्दबाज़ी में जब पानी धरती की सतह से बहकर निकल जाता है
वहाँ मौज़ूद स्वस्थ बीजों के उग पाने की
सब होनहारियाँ ज़ाया हो जाती हैं

प्रेम के सबसे गाढ़े दौर में जो लोग अलग हो जाते हैं अचानक
उनकी हँसी में उनकी आँखें कभी शामिल नहीं होती

कुछ दुःख बहुत छोटे और नुकीले होते हैं, ढूंढने से भी नहीं मिलते
सिर्फ मन की आँखों में किरकिरी की तरह रह-रह कर चुभते रहते हैं
न साफ़ देखने देते हैं, न आँखें बंद करने देते हैं

नयी कृति के लिए प्राप्त प्रशंसा से कलाकार
चार दिन भरा रहता है लबालब, पांचवें दिन
अपनी ही रचना को अवमानना की नज़र से देखता है
वे लोग भी गलत नहीं हैं जो प्रेम को कला कहते हैं

सुन्दरताओं की भी अपनी राजनीति होती है
सबसे ताक़तवर करुणा सबसे महीन सुंदरता के
नष्ट होने पर उपजती है
तभी तो तमाम कवि कविता को कालजयी बनाने के लिए
पक्षियों और हिरणों को मार देते हैं
ऐसे ही कुछ प्रेमी महान होने के
लोभ से आतंकित होकर प्रेम को मार देते हैं

एक दिन मैंने अपने मन के किसी हिस्से में
शीत से जमे तुम्हारे नाम के हिज्जे किये
दुःख के हिमखंड टूट कर आँखों के रास्ते
चमकदार गर्म पानी बनकर बह चले
जब से हम-तुम अर्थों में साँस लेने लगे
सुन्दर शब्द आत्मा खोकर मरघटों में जा बैठे

स्मृतियों और मुझमें कभी नही बनी
आधी उम्र तक मैं उन्हें मिटाती रही
बाक़ी बची आधी उम्र में उन्होंने मुझे मिटाया

मेरी कुछ इच्छाएँ अजीब भी थी
मैं हवा जैसा होना चाहती थी तुम्हारे लिए
तुम्हारी देह के रोम-रोम को
सुंदर साज़ की तरह छूकर गुज़रना मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी
मैं चाहती थी तुम वह घना पेड़ हो जाओ जिसकी पत्तियां
मेरे छूने पर लहलहाते हुए, गीत गायें

मैं तुम्हारे मन की पथरीली सी ज़मीन पर उगी
ज़िद्दी हरी घास का गुच्छा होना चाहती थी
जिसे अगर बल लगाकर उखाड़ा जाये तब भी
वह छोड़ जाये तुम्हारी आत्मा में
स्मृतियों की चंद अनभरी ख़राशें

लगातार घाव देने वाले प्रेम का टूटना
साथ चलते दुःख से राहत भी देता है
देखी है आपने कभी दर्द से चीखते कलपते
इंसान के चेहरे पर मौत से आई शांति
असहनीय पीड़ा में प्राण निकल जाना भी
दर्द से एक तरह की मुक्ति ही है

इन दिनों सपने हिरन हो गए हैं
और जीवन थाह-थाह कर क़दम रखता हाथी

एकांत में जलने के दृश्य
भव्य और मार्मिक होते हैं
गहन अँधेरे में बुर्ज़ तक जल रहे
अडिग खड़े किले की आग से
अधिक अवसादी जंगलों का
दावानल भी नहीं होता ।

शीत और प्रेम 

मेरे लिए प्रेम मौन के स्नायु में गूंजने वाला अविकल संगीत है
तुम्हारा मौन प्रेम के दस्तावेजों पर तुम्हारे अंगूठे की छाप है

रात का तीसरा प्रहर
कलाओं के संदेशवाहक का प्रहर होता है
जब सब दर्पण तुम्हारे चित्र में बदल जाते हैं
मै श्रृंगार छोड़ देती हूँ
जब सुन्दर चित्रों की सब रेखाएं
तुम्हारे माथे की झुर्रियों का रूप ले लेती हैं
मैं उष्ण सपनों के रंगीन ऊन पानी में बहाकर
सर्दी की प्रतीक्षा करती हूँ

सर्दियाँ यमराज की ऋतु है
सर्दियाँ पार करने के आशीर्वाद हमारी परम्परा हैं

  1. पश्येम शरदः शतम्
    1. जीवेम शरदः शतम्

मृत्यु का अर्थ देह से उष्णता का लोप है
तो शीत प्रेम का विलोम है
अक्सर सर्दियों में बर्फ के फूलों सा खिलता तुम्हारा प्रेम मेरी मृत्यु है

तुम मृत्यु के देवता हो
तुम्हारे कंठ का विष अब तुम्हारे अधरों पर हैं
तुम्हारे बाहुपाश यम के पाश हैं
सर्दियों में साँस-नली नित संकीर्ण होती जाती है
आओ कि आलिंगन में भर लो और स्वाँस थम जाये
न हो तो बस इतने धीरे से छू लो होंठ ही
कि प्राणों का अंत हो जाये

तुम मेरी बांसुरी हो
प्रकृतिरूपा दुर्गा की बाँसुरी
तुम में सांसों से सुर फ़ूँकती मैं
जानकर कितनी अनजान हूँ
छोर तक पहुँचते मेरी यह सुरीली साँस
संहार का निमंत्रण बन जायेगी

मेरे बालों में झाँकते सफ़ेद रेशम
जब तुम्हारे सीने पर बिखरेंगे
गहरे नील ताल के सफ़ेद राजहंसों में बदल जायेंगे
ताल, जिसे नानक ने छड़ी से छू दिया कभी न जमने के लिए
हंस, जो लोककथा में बिछड़ गए कभी न मिलने के लिए
मेरे प्रिय अभागे हरश्रृंगार इसी प्रहर खिलते हैं
सुबह से पहले झरने के लिए
सृष्टि के सब सुन्दर चित्र मेरा-तुम्हारा वियोग हैं

मेरे मोर पँख, कहाँ हो
मेरा जूडा अलंकार विहीन है
मेरी बांसुरी, मेरी सृष्टि लयहीन है।

जंगल 

बेतरतीब टहनियों के बीच लटके मकड़ियों के उलझे जाल
आकाश की फुसफुसाहट है जंगल के कानों में
धरती पर बिखरी पेड़ों की उथली उलझी जड़ें
उन फुसफुसाहटों के ठोस जवाब में लगते धरती के कहकहे हैं

आकाश की फुसफुसाहटों में न उलझकर
चालाक मकड़ियाँ उस पर कुनबा संजोती हैं
जो तितलियाँ दूर तक उड़ने के उत्साह में
नज़दीक़ लटके जाले नहीं देख पाती
वे पंखों से चिपक जाने वाली
लिसलिसी कानाफूसियों से हारकर मर जाती हैं

धरती की हँसी को नियामत समझकर
विनम्र छोटे कीट वहाँ अपनी विरासत बोते हैं
लेकिन उन अड़ियल बारासिंघों को सींग फँसा कर मरना पड़ता हैं
जो हँसी के ढाँचे को अनदेखा करते हैं

(2)

स्मृतियों से हम उतने ही परिचित होते हैं
जितना अपने सबसे गहरे प्रेम की अनुभूतियों से
पौधे धूप देखकर अपनी शाखाओं की दिशा तय कर लेते हैं
प्रेम के समर्थन के लिए सुदूर अतीत में कहीं स्मृतियाँ
अपनी तहों में वाज़िब हेर-फेर कर लेती हैं

