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विजय कुमार विद्रोही की रचनाएँ

भवसागर पार हुआ

आदि गुरु जो संस्कृति दाता,वंदन ऐसी थाती का ।
साँच सनातन धर करता हूँ ,वर्णन भारत माटी का।
उदधिराज पगवंदन करता,और हिमाला मुकुट हुआ ।
पार हुआ आधा भवसागर,जब इस तन ने इसे छुआ ।

गंगा,कोशी,चम्बल,यमुना,क्षिप्रा,झेलम,महानदी ।
कलकल अमृतधार बहाती,पावन कर दीं कई सदी ।
कंचनजंघा,विंध्याचल से ,पर्वत गर्वित करते हैं ।
मेघों से अठखेली करते ,जन में जीवन भरते हैं ।
यही धरा है पोषण करती,कोई भाषा बोली हो ।
भेदभाव कण भर न दिखता,ईद मने या होली हो ।
इसी धरा ने जन्म दिया था,अवधपुरी के त्राता को ।
पुण्यभूमि की रज को छूने,आना पड़ा विधाता को ।
कण-कण, तृण-तृण ज्ञान भरा है,इसकी सभी विमाओं में ।
मंत्रों के स्वर भ्रमण कर रहे,भुवनों और दिशाओं में ।
नमन तुझे हे भगवन! मेरा , इस धरती पर जनम हुआ ।
पार हुआ आधा भवसागर ,जब इस तन ने इसे छुआ ।

सन सन करती पुरवैया में ,लहराती कंचन फसलें ।
रिमझिम रिमझिम बरखा कहती ,आओ थोड़ा सा हँस लें ।
सोंधी सोंधी मिट्टी बोले , मैं भारत का दर्पण हूँ ।
शौर्य वीरता बलिदानों का , देवालय सा तर्पण हूँ ।
मेरी खुशबू जो तेरे मन , प्राणों को छू जाती है।
रक्त घुला है जिन वीरों का ,उनकी याद दिलाती है ।
ये भारत है रिपुदल थरथर ,काँप काँप रह जाते है ।
नर्तन जब काली करती है ,जय भारत कह जाते हैं।
पाँच नदी की पावन धरती ,वीरगर्भिणी मानो तुम ।
अरिदल से संग्राम समय की , अति बलिदानी जानो तुम ।
राजस्थानी धरा जहाँ कण,तृण में शौर्य समाया है।
समरकाल हल्दीघाटी का ,सुन पौरुष हर्षाया है ।
यह भारत है जिसका वंदन,स्वयं दिवाकर करता है ।
प्रथम रश्मि कोणार्क द्वार पर,अर्पित करने धरता है ।
कालवलय पर भारत मेरा , दिनकर का स्वीकार हुआ ।
पार हुआ आधा भव सागर ,जब इस तन ने इसे छुआ ।

यहाँ क्रांति की दीपशिखा,क्षण दावानल होती है ।
भरत सरीखे बालक के पग ,स्वयं वीरता धोती है ।
एक मात्र भूखंड विश्व का ,जिसको माता मान मिला ।
ज्ञानकिरण जब हमने सौंपी ,तब दुनिया को ज्ञान मिला ।
शून्य न देता अगर भारत ,यह जग शून्य पड़ा होता ।
किसी पश्चिमी घाटी के वह ,भूतल मध्य गड़ा होता ।
वीरप्रसूता भूमि यही है ,जिसको जग करता वंदन।
और दिवाकरतुल्य देश का ,कण कण करता अभिनंदन ।
भानुरूप यह चंद्रकला यह ,व्योमपटल पर दिव्यलेख ।
भगवन इसकी थाती को फिर ,वसुंधरा पर आज देख ।
हमने सींचा है लोहू से ,पिघला है तब पाषाण यहाँ ।
मर्यादा ,मान ,प्रतिष्ठा हित ,खग करते बलिदान यहाँ ।
भारत की पढ़ गौरवगाथा ,मेरा जीवन साकार हुआ ।
पार हुआ आधा भवसागर, जब इस तन ने इसे छुआ।

दोषी कौन 

धृतराष्ट्र सरीखे बन बैठे, जो धर्मराज कहलाते थे ।
झूठे आश्वासन, वादों से ,जनता का मन बहलाते थे ।
कुछ अच्छे दिन को रोते हैं,कुछ लोकपाल बिल फाड़ रहे ।
जितनों के करतल खाली हैं , वो संसद में चिंघाड़ रहे ।

पत्रकारिता तो जैसे , कोठे पे बैठी लगती है ।
इनके भ्रष्टप्रचारों से , सीने में आग सुलगती है ।
कितनी है नेकी और बदी, पैसों से तोला जाता है ।
जितने से सत्ता बनी रहे, उतना सच बोला जाता है ।

ये लोकतंत्र है दस्यु को, एकटूक जीत दिलवाता है ।
हैवान के जाये जैसों को, ये बिरयानी खिलवाता है ।
ये एक अकेला देश विश्व में, जिसको माता कहते हैं ।
जितनी दुश्मन आबादी , उतने तो बाबा रहते हैं ।

इस देश में कन्याभ्रूणों को,कचरे में फेंका जाता है ।
ये देश जहाँ नवयुवती को, तंदूर में सेंका जाता है ।
संविधान की हत्या ही, अब राष्ट्रभाग्य की रेखा है ।
नारीप्रधान इस देश में हमने,कांड “दामिनी” देखा है ।

क्या इन कोरी रचनाओं से हम, देशप्रेम पा सकते हैं ?
सच बतलाना , हममें कितने राष्ट्रगान गा सकते हैं ?
तुम पी.एम हो या सी.एम हो, लेकिन भारत से बड़े नहीं ।
धिक्कार तुम्हारे जीवन पर,यदि राष्ट्रमानहित खड़े नहीं ।

ईमान,त्याग, नैतिकता सब फूँका है क़फनखसोटों ने ।
हर तंत्र हमारा घायल है , गाँधी चिपके हैं नोटों में ।
हम शर्म नहीं करते प्यारे , अपने अधिकार गिनाते हैं ।
दो रोज़ साल में माता के, सच्चे सपूत बन जाते हैं ।

हम ख़ुद से लड़ते रहते हैं, कोई विरोध में नहीं खड़ा ।
सारा इतिहास खँगालो तुम, मस्जिद से मंदिर नहीं लड़ा ।
“विद्रोही”जी कुछ शर्म करो,यदि दावानल आक्रोश नहीं ।
कविता गर्भ में पलता हो यदि, पुण्यप्रलय जयघोष नहीं ।

याद करो उन वीरों को, जिनने अपना तन वारा है ।
कहने को तो हर कविता में ,वो कश्मीर हमारा है ।
किसको दोषी ठहराऐ यारों , क्या हम ज़िम्मेदार नहीं ?
अंतरमन से प्रश्न करो , क्या हम थोड़े गद्दार नहीं ?

