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देखो आज मुझे मोहब्बत के हरकारे ने आवाज़ दी है 

सोचती हूँ कभी कभी
तुम जिसे मैंने देखा नहीं
और मैं जिसे तुमने भी नहीं देखा
और चाहत परवान चढ़ गयी
एक नदी अपने ही आगोश में सिमट गयी
मैंने सिर्फ ख्यालों में ही
मोहब्बत का नगर बसाया
न तुम कोई साया हो न मैं कोई रूह
शायद मेरी चाहत की कोई अनगढ़ी तस्वीर हो

अगर कभी मैं तुम्हारे शहर आई
तुम्हारी गली से गुजरी
तुम्हारे दर पर कुछ देर रुकी
और तुमने मुझे देखकर भी नहीं देखा
और मैं भी तुम्हारी देहरी से
रुका हुआ पल लिए
खाली ही लौट आई
बिना जाने एक दूजे को
तो क्या कभी जान पाएंगे हम इस सत्य को?
मोहब्बत के लिए जिस्मों का होना
जरूरी तो नहीं होता ना
ये तुम भी जानते हो
और शायद मैं भी
तभी तो देखो
एक अनजान सफ़र पर निकल पड़ी हूँ
बिना जाने मंजिल का पता
अच्छा बताओ अगर हम
ज़िन्दगी में कभी मिले
और तुम्हें पता चला
हरसिंगार कुछ देर ठहरा था तुम्हारी दहलीज पर
बिखेरी थी अपनी खुशबू तुम्हारी चौखट पर
क्या जी पाओगे उसके बाद?
सोचते होंगे पागल है … है ना
परछाइयों को शाल उढ़ा रही है
बिन बाती के दीप जला रही है
जब हम जानते नहीं एक दूजे को
फिर कैसे ख्वाब सजा रही है
है ना
मगर मोहब्बत के चश्मों को रौशनी की जरूरत नहीं होती
हकीकी मोहब्बत से ज्यादा पुख्ता तो अनदेखी मोहब्बत होती है

अच्छा बताओ
कहीं मैंने तुम्हें अपना पता बता दिया
और तुमने मुझे अपना
और अचानक मैं सामने आ गयी
तब क्या करोगे?
उफ़ इतनी ख़ामोशी
अरे कुछ तो बोलो
जानती हूँ कुछ नहीं बोल पाओगे
सिर्फ और सिर्फ देखते रह जाओगे
और वक्त वहीं थम जायेगा पूस की रात जैसे
ठिठुरता सा मगर ख़त्म ना होता साहै ना

ये मोहब्बत भी कितनी अजीब होती है ना हर साँस पर,
हर कदम पर,हर शय पर बस इबादत सी होती है
देखा है कभी मोहब्बत की डाक को लौटते हुए बेसबब सा
चलो आज तुम्हें एक बोसा दे ही दूँ उधार समझ रख लेना
कभी याद आये तो तुम उस पर अपने अधर रख देना

मोहब्बत निहाल हो जाएगी हाँ हमारी
अनजानी अनदेखी मोहब्बत की बेमानी कहानी अमर हो जाएगी
देखो आज मुझे मोहब्बत के हरकारे ने आवाज़ दी है
ओह सजीली सतरंगी सावनी फुहार!
बरसातें यूँ भी हुआ करती हैं रेशमी अहसासों सी, लरजते जज्बातों सी

और देखो ना
कैसे गढ़ दिया मोहब्बत का मल्हारी शाहकार मेघों की दस्तक पर
मानो तुमने पुकारा हो आजा आजा आजा!
और मानो आह पर सिमट गयी हो हर फुहार!

और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो 

तुमने पूछा
जब तुम नहीं रहोगी
तो कौन सी कविता लिखूँगा मैं?
उस पर तुम्हारी जिद
अभी सुना दो
जाने के बाद कैसे पढूंगी मैं
उफ़ आखिर ले ही लिया इम्तिहान मोहब्बत का
आखिर ज़िन्दा ही आग लगा दी चिता को
और देखो अब सिंक रहा हूँ मैं
तुम्हारे तपाये तवे की तपिश में
कितना दुरूह है ये ख्याल
कभी सोचा तुमने?
और मुझे कह रही हो
लिखो वो जो तुम तब मह्सूसोगे
जो कल होना है
वो आज महसूसना क्या इतना आसान है?
उन पलों से गुजरना
जैसे दोज़ख की आग में जल रहा हो कोई
फिर भी तुम्हारी ख्वाहिश है ना
तो कोशिश जरूर करूंगा
शायद इसके बाद ना फिर कभी कुछ कह सकूंगा
शायद तुम्हारे जाने के बाद भी नहीं
शायद आखिरी कलाम हो ये मेरा
मेरी मोहब्बत के नाम
चलो बाँध देता हूँ बाँध आखिरी मोहब्बत के नाम

(ख्यालों ने जब ओढा “उसके जाने के बाद का आवरण” तो रसवंती फ़ुहार सी गिरी उसकी मोहब्बत और सिमट गयी पन्ने में रस बनकर कुछ इस तरह )