हम प्रेम करते हैं या स्मृतियाँ बनाते हैं
यह बड़ा उलझा सवाल है
तभी तो हम केवल उनसे प्रेम करते हैं
जिनकी स्मृतियाँ हमारे पास पहले से होती हैं
या जिनके साथ हम आसानी से स्मृतियाँ बना सकें

(3)

जाता हुआ सूरज सब कलरवों की पीठ पर छुरा घोंप जाता है
गोधूलि की बेला आसमान में बिखरा दिवस का रक्त अगर शाम है
तो रौशनी की मूर्च्छा को लोग रात कहते हैं

जब वह उनींदी लाल आँखें खोलता मैं उसे सुबह कहती थी
जब अनमनापन उसकी गहरी काली आँखों के तले से
नक्षत्र भरे आकाश तक फैलता मेरी रात होती थी

(4)

टहनियों के बीच टंगे मकड़ियों के जालों के
बीच की खाली जगह से जंगल की आँखें मुझे घूरती हैं
मेरे कन्धों के रोम किसी अशरीरी की उपस्थिति से
चिहुँककर बार-बार पीछे देखते हैं

उन्हें शांत रहने को कहती मैं खुद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखती
ऐसे मुझे हमेशा यह लगता रहता है कि वह मुझसे कुछ ही दूर
बस वहीं खड़ा है जहाँ मैंने अंतिम दफ़ा उसे विदा कहा था

प्रेम में उसका मेरे पास न होना
कभी उसकी उपस्थिति का विलोम नहीं हो पाया
मुझे लौटते देखती उसकी नज़र को
मैं अब भी आँचल और केशों के साथ कन्धों से लिपटा पाती हूँ

(5)

हरे लहलहाते जंगलों में लाल-भूरी धरती फोड़कर
उग आये सफ़ेद बूटे जैसे मशरूम
मकड़ी के सघन जालों के बीच की खाली जगह से गिर गए जंगल के नेत्र गोलक है

जंगल हमेशा मुझे अविश्वास से देखता है
जैसे वह मेरा छूट गया आदिम प्रेमी है
जो अधिकार न रखते हुए भी यह ज़रूर जानना चाहता है
कि इन दिनों मैं क्या कर रही हूँ

अविश्वासों के जंगल में मैंने उसे हमेशा
लौट आने के भरोसे के साथ खोया था
वह मेरे पास से हमेशा न लौटने के भरोसे के साथ गया

(6)

मेघों की साज़िश भरी गुफ्तगू को बारिश कहेंगे
तो सब दामिनीयों को आकाश में चिपकी जोंक मान लेना पड़ेगा
उन्होंने सूरज का खून चूसा तभी तो उनमें प्रकाश है

आसमान के सब चमकीले सूरजों को चाहिए कि वे स्याह ईर्ष्यालु मेघों से बच कर चलें
मेघों के पास सूरज की रौशनी चूस कर चमकने वाली जोंकों की फ़ौज होती है
जो उनका साथ देने को रह-रह कर अपनी नुकीली धारदार हँसी माँजती है

कुछ लोग दामिनीयों जैसे चमकते हुए उत्साह से तुम्हारे जीवन में आएंगे
स्याह मेघों की फ़ौज के हरकारे बनकर
तुम दिखावटी चमक के इन शातिर नुमाइंदों से बचना
ये थोड़े समय तक झूठे उत्साह के भुलावे देकर
तुम्हारे भीतर की सब रौशनी चूस लेंगे ।

डर

मुझे ऊँचाई से कभी डर नही लगा तब के अलावा
जब मैंने रोप-वे में डिब्बेनुमा कोठरी से
खाई के तल की गहराई देखी

पहले तो मैं सालों तक उसकी चिट्ठियाँ खोल कर पढने से डरती रही
लेकिन फिर एक दिन मैंने खतों में लिखे शब्द खुरचकर निकाले
उन्हें भिगोया और एक गमले में बो दिया

उनमें अंकुर फूटे
वैजयंती मोती जैसे चमकीले बूटे फले
तब मैं यह रहस्य समझी
कि शिव के आँसू पेड़ पर कैसे लगते हैं

पनीली चमक लिए
इन मोतियों को कविता में पिरोते
दुःख की अतल खाई को मैंने
आकाश में बदलते देखा

वे चिट्ठियाँ सफ़ेद पंखों की शक़्ल में
मेरे कंधों पर उग आयीं
फिर कभी मुझे रोप वे की कोठरी से नीचे
खाई का तल देखने पर भय नहीं महसूस हुआ।

एक बेहद मामूली प्रेम-कथा 

मेरा मन बर्फीली घाटी का वह रास्ता था
जिससे या तो वे भिक्षु गुजरे
जिन्हें लौटना सिखाया ही नहीं गया था
या फिर वे व्यापारी बंजारे जिनका मक़सद
बाज़ार तक जाने वाले नए रास्ते तलाशना था

बंजारों ने मुझे बेकार बीहड़ कहा
वे बसावटों में दुकानदारी जमाने के लिए कटने-मरने लगे
दुनियादार ज्ञानियों ने मुझे नज़र बांधने वाली माया कहा
वे भीड़ जमाकर पत्थर पूजने लगे
तुम्हें देखकर मैंने जाना बीहड़ में
सिर्फ वे बसते हैं जो ख़ुद बहिष्कृत होते हैं

जीवन ने मुझे यह सिखाया
अगर मन नीरव बर्फीले पड़ावों सा हो
तो बसावटों का मोह नहीं करना चाहिए

वे लोग गलत होते हैं जो मानते हैं
कि यात्रा की स्मृतियाँ
केवल यात्रियों के पास होती है।

उसका मन 

उसकी मुस्कराहट परतदार समुद्री लहरों जैसी थी
होंठों के कोर से खुद को छुआ कर लौटती
आवाजाही का वह खेल खेलती
जो बिल्लियाँ अपने मालिकों से खेलती है

जब वह भरपूर पुलक से मुस्कुराता था
उसकी नाक के दोनों तरफ गालों की पेशियाँ ऐसे उमगती थीं
जैसे उड़ने से ठीक पहले पक्षी डैने फुलकाते हैं

हरे बाँस की बाँसुरी से नवयौवना दुर्गा
आश्विन की हवा के सुर फूंकती सी लगती थी
जब सफ़ेद फूली कांसी के कुंज उसकी हंसी में लहलहाते थे

मैं ज़रा सी फूँक मारकर अगर उड़ा देती
उसके चेहरे से अवसाद की स्याह राख
तो नारंगी लपटों का सधा हुआ नृत्य थी उसकी हँसी

उसका मन हरा था, मन के घाव भी हरे थे
एक हरापन उसकी देह में भी था, वह सिहरता था
देह में सरसों की पीली बाड़ी फूटती थी

उसका मेरे साथ होना दरवाजे के दो पल्लों का साथ होना था
एक दूसरे की उँगलियों में फँसी उँगलियाँ हलके से छोड़कर
हम अपने बीच से लोगों को आवाजाही करने देते थे

उसका मेरे साथ होना द्वार के दोनों ओर लगे
सजावटी अशोक के हमउम्र पेड़ों का साथ होनाथा
जिनपर झांझ, बरसात वसंत सब एक जैसे असर करते थे

