Skip to content

विकास शर्मा ‘राज़’की रचनाएँ

ज़र्द पेड़ों को हरे ख़्वाब दिखाना चाहें 

ज़र्द पेड़ों को हरे ख़्वाब दिखाना चाहें
रुत के बहरूप शिकारी तो निशाना चाहें

हम तो मज़दूर हैं सहरा के, बना ही देंगे
जितना वीरान इसे आप बनाना चाहें

दश्त आदाब तलब करता है आने वालो
वो जुनूँ करते हुए आएँ जो आना चाहें।

एक ग़ोता भी लगाने की नहीं है क़ुव्वत
और ये लोग समन्दर से ख़ज़ाना चाहें

शेरगोई में तो यूँ काम नहीं चल सकता
ख़र्च कुछ भी न करें और कमाना चाहें

रात बढ़ती है तो चढ़ता है जुनूँ का दरिया

रात बढ़ती है तो चढ़ता है जुनूँ का दरिया
बैन करता है ये ख़ामोश-सा बहता दरिया

तुम किसी और ही धुन में थे सो ग़र्क़ाब हुए
वरना गहरा तो नहीं है ये बदन का दरिया

मुझमें आना तो ज़रा सोच-समझ कर आना
मुझमें सहरा है बहुत और है थोड़ा दरिया

फैलती जाती हैं इस शह्र की चिकनी बाहें
देखता रहता है चुपचाप सिमटता दरिया

हम नहीं जानते सहरा में जुनूँ के आदाब
प्यास लगती है तो कह उठते हैं दरिया दरिया

जिसकी लहरों ने बनाया था शनावर मुझको
याद आता है बहुत मुझको वो पहला दरिया

चल रहे थे नज़र जमाये हम 

चल रहे थे नज़र जमाये हम
मुड़ के देखा तो लड़खड़ाये हम

खोलता ही नहीं कोई हमको
रह न जाएँ बँधे-बंधाये हम

प्यास की दौड़ में रहे अव्वल
छू के दरिया को लौट आये हम

एक ही बार लौ उठी हमसे
एक ही बार जगमगाये हम

जिस्म भर छाँव की तमन्ना में
उम्र भर धूप में नहाये हम

रोज़ ये ख़्वाब डराता है मुझे

रोज़ ये ख़्वाब डराता है मुझे
कोई साया लिए जाता है मुझे

ये सदा काश ! उसी ने दी हो
इस तरह वो ही बुलाता है मुझे

मैं खिंचा जाता हूँ सहरा की तरफ़
यूँ तो दरिया भी बुलाता है मुझे

देखना चाहता हूँ गुम होकर
क्या कोई ढूँढ के लाता है मुझे

मैं ही कमज़ोर इरादे का हूँ
छत का पंखा तो बुलाता है मुझे

इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है
जाने क्या-क्या नज़र आता है मुझे