मेरी खामोश मोहब्बत की दस्तखत थीं तुम
जिसमे मैंने पलों को नहीं संजोया था
नहीं संजोया था तुम्हारी हँसी को
तुम्हारी चहलकदमी को
तुम्हारी उदासी या खिलखिलाहट को
नहीं थी तुम मेरे लिए सिर्फ मेरी प्रियतमा
जीवन संगिनी या कोई अप्सरा
जो संजो लेता यादों के आशियाने में तुम्हें
ये तुम जानती थीं तुम क्या थीं मेरे लिए
थीं क्यों कहूं तुम क्या हो मेरे लिए
क्योंकि तुम गयी कहाँ हों
यहीं तो हो मेरे वजूद में
अपनी उपस्थिति का अहसास करातीं
तभी तो देखो ना
सुबह सुबह सबसे पहले
प्रभु सुमिरन, दर्शन के बाद
रोज लग जाता हूँ उसी तरह गृहकार्य में
और समेट लेता हूँ
सुबह का दिव्य आलोकित नाद अपने अंतरपट में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे तुम किया करती थीं
तो बताओ कहाँ जुदा हो तुम
जो सहेजूँ यादों के छोरों में
दिन के चढ़ने के साथ बढ़ता ताप
मुझे बैठा देता है अपने पास
जहाँ मैं अपनी कल्पनाओं को उड़ान देता हूँ
और पता ही नहीं चलता
वक्त खुद गुजरा या मैंने उसे रुसवा किया
क्योंकि मेरे पास आकर
वक्त भी ख़ामोशी से मुझे ताकता है
कि कब सिर उठाऊँ और उसे आवाज़ दूं
मेरी साधना में बाधा नहीं ड़ाल पाता
तो खुद मायूस हो ताकता रहता है मुझे
बिल्कुल वैसे ही जैसे जब तुम थीं
तो यूँ ही साध्नामग्न हो जाती थीं
और वक्त तुम्हारे पायताने पर
कुलाचें भरता रहता था
बताओ फिर कैसे वजूद जुदा हुए
तुम मुझमे ही तो सिमटी हो
कोई भी कड़ी ऐसी नहीं जो भिन्न हो
फिर कहो तो कौन किसे याद करे
यहाँ तो खुद को ढूँढने निकलता हूँ
तो तुम्हारा पता मिल जाता है
और मैं तुम्हारे घर की चौखटों पर
अपने अक्स से बतियाता हूँ
पता ही नहीं चलता
कौन किससे बतिया रहा है
सुना है दीवाना कहने लगे हैं कुछ लोग
मगर नहीं जानते ना
तुम मेरी लिए सिर्फ प्रेयसी या पत्नी ही नहीं थीं
बल्कि मेरी प्रकृति बन गयी थीं / नहीं बन गयी हो
तभी तो कब कोई भी वजूद
अपनी प्रकृति बदल सकता है
और सुना है इन्सान का सब कुछ बदल सकता है
मगर प्रकृति नहीं स्वाभाविक होती है
शायद तभी तो नहीं खोजता तुम्हें
नहीं ढूँढता तुम्हें घर आँगन में
तस्वीरों के उपादानों में
यादों के गलियारों में
तन्हाई की महफ़िलों में
क्योंकि जुदा वजूदों पर ही दस्तावेज लिखे जाते हैं
और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो ओ मेरी जीवनरेखा!!

और मुकम्मल हो गयी ज़िन्दगी 

अपनी अपनी हदों में चिने हमारे वजूद
जब भी दखल करते हैं
हदों की खामोशियों में
एक जंगल चिंघाड उठता है
दरख्त सहम जाते हैं
पंछी उड जाते हैं पंख फ़डफ़डाते
घोंसलों को छोडना कितना दुरूह होता है
मगर चीखें कब जीने की मोहताज हुयी हैं
शब्दों के पपीहे कुहुकना नहीं जानते
शब्दों का अंधड हदों को नागवार गुजरता है
तो तूफ़ान लाज़िमी है
फिर सीमायें नेस्तनाबूद हों
या अस्तित्व को बचाने का संकट
हदों के दरवाज़ों पर चोट के निशाँ नहीं दिखते
गहरी खामोशियों की सिलवटों पर
केंचुये रेंग रहे होते हैं अपनी अपनी सोच के
और करा जाते हैं अपनी अपनी उपस्थिति दर्ज
अपने अपने दंभ की नालियों में सडकर
क्षणिक नागवारियाँ, क्षणिक कारगुज़ारियाँ
काफ़ी होती हैं जंगल की आग को हवा देने के लिये
और तबाहियों की चटाइयों पर काले काले निशान
जलते शीशमहल की आखिरी दीवार का
कोई आखिरी सिरा खोज रहा होता है
मगर जुनूनी ब्लोटिंग पेपर ने नमी की स्याहियों को सोख लिया होता है
फिर निर्जीव हदों की तासीर कैसे ना अपनी आखिरी साँस को मोहताज़ हो???

सितारों से आगे कोई आस्माँ है ही नहीं
गर होगा तो सुलगता हुआ
“हम” की सुलगती ज़द पर तुम और मैं जहाँ “हम” की तो कोई हद है ही नहीं

अपने-अपने किनारे अपनी-अपनी हद और तन्हा सफ़र
और मुकम्मल हो गयी ज़िन्दगी

चिन्हित होने के लिये काफ़ी है दरख्त पर काले निशान लगाना
यूँ भी खामोशियों के जंगलों की आग किसने देखी है?