मैं अभिमन्यु का वंशज

भूल गऐ क्या ? जब अभिमन्यु युद्धक्षेत्र में आऐ थे ।
वीरों ने ,अतिवीरों तक ने , नाकों चने चबाऐ थे ।
चंद्रदेव के पुत्र मोह से, अंशमात्र जीवन पाया ।
और देह में अपनी माँ के, वो अर्जुन नंदन आया ।

गर्भकाल में श्रवणशक्ति ने, चक्रव्यूह का ज्ञान दिया ।
कुरुक्षेत्र में जिसने, अतिरथियों के सम सम्मान दिया ।
कर्ण,द्रोण स्तब्ध खड़े सुन, अभिमन्यु के गर्जन को ।
देख रहे थे मौन धरे , अर्जुनसुत के यश अर्जन को ।

चक्रव्यूह के सब द्वारों पे ,दस्तक देकर आये थे ।
गुरु द्रोण जिसकी रचना कर,मन ही मन हर्षाऐ थे ।
दुर्योधन की भीषण सेना का,मान भंग कर डाला था ।
चक्रव्यूह के छ: द्वारों को,खंड – खंड कर डाला था ।

ज्येष्ठ,वृद्ध, अतिवीर,रथी तब स्वार्थ के फंदे झूल गऐ ।
बालक वध के लिऐ ,युद्ध के मापदंड सब भूल गऐ ।
लगता जयद्रथ वंशज हो,जो रणभूमि में शेष बचे ।
वो कायर जिनके मानों के,ना कोई अवशेष बचे ।

काव्यलोक को कुरुक्षेत्र जो मान रहे , धिक्कार नहीं ।
पर पुन: जयद्रथ बनने का है , इन्हें शेष अधिकार नहीं ।
काव्यजगत के वीरों तुम, अभिमन्यु को स्वीकार करो ।
हिंदी मधुबन के नवपुष्पों का ना, तुम प्रतिकार करो ।

जो वृक्ष किसी नवकोंपल के,आने ख़ुश ना होता है ।
चिरपतझड़ सा जीवन थामे ,पूरी आयु में रोता है ।
ये युद्ध नहीं ये भक्ति है, सब सरस्वती के बेटे हैं ।
ये सब भी दौड़ लगाऐंगे,तत्काल समय जो लेटे हैं ।

ये करवट लेंगे , फिर बैठेंगे, फिर ये चलने पाऐंगे ।
ये ही काव्यसंरक्षक माँ हिंदी का मान बढ़ाऐंगे ।
मेरी पीढ़ी जब आहत हो , मैं शब्ददंश दिखलाता हूँ ।
शायद इस अवगुण से ही मैं , “विद्रोही” कहलाता हूँ ।

अजन्मी 

अंधलोक, ये जलमंडल है ,मैं जिस घर में सोई हूँ ।
धड़कन सुनती रहती हूँ ,सुंदर सपनों में खोई हूँ ।
मैं मम्मी जैसी लगती या पापा की राजदुलारी हूँ ।
मैं ही तो हूँ जो उनके,सूने आँगन की फुलवारी हूँ ।

दुनिया में जब मैं आऊँगी तो, मम्मी-पापा देखूँगी ।
भैया, दीदी , दादी,नानी और चाची-चाचा देखूँगी ।
सब कितना अच्छा है ना, मैं अपने घर में लेटी हूँ ।
कहते हैं दुनिया बुरी बहुत, देखो ज़िंदा हूँ! बेटी हूँ!

इक रोज़ सुना मैंने देखो, मुझको बेटे की आशा है ।
बेटा ही मेरे वंशबीज की , पूर्णसत्य परिभाषा है ।
जाने कैसी बात चली, क्यूँ रार हुआ फिर पापा से।
मम्मी थक के बैठ गयी, हामी भर घोर निराशा से ।

दिल की धड़कन तेज़ हुई,मेरा तन मुझपर बोझ हुआ।
पता नहीं क्यूँ मम्मी-पापा को,ना कुछ संकोच हुआ।
मेरे सारे सुंदर सपने अब, मुझसे नाता तोड़ गऐ ।
भैया-दीदी , दादी-नानी , मुझको मरने को छोड़ गऐ ।

वो मेरा अंतिम दिन था, मैं सुंदर सपनों में खोई थी ।
जब मेरा हश्र निकट आया, मैं पापा-पापा रोई थी ।
मेरी दुनिया जलमग्न नहीं थी, पूरी सूखी-सूखी थी।
वो कालस्वरूपा कैंची अब, मेरे उस तन की भूखी थी ।

जकड़ा पैर दर्द से चीखी, तुमको याद किया पापा ।
मेरी अदनी पायल का सपना, क्यूँ बर्बाद किया पापा ।
बस कंगन वाले हाथ बचे ,बेपैर हो गयी थी पापा ।
मम्मी के अंदर मैं , अंगों का ढेर हो गयी थी पापा ।

हाथों को मेरे काट-पीट, कैंची गर्दन पर आन टिकी ।
रो-रोकर चीखें मार रही थी, बेटी तेरी कटी – पिटी ।
मेरी गर्दन को काट रही कैंची,मैं लेकिन ज़िन्दा थी ।
ना शर्मसार मम्मी-पापा , ना मानवता शर्मिंदा थी ।

तन की पीड़ा खत्म हुई लेकिन इस मन की बाक़ी थी ।
बस ऐसे ही बेमन से मैं कमरे के बाहर झाँकी थी ।
मेरे पप्पा के नयनों में इक मर्महीन संतोष दिखा ।
पता नहीं मम्मी-पापा को किसने ऐसा दिया सिखा ।

खत्म हुई मैं दुनिया से अब बेटी का क्या करना है ।
बेटी तो ऐसा शापितघट है जिसको हरदम भरना है ।
कत्लगाह से बाहर निकली मुझसे सहते नहीं बना ।
बेज़ुबान हूँ लेकिन मुझसे अब चुप रहते नहीं बना ।

ना अग्निशिखाऐं देखीं ना मैं हुई कबर में कहीं दफ़न ।
कंगन,पायल, टिकली ना ही भाग्य में मेरे रहा कफ़न ।
किस मज़हब ने इंसानों को ऐसे दूषित आमाल दिऐ ।
नन्हें कोमल तन के टुकड़े ‌ कुत्तों के आगे डाल दिऐ ।

मैंने देखा इक कुतिया को कचरे के ऊपर लेटी थी ।
वो अपने मम्मी-पापा की मेरे जैसी ही बेटी थी ।
ज़िंदा है, दुनिया में है, देखो वो भी इक बेटी है ।
वो अपने मम्मी पापा के पहलू में कैसी लेटी है ।

ऐ काश ! मैं भी यहीं कहीं ज़िंदा होती लेटी होती ।
उन ज़ल्लादों से बेहतर मैं इस कुतिया की बेटी होती ।

