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‘वासिफ़’ देहलवी की रचनाएँ

बुझते हुए चराग़ फ़रोजाँ करेंगे हम 

बुझते हुए चराग़ फ़रोजाँ करेंगे हम
तुम आओगे तो जश्न-ए-चराग़ाँ करेंगे हम

बाक़ी है ख़ाक-ए-कू-ए-मोहब्बत की तिश्नगी
अपने लहू को और भी अर्ज़ां करेंगे हम

बे-चारगी के हो गए ये चारागर शिकार
अब ख़ुद ही अपने दर्द का दरमाँ करेंगे हम

जोश-ए-जुनूँ से जामा-ए-हस्ती है तार-तार
क्यूँकर एलाज-ए-तंगी-ए-दामाँ करेंगे हम

ऐ चारा-साज़ दिल की लगी का है क्या इलाज
कहने से तेरे सैर-ए-गुलिस्ताँ करेंगे हम

क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम
दाग़ों से आज घर में चराग़ाँ करेंगे हम

‘वासिफ़’ का इंतिज़ार है थम जाओ दोस्तो
दम-भर में तै हुदूद-ए-बयाबाँ करेंगे हम

हम-सफ़र थम तो सही दिल को सँभालूँ तो चलूँ 

हम-सफ़र थम तो सही दिल को सँभालूँ तो चलूँ
मंज़िल-ए-दोस्त पे दो अश्क बहा लूँ तो चलूँ

हर क़दम पर हैं मिरे दिल को हज़ारों उलझाओ
दामन-ए-सब्र को काँटों से छुड़ा लूँ तो चलूँ

मुझ सा कौन आएगा तजदीद-ए-मकारिम के लिए
दश्त-ए-इम्काँ की ज़रा ख़ाक उड़ा लूँ तो चलूँ

बस ग़नीमत है ये शीराज़ा-ए-लम्हात-ए-बहार
धूम से जश्न-ए-ख़राबात मना लूँ तो चलूँ

पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल ‘वासिफ़’
ख़ून-ए-असलाफ़ की अज़्मत को जगा लूँ तो चलूँ

इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे 

इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे
जो ख़ाक हो के आप के दर पर पड़े रहे

ऐ दोस्त मुग़्तनिम हैं वो मुरादान-ए-बा-वक़ार
उसरत में भी जो आन पे अपनी अड़े रहे

पायाब हो के सैल ने उन के क़दम लिए
मंजधार में जो पाँव जमाए खड़े रहे

पड़ी नहीं हर एक पे उस की निगाह-ए-नाज
साक़ी के आस्ताँ पे हज़ारों पड़े रहे

अपनों की तल्ख़-गोई की लज़्ज़त न पूछिए
भाले से उम्र भर रग-ए-जाँ में गड़े रहे

मानिंद-ए-संग-ए-मील दिखाई हर इक को राह
लेकिन ख़ुद अपने पाँव ज़मीं में गड़े रहे

ज़ालिम से एक बोसे पे बरसों रही है ज़िद
आख़िर तक अपनी बात पे हम भी अड़े रहे

शायद कि मुल्तफ़ित हो कोई शहसवार-ए-नाज़
किस आरजू से हम सर-ए-मंज़िल खड़े रहे

फ़ितने बहुत हैं बुत-कदा ओ ख़ानक़ाह में
अच्छे रहे जो दश्त-ए-जुनूँ में पड़े रहे

‘वासिफ़’ का इंतिज़ार था सहरा में बाद-ए-क़ैस
काँटे भी मुद्दतों यूँ ही प्यासे पड़े रहे

खुलने ही लगे उन पर असरार-ए-शबाब आखिर

खुलने ही लगे उन पर असरार-ए-शबाब आखिर
आने ही लगा हम से अब उन को हिजाब आखिर

तामील-ए-किताब अव्वल तावील-ए-किताब आखिर
तदबीर ओ अमल अव्वल तक़रीर ओ ख़िताब आख़िर

इस ख़ाक के पुतले की क्या ख़ूब कहानी है
मस्जूद-ए-मल्क अव्वल रूस्वा ओ ख़राब आखिर

गो ख़ुद वो नहीं करते बख़्शिश में हिसाब अव्वल
देना है मगर हम को इक रोज़ हिसाब आखिर

दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
क्या होगा जो उल्टेंगे वो रूख़ से नक़ाब आखिर

महरूम ने रह जाना कोताहि-ए-हिम्मत से
होने को है ऐ ‘वासिफ’ ये बज़्म-ए-शराब आखिर

किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना

किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना
मुबारक हो दिल-ए-महज़ूँ तिरा ईसार क्या कहना

न करते इल्तिजा दीदार की मूसा तो क्या करते
चला आता है कब से वादा-ए-दीदार क्या कहना

वही करता हूँ जो कुछ लिख चुके मेरे मुक़द्दर में
मगर फिर भी हूँ अपने फ़ेल का मुख़्तार क्या कहना

क़दम उठते ही दिल पर इक क़यामत बीत जाती है
दम-ए-गुलगश्त उस की शोख़ी-ए-रफ़्तार क्या कहना

शब-ए-हिज्राँ पे मेरी रश्क आता है सितारों को
भरम तुझ से है मेरा दीदा-ए-बेदार क्या कहना