पसे-ग़ुबार आई थी सदा मुझे

पसे-ग़ुबार आई थी सदा मुझे
फिर उसके बाद कुछ नहीं दिखा मुझे

मैं ख़ामुशी से अपनी सिम्त बढ़ गया
तिरा फ़िराक़ देखता रहा मुझे

मुक़ाबला किया ज़रा-सी देर बस
फिर उसके बाद शेर खा गया मुझे

ये और बात रात कट गई मगर
तिरे बग़ैर डर बहुत लगा मुझे

वो एक शाम रायगां चली गई
उस एक शाम कितना काम था मुझे

मगर मैं पहले की तरह न बन सका
उधेड़ कर जो फिर बुना गया मुझे

ये शहर रात भर जो मेरे साथ था
सहर हुई तो दूसरा लगा मुझे

मैं अपने आसपास ही बिखर रहा था

मैं अपने आसपास ही बिखर रहा था
ये सानिहा मुझे उदास कर रहा था

क़दीम आसमान हँस रहा था मुझ पर
नई ज़मीन पर मैं पाँव धर रहा था

मैं अलविदाअ कह चुका हूँ क़ाफ़िले को
मिरे वुजूद में ग़ुबार भर रहा था

हरी-भरी-सी मुझमें हो रही थी हलचल
मैं ख़ुश्क पत्तियों को जम्अ कर रहा था

तमाम मरहले मिरे लिए नए थे
मैं पहली बार हिज्र से गुज़र रहा था

उम्र भर एक ही सफ़र में रहा

उम्र भर एक ही सफ़र में रहा
एक ही सौदा मेरे सर में रहा

किसने देखा शनावरी का हुनर
डूब जाना मिरा ख़बर में रहा

मेरे अंजाम का था ये आग़ाज़
उसने आवाज़ दी मैं घर में रहा

कितने मन्तर रुतों ने फूँके थे
फिर भी वो ज़ह्र उस शजर में रहा

हाथ पर हाथ रख के क्यों बैठूँ

हाथ पर हाथ रख के क्यों बैठूँ
धूप आएगी कोई साया बुनूँ

पाँव ज़ंजीर चाहते हैं अब
जितनी जल्दी हो अपने घर लौटूँ

हाँ, ये रुत साज़गार है मुझको
मैं इसी रुत में ख़ुश्क हो जाऊँ

एक नश्शा है ये उदासी भी
और मैं इस नशे का आदी हूँ

उसने शादी का कार्ड भेजा है
सोचता हूँ ये इम्तहाँ दे दूँ

फिर वही शब वही सितारा है 

फिर वही शब वही सितारा है
फिर वही आस्माँ हमारा है

वो जो ता’मीर थी, तुम्हारी थी
ये जो मलबा है, सब हमारा है

चाहता है कि कहकशाँ में रहे
मेरे अंदर जो इक सितारा है

वो जज़ीरा ही कुछ कुशादा था
हमने समझा यही किनारा है

अपनी आवाज़ खो रहा हूँ मैं
ये ख़सारा बड़ा ख़सारा है

सबके आगे नहीं बिखरना है

सबके आगे नहीं बिखरना है
अब जुनूँ और तर्ह करना है

क्या ज़रूरत है इतने ख़्वाबों की
दश्त-ए-शब पार ही तो करना है

आ गए ज़िन्दगी के झाँसे में
ठान रक्खा था आज मरना है

पूछना चाहिए था दरिया को
डूबना है कि पार उतरना है

बैंड-बाजा है थोड़ी देर का बस
रात भर किसने रक़्स करना है

ज़िन्दगी की हँसी उड़ाती हुई

ज़िन्दगी की हँसी उड़ाती हुई
ख़्वाहिश-ए-मर्ग सर उठाती हुई

खो गई रेत के समन्दर में
इक नदी रास्ता बनाती हुई

मुझको अक्सर उदास करती है
एक तस्वीर मुस्कुराती हुई

आ गई ख़ामुशी के नर्ग़े में
ज़िन्दगी मुझको गुनगुनाती हुई

मैं इसे भी उदास कर दूँगा
सुब्ह आई है खिलखिलाती हुई

हर अँधेरा तमाम होता हुआ
जोत में जोत अब समाती हुई

दिल-खंडर में खड़े हुए हैं हम

दिल-खंडर में खड़े हुए हैं हम
बाज़गश्त अपनी सुन रहे हैं हम

मुद्दतें हो गईं हिसाब किए
क्या पता कितने रह गए हैं हम

जब हमें साज़गार है ही नहीं
जिस्म को पहने क्यों हुए हैं हम

रफ़्ता-रफ़्ता क़ुबूल होंगे इसे
रौशनी के लिए नए हैं हम

वहशतें लग गईं ठिकाने सब
दश्त को रास आ गए हैं हम

सबसे आगे हमें ही होना था
सबसे पीछे खड़े हुए हैं हम

धुन तो आहिस्ता बज रही है ‘राज़’
रक़्स कुछ तेज़ कर रहे हैं हम

कोई उसके बराबर हो गया है

कोई उसके बराबर हो गया है
ये सुनते ही वो पत्थर हो गया है

जुदाई का हमें इम्कान तो था
मगर अब दिन मुक़र्रर हो गया है

सभी हैरत से मुझको तक रहे हैं
ये क्या तहरीर मुझ पर हो गया है

असर है ये हमारी दस्तकों का