साँप और ओजकवि

एक साँप ने हम को काट लिया ।
और मुश्किल से दो मिनट जिया ।
तिलमिलाती साँपात्मा हमें बोली ।
गुस्साई अपनी मनोव्यथा खोली ।
कहने लगी अरे! भाई ज़हरी ।
एक बात पूछूँ थोड़ी गहरी ।
ये ख़ून भरे कैसे जी पाते हो ।
मेरा तक विष पचा जाते हो ।
साँपों को बदनाम करवाते हो ।
सच बताना यार क्या खाते हो ?
हम बोले साँपू! कवि हैं हम ।
होश में आजा तोड़ दे भरम ।
हम आदमी हैं पर आम नहीं हैं ।
खुद्दारी रखते हैं,बेईमान नहीं हैं ।
भारत की आबो-हवा में जीते हैं ।
ज़हर खाते हैं और ज़हर पीते हैं ।
समस्याओं के हम नशे में रहते हैं ।
जो कोई न कह पाता हम कहते हैं ।
केवल एक ही मेरे ज़हर का मंत्र है ।
प्यारे!मेरे भारत देश में लोकतंत्र है ।
तुझसे बड़े फनवाले राष्ट्रभाग्य लिखते हैं ।
कुछ पंडालों में कुछ संसद में दिखते हैं ।

श्रृंगार कवि को काटता तो राहत मिलती ।
हास्य को डसता कुछ मुस्कान खिलती ।
ख़ुद मिटाया तूने साँपों की छबि को ।
अबे !काटा भी तो ओज के कवि को ।
जा, चला जा भगवान के घर ।
पहन के आना अब के खद्दर ।
मिटा देना फिर कश्मीर के दंगे ।
कहीं पे भी ना दिखें भिखमंगे ।
हर बूढ़े का समाज में सम्मान हो ।
हर सीने में राष्ट्रप्रेम अरमान हो ।
अपनी सब बेटी- बहनों की रक्षा हो ।
सतचरित्र सी राजनीति की कक्षा हो ।
जुर्मों, दंगों, आतंकों का नाश हो ।
लोगों में बस एक अटल विश्वास हो ।
गंगामाँ की फिर से कंचन लहरें हों ।
फिर द्वारों पे कभी कहीं ना पहरे हों ।
अब शब्दों के बाहर राम का राज बने ।
सत्य,अहिंसा, प्रेम का हम आगाज़ बने ।
जिस दिन मेरे दोस्त ये सब तू कर जाऐगा ।
ओजकवि का ज़हर खुद-ब-ख़ुद मर जाऐगा ।

तन्हाई

मेरी कलम नहीं लिखती, ज़ुल्फों,चालों पर गालों पर ।
स्वर टूटा जाता है मेरा , कुछ मौलिक कंगालों पर ।
भारत के झंडे पे अब , गौ माता काटी जाती है ।
अमन, प्रेम, संबंधों वाली , राहें पाटी जाती है ।

अंतरमन पूछे ये भारत , ज़िंदाबाद नहीं है क्या ।
तुझमें टीपू, वीर शिवा , राणा,आज़ाद नहीं है क्या ।
उत्तर ना दे पाता , अपने रक्तिम आँसू पीता हूँ ।
एक अरब आबादी फिर भी , तन्हाई में जीता हूँ ।

वो दाँई गोदी से उठकर, बाँई गोद में जा बैठा ।
सारे रिश्ते – नाते भूला , रहता है ऐंठा – ऐंठा ।
भारत माँ के आँचल की वो,आज किनारी फाड़ रहा ।
कुछ ना कर पाऐगा फिर भी , घाटी में चिंघाड़ रहा ।

कह दो उस से भारत के दुश्मन से,प्यार नहीं करते ।
कुछ भी हो जाऐ लेकिन हम ,पहला वार नहीं करते ।
भारत माँ के रिसते घाव , मैं गीतों से सीता हूँ ।
एक अरब आबादी फिर भी ,तन्हाई में जीता हूँ ।

नये ख़ून में अब तो मुझको, कोई जोश नहीं दिखता ।
खुदीराम,अब्दुल हमीद, सावरकर बोस नहीं दिखता ।
बहती है कायरता तन में , अब ना कोई रवानी है ।
देश की नवपीढ़ी का लगता, ख़ून हो गया पानी है ।

मेरी कलम दुधारी है ख़ुद , मेरा ख़ून बहाती है ।
देशप्रेम लिखती है फिर भी ,“विद्रोही”कहलाती है ।
यौवनधन भरपूर वतन है, फिर भी रीता-रीता हूँ ।
एक अरब आबादी फिर भी , तन्हाई में जीता हूँ ।

द्रास विजय

घाटी थी निर्मम धूल भरी
सौतेली माँ से भाव धरी
पग पग पत्थर पाते बेटे
ममता ना जाने कहाँ पड़ी

पिट-पिट-पिट छप्पन की गोली
वो भावहीन आँखें बोली
तू और बता क्या करना है
ले आज खेल रक्तिम होली

सीने में रण-गंगा धारे
चल दिये पूत माँ के प्यारे
त्याग वचन घर के सारे
बिन चूक मिटाने हत्यारे

अरि तक जाना आसान कहाँ
पर ना हो ऐसा काम कहाँ
रुक जाने का अरमान कहाँ
वो चोटी था मैदान कहाँ

अब कैसे जाऐं कहाँ चढ़ें
सोच रहे सब खड़े खड़े
कैसे मारें किस तौर लड़ें
दुश्मन के गोले आन पड़े

घाटी दहली विस्फोटों से
कायर दुश्मन की चोटों से
पत्थरदिल कफ़नखसोटों से
उन बेपेंदी के लोटों से

पेशानी पर बलभर तेवर
था रक्तचाप अविचल उर्वर
आँखों में काल-काल मंज़र
वो प्रखर तेज़ हुंकार अधर

वो मुठ्ठी भर का सैनिक बल
था चलता फिरता दावानल
लो त्यागे हमने भाव सकल
चोटी पर बैठा है अरिदल

जब पोंछा छ्प्पन का शरीर
बन गऐ बाँकुरे गरल तीर
थी चोटों की पुरज़ोर पीर
संहारक आगे बढ़े वीर

फिर गोलों की बरसात बनी
तनती भर दुपहर रात बनी
सारी बातें बेबात बनी
मानों अंतिम सौगात बनी

वो घाटी ऊपर थे निहार
वो समर खड़ा था आर पार
वो झेल रहे थे बस प्रहार
वो भ्रम था या था चमत्कार

इक श्यामल छबि आन पड़ी
कर में लेकर सम्मान अड़ी
फिर बढ़ा दिया खप्पर आगे
थी भावशून्य वो मौन खड़ी

बोला दल माँ रुक आते हैं
हम तेरी प्यास मिटाते हैं
थोड़ा सा धीरज धर लो माँ
अरिरक्त प्याल भर लाते हैं

ये क्या!हमले का नाद उठा
हिंदुस्तानी औलाद उठा
कर में धारे फौलाद उठा
वो रणभेरी का नाद उठा

तड़ तड़ गोली का कटुकवार
आँखों सीनों के आर पार
गज भर दूरी लगती अपार
दुश्मन दुश्मन का अमिट रार

फिर गोलों का विस्फोट उठा
पूरा उर प्राण कचोट उठा
कर पग के टुकड़े इधर उधर
केवल घाटी पर शेष नज़र

पोरों पर गिनती के सैनिक
ध्वज धाम चले बलिदान डगर
है अंतिम साँस बची माता
है अंतिम आस बची माता

बम का प्रत्युत्तर गोलों से
गोली का उत्तर गोलों से
अब टुकड़ी की पदघात उठी
अरिदल की रूहें काँप उठीं

ये लो देखो हम आऐ हैं
अंतिम संदेशा लाऐ हैं
तूने कितने सैनिक मारे
उनका बदला दे हत्यारे