आज की मिट्टियों में ऐसे कँवल नहीं खिला करते

उसने कहा

खुली किताब खुले पन्ने
हर्फ़ फिर भी पढ ना पाया

चल ज़ालिम पढने का शऊर भी ना सीख पाया तूफिर मोहब्बत क्या खाक करेगा

सुन ज़ालिम चिल्लाया
मोहब्बत का हुनर किताबों में नहीं मिला करता

वो बोली

अरे शैदाई यहाँ कौन सी किताब पढनी है
एक लफ़्ज़ है प्रेम जिसकी इबादत करनी है
और पढा दिया मोहब्बत का पहला पाठ

ढाई आखर की तो कहानी है
मगर उससे पहले जरूरी है
रेखाओं को रेखांकित करना,
किसी के दर्द को महसूसना,
किसी के अनकहे जज़्बातों को
हर्फ़ -दर- हर्फ़ पढना
यूँ ही मोहब्बत नहीं की जा सकती
मानो माला के मनके फ़ेरे हों
और ह्रदय में बीजारोपण भी ना हुआ हो
मोहब्बत करने के लिये
आत्मसात करना होता है बेजुबानों की जुबान को,
दर्द के मद्धम अहसास को,
इश्क की टेढी चाल को,
पिंजरे में बंद मैना की मुस्कान को,
मुस्कुराहट में भीगी दर्द की लकीर को,
उम्र के ताबूत में गढी आखिरी कील को
जो निकालो तो लहू ना निकले और लगी रहे तो दर्द ना उभरे
मोहब्बत के औसारों पर फ़रिश्ते नहीं उतरा करते
वहाँ तो सिर्फ़ दरवेश ही सज़दा किया करते हैं
क्या है ऐसा मादा तुझमें मोहब्बत का जानाँ
जोगी बन अलख जगाने का और हाथ में कुछ भी ना आने का
गर हो तो तभी रखना मोहब्बत की दहलीज़ पर पाँव
क्योंकि
यहाँ हाथ में राख भी नहीं आती
फिर भी मोहब्बत है मुकाम पाती
उम्र की दहलीजों से परे, स्पर्श की अनुभूति से परे, दैहिक दाहकता से परे
सिर्फ़ रूहों की जुगलबंदी ही जहाँ जुम्बिश पाती
बस वहीं तो मोहब्बत है आकार पातीकभी खुश्बू सा तो कभी हवा सा तो कभी मुस्कान सा
निराकारता के भाव में जब मोहब्बत उतर जाती
फिर ना किसी दीदार की हसरत रह जाती
फिर ना किसी खुदा की बन्दगी की जाती
बस सिर्फ़ सज़दे में रूह के रूह पिघल जाती
और कोई खुशगवार छनछनाती प्रेम धुन हवाओं में बिखर जाती
बाँसुरी की धुन में किसी राधा को गुनगुनाती सी
और हो जाता निराकार में प्रेम का साकार दर्शन
गर कर सको ऐसा जानाँ
तभी जाना किसी पीर फ़कीर की दरगाह पर प्रेम का अलख जगाने
जो सुना तो शैदाई ना शैदाई रहा वो तो खुद ही फ़कीर बन गया
आज की मिट्टियों में ऐसे कँवल नहीं खिला करते जो देवता को अर्पित हो सकें

श्रापित मोहब्बत हो कोई और उसे मुक्तिद्वार मिल जाये

आज भी कुँवारी है मेरी मोहब्बत
जानते हो तुम
रोज आती हूँ नंगे पाँव परिक्रमा करने
उसी बोधिवृक्ष की
जहाँ तुमने ज्ञान पाया
जहाँ से तुमने आवाज़ दी
उस मृतात्मा को
जिसका होना ना होना
खुद के अस्तित्व के लिए भी दुरूह है
काठ की दुल्हनें कब डोलियों में बैठी हैं
फिर भी तुमने देवदार बन कर
छाँव के औसारे पर
मेरे पाँव की जमीन की मिटटी पर
अपने दिल की तस्वीर बनाई थी
और वो मिटटी धडकने लगी
साँसों पर ठहरी इबारत
आकार लेना चाहकर भी ना ले सकी
जानते हो ना
मैं होकर भी नहीं हूँ
देवदासी तो नहीं हूँ
पर उससे कम भी नहीं
कैसे श्रृंगार पर अधिकार करूँ
मोहब्बत का श्रृंगार मेरी
माँग का सिन्दूर नहीं
पत्थर की राजकुमारियां
शापित होती हैं डूब कर मरने के लिए
मगर तुम्हारी साधना की आराधना बनना
तुम्हारे हाथों में सुमिरन की माला बन
ऊंगलियों में फिरना
जीवित काष्टों का नसीब नहीं
देखो मत छूना मुझे
ये ग्रीवा पर ऊंगलियों के स्पर्श
मुझमे चेतना का संचार नहीं करेंगे
अरे रे रे रुको वहीँ
पीछे बहता दरिया मेरी कब्रगाह है
नहीं है इजाज़त मुझे बाँध बाँधने की
सिर्फ प्रवाहित हो सकती हूँ
अस्थियों की तरह
गर तुमने मेरी माँग में
अपने प्रेम का सिन्दूर भरा
वैधव्य का दुशाला कैसे ओढूंगी
श्रापित हूँ मैं
दूर रहो मुझसे
मैं कहती रही तुम सुनते रहे
और तुम्हारे कदम बढ़ते रहे
बलिष्ठ भुजाओं में भर
स्नेह्जनित चुम्बन
शिव की तीसरी आँख पर
अंकित कर
मुझे श्राप से मुक्त किया
मेरा भरम तोड़ दिया श्रापित होने का
सुदूर पूरब में
सूर्योदय की लालिमा का रंग
मेरे मुखकमल पर देख
तुमने इतना ही तो कहा था
पिघलती चट्टान का रंग-ओ-सुरूर हो तुम ओ मेरी दिवास्वप्ना!!
बस फिर यूँ लगा
श्रापित मोहब्बत हो कोई और उसे मुक्तिद्वार मिल जाये