उसका मेरा साथ होना मोम और उसकी बाती का साथ होना था
वह तिल-तिल जलाता था
रौशनी फैलाने के नियम से बंधी मेरी काँपती सी साँसों की लौ
उसके साथ ही लगातार मिटती जाती थी

उसने ऐसे समेटा था अपने मन में मेरा प्रेम
जैसे वृंत से गिर जाने से पहले अंतिम दफा फूल
अपनी पंखुड़ियाँ समेटता है।

पतझड़

मैं उसकी देह में हलके दंतक्षतों से बोती रही अपना होना
उसकी सिहरनों में इच्छा बनकर उगती रही

उसकी देह को मैंने चुम्बनों के झरते निर्झर में गूँथ दिया
अपने न होने में उसके होंठो से हँसी बनकर झरती रही

यह सब इसलिए कि
एक दिन मुझे टूटकर अपने ही मन पर
शवों के सीने में लगे कब्र के पत्थर सा गड़ जाना था

नकार की ज़िदों से बनी सख़्त भीमकाय दीवारों पर
उगना था स्मृतियों के अवांछित पीपल सा

पतझड़ में पीले पत्तों का धरम निबाहते
डाल से यों ही झर जाना था बेसाख़्ता।

एक प्रेम कविता का सच

दुखों के कितने ही घाव जब एक साथ टीसते हैं
तब आँखों से अंजुरी भर खारा पानी बहता है

ढ़ाई ग़ज रेशम की चूनर कई इल्लियों की
जीवन भर की मेहनत का नतीजा है

फूलों की एक बड़ी माला में
पूरे बगीचे का वसंत कैद होता है

इसीलिए किसी कवि से कभी यह मत पूछना
कि वह फिर से प्रेम कविता कब लिखेगा

प्रेम की एक कविता ताल्लुक़ के
कई सालों का दस्तावेज़ है।

आलाप

वांछित का अभाव सारांश होता है स्मृतियों की किताब का
तमाम स्मृतियाँ “विदा” के एक अकेले शब्द की वसीयत होती हैं

हँसती आँखों के सूनेपन में
क़ैद हो गए वे यतीम दृश्य
जो घट न सके मेरे तुम्हारे बीच

कविता की शक्ल ले ली
उन बातों ने जो कही न जा सकीं

जिन हतभागी चित्रों में ढूँढा तुम्हें
वे समय के फ्रेम में न आ सके

जो आईने तुम्हारी शक़्ल गढ़ते थे
उनकी आँखें किसी अनंत देहधारी रात ने
अपनी हथेलियों से ढँक दी

फैसले कितने भी सही हों,
दुःख नही सुनता किसी की
मरे प्रेम की कब्र पर बैठ लगातार रोता है
घाव चाटते चोटिल सियार की तरह

मेरी आँखों का पानी तुम्हारी छाती से
जमीं की तरफ बहकर
तुम्हारी देह पर पानी की पतली लकीरें बनाता है

सद्यजात शिशु के होंठों से निकलती
मेरी काँपती रुलाई में तुम
सीधे खड़े हरे देवदार के पेड़ की तरह भीगते हो
तुम्हारी आत्मा इस झिलमिलाते पानी की कैद में है
मेरी आँखों का यह पानी तुम्हारे मन का लिबास है

तुमसे मेरी नींदों के रिश्ते की कोई न पूछे
तुमने उनकी इतनी फ़िक्र की
कि मेरी नींदों की शक्ल तुम-सी हो गई
जो रातें मैंने जागकर बितायी उनमें
मैं तुम्हारा न होना जीती रही

रास्ते मनुष्य के छोटेपन से खेलते हैं
प्रेम मन के गीलेपन से

ठहरे पानी में पेट्रोल की
बहुरंगी पन्नी जमती है
जवानी में विधवा हुई औरत के चेहरे पर
अठखेलियाँ करती एषणाएं जमती है

देर रात में शहर के चेहरे पर थक कर
रंग-बिरंगी रौशनियाँ स्थिर जमी हैं
मेरी आँखों में स्थिर है
अंतिम दफ़ा देखा हुआ तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा

जीवन एक लंबे जटिल वाक्य की तरह था
जिसमें प्रेम की संज्ञा बनकर तुम बार-बार आये
रहा तुमसे मेरा प्रेम एक ऐसी अनगढ़ कथा का ड्राफ्ट
जिसे लौट कर बार-बार लिखना पड़ा
सिर्फ तुम्हारी बदौलत आज मैं शान से कह सकती हूँ
कि अधूरापन मेरा गोत्र है

कई चीजें थीं जिन्होंने मेरे ज़ेहन में छपी
तुम्हारी आवाज की जगह लेनी चाही

एक दिन समुद्र मचलता उठा
अपनी गड़गड़ाहटों में गूँथ कर उसने मेरा नाम
बिलकुल तुम्हारी तरह पुकारा

एक दिन हवा घने पेड़ों से होकर गुजरी
हवा में घुली हरी गंध के पास
तुम्हारे शब्दों जैसी फुसफुसाहटें थी

एक रोज़ बारिश हुयी
पत्तों पर गिरती बूंदे
मेरे लिए तुम्हारी तरह गाती रहीं

एक दिन झरना घने जंगल के बीच
अपनी ऊँचाइयों से धरती पर गिरा
तुम्हारी ही तरह मेरे लिए वह
अविकल कविता पढ़ता रहा

एक दिन हवा ने फैला दी अपनी बाहें तुम्हारी तरह
मैं घंटे भर तक उसकी सरसराहट में थमी रही

तुम्हारा अनुपस्थित होना लेकिन फिर भी
तुम्हारा अनुपस्थित होना था
कोई भी तुम्हारे होने का भ्रम न रच पाया

उदासी मेरी मातृभाषा है
हँसी की भाषा मैंने तमाम विदेशी भाषाओं की तरह
ज़िन्दगी चलाने के लिए सीखी है

तेज़ हवा में हथेलियाँ हटा दो
तो दीपक बुझ जाता है
दोष हवा को नहीं लगता

पौधे को पानी न दो
वह सूख जाता है
दोष धूप का नहीं होता

लता आलंबन के बिना
धूल में मिल जाती है
दोष ऊँचाइयों का नहीं होता

मरुस्थल में कोई
बिना पानी मर जाए
मरीचिका दोषी नहीं होती

जंगल में दावानल फ़ैल जाए
तो अभियोग बारिश पर नहीं लगता

अपराध और दंड की परिभाषा दुनिया में
ईश्वर के अस्तित्व के सवाल की तरह
बहुआयामी है

आँसू आखों में नही दिल में बनते हैं

मुझे बताओ, कैसा लगता होगा उन संदेशों को
शिलालेखों में जिनकी लिपियाँ अबूझ रही
जिनके अंत लिखे न जा सके
उन उपन्यासों की पंक्तियाँ कहाँ रह गई होंगी
उन फसलों के नृत्य कहाँ जाते होंगे
जिन्हें पाले रौंद जाते हैं

तुम यह मत समझना
कि मुझे सुनाई नहीं दिए वे शब्द
जो तुम्हारे मन से ज्वार की तरह उमड़े
लेकिन तुम्हारे पथरीले किनारों से टकरा कर
तुम्हारे अंदर ही बिखर गए

कभी-कभी हम जिसे खोना नहीं चाहते
उसे खोने से इतना डरने लगते हैं
कि एक दिन अच्छी तरह उसे खोकर
इस डर से हमेशा के लिए मुक्त हो जाते हैं

बातें सफ़ेद हैं, सन्नाटा स्याह है
और फुसफुसाहटें यक़ीनन चितकबरी है

उन मोड़ों को मैं कभी कुछ न कह सकी जिन्होंने
मेरे न चाहने पर भी मुझे तुमसे बार-बार मिलाया
न यही जान सकी कभी क्यों तुम्हारा होना
अचानक चटकीली सुबह से दमघोंटू धुंध में बदल गया

जब -जब मिटाने की कोशिश की
प्रेम को आत्मा का एक हिस्सा मिट गया
जब भी कोई साथ की सीट से उठा
सुकून का थोड़ा सामान लेकर उतर गया

कभी न पूछ सकी यह सवाल क्या
किसी का मन तोड़ देना भी कोई अपराध है ?
किसी के मन में स्मृतियों के भव्य नगर बसा कर
उन्हें सुनसान छोड़ देना भी कोई अपराध है ?