जहाँ दीवार थी दर हो गया है

बहुत ख़ुश हूँ उसे बेचैन कर के
हिसाब उससे बराबर हो गया है

जिस वक़्त रौशनी का तसव्वुर मुहाल था

जिस वक़्त रौशनी का तसव्वुर मुहाल था
उस शख़्स का चराग़ जलाना कमाल था

रस्ता अलग बना ही लिया मैंने साहिबो
हरचन्द दायरे से निकलना मुहाल था

उसके बिसात उलटने से मालूम हो गया
अपनी शिकस्त का उसे कितना मलाल था

मैं भी नए जवाब से परहेज़ कर गया
उसने भी मुझसे पूछा पुराना सवाल था

अफ़सोस ! अपनी जान का सौदा न कर सके
उस वक़्त कीमतों में बला का उछाल था

रात भर बर्फ़ गिरती रही है 

रात भर बर्फ़ गिरती रही है
आग जितनी थी सब बुझ गई है

शम्अ कमरे में सहमी हुई है
खिड़कियों से हवा झाँकती है

सुब्ह तक मूड उखड़ा रहेगा
शाम कुछ इस तरह से कटी है

हमसे तावीज़ भी खो गया है
और ये आहट भी आसेब की है

सब पुराने मुसाफ़िर खड़े हैं
अब तो मंज़िल भी उकता गई है

उम्र भर धूप में रहते-रहते
ज़िन्दगी साँवली हो गई है

न हमसफ़र है न हमनवा है 

न हमसफ़र है न हमनवा है
सफ़र भी इस बार दूर का है

मैं देखकर जिसको डर रहा था
वो साया मुझसे लिपट गया है

अभी टहलते रहो गली में
अभी दरीचा खुला हुआ है

तमाम रंगों से भर के मुझको
वो शख़्स तस्वीर हो गया है

तुम्हीं ने तारीकियाँ बुनी थीं
तुम्हीं ने ये जाल काटना है

नदी भी रस्ता बदल रही है
पहाड़ का क़द भी घट रहा है

चलो कि दरिया निकालते हैं
उठो कि सहरा पुकारता है

हवा के साथ यारी हो गई है

हवा के साथ यारी हो गई है
दिये की उम्र लंबी हो गई है

फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी
मैं समझा था रिहाई हो गई है

हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
वो इक दीवार पूरी हो गई है

बची है जो धनक उसका करूँ क्या
तिरी तस्वीर पूरी हो गई है

लगाकर क़हक़हा भी कुछ न पाया
उदासी और गहरी हो गई है

क़रीब आ तो गया है चाँद मेरे
मगर हर चीज़ धुँधली हो गई है

हवा के साथ यारी हो गई है

हवा के साथ यारी हो गई है
दिये की उम्र लंबी हो गई है

फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी
मैं समझा था रिहाई हो गई है

हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
वो इक दीवार पूरी हो गई है

बची है जो धनक उसका करूँ क्या
तिरी तस्वीर पूरी हो गई है

लगाकर क़हक़हा भी कुछ न पाया
उदासी और गहरी हो गई है

क़रीब आ तो गया है चाँद मेरे
मगर हर चीज़ धुँधली हो गई है

क़ाफ़िले से अलग चले हम लोग

क़ाफ़िले से अलग चले हम लोग
सुर्ख़ियों में बने रहे हम लोग

देखिये, कब तलक रहेंगे साथ
एक-से हैं मिज़ाज के हम लोग

सुब्ह ! क़ुर्बान तेरे चेहरे पर
रात कितने उदास थे हम लोग

जिनका सूझा न कुछ जवाब हमें
उन सवालों पे हँस दिए हम लोग

अब भी प्यारी हैं बेड़ियां हमको
हैं न जाहिल पढ़े-लिखे हम लोग

अब के हारे तो टूट जाएँगे
जीत जाएँ ख़ुदा करे हम लोग

बदन पहले कभी छिलता नहीं था

बदन पहले कभी छिलता नहीं था
हवा का लम्स तो ऐसा नहीं था

तुम्हारी मुस्कुराहट को हुआ क्या
ये परचम तो कभी झुकता नहीं था

चलो अच्छा हुआ डूबा वो सूरज
कहीं भी रौशनी करता नहीं था

ये दरिया पहले भी बहता था लेकिन
किनारे तोड़ कर बहता नहीं था

रात की ग़ार में उतरने का

रात की ग़ार में उतरने का
आ गया वक़्त फिर बिखरने का

उसकी रफ़्तार से तो लगता है
वो कहीं भी नहीं ठहरने का

नींद टूटी तो मुझको चैन पड़ा
ख़्वाब देखा था अपने मरने का

तन से पत्थर बँधे हुए हैं मिरे
मैं नहीं सत्ह पर उभरने का

Leave a Reply

Your email address will not be published.