सोचती हूँ अघोरी बन जाऊँ 

सोचती हूँ अघोरी बन जाऊँ
और अपने मन के शमशान में
कील दूँ तुम्हें
तुम्हारी यादों को
तुम्हारे वजूद को
अपनी मोहब्बत के
सिद्ध किये मन्त्रों से

सुना है मन्त्रों में बहुत शक्ति होती है
और आत्मायें
जो कीली जाती हैं
वचनबद्ध होती हैं
मन्त्रों की लक्ष्मण रेखा में
बँधे रहने को

क्योंकि
मोहब्बत की शमशानी खामोशी में गूँजते
मन्त्रोच्चार के भी अपने कायदे होते हैं

तुम्हारी मूक अभिव्यक्ति की मुखर पहचान हूँ मैं

सुनो
प्रश्न किया तुमने
देह के बाहर मुझे खोजने का
और खुद को सही सिद्ध करने का
कि देह से इतर तुम्हें
कभी देख नहीं पाया
जान नहीं पाया
एक ईमानदार स्वीकारोक्ति तुम्हारी
सच अच्छा लगा जानकर

मगर
बताना चाहती हूँ तुम्हें
मैं हूँ देह से इतर भी
और देह के संग भी
बस बीच की सूक्ष्म रेखा कहो
या दोनो के बीच का अन्तराल
उसमें कभी देखने की कोशिश करते
तो जान पाते
मै और मेरा प्रेम
मैं और मेरी चाहतें
मैं और मेरा होना
देहजनित प्रेम से परे
मेरे ह्रदयाकाश मे अवस्थित
अखण्ड ब्रह्मांड सा व्यापक है
जिसमें मेरा देह से इतर होना समाया है
बस भेदना था तुम्हें उस ब्रह्मांड को
अपने प्रेमबाण से
जो देह पर आकर ही ना
अपना स्वरूप खो बैठे

क्या चाहा देह से इतर
सिर्फ़ इतना ना
कभी कभी आयें वो पल
जब तुम्हारे स्पर्श में
मुझे वासनामयी छुअन
का अहसास ना हो
कभी लेते हाथ मेरा अपने हाथ में
सहलाते प्रेम से
देते ऊष्मा स्पर्श की
जो बताती
मैं हूँ तुम्हारे साथ
तुम्हारे हर अनबोले में
तु्म्हारे हर उस भाव में
जिन्हें तुम शब्दों का जामा नही पहना पातीं
“तुम्हारी मूक अभिव्यक्ति की मुखर पहचान हूँ मैं”
ओह! सिर्फ़ इन्हीं शब्दो के साथ
मैं सम्पूर्ण ना हो जाती

या कभी पढते आँखों की भाषा
जहाँ वक्त की ख्वाहिशों तले
मेरा वजूद दब गया था
मगर अन्दर तो आज भी
एक अल्हड लडकी ज़िन्दा थी
कभी करते कोशिश
पढने की उस मूक भाषा को
और करते अभिव्यक्त
मेरे व्यक्त करने से पहले
आह! मैं मर कर भी ज़िन्दा हो जाती
प्रेम की प्यास कितनी तीव्र होगी सोचना ज़रा

क्या ज्यादा चाहा तुमसे
इतने वर्ष के साथ के बाद
जहाँ पहुँचने के बाद शब्द तो गौण हो जाते हैं
जहाँ पहुँचने के बाद शरीर भी गौण हो जाते हैं
क्या इतना चाहना ज्यादा था
कम से कम मेरे लिये तो नही था
क्योंकि
मैने तुम्हें देह के साथ भी
और देह से इतर भी चाहा है

जानते हो
कभी कभी जरूरत होती है
देह से इतर भी प्रेम करने की राधा कृष्ण सा

सम्पूर्णता की चाह में ही तो भटकाव है,प्यास है, खोज है
जो मेरी भी है और तुम्हारी भी
बस फ़र्क है तो स्वीकार्यता में
बस फ़र्क है तो महसूसने में
बस फ़र्क है तो उसके जीने में

और मैं और मेरी प्यास अधूरी ही रही
मुझे पसन्द नहीं अधूरापन
क्योंकि
ना तुम आदि पुरुष हो ना मैं आदि नारी
इसलिये
खोज जारी है देह से इतर प्रेम कैसे होता है

अधूरी हसरतों को प्यास के पानी से सींचना सबके बस की बात नहीं

यूँ अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को खरोंचना आसान नहीं होता 

जो कभी हुआ ही नहीं
जो कभी मिला ही नहीं
जिसका कोई वजूद रहा ही नहीं
मैने उस इश्क को पीया है
और जीया है साहिबा

यूँ अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को खरोंचना आसान नहीं होता

दिल धडकता भी हो
साँस आती भी हो
रूह पैबस्त भी हो
मैने हर उस लम्हे में
खुद को मरते देखा है साहिबा

यूँ अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को खरोंचना आसान नहीं होता

आँच जलती भी रही
रोटी पकती भी रही
भूख मिटती भी रही
मैने उस चूल्हे की तपन में
खुद को सेंका है साहिबा

यूँ अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को खरोंचना आसान नहीं होता

प्रेम का अंतिम लक्ष्य क्या सेक्स? 