अब जब पुकारों से परे है तुम्हारा नाम
यह डर भी नहीं है कि एक दिन लौटेगा प्रेम
उसके साथ टूटने के दिन भी लौटेंगे
मैं जानती हूँ इतनी बात
कि पहला प्रेम धीरे-धीरे अपनी मौत मरता है
उसके बाद आये प्रेमों का गला
पिछले प्रेमों के वाचाल असंतुष्ट प्रेत घोंटते हैं

मन के घाव पर जमी कठोर पपड़ी से
टूट जाने की मनुहार करता प्रेम चाहता है
आत्मा की त्वचा चोट भूलकर एकसार हो जाए

शहर की सड़क पर बेवजह देर रात चलती हूँ
शोर और धुएं से छुट्टी पाकर सड़कें
बुरी तरह खाँस कर धीमी-धीमी साँसे ले रहे
बूढ़े की तरह शांत है

शहर की कुछ पुरानी इमारतें अब ढह रहीं हैं
वास्तुविद कहते हैं, इतनी पुरानी इमारतों की
अब मरम्मत नहीं हो सकती

जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है
चोटें अधिक आसानी से लगती है
उनके घाव देर से भरते हैं
और एक बात तय होती है शत प्रतिशत
उनके निशान कभी नही मिटेंगे.

उपजाऊ होते हैं दुःख
और सुख अधिकतर बाँझ

कहाँ रोक पाता है अनन्त विस्तार का स्वामी आकाश
पानी की मामूली बूंदों से बने सतरंगी इंद्रधनुष को
अपनी एकरंगी काया रंगने से

पथरीले टीले पर उगी दूब का जीवन अल्प होता है
लेकिन वह कवियों और चित्रकारों को
उनकी कला की प्रेरणा दे जाती है

अधरस्ते छूटे प्रेम की क्षणिकता भी कोई अपराध नहीं है
और संयोग से यह जीवन के लिए निरर्थक भी नही है ।

प्रेम गीत 

एक अकेली कुर्सी में तुम्हारी जाँघों पर
कोमलता से थमी रहती हूँ मैं
जैसे मकड़ी के जाले पर ओस की बूँदे थमी रहती हैं

उज़बक नामों की पंखुड़ियाँ हैं
जो अंजुली भर-भर कर तुम मुझपर
लाड़ में न्योछावर करते हो

जिस भाषा में तुम मेरे लिए गीत लिखते हो
उसका लहज़ा आँसू धुले गालों जितना कोमल है

तुम्हारी बाँहों की सिरहनी तक मैं
नर्म नींद की तलाश में पहुचती हूँ
उनींदी बरौनियाँ तुम्हारे दिल के
ठीक ऊपर दस्तक देती है
तुम्हारे ह्रदय की साँकल बजा कर मैं
मीलों तक चले घायल सैनिक की तरह
वहीं ढेर हो जाती हूँ

तुम्हारे सवालों के जवाब
मेरे थके होठों तक कभी नही पहुँच पाते
तुम जो हिदायते देते हो उन्हें मैं
मीठे सपनों के अधबुने दृश्यों में दोहराती हूँ

नींद की रातों में तुम्हारे सीने में
छुपा रहता है मेरा आधा चेहरा
मैं जानती हूँ एक दिन जब मैं जागूँगी
खाट की रस्सी से नंगी पीठ पर बने निशानों की तरह
मेरे चेहरे पर तुम्हारे दिल में छिपे सब दुःख छपे मिलेंगे

हजारों साल बाद एक दिन जब पुरातत्ववेत्ता
तुम्हारी पसलियाँ ख़ुदाई से निकालेंगे
तब वहाँ चारो तरफ मेरी उँगलियों से बुना संगीत गूँजेगा

एक दिन मुझसे शिकायत की थी तुमने
तुम मुझे पत्थर की दिवार क्यों कहती हो?
सुनो कि अक्सर मुझे लगता है
मैं गर्वीली शेरनी हूं तुम पत्थर की वह गुफा
जिसमे मेरे सपनों के भित्तिचित्र अंकित है

तुम्हारी देह मेरा वह घर है
जहाँ मैं झांझ-पानी से
बचने के लिए शरण लेती हूं

मेरी नींद का भरोसा हो तुम
मैं तुम्हारी रगों में बहते खून की सुगबुगाहट हूँ
जब मैं यह लिख रही हूँ तब मैं जानती हूँ
कि घोंसले भी चिड़ियों के लौट आने की प्रतीक्षा करते हैं

चाँदनी में स्थिर सोता तालाब हो तुम
तुम्हारी देह मेरी अनियंत्रित साँसों की कारीगरी से बने
सिहरनों के वलय-वस्त्र धारण करती है

अनखुली कलियों की नाज़ुक चुभन का
शोर है तुम्हारी उँगलियाँ
जिनकी नोक से मेरी त्वचा पर तुम
सुगंधों के झालरदार गोदने उकेरते हो

पांत में सटकर लगे असंख्य बारहसिंगे
तुम्हारी पलकों के कोरों पर झुककर
अपनी प्यास बुझाते हैं

अँधेरे झुरमुट की तरफ सावधान होकर
भागते खरगोश की तरह
रौशनी, तुम्हारी काली आँखों तक भागकर जाती है
वह भी जानती है कि तुम घर हो उसका
तुम्हारे भीतर समो कर वह खुद को बचा लेगी
बिलकुल मेरी ही तरह

नसों में चाबुक की तेज़ी से लपकता है रक्त
कामना के मारीच देह पर
मुक्ति की आस लिए चौकड़ी भरते हैं
मेरी हथेलियों पर उगे ग्रहों का जाल
तुम्हारी देह की नखरीले कांपों का भविष्य रचता है

मुझे पत्थर होने की शिक्षा मिली थी
तुम्हें प्यार करने के लिए मुझे हवा होना पड़ा
मैंने जाना जुड़े रहना सही तरीक़ा है
लेकिन समस्या से नही समाधान से

तुम्हें बता सकूँ कि कितनी निर्दोष है तुम्हारी आँखें
इसलिए मैंने उन छतों को देखा जिनमें गुम्बद नही थे

तुम हो तो तुम्हारे होने के कई अनुवाद हैं
तुम हो तो दुःख हैं
तुम हो तो सुख हैं
तुम हो जो मेरे अंदर कविता बनकर उगते हो
तुम हो जो मेरे भीतर अवसाद की धुंधलाती शाम बनकर डूबते हो
तुम ही हो जिसकी बाहों की गर्माहट से
मेरी दुनिया की सबसे गुनगुनी सुबहें उपजती हैं