फिर बोली छप्पन की गोली
अब पिस्टल ने चुप्पी खोली
दुश्मन के सब छलनी शरीर
अब शांत हुई मन उर की पीर

साकार हुआ ये सपना है
ये द्रास शिखर अब अपना है

घाटी में गूँजा स्वर हर हर
सम्मानवान नत सर हर हर
बोला हर शुष्क अधर हर हर
हर हर धरती अम्बर हर हर

जब श्वाँस गति सामान्य हुई
वह करुण दशा तब मान्य हुई

चहुँ ओर मिला ख़ूनी मंज़र
सब देख रहे थे इधर उधर
पीड़ा अब नहीं रही कमतर
नभ पे आँखें पत्थर पर सर

नम आँखों को बरसात मिली
इक अनचाही सौगात मिली
वो चिरवियोग के साथ मिली
थी दिवा लालसा रात मिली

वो संग संग उठना सोना
वो संग संग हँसना रोना
वो हुआ नहीँ था जो होना
ऐ दोस्त ! ये आँखें खोलो ना

अब के तेरे घर जाना था
अम्मा से नज़र मिलाना था
भाभी को कुछ बतलाना था
चाचा-चाचा कहलाना था

तब त्वरित रेडियो स्वर बोला
दुखता सा हर टाँका खोला

चोपर का आना होना है
सारी लाशों को ढोना है
ये ही आदेश मिला हमको
ये दो घंटे में होना है

था पोर पोर पीड़ा का ज्वर
संदेशे बस्ती नगर – नगर
तुझ पर न्योछावर किये प्राण
था हर अनंत उर त्राण – त्राण

तेरे दामन पर दाग़ ना लगने पाया है
हमने तेरे क़दमों में शीश चढ़ाया है

पंछी

जब जब मैंने मंदिर देखा मस्ज़िद भी याद आई है,
लगता मस्ज़िद की प्राचीरें मंदिर की परछाई हैं ।
एक तत्व को ढूँढा करते मस्ज़िद और शिवालों में ,
विकट ज्ञान हर ओर समाया लाठी,बर्छे, भालों में ।

ये लो मीनारों कि पंछी मंदिर तक हो आऐ हैं ,
और मज़ारों की एक पाती मूरत तक ले आऐ हैं ।
इन्हें अजानों की ना परवाह ना श्लोकों से लेना है ,
इनका होना क्षणभंगुर है काया एक खिलौना है ।

नित्य सकारे कलरव से ये दिन का स्वागत करते हैं ,
किरनों का चुम्बन ले जग में नई चेतना भरते हैं ।
आओ सीखें इनसे सतगुण सीख सीखना सिखलाना ,
काश कभी हो जाता बस में ख़ुद का पंछी हो जाना ।

दिल को हिंदुस्तान करूँ

वो युद्ध अनल का शंखनाद तुम शीत पवन के पूत बने
अरि रणभेरी का नाद हुआ तुम धवल शांति के दूत बने
वो दहशतगर्दी का मालिक तुम संविधान की टूट बने
वो सदा शोणितों का प्यासा तुम चिरपतझड़ की ठूँठ बने

वो क्या सपूत कहलाऐं जो निजसम्मानों से हार रहे
सम्पूर्ण युद्ध भू पड़ी रही ये थोथी बाज़ी मार रहे
अखबारों के पन्नों पे जलती लुटती लाशें दिखती हैं
प्रतिपल प्रबल प्रतीक्षाऐं निज आवश्यकताऐं लिखती हैं

कविता ही थी जिसे बाँचकर हमने कितने नमन किऐ
कविताओं ने जाने कितने मरुथल उपवन चमन किऐ
कविता ने ही जाने कितने सिंहासन के दमन किऐ
कविता ही थी जिसने अंधे पृथ्वीराज को नयन दिऐ

रूग्णदीप पोषित कर के रविसार बनाने निकला हूँ
मैं कविता का शीतकुसुम अंगार बनाने निकला हूँ
सदास्वार्थ के बैतालों का संभावित हत्यारा हूँ
अग्निवंश का तप्तदीप लेकिन लगता बेचारा हूँ

बतलाता हूँ भाल लगाकर भारती भू की रज चंदन
उर में धारण करके देखो मिली जुली सी शीत तपन
यही धरा है जहाँ सनातन की बहती अमृत धारा
यही धरा है जहाँ हुआ था रामजनम पावन प्यारा

यही धरा है जहाँ किशन से जग को गीता ज्ञान मिला
यही धरा है जहाँ रणों से न्यायों को सतमान मिला
आज देख लो भारत अपनों ही से बाजी हार रहा
जाने दो झूठी आशाऐं फिर वो कश्मीर उधार रहा

संविधान के नयनों से जब कोई लोहित धार बही
धूलचढ़ी चिंगारी मन में रोती सहमी पड़ी रही
भारत के हंताओं अब फिर कोई मधुरिम आशा दो
या अधिकारों का मान धरो तुम कोई परिभाषा दो

ओजकिरन की गरमाई को दिल में आज उतारो तुम
टूट चुका चोटें खा खाकर अब ये देश निहारो तुम
मुझे बताओ अब मैं कितनी कविताऐं बलिदान करूँ
इक अभिलाषा मैं बस सब के दिल को हिंदुस्तान करूँ

आरज़ू

(1)
तू
तब
कहाँ थी
जिस घड़ी
जलधार से
तकियों को मैंने
तर बतर
करके भी
सपने
थामे
थे

(2)

थे
तब
कहाँ पे
ये विरह
जब प्राण को
मेरे जकड़ के
अधर मौन
वचन ले
भीतर
दबी
थी

(3)

थी
वही
मिलन
आशा मेरी
बंदूक गोली
बम धमाकों के
गर्वित नाद
सुन मिले
असीम
सुख
की

(4)

की
मैंने
प्रार्थना
भगवान
इस धरा पे
शत्रु पद चिन्ह
कभी ना दिखें
इतनी सी
अरज
मान
तू

प्रेमक्षुधा

प्रीत संग नवजीवन कलरव
कसमस सौरभ प्रेम विभव
झिम रिमझिम उन्मद कानन
आ प्राणपवन महकाती जा
आजा,आ,अब,आ भी जा

पल पल अविकल सरस भाव
ज्यों शीतज्वार से तर अलाव
उपवन चेतन कर नय भर दे
तू छनन छनन मदमाती जा
आजा,आ,अब,आ भी जा

मधुबेला कर दे मुक्तपाश
है शशिप्रभा उन्मन उदास
अब केश खोल आदेश थमा
ये मेघमाल सरकाती जा
आजा,आ,अब,आ भी जा

चिरवियोग पतझड़ जीवन
आयुताप शापित तन-मन
निज यौवनघट की मधुरधार
इस जीवन में बरसाती जा
आजा,आ,अब,आ भी जा

सहिष्णुता

अलंकार स्वर लिख्खूँ या श्रृंगार करूँ उपमानों से
जब ख़ुद संकटग्रस्त पड़े हो अपने ही सम्मानों से
कैसे मैं हालत करूँ बयाँ जब पत्रकार आबाद नहीं
ओजप्रभा से संरक्षित स्वच्छंद कलम आज़ाद नहीं