प्रेम
एक अनुभूत प्रक्रिया
न रूप न रंग न आकार
फिर भी भासित होना
शायद यही इसे सबसे जुदा बनाता है
ढाई अक्षर में सिमटा सारा संसार
क्या जड़ क्या चेतन
बिना प्रेम के तो
प्रकृति का भी अस्तित्व नहीं
प्रेम का स्पंदन तो चारों दिशाओं में घनीभूत होता
अपनी दिव्यता से आलोकित करता है
फिर भी प्रेम कलंकित होता है
फिर भी प्रेम पर प्रश्नचिन्ह लगता है
आखिर प्रेम का वास्तविक अर्थ क्या है
क्या हम समझ नहीं पाते प्रेम को
या प्रेम सिर्फ अतिश्योक्ति है
जो सिर्फ देह तक ही सीमित है
जब बिना प्रेम के प्रकृति संचालित नहीं होती
तो बिना प्रेम के कैसे आत्मिक मिलन संभव है
जो मानव देह धारण कर
इन्द्रियों के जाल में घिर
हर पल संसारिकता में डूबा हो
उससे कैसे आत्मिक प्रेम की अपेक्षा की जा सकती है
आम मानव के प्रेम की परिणति तो
सिर्फ सैक्स पर ही होती है
या कहिये सैक्स ही वो माध्यम होता है
जिसके बाद प्रेम का जन्म होता है
ये आम मानव की व्यथा होती है
जिस निस्वार्थ प्रेम की अभिलाषा में
वो उम्र भर भटकता है
अपने साथी से ही न निस्वार्थ प्रेम कर पाता है
उसका प्रेम वहां सिर्फ सैक्स पर ही आकर पूर्ण होता है
ये मानवमन की विडंबना है
या कहो
उसकी चारित्रिक विशेषता है
जो उसका प्रेम सैक्स की बुनियाद पर टिका होता है
मगर देखा जाये तो
सैक्स सिर्फ सांसारिक प्रवाह का एक आधार होता है
मानव तो उस सृजन में सिर्फ सहायक होता है
और खुद को सृष्टा मान सैक्स का दुरूपयोग
स्व उपभोग के लिए करना जब शुरू करता है
यहीं से ही उसके जीवन में प्रेम का ह्रास होता है
क्योंकि
प्रेम का अंतिम लक्ष्य सैक्स कभी नहीं हो सकता
ये तो जीवन और सृष्टि के संचालन में
मात्र सहायक की भूमिका निभाता है
ये तो वक्ती जरूरत का एक अवलंबन मात्र होता है
जिसे आम मानव प्रेम की परिणति मान लेता है
जबकि
प्रेम की परिणति तो सिर्फ प्रेम ही हो सकता है
जहाँ प्रेम में प्रेम हुआ जाता है
प्रेम में किसी का होना नहीं
प्रेम में किसी को अपना बनाना नहीं
बल्कि खुद प्रेमस्वरूप हो जाना
बस यही तो प्रेम का वास्तविक स्वरुप होता है
जिसमे सारी क्रियाएं घटित होती हैं
और जो होता है आत्मालाप ही लगता है
बस वो ही तो प्रेम में प्रेम का होना होता है
मगर
आम मानव के लिए विचारबोध
ज़िन्दगी के अंतिम पायदान पर खड़ा होता है
उसके लिए तो प्रेम सिर्फ प्राप्ति का दूसरा नाम है
जिसमे सिर्फ जिस्मों का आदान प्रदान होता है
लेकिन वो प्रेम नहीं होता
वो होता है प्यार
हाँ प्यार
क्योंकि प्यार में सिर्फ़
स्वसुख की प्रक्रिया ही दृष्टिगोचर होती है
जिसमें साथी सिर्फ़ अपना ही सुख चाहता है
जबकि प्रेम सिर्फ़ देना जानता है
और प्यार सिर्फ़ लेना सिर्फ़ अपना सुख
और यही पतली सी लकीर
प्रेम और प्यार के महत्त्व को
एक दूजे से अलग करती है
मगर आज का प्राणी
अपने देहजनित प्यार को ही प्रेम समझता है
और
बेशक उसे ही वो प्रेम की परिणति कहता है
क्योंकि
कुछ अंश तक तो वहां भी प्रेम का
एक अंकुर प्रस्फुटित होता है
तभी कोई दूसरे की तरफ आकर्षित होता है
और अपने जिस्म को दूजे को सौंपा करता है
और उनके लिए तो यही प्रेम का बीजारोपण होता है
अब इसे कोई किस दृष्टि से देखता है
ये उसका नजरिया होता है
क्योंकिउसकी नज़र में
सैक्स भी प्रेम के बिना कहाँ होता है
कुछ अंश तो उसमे भी प्रेम का होता है
और ज्यादातर दुनिया में
आम मानव ही ज्यादा मिलता है
और उसके लिए उस तथाकथित प्रेम का
अन्तिम लक्ष्य तो सिर्फ़ सैक्स ही होता है
जबकि सैक्स में
कहाँ प्रेम निहित होता है
वो तो कोरा रासरंग होता है
वक्ती जरूरत का सामान
आत्मिक प्रेम में सिर्फ़ प्रेम हुआ जाता है
वहाँ ना देह का भान होता है
बस यही फ़र्क होता है
एक आत्मिक प्रेम के लक्ष्य में
और कोरे दैहिक प्रेम में
हाँ जिसे दुनिया प्रेम कहती है
वो तो वास्तव में प्यार होता है
और प्यार की परिणति तो सिर्फ़ सैक्स में होती है मगर प्रेम की नहीं
बस सबसे पहले तो
इसी दृष्टिकोण को समझना होगा
फिर चयन करना होगा
वास्तव में खोज क्या है
और मंज़िल क्या?