तुम्हारा प्यार मेरे जीवन का सबसे मासूम स्वार्थ है
तुम्हारे होने का मतलब मुंडेर पर टिकी
भूरी गौरय्या का जोड़ा है
जो फुरसत में एक दूसरे का सिर खुजाते हैं

सुनो, मेरे पास बैठ जाओ और मुस्कराओ
यकीन मानो सिर्फ ऐसे ही मैं
दुनिया की सबसे सुन्दर कविता लिख सकती हूँ

मुस्कराओ कि अब भी बाकी है सर्दियों की कई रातें
जो कतई मेरा नुकसान करने की कुव्वत रखती हैं ।

प्रेम के शिल्प में नहीं

उस रोज़ “मेरे पिया गए रंगून” सुनाते तुम हँस पड़े थे
मुझे लगा धूल के उथले कुएँ में लोटपोट होती
खुद के पंखों से झगड़ती गौरय्या यकायक
पंख झाड़कर कई सारी कविताएँ टपका गई हो

पानी के फटे पाईप से नहाते बच्चों की
नटखट उँगलियों से पानी छनकर फूटता है
पोर -पोर में रीझ भरती पानी की अठखेलियाँ देखकर मैंने जाना
कभी-कभी किसी की हँसी कानों से टकरा कर
देह में अंदर कहीं पानी का सफ़ेद निर्झर बनकर फूटती है

शब्दों को तुम बच्चों की तरह दुलारते हो
तुमसे अलग होकर वे भी अक्सर अनमने हो जाते हैं
मंद स्वर में तुम्हारे आलाप के अलंकार सुनती हुई मैं
अक्सर इस गणित में डूबती-उतरती रहती हूँ
कि पहले तुम्हारे वश में हुई या पहले तुमने मंत्र पढ़े

तालाब में मद्धिम बरिश की बूंदों के गिरते रहने का संगीत
राहगीरों को रास्ते भूलने पर मजबूर कर देता है
मैं शब्दों के अर्थ नही देखती
तरलता के वलय बनाते रहने के तुम्हारे हुनर पर मुस्कुराती हूँ

मेरी ज़रा सी शरारत पर तुम पहले मुझे आँखें दिखाते हो
फिर धीरे से मुस्कुराते हो,पक्के व्यापारी हो
हमेशा थोड़ा दुःख तुम्हारे अंदर रह जाता है
हमेशा थोड़ी ख़ुशी तुम अपने पास रख लेते हो

तुम्हारा होना मोटे लोहे की कड़ाही में उबलते गुड सी महक बिखेरता है
मिठास के हलके गुब्बारे फूटने की “फ़क्क” सी आवाज तुम कहते हो “शैतान ”
मैं रीत गए प्रेमियों सी मुस्कान लिए जवाब देती हूँ “शैतान के प्रेमी ”
तुम्हारी भूरी देह पर सुबह का सुनहलापन मुस्कराहट बनकर छिटकता है
मेरी आँखों की स्याह नदी तुम्हें देखकर रुपहली हो जाती है

गर्वीला गवैया जैसे रियाज़ का हुनर उभारने के लिए
कोई शब्द अलापते उस पर ठहर जाता है
लेखक मन के बारीक़ भाव उकेरने के लिए कोई दृश्य चुन लेता है
स्मृतियों में कहीं खो जाने के लिए तुम ठीक वैसे ही
बोलते-बोलते ठहर कर चुप हो जाते हो
तुम्हारी मंद चलती साँसे पढ़ती मैं
तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा करती हूँ

ठंढ की एक शाम तुम्हारे पहले से गर्म
मोटे चादर में औचक हिस्सेदारी से मैं
पहाड़ में बेपरवाह भटकते धुंध के झुंड़ से राहत पाती हूँ
तुम कई बार माँ बन चुकी अनुभवी बतख की तरह मुझे पंखों में समेटते हो
मैं आँखें मूँदते सोचती जाती हूँ कि इस तरह तुम्हारे पंखों से ढँकी
मैं एक अर्धसृजित अंडा हूँ जिसे सेया जाना अभी बाकी है

हलके बादलों को बरसने से पहले हवा उड़ा ले जाती है
जिन परिंदों के पंखों में घनापन कम होता है
वह कहाँ नाप पाते हैं आकाश की ऊपरी सतह की परतें
आज जब मैं यह कविता लिख रही हूँ तो एक इच्छा है मेरे अंदर
कि एक क्षण के लिए हर प्रेमी घनेपन की उस ज़रूरत को महसूस करे
जो झबरे पंखों से अंडे के तरल में उतर कर
उसे रक्त-मांस का रूप देती है

प्रेम में पैवस्त हो जाए मातृत्व की वह रीझ
जो शिशु परिंदे को एक समय बाद
आकाश की परतें नापने के लिए आज़ाद छोड़ देती है।

बतकही

सुनो,
मुझे चूमते हुए तुम
हाँ तुम ही

मान सको तो मानना प्रेम वह सबसे बड़ा प्रायश्चित है
जो मैं तुम्हारे प्रति किये गए अपराधों का कर सकती हूँ

मेरा तुमसे प्रेम
मेरी देह के अब मेरे पास
“न होने” का प्रायश्चित है

सुनो,
नखरीली शिकायतों वाले तुम

बहुत बदमाश पीपल का घना पेड़ हो तुम
छाँव में बैठी जोगनियों को छेड़ने के लिए
पहले उनपर अपने पत्ते गिराते हो

फिर अकबका कर जागते हो
जोगनियों के सर
पतझड़ लाने का ठीकरा फोड़ते हो

सुनो,
देर रातों को बिना वजह झगड़ने वाले तुम

तुमने क्यों कहा
तुम एक रोतलू बीमार तनावग्रस्त बुढ़िया की आत्मा हो
जिसके पास बैठो तो वह जिंदगी भर मिले दुःखों का गाना गाने लगती है

जैसे हम देना पसंद करते थे
पूरे वाक्य के बजाय चंद शब्दों में
मैंने दिया जवाब “तुम भी “

फिर हम लंबे समय तक साथ बैठकर रोये
फिर हँसे, अपने लिए किसी नए को ढूंढ लेने का ताना दिया
और एक-दूसरे को रोतलू कहा

सुनो,
दुनिया की सबसे मासूम नींद सोने वाले तुम

मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया
कि जब मुझे लगता है मैं हार जाऊँगी
खुद से
ज़माने से
ज़िन्दगी की दुरभिसंधियों से
मैं अपनी स्टडी टेबल से उठकर
तुम्हारा नींद में डूबा चेहरा देखती हूँ

तुम्हारी पतली त्वचा के अंदर बह रहे खून का रंग
कंठ के पास उँचक-बैठ रही तुम्हारी श्वासों की आवृत्ति
मुझसे मुस्कुरा कर कहती है तुम ऐसे नहीं हार सकती
कि हमने वादा किया था
हम साथ रहेंगे सुख में नहीं तो न सही
लेकिन अपने और सबके लिए की गई सुख की आशा में

सुनो,
महँगी दाल और सब्जी के दौर में
भात और आलू खाकर मोटे होते तुम

जिस क्षण प्रेम में चमत्कार न उत्पन्न हो सके
तुम अंतरालों पर भरोसा रखना
तुम्हें प्रतीक्षाएँ मेरे पास लेकर आएँगी
होगी कोई बेवजह सी लगने वाली बेवकूफी भरी बात
जो स्मृति बनकर तुम्हारे मन को अकेलेपन में गुदगुदाएगी