तिरे नग़मों से ‘वासिफ’ अहल-ए-दिल मसरूर होते हैं
ब-ईं अफ़्सूर्दगी रंगीनी-ए-गुफ़्तार क्या कहना

नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक

नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक
मगर तेरे वफ़ा-दारों की हिम्मत है जवाँ अब तक

ये तूफ़ान-ए-हवादिस और तलातुम बाद ओ बाराँ के
मोहब्बत के सहरा कश्ती-ए-दिल है रवाँ अब तक

कहाँ छोड़ा है दिल को कारवान-ए-आह-ओ-नाला ने
कि है आवारा मंज़िल यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ अब तक

तलाश-ए-बहर में क़तरे ने कितनी ठोकरें खाईं
समझ लेता जो ख़ुद को बन ही जाता बे-कराँ अब तक

दिल-ए-बीमार को हम-दम हवा-ए-सैर-ए-गुल क्या हो
कि है ना-मोतदिल आब-ओ-हवा-ए-गुलिस्ताँ अब तक

अज़ल से गोश-ए-दिल में गूँजते हैं ज़मज़में तेरे
मगर ऐ दोस्त मैं ने तुझ को पाया बे-निशाँ अब तक

अयाँ अफ़्सुर्दगी-ए-गुल से है अंजाम गुलशन का
मगर ख़ून-ए-दिल-बुलबुल है सर्फ़-ए-आशियाँ अब तक

नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है

नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
परी जैसे कोई हाथों में लेकर जाम आती है

वो मज़ंर भी कभी देखा है अहल-ए-कारवाँ तुुम ने
उमड़ कर जब किसी बिछड़े हुए पर शाम आती है

यहाँ अब ना-तवानी से क़दम भी उठ नहीं सकते
इधर महफ़िल से साक़ी की सला-ए-आम आती है

किसी का ख़ून-ए-दिल खिंच कर टपक जाता है आँखों से
किसी का आँख में खिंच कर मय-ए-गुल-फ़ाम आती है

मुक़द्दर का सितारा-गर न हो रख़्शंदा ऐ ‘वासिफ’
न हिम्मत साथ देती है न हिकमत काम आती है

वो जलवा तूर पर जो दिखाया न जा सका 

वो जलवा तूर पर जो दिखाया न जा सका
आख़िर यही हुआ कि छुपाया न जा सका

आते ही उन के दश्त ओ जबल मुस्कुरा उठे
ऐसे में अपना हाल सुनाया न जा सका

गर्दूं भी इजि़्तराब-ए-अज़ीज़ाँ से हिल गया
सोए कुछ ऐसे हम कि जगाया न जा सका

दामन के दाग़ अश्क-ए-निदामत ने धो दिए
लेकिन ये दिल का दाग़ मिटाया न जा सका

कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं
शोला हमारे दिल का बुझाया न जा सका

बातें हज़ार यूँ तो हरीफ़ों की छुप गईं
‘वासिफ़’ का राज़ था जो छुपाया न जा सका

वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे 

वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
चराग़ बाद-ए-फ़ना ने बुझाए हैं क्या क्या

न ताब-ए-दीद न बे-देखे चैन ही आए
हमारे हाल पे वो मुस्कुराए हैं क्या क्या

रज़ा ओ सब्र ओ क़नात तवाज़ा ओ तस्लीम
फ़लक ने हम को ख़साइल सिखाए हैं क्या क्या

लरज़ गया है जहाँ दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर
हमारी ज़ीस्त में लम्हात आए हैं क्या क्या

नक़ाब उठाओ तो क़िस्सा ही ख़त्म हो जाए
तुम्हारे पर्दा न फ़ितने उठाए हैं क्या क्या

ज़माना हल्का सा ख़ाका न ले सका जिन का
नुक़ूश दस्त-ए-क़जा ने मिटाए हैं क्या क्या

ये पंज-शील ये जम्हूरियत ये राय-ए-अवाम
ये अहल-ए-ज़र ने खिलौने बनाए हैं क्या क्या

बला-ए-जाँ हुई ‘वासिफ’ की बे-गुनाही भी
ज़रा सी बात में इल्ज़ाम आए हैं क्या क्या

ज़र्रा हरीफ़-ए-महर दरख़्शाँ है आज कल

ज़र्रा हरीफ़-ए-महर दरख़्शाँ है आज कल
क़तरे के दिल में शोरिश-ए-तूफ़ाँ आज कल

सद-जलवा बे-हिजाब ख़रामाँ है आज कल
सहमा हुआ सा गुम्बद गर्दां है आज काल

आँसू में अक्स-ए-नक्श-ए-दौराँ है आज कल
सिमटा हुआ सा आलम-ए-इम्काँ है आज कल

बरहम मिज़ाज-ए-फ़ितरत-ए-इंसाँ है आज कल
किस मख़मसे में ग़ैरत-ए-यज़दाँ है आज कल

क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए
सुब्ह-ए-वतन भी शाम-ए-ग़रीबाँ है आज कल

शीराज़ा-ए-उम्मीद शिकस्ता है इन दिनों
जमईयत-ए-ख़याल परेशाँ है आज कल

है इक निगाह-ए-महर की ‘वासिफ’ को आरजू
‘वासिफ़’ का दिल शिकस्ता ओ वीरान है आज कल

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