अब मंचों पर चीख चीखकर सत्ता का गुणगान करो
मर्यादा के उन हंताओं का जमकर के सम्मान करो
प्रजातंत्र के निजकपूत किस स्वार्थ के फंदे झूले हैं
गाँधी नोटों में चिपकाकर लाल बहादुर भूले हैं

पन्ना का गौरव भूल गऐ झाँसी की रानी याद नहीं
तुम्हें कारगिल वीरों की वो अमर जवानी याद नहीं
जिन्नासुत जिन्नों का तुम अब कबतक जी बहलाओगे
फिर लोक-तंत्र से तंत्र मिटेगा पराधीन बन जाओगे

कमल पंकभक्ति में तर पंजा झाड़ू संग सोता है
संविधान पन्नों में दबकर सुबक-सुबककर रोता है
यही फलन है जब नवपीढ़ी आँसू से सन जाती है
सहिष्णुता जब हद से बढ़ती कायरता बन जाती है

दिल्ली कब शर्मिंदा होगी

दिल्ली कब शर्मिंदा होगी कब ये आँखें खोलेगी,
माँ के लालों को कितना वोटों नोटों से तोलेगी,
सुनते आऐ नीतिवाक्य अब अपने संग ही धरे रहो,
आँखें मूँदे , हाथ बांधकर सिंहासन पर पड़े रहो ।

हमको अपनी मातृभूमि का वंदन करना आता है,
भारत-भू की रज को अक्षत चंदन करना आता है,
हमें तिरंगे झंडे का सम्मान बचाना आता है,
भारत माता के सर पे कश्मीर सजाना आता है ।

नहीं चाहिये कैसे भी दिन केवल राष्ट्रसमर्पण हो,
राजनीति का ज़र्रा – ज़र्रा भारत माँ को अर्पण हो,
संसद के ओ दत्तकपुत्रों जन-गण-मन का मान करो,
मंदिर मस्ज़िद रार मिटा मानवता का कल्याण करो ।

हम धूमशिखाओं को देखें वो अग्निबाण चलाता है,
हर हरकत नापाक़ धरे पर पाकिस्तान कहाता है,
सीमा प्रहरी पुत्रों को अब क्यों जकड़ा है ज़ंजीरों में,
क्या केवल मर जाना ही लिख्खा उनकी तक़दीरों में ।

सिंहासन के सततकृमिसुत कबतक जी बहलाओगे,
धृतराष्ट्र सरीखे बन बैठे केवल गद्दार कहाओगे,
सिर पीटोगे वही गुलामी फिर अपने संग हो लेगी ।
दिल्ली कब शर्मिंदा होगी कब ये आँखें खोलेगी,
माँ के लालों को कितना वोटों नोटों से तोलेगी ।

वीरता 

मैं युद्धमंत्र , रणभूमि हूँ , मैं पुण्यफलन संघर्षों की ,
देखो पन्नों को पलट आज साक्षी हूँ कितने वर्षों की ,
जब-जब प्रत्यंचा चढ़ी कहीं तुमने मेरी टंकार सुनी ,
जब शंखनाद का स्वर गूँजा तुमने मेरी हुंकार सुनी ।

रानी नैना जब अधर हुऐ मैं दिखी तप्त तलवारों में ,
वो ह्ल्दीघाटी समरधरा महाराणा की ललकारों में ,
मैंने झेलम की कल कल को चीखों में बसते देखा है ,
जब मैंने बिरहा झेली तब दुश्मन को हँसते देखा है ,

अपने ही घर में अपनों को घायल मरते देख रही ,
भारत की ओजवान-भू को शर्मिंदा करते देख रही |

कितनों ने वरण किया मेरा कितनों ने जनम लिया मुझसे,
कुछ ने मेरा यशगान किया कुछ ने चिरमरम लिया मुझसे,
अगिदल की चीखों के स्वर जब मैं मौनमुग्ध हो सुनती थी,
बस प्रियतम से , पुत्रों से अपने पुण्यमिलन क्षण बुनती थी ।

जब-जब मैंने वैधव्य धरा तब – तब श्रृंगार किया मैंने,
जित बार सुहागन हुई कष्ट हँस-२ स्वीकार किया मैंने ।

चिरविरही सी,निष्प्राण,वृद्ध हो तकती हूँ मैं अपनों को ,
मुझको कोई पहचानो वर लूँ फिर से अपने सपनों को ,
नाम वीरता है मेरा , मैं भारत-भू में जन्मी हूँ ,
मैं वीरों की प्राणप्रिया,मैं ही वीरों की जननी हूँ ।

शर्मनिरपेक्ष

कलम काष्ठ कठपुतली बनकर मटक रही चौबारे में
सकल शब्द समझौता करते सत्ता के गलियारे में
काव्यलोक की दशा देखकर ये मन डरने लगता है
जब सरस्वतीसुत नेता का पगवंदन करने लगता है
क्या वर्णजाल ही कविता को साकार बनाना होता है ?
भावशून्य शब्दों का बस आकार बनाना होता है ?

भारतवर्ष जहाँ शब्दों को ब्रह्मसमान बताया हो
महाकाव्य रचकर कवियों ने छंदज्ञान समझाया हो
पूजास्थल तक कवियों के छंद जहाँ पर रहते हों
देश जहाँ हम कवियों को सूरज से बढ़कर कहते हों
केवल अक्षरज्ञान मात्र से हम कवि बनने वाले हैं ?
दिवस दुपहरी सिर्फ जानकर हम रवि बनने वाले हैं ?

काव्यदशा को देखो परखो एक क्लेश रह जाता है
शून्य शून्य से मिलता केवल शून्य शेष रह जाता है
ब्रह्मअंश सा चित्त धरे हम छंदसृजन जब करते हैं
स्वच्छंद कलम आवेशित कर भावों में ज्वाला भरते हैं
शब्दों को मतिबिम्ब बनाते नई विमाऐं गढ़ते हैं
महाकुशा जिसके उर मंडित बस वो आगे बढ़ते हैं

हो कविता से प्यार यदि तो इन कर्मों पे शर्म करो
या फिर जाओ सत्ता के चुल्लू में जाकर डूब मरो
मेरी रचना का दंशन यदि मन में पीर उठाता हो
काव्यलोक के अवमूल्यन का सत्यचित्र दिखलाता हो
तो मेरे भावों को तुम अपना स्वर देकर पोषित कर दो
या फिर हिंदीशत्रु बताकर विद्रोही घोषित कर दो

चिरप्रतीक्षा

रजनी ने तोड़ा है दम अब प्रथम रश्मि दिख आई है ।
उर में कसमस भाव लगे पिय का संदेशा लाई है
तेरह दिन बारह रातों का साथ अभी तक देखा है
मेरे इस जीवन की ये कैसी बेढंगी रेखा है

ख़त को पढ़कर लगता अपने आँसू से लिख डाला है
ये है संदेशा आने का चारों ओर उजाला है
सारी बिरहा भूली अब सोलह श्रृंगार करूँगी मैं
केवल कुछ दिन शेष बचे जी भरकर प्यार करूँगी मैं