एक अधूरी कहानी का मौन पनघट

तृप्ति अतृप्ति के पनघट पर
उँसास भरता मन का घट
ना जाने क्यों रीता ही रहता है
काया के गणित में उलझा
मन का पंछी काया से परे
एक निर्बाध उडान को जब विचलित होता है
तब प्रेम के नये समीकरण गढता है

तुम प्रेमी मेरे मैं प्रेयसी तुम्हारी
चाहे प्रीत की ना कोई रीत हमारी
फिर भी साँसों की स्याही में रूह उतरी है हमारी
जहाँ सिर्फ़ इक दूजे की चाहत ही परवान चढी

सुनो
हमारा प्रेम क्या सफ़र तय कर पायेगा
क्या कोई मुकाम पा पायेगा
जहाँ तुम और मैं
अपनी-अपनी राह चलते हुये
एक फ़ासले से इक दूजे को गुनते हुये
कुछ रेशमी नर्म रुमाल पर कढे बूँटे से
अहसासों को समेट पायेंगे?

पता नहीं जानाँ
मोहब्बत ये कौन सी है
पहली या दूजी
मैं तो महरूम ही रहा
जिसे मोहब्बत समझा
उसने ही दगा दिया
और हर शय से विश्वास सा उठ गया
फिर एक अरसे बाद
तुम्हारी आँखों ने कुछ कहा
जिसे मैने अनदेखा किया
चोट खाये शहरों की दीवारों पर निशाँ बाकी जो थे
कैसे कदमबोसी करते
कैसे डग आगे बढते
बस कतरा कर निकलते रहे
फिर भी ना जाने कैसे
तुम्हारे अनछुये स्पर्श ने
तुम्हारे अनकहे कथन ने
मुझमें बैठा भ्रम तोड दिया
और मोहब्बत से रीता घट मेरा लबालब भर गया
अब दहकते अंगारों से गुजरता हूँ और स्पर्श से डरता हूँ
तृप्त हूँ तुम्हें ना पाकर
सुना है पाने पर भी अतृप्ति हुआ करती है
फिर क्या करूँगा तुम्हें पाकर
जहाँ तुम्हें ही खो दूँ
हाँ खोना ही तो हुआ ना
एक निश्छल प्रेम का
काया के भंवर में डूबकर
और मैं ज़िन्दा रखना चाहता हूँ हमारे प्रेम को
अतृप्ति के क्षि्तिज़ परदेह के भूगोल से परे

और एक साया सा
मेरी आँखों मे आकर गुजर गया
जब तुमने अपना सच कहा
तुम्हारे प्रेमबोध के गणित से यूँ तो चकित हुयी
फिर भी मेरी भावना ना जाने क्यूँ आहत हुयी
शायद यही फ़र्क होता है प्रेम की अनुभूतियों में
खासकर जब इस तरफ़ पहला प्रेम हो
और उस तरफ़ दूसरी बार अलाव जला हो
अतृप्त होकर तृप्त होने के
तुम्हारे गणित मे उलझे
बेशक हमारे अस्तित्वों ने
अपनी-अपनी राह पकडी
फिर भी एक खलिश सीने में मेरे चुभती रही

दिन महीने साल तारीखें बदलती रहीं
ना तुम मिले ना मैं मिली
फिर भी इक आग थी जो दोनो तरफ़ जलती रही
रेगिस्तान की आगएक बादल को तरसती रही

ना जाने कौन सा सावन था
जो तुम्हारे पनघट पर मुझे वापस ले आया
क्योंकि
बिना सावन के कब धरा की प्यास बुझी है
कब उसकी कोख में कोई उम्मीद जगी है
और मैं चाहती थी उम्मीद का लहलहाता संसार
तुम्हारे संग, तुम्हारी चाहत के संग
और मि्टा ली जन्मों की प्यास धरा ने पूर्ण होकर
संतृप्त होकर अपने सत्पात्र के साथ संलग्न होकर
एक घडा तृप्त हुआ अपनी संपूर्णता से
मगर दूजा घट अतृप्ति मे तृप्ति चाहने की प्यास के साथ
एक नयी कहानी अधूरी कहानी का शुभारंभ हुआ
किसे क्या मिला, कौन मंज़िल पर पहुंचा
कोई मायने ही नहीं रहा
क्योंकि
कभी कभी पूर्णता भी अपूर्णता की द्योतक होती है
जब कोई बीज अंकुरित ना होना चाहे बस बीज रूप में ही रहना चाहे

ना जाने कैसा प्रेम का पनघट था
ना जाने कैसे प्रेम के पंछी थे
पावनता के छोरों पर खडे क्यूँ भटक रहे थे अपने अपने मनों के अस्तबल में
जहाँ घोडों की लगाम एक ने तृप्ति के तो दूजे ने अतृप्ति के खूँटे से बाँधी थी

कहानी मुकम्मल हुयी या नयी शुरु हुयी नही मालूम
बस इतना था सुना कोई दरवेश इक तान सुना रहा था

मन बंजारे तू क्यों जगा रे
बता तो ज़रा तुझे क्या मिला रे

कहानियों को मुकम्मल करने के लिये
पीडा की बारहदरियों से गुजरना होता है
इसलिये कहता हूँ
एक अधूरी कहानी का मौन पनघट हूँ मैं
जहाँ अब कुंडियाँ कितनी खडकाओ कोई दस्तक पहुँचती ही नहीं
सुना तो है लोगों से शायद ज़िन्दा हूँ मैं मगर क्या सच में?