कर सको तो बस इतना सा उपकार करना
अपने अहम् के महल में प्रेम को कभी ईंटों की जगह मत आँकना
मेरे नेह पगे शब्दों को कुर्ते में तमगे की तरह मत टाँकना

सुनो,
रसीली बातों और गाढ़ी मीठी
मुस्कान वाले तुम

तुम एक बड़ा सा पका रसभरा चीकू हो
इसे ऐसे भी कह सकते हैं

तुम्हारे अंदर बहुत सारे पके रसभरे चीकू भरे हैं
जो मेरी ओर देख-देख कर मुस्कराते हैं

सुनो, ज़रा कम-कम मुस्कुराया करो
ज़ोर से चोंच मारने वाली चिड़ियों को
थोड़ा कम -ज़ियादह लुभाया करो

सुनो,
गर्वीले और तुनकमिजाज़ मन वाले तुम

हमेशा कुछ बातें याद रखना
जिन्होंने तुम्हारी देह पर चुभोये होंगे
लपलपाते चाकू और बरछियाँ
वे तुम्हारी सुघडता की नेकनामी लेने आएंगे

जिन्होंने तुमपर तेज़ाब उड़ेला होगा
वे तुम्हारी जिजीविषा के
परीक्षक होने का ख़िताब पाएंगे

जिन्होंने शाख से काट कर
तुम्हें कीचड़ में फेंक दिया होगा
तुम्हारे वहाँ जड़ जमा लेने पर
वे तुम्हारे पोषक माली कहलायेंगे

उनसे बचना जो बहुत तारीफ़ या अतिशय निंदा करें
पुरानी पहचान की किरचें निकाल कर
वर्तमान में इंसान को शर्मिंदा करना
कुंठित लोगों का प्रिय शगल है

सुनो
आधी उम्र बीत जाने के बाद
ज़रा शातिर ज़रा लापरवाह हुए तुम
हाँ तुम ही

जाने कैसे पढ़ लेते हो तुम मेरा मन
कि अब नाराज़ होकर उठकर जाना चाहती हूँ मैं
और उठने से ठीक पहले तुम मेरा हाथ पकड़ लेते हो

प्रेम में लंबे समय तक होना शातिर बनाता है
जबकि प्रेम के स्थायित्व पर विश्वास होना
प्रेमी को लापरवाह बनाता है

सुनो
लंबी अंतरालों तक गुम हो जाने वाले तुम

यह न सोचा करो कि मेरा प्रेम तुम्हारे सर्वश्रष्ठ होने का प्रतिफल है
यह तुम्हें प्रेम करते हुए तुम में सर्वश्रेष्ठ पाने का संबल है

सुनो
कड़वी और जली-भुनी बातों वाले तुम
हाँ कि बस तुम ही

कोई गुण तो हरी घाँस की नोक का भी होगा
वरना चुभते नुकीलेपन के माथे ऐसे कैसे जमी रह जाती
मुझ सी तरल
ओस की नाज़ुक़ बूँद।

अधूरी नींद का गीत

तुम मिलते हो पूछते हो “कैसी हो”?
मैं कहती हूँ “अच्छी हूँ”

(जबकि जवाब सिर्फ इतना है कि
जिन रास्तों को नही मिलता उन पर चलने वालों का साथ
उन्हें सूखे पत्ते भी जुर्अत करके दफना देते है )

एक दिन इश्क़ में की मांगी गयी तमाम रियायतें
दूर से किसी को मुस्कराते देख सकने तक सीमित हो जाती है
मुश्क़िल यह है, यह इतनी सी बात भी
दुनिया भर के देवताओं मंज़ूर नहीं होती
इसलिए मैं दुनिया के सब देवताओं से नफरत करती हूँ

(देवता सिर्फ स्वर्गी जीव नही होते)

मैं तुम्हारे लौटने की जगह हूँ

(कोई यह न सोचे की जगहें हमेशा
स्थिर और निष्क्रिय ही होती हैं )

प्रेम को जितना समझ सकी मैं ये जाना
प्रेम में कोई भी क्षण विदा का क्षण हो सकता है
किसी भी पल डुबो सकती है धार
अपने ऊपर अठखेलियाँ करती नाव को

(यह कहकर मैं नाविकों का मनोबल नही तोड़ना चाहती
लेकिन अधिकतर नावों को समुद्र लील जाते हैं )

जिन्हें समुद्र न डुबोये उन नावों के तख़्ते अंत में बस
चूल्हे की आग बारने के काम आते हैं
पानी की सहेली क्यों चाहेगी ऐसा जीवन
जिसके अंत में आग मिले ?

(समुद्र का तल क्या नावों का निर्वाण नहीं है?
जैसे
डूबना या टूटना सिर्फ नकारात्मक शब्द नहीं हैं.)

“तुम्हारे बिना नही जिया जाता मुझसे”
यह वाक्य सिर्फ इसलिए तुमसे कभी कह न सकी मैं
क्योंकि तुम्हारे बिना मैं मर जाती ऐसा नही था

(मुझे हमेशा से लगता है विपरीतार्थक शब्दों का चलन
शब्दों की स्वतंत्र परिभाषा के खिलाफ एक क़िस्म की साजिश है )

हम इतने भावुक थे कि पढ़ सकते थे
एक दूसरे के चेहरे पर किसी बीते प्रेम का दुःख
मौजूदा आकर्षण की लिखावट

(सवाल सिर्फ इतना था कि
कहाँ से लाती मैं अवसान के दिनों में उठान की लय
कहाँ से लाते तुम चीमड़ हो चुके मन में लोच की वय)

ताज़्ज़ुब है कि न मैं हारती हूँ, न प्रेम हारता है
मुझे विश्वाश है तुम अपने लिए ढूंढ कर लाओगे
फिर से एक दिन छलकती ख़ुशी

(मैं तुम्हें खुश देखकर खुश होऊँगी )

एक दिन जब तुम उदास होगे
तुम्हारे साथ मुट्ठी भर आँसू रोऊँगी

(इन आँसूओं में बेशक़ मेरी भी नाक़ामियों की गंध मिली होगी)

लेकिन फ़िलहाल
इन सब बातों से अलग
अभी तुम सो रहे हो
तुम सो रहे हो
जैसे प्रशांत महासागर में
हवाई के द्वीप सोते हैं
तुम सो रहे हो
लहरों की अनगिनत दानवी दहाड़ों में घिरे शांत
पानी से ढंकी-उघरी देह लिए लेकिन, शांत
तुम सो रहे हो
धरती का सब पानी रह-रह उमड़ता है
तुम्हारी देह के कोर छूता है खुद को धोता है
तुमसे कम्पनों का उपहार पाकर लौट जाता है
तुम सो रहे हो
स्याह बादल तुम पर झुकते, उमड़ते हैं
बरसते हुए ही हारकर दूर चले जाते हैं
तुम सो रहे हो
सुखद आश्चर्य की तरह शांत
मैं अनावरण की बाट जोहते
रहस्य की तरह अशांत जाग रही हूँ ।

मेरी कल्पना में तुम

थकान की पृथ्वी का बोझ पलकों पर उठाए
पुतलियाँ अतल अंधकार में डूब जाना चाहती हैं
पर देह एक अंतहीन सुगबुगाहट के साथ जागना चाहती है

बारिश के बाद हरियाती पीली फूस जैसे सर उठाकर
दरदरी मिट्टी के कण स्नेह से झटक देती है
ठीक वैसे ही रोम-रोम कौतुक से ऊँचककर तुम्हें देखता है
आत्मा की आँखें त्वचा पर दस्तक देती हैं
शताक्षी की देह में उगी पलकों की तरह
प्रत्येक रोमकूप में आँखे उगी हैं