सावन झूला भरे तपन के जेठ दिवस में झूलूँगी
प्रियतम की बाहों में मैं थोड़ा आनंदित हो लूँगी
चूड़ी की खनखन मैं साजन के कानों में घोलूँगी
थककर अपने सैंया के सीने पे सर रख सो लूँगी

जाने क्यूँ कौये की बोली कोयल जैसी लगती है
झींगुर के स्वर से बेचैनी मधुर मिलन को तकती है
गोभी की तरकारी को वो बड़े चाव से खाते हैं
जब वो हैं बाहर जाते तो पान चबाकर आते हैं

कुछ बातें हैं जो मैं केवल उनको ही बतलाऊँगी
अपने दिल की सारी पीड़ा सारा हाल सुनाऊँगी
दुष्ट पड़ोसन ने इक पीली महँगी साड़ी ले ली है
दिखा दिखाकर मुझको मेरी मजबूरी से खेली है

आने दो मैं भी उनसे महँगी साड़ी मँगवाऊँगी
रोज़-रोज़ गीली कर करके उसको देख सुखाऊँगी
ये क्या अपनी बस्ती में ये कैसी गाड़ी आई है
दिल की धड़कन तेज़ हुई क्यूँ ऐसी पीर जगाई है

पति आपके बहुत वीर थे ऐसा इक अफसर बोला
काँप उठी,नि:शब्द हो गई ,आँख फटी धीरज डोला
दौड़ी मैं घर से बाहर इक बक्से में था नाम लिखा
लगता मानों जीवन का था अमिट शेषसंग्राम लिखा

कहो तो ना लिख्खूँ 

जान चुका तुम शब्दों को , अंगार नहीं लिखने दोगे !
सत्ता की मनमानी का , प्रतिकार नहीं लिखने दोगे !
जनमानस के दुर्दिन के , अम्बार नहीं लिखने दोगे !
हो फूलों की बरसात चाहते , खार नहीं लिखने दोगे !
भूख ,गरीबी पे होता , व्यापार नहीं लिखने दोगे !
इस कातर होती पीढ़ी की , हुंकार नहीं लिखने दोगे !
संविधान का जर्जर तन , मैं अंधों को दिखलाता हूँ ।
बहरों की बस्ती में पीड़ा , लोकतंत्र की गाता हूँ ।

भारत माँ के भावों का श्रृंगार, नहीं लिखने दोगे !
राधे,निर्मल का पूजा दरबार , नहीं लिखने दोगे !
मुल्क में होता नारी अत्याचार , नहीं लिखने दोगे !
महँगाई का होता मूकप्रहार , नहीं लिखने दोगे !
जब भी कलम उठाऊँगा हर बार , नहीं लिखने दोगे !
है पता मुझे गद्दारों को गद्दार , नहीं लिखने दोगे !
संविधान का जर्जर तन मैं , अंधों को दिखलाता हूँ ।
बहरों की बस्ती में पीड़ा , लोकतंत्र की गाता हूँ ।

बोलो मेरी कविताऐं हैं बेकार, कहो तो ना लिख्खूँ !
सच्चाई के आगे हो लाचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
दूषित होता पूरा धर्मप्रचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
पल-2 पीता खूँ को भ्रष्टाचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
देश में होता काला-कारोबार, कहो तो ना लिख्खूँ !
शब्दों में संरक्षित ये यलगार, कहो तो ना लिख्खूँ !
संविधान का जर्जर तन मैं , अंधों को दिखलाता हूँ ।
बहरों की बस्ती में पीड़ा , लोकतंत्र की गाता हूँ ।

रामधारी सिंह दिनकर 

क्या लिख्खूँ गद्दारों पर,ये कलम न लिखने देती है ।
महाकुशा इस उर के , कोई भाव न बिकने देती है ।
हत्यारे अब राष्ट्रकवि की , जात सूँघने निकले हैं ।
द्वंद्वगीत , हुंकारों की , औक़ात ढ़ूंढने निकले हैं ।

जिनका अक्षरकोष समूची , राजनीति पर भारी है ।
जिनके छंदों का ये पूरा , काव्यजगत आभारी है ।
जिनका गर्जन तप्तवज्र था, सरस्वती की वाणी थी ।
माँ हिंदी के अमरपूत की, हर रचना कल्याणी थी ।

अनललेख का पालक था, वो ओजप्राण था हिंदी का ।
अतिदिव्यपुंज था माँ भाषा की, महिमामंडित बिंदी का ।
कवि दर्पण कहलाता है, जनमानस के अधिकारों का ।
हर शब्द घोष करता है, सारे कारों का, प्रतिकारों का ।

दौलत के लालच में हम, सम्मान नहीं बिकवाते हैं ।
हिंदसमर्पित जीवन है , अभिमान नहीं बिकवाते हैं ।
आँचल का माँ के मोल लगा बैठे हो,तुम क्या जानोगे ।
“समर शेष है”! लगता अब , होगा यह तब ही मानोगे !

हिंदी 

माँ भारत का स्नेहकलश,दिग-अमृतघट भाषा हिंदी ।
हम काव्यजन्य संतानों के,प्राणों की परिभाषा हिंदी ।
देववाणी की वरदसुता , भाषा की अभिलाषा हिंदी ।
मधुरनाद,उज्जवलललाट,भारत के हित आशा हिंदी ।

आंग्लजनित , द्रोही , कपूत कैसे समझेंगे हिंदी को ।
हुन्कार,ग्रामश्री पता नहीं, ना जान सके कालिंदी को ।
इंग्लिश पटरानी बन बैठी ,हिंदी घर घर में रोती है ।
बेटों के दिऐ बिछौने पर ,अब अलमारी में सोती है ।

हिंदी हममे से कई सिर्फ, अब छंदसृजन को पढ़ते हैं ।
बकते अंग्रेजी हैं दिनभर , हिंदी में कविता गढ़ते हैं ।
कब तक हम हिंदी माता का,ऐसे ही जी बहलाऐंगे ।
कविता हिंदी में भले लिखें,लेकिन कपूत कहलाऐंगे ।

विद्रोही केवल नाम नहीं,इस रण का जन्मलगन हूँ मैं ।
नवयुग के हिंदीप्रेम तत्व का अग्रिम पुण्यफलन हूँ मैं ।
पुष्पवृष्टिहित समय नहीं,ले रुधिरलेखनी खार लिखूँ ।
हर मैकाले के वंशज के , माथे पर मैं गद्दार लिखूँ ।

अधिकार

आज प्रतिफल चाहिये,हर रोज़ प्रतिपल चाहिये ,
आज मैंने जो किया उसका मुझे फल चाहिये ।
अधिकार है मेरा मुझे अधिकार मेरा आज दो ,
तीरगी को तुम सहो उजला सबेरा आज दो ।

क्यूँ रहूँ कठिनाई में दायित्व ये मेरा नहीं,
तुम सँभालो तुम निहारो कृत्य ये मेरा नहीं ।
क्यूँ कहा था ? तुम मेरे संसार के रखवार हो ,
मेरे जीवन में सुखों के ढेर हो अम्बार हो ।