चलो कोई तो पूर्ण हुआ फिर चाहे मेरा मौन का मगध मौन ही रहा
ओ मेरी अतृप्ति में तृप्ति ढूँढने की ख्वाहिश तुझे अब उम्र भर ख्वाहिश बन ही जीना है!!!

क्योंकि प्रेम को पाने की प्यास तो वहाँ भी उसी शिद्दत से कायम है जैसे तुम्हें

प्रेम की कोई लिखित भाषा तो होती नहीं
और मौखिक प्रेम का कोई स्वरूप नहीं होता
और ऐसे में भी प्रेम कब चुपके से
पाँव दबाता आ खड़ा होता है
दो मध्यस्थों के बीच मध्यस्थता करने
कोई जानने का प्रयास नहीं करता
और उम्र भर उस अलिखित मौखिक प्रेम को
हम ढोते रहते हैं मगर कभी संपूर्ण नहीं होते
क्योंकि
प्रेम का व्यास इतना विस्तृत होता है कि
न ओर मिलता है न छोर
और यहीं से शुरू हो जाती है
एक जद्दोजहद खुद से
और
ढूँढने लगते हैं हम
प्रेम के चिन्ह हर शख्स में
चाहते हो इक ऐसा प्रेमी
जो देह से परे सिर्फ तुम्हें चाहे
जो तुम्हारी मूक भाषा के
सारे तथ्यों को गुन ले
और बिना कहे ही उन्हें जी ले
जहाँ आत्मिक तरंगों पर
सूक्ष्म प्रवाह प्रवाहित हो
जहाँ आलिंगन हो तो ऐसा
जहाँ दैहिक ऊष्मा की जगह
आत्मिक ऊर्जा प्रवाहित हो
जहाँ तुम प्रेम के बादशाह हों
और प्रेम तुम्हारे ह्रदयकमल पर नृत्य करता हो
एक ऐसा प्रेम जहाँ माँग ना हो
एक ऐसा प्रेम जहाँ चाह ना हो
कुछ ऐसे प्रेम की चाह में डूबे तुम
डूबते उतराते रहते हो जीवन पर्यन्त
क्योंकि
प्रेम की तलब एक बार जिसे लग जाए
वो ना यहाँ का रहता है ना वहाँ का
बस यहीं से शुरू हुयी खोज
न जाने कहाँ जाकर रूकती है
क्योंकि यही वो खोज है
जो पूर्ण होकर भी पूर्ण नहीं होती
हर निगाह में प्रेम को ढूँढने की कोशिश
हाँ वो ही प्रेम जो दैहिक भाषा से ऊपर होता है
मगर सुना है वो तो फिर अध्यात्मिक हो जाता है
अगर अध्यात्मिक प्रेम की ही चाह है
तो करो कृष्ण से गोपियों सा निस्वार्थ
अजब माया प्रेम की
निकलता है मानवी प्रेम ढूँढने
और चल पड़ता है अध्यात्मिक प्रेम की ओर
मगर सत्य अब भी दूर होता है बहुत दूर
क्योंकि
अध्यात्म में कौन सा प्रेम तुम्हें मिलता है
वहाँ भी प्रेम तुम ही करते हो अपने प्रियतम से
मगर उस ओर से जवाब नहीं मिलता
नहीं आता उस ओर से कोई तुम्हें सहलाने
तुम्हारी तकलीफों में
यहाँ तक कि
अध्यात्मिक प्रेम में तो
प्रियतम के दीदार तक को तरसते हो
और नहीं हो पाता वहाँ भी प्रेम का आदान-प्रदान
बस इकतरफा प्रेम की अदृश्य डोर में बँधे तुम
उसी में प्रेम की सम्पूर्णता समझते हो
और विरह ही प्रेम का फल है
जब ये सुनते हो तो उसी में खुश होते हो
प्रेम पाने का नहीं खोने का नाम है
इन किन्वंदंतियों में फँसे तुम
कभी ये जान ही नहीं पाते
प्रेम के बीज कभी छायादार वृक्ष नहीं बनते
और जीवन की भूलभुलैया में फँसे तुम
कभी जान नहीं पाते ये सत्य कि
प्रेम मानवी हो या ईश्वरीय
दोनों में तलवार की धार पर
तुम्हें ही चलना होता है
और कटना भी तुम्हें ही होता है
फिर प्रेम लिखित हो या मौखिक
अपने अदृश्य स्वरुप में भासने की
प्रक्रिया में कभी सजीव नहीं होता
कभी साकार नहीं होता
क्योंकि
प्रेम के ढाई अक्षरों में तो सिर्फ खोना ही खोना लिखा है
अब चाहे कृष्ण को चाहो
मगर उसने नहीं जवाब देना
उसने तो अदृश्य ही रहना है
उसने तो बस इतना करना है
जब तुम्हें जरूरत हो तो
तुम्हारी कारुणिक पुकार पर
अदृश्य रूप में आकर तुम्हें संभालना है
फिर चाहे मीरा हो या द्रौपदी
लेकिन यदि तुम ये चाहो
कृष्णा सामने आएगा
तुम्हारे मन मुताबिक चलेगा
या तुम्हारी चाह पूरी करेगा एक चाहने वाला बनकर
तो ये तुम्हारी भूल है
प्रेम तो सिर्फ तुम्हें करना है
अब चाहे ईश्वर से करो या मानव से
क्योंकि
प्रेम को पाने की प्यास तो वहाँ भी उसी शिद्दत से कायम है जैसे तुम्हें
प्रेमग्रंथ में प्रेम तो बस एक छलावे का नाम है
गर है हिम्मत
हो पिपासु
तभी इस ओर आना खुद को जान बूझकर अपने ही हाथों छलवाने
क्योंकि
प्रेम रुपी सर्प के डंक से बचे तो भी और ना बचे तो भी
मरना तुम्हें ही है निश्चित