अवश देह रोओं की लहलहाती फसल बीच
तुम्हारी उपस्थिति बो रही है
स्मृतियों के तमाम हरकारे कानों में धीरे से फुसफुसाते हैं
तुम देह का कोलाहल नहीं हो, कलरव हो
तुम मन की प्रतीक्षा नहीं हो, सम्भव हो

अवसाद के नर्क के सातवें तले में
तुम्हारे मन के प्रवेश- कपाट खुलते हैं
देहरी से आते धर्मग्रंथों के उजाले के विरुद्ध सर झुकाये तुम
देवदूत गैब्रियल की शक्ल लिए दिखाई देते हो

कुँवारी मैरी तक ईश्वर का सन्देश पहुँचाने के एवज में तुम पर
धर्मधिकारियों द्वारा पवित्रता नाशने का अभियोग लगाया गया है
बतौर सजा तुम्हारे पंख नुचवा लिए गए हैं

पँखों की लहूलुहान कतरने लेकर तुम
सबसे ऊँचे पहाड़ की चोटी में वहाँ चढ़ जाते हो
जहाँ से निर्बल असहाय पक्षी आत्महत्या करते हैं

दुखी मन से शेष बचे सफ़ेद पंख नोचकर
तुम उन्हें पहाड़ से नीचे उछाल देते हो
वे पंख नभ की आँखों से झरने वाले पानी के बादल बन जाते हैं
हर वर्षा ऋतु सृष्टि तुम्हारी पीड़ा का शोक मनाती है

अंधकार अब घटित हो रहा है
पलकें अब स्वप्नों का दृश्य-पटल है
मेरी कल्पना में तुम पद्मासन लगाये सिद्धार्थ में तब्दील गए हो
इस दृश्य में तुम बोध प्राप्ति के ठीक पहले के बुद्ध हो
मैं तुम्हारी गोद में पड़ी अर्धविकसित अंडे में बदल गई हूँ

तुम्हारी देह की ऊष्मा से पोषण पाकर
अपने प्रसव की आश्वस्ति में नरमी से मुस्कुराती मैं
अपनी कोशिकाओं को निर्मित होता देखती हूँ
उठकर जाने की बाध्यता से डरकर तुम
मेरे सकुशल जन्म तक बोध-प्राप्ति की अवधि बढ़ाते जाते हो

मैं मुलमुलाती अधखुली पलकों से देखती हूँ
तुम सफ़ेद रौशनी की तरह दिखते हो
अर्धविकसित धुंधले मन से सोचती हूँ
तुम दुःख के कई प्रतीकों में ढल जाते हो

मैं देखती हूँ हर प्रतीक्षा दरअसल एक अभ्यास है
अभिसार की प्रतीक्षा प्रेम का अभ्यास है
प्रसव की प्रतीक्षा मातृत्व का अभ्यास है
बुद्धत्व की प्रतीक्षा मोहबद्धता का अभ्यास है।

एक प्रेम की औचक समाप्ति

जब पानी बरसा
यह अचानक था

फिर जाने कैसे
अचानक ही कुछ तय करके
उसने बरसना बंद कर दिया।

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कायरता का गीत

यों तो सब जीतना ही सीखते हैं
लेकिन तुम हारना भी सीखना
जब कोई कहे रूकना या जाना तुम्हारा फैसला है
तब तुम खुद से हार कर रुक जाना

याद रखना कोई प्रतीक्षा करे
तो लौट कर ना आने के लिए तुम स्वतंत्र नहीं
तुम्हारी आवक पर किसी की राह देखती
नज़र की रौनक उधार है

कोई भोजन बनाए तो भूखे रह जाने के लिए
तुम स्वतंत्र नहीं तुम्हारी ज़िद से दबा दी गई भूख पर
किसी के हाथों में बसने वाले स्वाद की तृप्ति उधार है

कोई फटे चिथड़े देखकर तुम्हारे लिए गर्म पंखों का लबादा बुने
तो ठंड में मर जाने के लिए तुम स्वतंत्र नहीं
तुम्हारी ठंडी होती देह पर किसी के स्पर्श का ताप उधार है

रोकना अपने उस अहम को जो हार जाने के आड़े आता है
सीखना कैसे अंगुलिमाल की आँखों की लाल आग हार जाती है
तथागत की निर्दोष आँखों की पनीली करुणा से
समझो कि इसमें सिर्फ बुद्ध की तो करामात नहीं थी

तुम ऐसे हारना कि मन लबालब भरा लगे
उस घड़े की तरह जो पानी की मुसलसल धार से
हार कर अंततः भर जाता है
फिर किसी प्यासे के तृप्त हो जाने तक
इंतज़ार करता है फिर से हराए जाने के लिए

गर तुम्हें टूटना पड़े तो ऐसे टूटना
जैसे बेहद पका मीठा फल टूटता है टहनी से
उसका हर बीज धरती की देह को छूकर
नया पौधा बन जाने की इच्छा करता है
फिर से जन्म लेकर असंख्य बार टूटने के लिए

जब तुम खत्म होना तो उस सुन्दर कविता की तरह
जो हर बार अलग कविता का बीज बनकर फूटती है
सुदूर देश के किसी अनजान पढने वाले के मन में
नए रूप में फिर से अपने लिखे जाने के लिए

ऐसे बिखरना जैसे खेत बोने के लिए किसान
मुट्ठी भरकर बीज बिखेरता है
लहलहाती फ़सल की कल्पना में वह खुद हरा हो जाता है
तुम फ़सल की आशा में उसका हरा होता चेहरा देखना
इस तरह बिखेरे जाने के लिए तैयार होना

जबकि सनकी रणबांकुरों के ज़ालिम हाथ
दुनिया की रुपहली सीवन उधेड़ेंगे
हराए जाने के अफ़सोस को एक तरफ करके तुम
प्रेम की छोटी सी सूई से दुनिया के टुकड़े रफ़ू करना

जब कोई भूख से सूखकर मुरझाए शरीर में भोजन की तरह रिसे
सफ़ेद हथेलियों में ख़ून की गुलाबी आभा की जगह भर जाए
तब आत्मा के सोख्ते से प्रेम सोखने के लिए
उसकी बगल में निश्चेष्ट करवट सोना।

नींद के बारे में

वह मुझसे पहले सोने जाता और मुझसे पहले जागता था
मैं अक्सर लिखते-लिखते सर उठा कर कहती तुम सो जाओ
मैं बाद में आकर तुम्हारे पास सो जाऊँगी

मैं उसके साथ सोती थी
जैसे दरारों में देह को दरार का ही आकार दिए जोंक सोती है
संकीर्ण दुछत्तियों में थककर चंचल बिल्लियाँ सोती है
धरती की देह पर शिराओं का-सा आकार लिए नदियाँ सोती है
नाल काटे जाने के ठीक बाद नाक से साँस लेने का अभ्यास करता शिशु सोता है
जैसे धरती आकाश के बीच लटके मायालोक में त्रिशंकु सोता होगा

सोने की क्रिया
हमेशा मेरे लिए एक प्रकार की निरीहता रही
पराजय रही
जागना एक सक्रियता
एक आरोहण