मैंने ही तुझको चुना है मैंने ही तुमको गढ़ा है ,
मैं ही हूँ जिसकी बदौलत आज तू आगे खड़ा है ।
काश मैं तुझसे उलट उस दूसरे को तारता ,
कम से कम बच्चों को मेरे भूख से ना मारता ।

कह रहे हो टैक्स भर दो, क्यूँ भरूँ मैं वाह जी ! ,
अपनी मेहनत की कमाई तुमको दे दूँ वाह जी !
मुझको क्या मतलब है सारे देश के नुकसान से ,
जिंदगी अपनी जियूँगा मरते दम तक शान से ।

मैं पिता हूँ , मैं पति हूँ , पुत्र हूँ दायित्व है ,
मेरे धन पर सिर्फ अपना मेरा ही स्वामित्व है ।
क्या किया है देश ने मेरे लिये कि मैं करूँ ,
तुम हो ज़िम्मेदार इसके तुम सहो,मैं क्यूँ मरूँ ।
सारे कर्तव्यों को मेरे छोड़ सागर पार दो ,
मैं नागरिक हूँ देश का मुझको मेरा अधिकार दो ।

सपने 

अपनों का , सपनों का , रिश्तों का था ऐसा याराना ।
एक साथ जीवन में हरदम रहता था आना – जाना ।
इनका रिश्ता सुखद,सुकोमल जल-मछली के जैसा था ।
अपना मधुबन पुष्प तो,सपना सुंदर तितली जैसा था ।
रिश्ते,अपने,सपने तीनों अच्छे साथी बनके रहते थे ।
कुसुम-भ्रमर तो कभी कोई दो दीपक-बाती रहते थे ।

फिर अपने ने रिश्ते के कानों में कुछ-2 बात कही ।
सपना भी अपना ही था ना बात ये उनको याद रही ।
रिश्तों ने , अपनों ने जब सपनों का यूँ प्रतिकार किया ।
सपनों ने अपनों से इस रिश्ते को भी स्वीकार किया ।
अपनों से जब सपनों के रिश्ते टूटे चकनाचूर हुऐ ।
तब वो सपने अपनों से , रिश्तों से इतना दूर हुऐ ।

अपनों से सपनों के बंधन की जो नाज़ुक डोरी है ।
रिश्तों की सतरंगी दुनिया में भी कोरी-कोरी है ।
अपनों के बिन सपना सपने जैसा लगता है ।
फिर भी रिश्ता सपने से क्यूँ अपने जैसा लगता है ।

वनवास का गरल

चलो भरें हुंकार कहें , हम जंगल के रहवासी हैं ।
काननसुत इस भूमि के,हम कहलाते वनवासी हैं ।
प्रकृति की गोदी में पलते,हम जीवन धन्य बनाते हैं ।
आदिकाल से हम संरक्षक, आदिवासी कहलाते है ।

यहाँ गर्भ में बेटी-बहनें , नहीं मिटाई जाती हैं ।
दौलत के लालच में बहुऐं ,नहीं जलाई जाती हैं ।
हम ही शबरीवंशज,जिसघर वो रघुनंदन आऐ थे ।
छुआछूत,सब भेद मिटाकर, जूठे फल भी खाऐ थे।

भूल गये आजादी के हित, इक विद्रोह हमारा था ।
शब्द भी मुंडा बिरसा का ,हमको प्राणों से प्यारा था ।
भूले अल्बर्ट एक्का अबतक,अपनी शान बढ़ाता है ।
देश पे न्योछावर हो कर के,परम वीर कहलाता है ।

धान्य विहीन भले रहते,पर स्वार्थ नहीं दिखलाते हम ।
मजहब के ठेकेदार बने , आतंक नहीं फैलाते हम ।
अधिकारों की जंग लड़ें, इस कारण शायद ज़िंदा हैं ।
हालत देख हमारी पावन, “उलगुलान” शर्मिंदा है ।

ये दौर नहीं है महुये का विज्ञान, धरे मँडराने का ।
ये दौर नहीं है जातिवाद के, दंशों से डर जाने का ।
जो छबि बनाई लोगों ने,वो छबि बदलना बाक़ी है ।
फिर “धरती-बाबा” के, पदचिन्हों पे चलना बाक़ी है ।

त्याग सकल दुष्कर्मों को,नवपीढ़ी का कल्याण करो ।
या समाज का दंश सहो,चुल्लु भर जल में डूब मरो ।

शूलों का विक्रेता

कपटकाल का श्यामल युग है मैं भावों की त्रेता हूँ
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ

संविधान में आग लगा दो यहाँ निर्भया रोती है
लुप्त दामिनी लोकतंत्र के दूषित पगतल धोती है
कहाँ मर गऐ आतंकी जो जेहादी कहलाते हैं
निर्दोषों का ख़ून बहाकर चिरबाग़ी बन जाते हैं
आज बताओ कहाँ सुप्त हो क्या आडम्बर धारे हो
मुझे बता दो मौन धरे अब किस मज़हब के प्यारे हो
आज कहो क्यों अपना छप्पन इंची सीना छिपा रहे
झाड़ू के तिनकों सी तुम नंगी कायरता दिखा रहे
लुटी अचेतन आँखों सी पथराई नैया खेता हूँ
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ

मद्धम शीतल मलय पवन अब बारूदों की दासी है
अधिकारों की लालायित आशाऐं खूँ की प्यासी हैं
अंतर्मन में जनमानस की पीड़ा का अम्बार भरा
इसी हृदय में मेरे भूखे बचपन के हित प्यार भरा
गली के निर्बल ढाँचे की चेहरे की झुर्री देख रहा
बरसों से आँगन की टूटी खटिया खुर्री देख रहा
मुझे बताओ कैसे गुलशन बाग सींचने लग जाऊँ
मुझे कहो कैसे बहनों का चीर खींचने लग जाऊँ
अनललेख के तप्तभाव को मैं अपना स्वर देता हूँ
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ

नेत्रलहू की स्याही को तलवार बनाकर लिखता हूँ
मैं शब्दों का शीतसुमन अंगार बनाकर लिखता हूँ
चिपके पेटों को लखकर रोटी की बीन बजाता हूँ
दर्पण बनकर मैं समाज को सत्यछबि दिखलाता हूँ
मेरे अक्षर अक्षर में तुम एक प्रलय टंकार सुनो
शब्दनाद पोषित कर देखो अमिट अनल हुंकार सुनो
पीड़ाज्वार लखो तुम लुटती बाला की चीखें सुन लो
बूढ़े बेबस आँसू से तुम अपना सकल हश्र बुन लो
मैं समाज का एकमुखी घट जो लेता वो देता हूँ
मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ

ये मत कहो 

रूग्णदीप पोषित कर उसको आफ़ताब लिख देता हूँ ,
मैं पीड़ा के भाव बदलकर इंक़लाब लिख देता हूँ ,
पत्रकार या चित्रकार हो मुझको पड़ता फर्क़ नहीं ,
ओज छोड़ श्रृंगार लिखूँ मैं ये भी कोई तर्क नहीं |

लोकतंत्र है जन-गण-मन का दर्पण बनके डोलूँगा ,
रक्तिम, श्यामल जैसे भी हो सारे परदे खोलूँगा ,
तांडवजन्मा प्रलयअंश हूँ केवल रचनाकार नहीं ,
देशद्रोह के निजपुत्रों का कर सकता सत्कार नहीं ,