मृगमरीचिका है प्रेम जहाँ से वापसी की तरफ़ कोई राह नहीं मुडती
खौलता तेज़ाब है प्रेम जिसमें डूबने पर गलन्त ही गलन्त है

कोई टुकडा वज़ूद का नहीं मिलता
बेस्वादा है प्रेम जिसमें कहीं चाशनी नहीं होती

प्रेम कभी प्रौढ नहीं होता 

1
जो वस्तु में, दृष्टि में, सृष्टि में उल्लास भर दे,
खिलखिलाहट से सराबोर कर दे
जहाँ निगाह डालो उसी का रूप दमके,
उसी के ख्याल धमके, उसी की पायल छनके
फिर ना कोई दूजा रूप निगाह में अटके
यही तो प्रेम का चिरजीवी स्वरूप है
जो नित नवीन रूप धारण कर
नवयौवना सा खिलखिलाता रहता है
जितनी प्रेम की सीढी चढो उतना ही
उसके यौवन पर निखार आता जाता है
प्रेम कभी प्रौढ नही होता जानाँ!!!

2
और तुम मेरी आँख में ठहरा वो बादल हो
जो बरसे तो मैं भीगूँ, जो रुके तो मैं थमूँ,
जो लहलहाये तो मैं थरथराऊँ,
जो मेरी रूह को चूमे तो मैं पिघल जाऊँ,
रसधारा सी बह जाऊँ,
नूर की बूँद बन जाऊँ और तेरी पलकों में ही समा जाऊँ
फिर ना अधरामृत के पान की लालसा रहे,
फिर ना मिलन बिछोह के पेंच रहें,
फिर ना दिन रात का होश रहे
सूक्ष्म तरंग सी मैं बह जाऊँ
तुझमें समा नवजीवन पाऊँ
फिर नवयौवना सी खिल-खिल जाऊँ
क्योंकि प्रेम कभी प्रौढ नहीं होता जानाँ!!!

3
और मेरे प्रेम की धुरी भी तुम हो,
तुम्हारे आँखों की वो गहराई है
जो भेद जाती है मुझे अन्दर तक
खोल देती है सारे परदे खिडकियों के
आने देती है एक महकती प्राणवायु को अन्दर
और कर देती है समावेश मुझमें
साँसों की सरसता का, महकता का, मादकता का
और मैं खुले आकाश पर विचरती एक उन्मुक्त पंछी सी
तुम्हारे प्रेम के बाहुपाश में बँधी जब भरती हूँ उडान
हवायें झुक कर करती हैं सलाम
मेरे पंखों को परवाज़ देती हैं,
मेरी उडान मे सहायक होती हैं
और मैं बन जाती हूँ तुम्हारे प्रेम का जीता जागता जीवन्त प्रमाण
जो हमेशा तरुणी सा इठलाता है
क्योंकि प्रेम कभी प्रौढ नहीं होता जानाँ!!!

4
ये तो सिर्फ़ तरंगों पर बहते हमारे प्रेम के स्फ़ुरण हैं जानाँ
गर कहीं तुमने कभी छू लिया मुझको और जड दिया एक चुम्बन
मेरे कपोलों पर, ग्रीवा पर, नासिका पर, नेत्रों पर या अधरों पर
मैं ना मैं रह पाऊँगी
फिर चाहे केश कितने ही पके हों,
झुर्रियों से हाथों का श्रृंगार क्यों ना हुआ हो,
कदमों में चाहे कितने ही दर्द के फ़फ़ोले पडे हों
मन मयूर नृत्य करने को बाध्य कर देगा
और फिर हो जायेगा नव सृष्टि का निर्माण
तुम्हारे प्रेम की ताल पर मेरे पाँव की थिरकन के साथ
उद्दात्त तरंगों पर फिर होगा एक नवयौवना शोडष वर्षीय तरुणी का आगमन
क्योंकि प्रेम के पंखों पर कभी किसी भी वक्त की परछाइयाँ नहीं पडा करतीं,
किसी भी मौसम का प्रभाव नहीं पडता तभी कभी झुर्रियाँ नहीं पडतीं,
चिरयौवन होता है प्रेम का
फिर उम्र चाहे कोई भी क्यों ना हो,
लम्हे चाहे कितने दुरूह क्यों ना हों
प्रेम का होना ही प्रेम को तरुण बनाये रखता है
शायद इसीलिये प्रेम कभी प्रौढ नहीं होता जानाँ!!!

5
और मेरे प्रेम हो तुम, जो आज तक बदली के उस तरफ़ हो
और मैं उम्र के हर मोड पर सिर्फ़ तुम्हें ही ढूँढ रही हूँ
विश्वास है मिलोगे तुम मुझे किसी ना किसी मोड पर
इसलिये मेरा प्रेम आज तक जीवन्त है,
अपनी मोहकता के साथ तरुण है और हमेशा रहेगा
क्योंकि जान चुकी हूँ ये गहन रहस्य प्रेम कभी प्रौढ नहीं होता जानाँ!!!

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