वह ताउम्र मुझसे कहता रहा
“कभी सोया भी करो, सोना बुरी बात नहीं है ”
मैं इस अच्छी बात को रोज उसके चेहरे पर होता देखने के लिए जागती रही
मैं कहती रही किसी को सोते देखना सुख देता है
वह समझदार मेरी इस समझ को नासमझी कहकर
मुझे सुलाने की कोशिश करता रहा

वैसे तो सोया हुआ आप रात को तालाब के जल को भी कह सकते हैं
पर उसके भीतर आसमान गतिमान रहता है
सब तारे उस पर झुक-झुक कर अपना चेहरा देखते हैं
मैं भी उसे सोते हुए मुस्कुराते देखकर
उसकी आत्मा में अपनी उपस्थिति देखती थी

मेरे अंतस में वह ऊर्जा के केंद्र के जैसा ही था
पृथ्वी के कोर में पिघले खनिज की तरह
महावराह की तरह जब वह जल के सीमाहीन विस्तार पर
मुझे हर जगह तलाश रहा था
मैं उसके अंतस में जलप्लावित पृथ्वी सी समाधिस्थ थी
आप कह सकते हैं वह दिपदिपाता गतिमान मेरे अंदर सो रहा था
मैं अनवरत घूमती दिन -रात के चक्कर काटती उसके अंदर जाग रही थी

अगर देह ब्रह्माण्ड है तो प्रत्येक नींद प्रलय है
जो स्वप्न अगली सुबह स्मृति में शेष रह जाते हैं
वे नूह की नौका में बचे जीवित पशु-पक्षी हैं
यही स्मृतियाँ हमें आने वाले कल्प से दिन में
जीने के लिए माकूल कोलाहल बख़्शती है

पलकें नियामत हैं
(आप पर्दे भी पढ़े तो चलेगा )
वरना जरा सोचिये कैसा लगता होगा
जब नींद में मगरमच्छ को आते देखकर भी मछलियों की नींद नहीं टूटती होगी
वह अंतिम भयानक सपना तो याद होगा आपको
जिसने आपको न जाग पाने की विवशता का परिचय दिया होगा
वही आपके मन के सबसे अँधेरे कोने में छिपे डर का सपना
जो नुकीले दातों से आपको कुतर देता है पर आपकी नींद नही खुलती
नींद आश्वस्ति है
जागना अविश्वास है
तो बताइये आप मछलियों को क्या देना चाहेंगे
आश्वस्ति या अविश्वास?

मछलियाँ खुली आँखों से सच्ची निरीह नींद सोती हैं
बगुले सोने का अभिनय करके झपट कर शिकार पकड़ते हैं
दुनिया के तमाम घोड़े खड़े-खड़े सोते हैं
जबकि उल्लू दिन की रौशनी को अनदेखा करके सोते हैं
सोना कतई सामान्य प्रक्रिया भर नहीं है
एक चुनी हुई आदत है
उससे भी बढ़कर एक साधा हुआ अभ्यास है।

गतिहीन जीवन की मतिहीन कविता 

तुम्हारी पाषाण सतह पर जहाँ-जहाँ भी नमी रह जाती है
रौशनी की नज़र से ओझल ज़रा सा अँधेरा बचा रहता है
हर उस जगह पिछली बारिश की स्मृति सी
मखमली हरी काई बनकर उगती हूँ मैं
मेरा जन्म एक स्मृति का अभिशाप है
जिसमें पानी और अंधकार बराबर मिले हुए हैं

कहते हैं अगर नमक को यूँ ही बेकार में ज़ाया करो
तो मरने के बाद सजा के तौर पर उसे
पलकों और बरौनियों से बीनना पड़ता है
ज़िन्दगी जीती जाती हूँ और सोचती जाती हूं
आँखों और नमक का रिश्ता
सोचती हूँ मैंने न जाने कितने महासागरों का नमक ज़ाया किया था
कि बीनने के लिए मेरी देह में हर जगह आँखें उगीं?

मेरी बाँसुरी दरक गई है लेकिन मन अबोध बालक की तरह
उसमे सुर फूँकने की कोशिश करता है
होते हैं कई सुख जो हँसाते-हँसाते रुला जाते है
होते हैं कई दुःख जो जीवन भर की हँसी चुटकियों में मसल कर
हथेलियों में एक भुरभुरी मुस्कराहट थमा जाते हैं

दुनिया जितनी दिखती है उससे अधिक अजीब है
मसलन, मौसमों को भी आता है रंगों में बात करना
गर्मियों की आग गुलमोहर और अमलताश बरसाते हैं
सर्दियों की ठिठुराती बर्फ बेला कुल के सब सफ़ेद फूल लेकर आते हैं

धूप बची रहती है अचार और पापड़ के स्वाद में
सर्दी की कंपकंपी ऊनी कपड़ों के गठ्ठर में छिपी होती है
बारिश की स्मृति सिर्फ बाढ़ नही है हरियाली भी है
बूंदे बरस कर रीत जाए तब भी बची रह जाती है
झबरे जानवरों में फ़र में
पक्षियों के पंखों की परत में
घने पेड़ों के हरे पत्तों की दराज़ों में
टपकती छतों में , टूटे छप्पर में

ताप की गठरी बना दोपहर का सूरज जब सर के ऊपर हो
तब खुद अपनी परछाई काया भेदकर
धरती में प्रवेश करने की कोशिश करती है
मैंने हर काया को कहा कि वह अपनी छाया से सावधान रहे

मैंने देखा कुछ बेहद तार्किक लोग कवियों को पीट-पीट कर मारना चाहते थे
उनका कहना था तारों के झुण्ड को कविता ने नक्षत्र बना दिया
इससे ठगों की ज्योतिषगिरी चल निकली
किसी को किसानों और राहगीरों को नक्षत्रों से होने वाली सहूलियत याद ना आयी
कविता बेचारी इतनी अतार्किक चीज़ थी
कि अपने बचाव में कोई तर्क़ न पेश कर पायी

चुप रहना मेरी मज़बूरी थी, न मेरा फैसला
मुझे कम शब्दों में बात कहने का हुनर न आया
और शब्द जमा करते-करते जवाब देने का समय निकल गया
न मैं कम थी न दुनिया
मुझे कभी घमंडी या मूर्ख समझे जाने अफसोस न हुआ
और दुनिया ने यह मानकर छुट्टी ली
कि ऑब्जेक्टिव सवालों के दौर में
यह, पैराग्राफ्स में जवाब देने वाली मूर्ख है।

हमारे समय में

हहकारती अनियंत्रित जंगल की आग कहती है
कि वह दिये की प्रतिनिधि है

गाँव उजाड़ती बाढ़ ने मासूमियत से कह दिया
उसे सूखे खेतों पर तरस आ गया था

नालियाँ इठलाती हुई बहती है
खुद को गंगा-जमुना की सहोदर बताती हैं

कुछ मगरमच्छ रो पड़े
लोगों ने समुद्र के पानी पर लाँछन लगा दिया

कुछ बिल्लियों के भाग से छींका टूटा
तो अधिकतर मेहनत छोड़कर भाग्य बँचवाने निकल पड़े

हमारे समय में
श्रेष्ठ कलाओं की तरह श्रेष्ठ स्त्रियाँ इसलिए प्रचलन से बाहर हैं
क्योंकि उन्हें समय देकर आत्मसात करना पड़ता है

हमारे समय में
कुछ शब्द हैं, जो हड़बड़ी में अर्थ छोड़कर वाक्य में चले आये हैं
कुछ परिभाषाएँ हैं जो अपने शब्द छोड़कर दौड़ पड़ी हैं।

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