नित स्वप्नों में संविधान को मुर्दाघर में देखा है ,
लोकतंत्र नफ़रत दहशत के बीच भँवर में देखा है ,
जलते ध्वज की दुर्गंध कभी महसूस करो तब जानोगे,
लुट चुकी बेटियों-बहनों के दु:ख को समझो तब मानोगे |

जब नंगा बचपन सड़कों पर रो चीख-2 मर जाता है,
तब शर्मसार यौवन होता मन पीड़ा से भर जाता है ,
बहुत कठिन है ये आवेदन कैसे मैं स्वीकार करूँ,
कैसे मैं माँ का दर्द भुला दूँ कैसे मैं श्रृंगार करूँ ,

कैसे पल-पल जलते आँचल को अनदेखा कर दूँ ,
कैसे मैं हुंकार तजूँ मैं कैसे सरससौम्य स्वर दूँ |
चिपके पेटों को देखूँ तो भूख-भूख चिल्लाने दो ,
द्रोहशिखा रहने दो मुझको विद्रोही कहलाने दो |

लक्ष्मीपुत्रों की प्रतीक्षा

हे लक्ष्मीपुत्रों ! झरोखे खोलकर देखो वहाँ,
है ठिठुरता,है बिलखता,रो रहा बचपन जहाँ।
वो जहाँ कचरे में पलती,राष्ट्र की बुनियाद है,
भूल ही बैठे हो सबकुछ, या अभी कुछ याद है ।
है यही कमज़ोर बचपन,हार मनवा लेगा कल,
बाद तेरे,बाद मेरे,देश को थामेगा कल ।

तू देख! उसके देह को,उस आँसुओं की धार को,
देख ले!,वीभत्सता को,द्वेष को, प्रतिकार को ।
भूख, लाचारी के बंधन से निकलने की चाह है,
चिलचिलाती धूप में भी,रौशनी ये स्याह है ।
है यही कमज़ोर बचपन,हार मनवा लेगा कल,
बाद तेरे,बाद मेरे, देश को थामेगा कल ।

तुम रहो महलों में , झुग्गी बस्तियों को ताकना,
अपने धन के बढ़ रहे, ओछे से क़द को मापना।
अब सँवारो बचपनों को,तुम ना ख़ुदगर्जी रखो,
हैं ग़रीबी से जो बेबस,उनसे हमदर्दी रखो।
है यही कमज़ोर बचपन हार,मनवा लेगा कल,
बाद तेरे,बाद मेरे,देश को थामेगा कल ।

कलाम तेरे नाम 

विज्ञानपुरुष वो अनलपूत, भारतविकास, रुख़ मोड़ गया |
वो सकल व्योम का संरक्षक,इस वसुंधरा को छोड़ गया |
वो महामहिम जिसका कर पा,सम्मान धन्यता पाते थे |
कौशल,कुशाग्र मृदुवाणी से , नवप्राण मुग्ध हो जाते थे |

हे दिव्यास्त्रों के पूज्यजनक!, तेरा ऋण हम पर बाक़ी है |
तू हमसे नाता तोड़ गया , दुख रही देश की छाती है |
तेरा ही राष्ट्रसमर्पण है , आगे सीमा लाँघ नहीं सकता |
दिखलाया निष्ठाभाव , धर्म का बंधन बाँध नहीं सकता |

अंतिम पल तक जीवन जीने का,सफल मार्ग दिखलाया है |
भारत की नवपीढ़ी हित अपना , ज्ञानकलश लुटवाया है |
हे भारत माँ के भाग्यपूत ! , हमको विश्वास नहीं होता |
तू बीच हमारे नहीं आज , ऐसा एहसास नहीं होता |

तेरा अमूल्य हर नीतिवाक्य ,जन जीवन सफल बनाऐगा |
इस घोरतिमिर के अंधपटल पर , पुण्यप्रकाश दिखाऐगा ।
भारत की माटी का कण- कण , युग- युग तक तुझको ध्याऐगा ।
जब तक विज्ञान धरा पर है , तेरी गाथाऐं गाऐगा ।

यलगार लिखो

देखो अपने शीतरक्त से उपजी शीतलता देखो |
देखो हाथ पसारे अपना भारत कर मलता देखो |
देखो यहाँ दलों का दलदल राजनीति ले डूबा है |
देखो लोकतंत्र बेबस है ,जन जन बचपन टूटा है |

मिले हज़ारों रावण लेकिन राम नहीं दिख पाया है |
उसी धरा पर फिर से दिखता काला काला साया है |
मंचों पर जिनको बाँच बाँच कर भिक्षापात्र भरे तूने |
माँ सरस्वती के वरदहस्त से यश धन प्राप्त करे तूने |

उस सैनिक का लहू बहे उसको स्वाति का नीर समझ |
वीरों का सम्मान करे तब ही तू ख़ुद को वीर समझ |
रोता काजल,शुष्क नयन , मुर्दा सी ज़िंदा नार लिखो |
प्रेम प्रीत के साथ साथ यलगार लिखो यलगार लिखो |

दर्पण

मैं भी दे सकता हूँ तुमको कविता में अंगार यहाँ
सौदे में ला सकता था मैं गर्जन का अंबार यहाँ
लेकिन झोली में अपने मैं दर्पण भरकर लाया हूँ
लोभ मोह की चिता सजाकर पूर्ण समर्पण लाया हूँ

देखो इस दर्पण में तुमको क्या दिखलाई देता है
बल नयनों का खो बैठे हो या दिखलाई देता है
क्या जलता भारत दिखता है या दिखती रोती मथुरा
क्या कोई मधुबन दिखता है या दिखती है लाल धरा

क्या तुमको भूखे बचपन का रण दिखलाई देता है
वीर शिवा राणा का कोई प्रण दिखलाई देता है
भालों की फालों की कोई चमक दिखाई देती है
लहू पिपासा तलवारों की धनक दिखाई देती है

तेज़ाबों से जलता यौवन और कहीं मातम देखो
देखो माटी की क़ीमत में तुम लुटता तनमन देखो
कहीं दिखी क्या पीड़ा अपने लाल भगत की फाँसी की
सैनिक की माता की आँखें या घनघोर उदासी की

बिना टमाटर सारा जीवन लगता नीरस हुआ यहाँ
बिन गाड़ी के ना पहुँचोगे जाना हो जिस ओर जहाँ
कोई यहाँ पर झाड़ू मारे कोई कमल खिलाता है
कहीं कहीं हाथी फिरता है करतल शोर मचाता है

अपहरणों की काली छाया शायद तुमने देखी है
देख नहीं सकते हो क्या तुम या कोई अनदेखी है
कर्तव्यों का वध कर डाला अधिकारों के वंदन में
अब तक बदबू ढूँढ़ रहे हो नंदनवन के चंदन में

देख नहीं पाऐ तो भाई, अब की मुझको माफ़ करो
ले जाओ खैराती दर्पण नैतिकता से साफ़ करो
वरना अपने दूषित कुंठित दुष्कर्मों में शर्म करो
मेरा दर्पण वापस कर दो चुल्लू जल में डूब मरो

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