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मेरे स्टूडियो की छत पर 

मेरे स्टूडियो की छत पर
एक कोने में,
तार से, बल्ब लटका है
वहां नीचे, जहाँ मैं बैठता हूँ
पढता रहता हूँ,
पेंट करता हूँ…
एक छतरी नुमा शेड भी है,
उसके ऊपर,
जिससे इसकी रोशनी बेमतलब नहीं फैलती
मेरे मुताबिक जलता रहता,
बुझता रहता है…

कई दिनों से
मैं वहां नहीं बैठा…
शेड पर ‘डस्ट’ काफी जम गयी है
रोशनी मध्यम हो गयी है,
और पीली पड़ गयी है
चन्द अशहार, नजर आते हैं वहां…

सोचता हूँ, साफ़ कर दूँ
या, बदल दूँ इसको
आँखों में काफी जोर पड़ता है
इसी उधेड़बुन में रहता हूँ…

आजकल, ‘शेखू’ मेरा बच्चा
इसे, रोज जलाता है, बुझाता है
इससे खेलता है, मुस्कुराता है
हँसता है, खुश रहता है…

बेचैनी

कई दिनों से
पन्ने पलटे नहीँ
सारे सफेद से पड गये है
कुछ धुँधले भी…
जैसे,
कभी कुछ लिखा ही न गया हो…
जाने कब रंगे जायेंगे
लाल, पीली, नीली
और हरी स्याही से…
कभी कुछ अख्स उभरते तो हैं
पर गड्ड-मड्ड हो जाते हैँ
एक पल मेँ…
कोई भी शब्द एक
सीधी लकीर पर नहीँ दौडते
कभी कुछ चलते तो है
पर थक-कर चूर हो
आधे रस्ते से वापस आ जाते हैँ
मै इन्हे पकडना चाहता हूँ
उँगलियो से इन्हे छूना चाहता हूँ…
इन पर अपने निशान छोडना चाहता हूँ..
पर मेरे हाथ लगाते ही यह
छुई-मुई से मुरझा जाते हैँ…

“द विडोज आफ वृन्दावन” 

अराध्य,
मान कर ही तो उन्होंने भी
की होगी पूजा उसकी…

शायद,
यह मानकर की थाम लेगा वह,
यह तेज़ बाढ सी
जो पुरातन से चली आ रही है
यहाँ,शोषित होने…

कभी,
खिली तो एक अध-खिली
और,
कभी..भिखारन
तो एक पुजारन बनकर….

वह,
दूर बैठा बस रास रचाता रहा
बाँसुरी की धुन में मगन,
गोपियो के इर्द-गिर्द लिपटा…

नहीं,रोक सका है
वह देवकी नन्दन भी
उन विधवाओ को आने से
वृन्दावन की
इन तंग गलियो में.

द डिफरेंट स्ट्रोकस

तुम,
बस दूर खडे
एक मूक दर्शक की भाँति
आवाक देखते रहे…

और,
मुझे…उन चन्द
आडी-तिरछी लकीरोन ने
असहाय बना दिया…

तुम!!!
चाहते तो रंगो की एक दीवार
खडी कर सकते थे…

पेज नम्बर-10 

हाँलाकि,
नही लिखना चाहिये
कुछ भी अब
उसके बारे मे…

पूरे
बीस पेज पलटने होंगे
उस दसवेँ पेज में
पहुँचने के लिये…

फिर,
एक प्रश्न चिन्ह लगेगा
और,
तब तुम भी सवाल करोगी
मुझसे…
कि,
कहाँ गये बीच के
सत्रह, अट्ठारह पेज…

अब तो एक धुन्धली
आउट लाइन बन चुकी है
वह,
मेरे कैनवस की…

आज अरसे के बाद
इन लकीरों को
गाढा करने की कोशिश
करते वक्त
मेरे हाँथ काँप रहे थे…

शब्द तुम..? 

शब्द तुम
कहाँ चले गए?
पता ही नहीं चला…
गायब हो गए
कहाँ,
आधी रात के बाद

कौन से दरवाज़े, जाने
खुलते हैं, तुम्हारे लिए
और,
किस घर में जाने
अब तुम दस्तक देते हो
तरह-तरह के स्वांग
रचाने लगे हो
कब तक यूँ ही, / छलते रहोगे मुझे तुम

अब तो मैं भी,
तुम्हारी उम्र का हो गया हूँ .

ऋतुपर्णा तुम आज भी नहीं आई 

आज कुछ
धुँधली पड़ गई लकीरों को
फिर से गाढा किया
उन पर कुछ रंग फेंके
लाल हरे नीले सफेद
अब
कैनवस का कोई हिस्सा
खाली नहीं रहा
बड़ी खामोशी के साथ
उन फैले पड़े रंगों को
घंटो निहारता रहा
अचानक,
गाढ़ी पड़ चुकी लकीरें
अब अस्पष्ट नज़र आने लगी / अस्पष्ट
और फिर,
पूरा का पूरा कैनवास खाली
बिल्कुल सफेद
जैसे कभी वहा रंग थे ही नहीं.. / वहाँ

फ़ीकी पड़ चुकी लकीरें
अब शब्दों में तब्दील हो गई
हाँ..यही शब्द तो थे
ऋतुपर्णा तुम आज भी नहीं आयी!

आड़ी तिरछी लकीरें

तुम,
बस दूर खड़े
एक मूक दर्शक की भाँति
आवाक देखते रहे / अवाक
और,
मुझे उन चन्द
आड़ी-तिरछी लकीरों ने
असहाय बना दिया
तुम!!!
चाहते तो रंगो की एक दीवार
खड़ी कर सकते थे

विषाद – 1

उसने निर्वासन झेला,
विस्थापन की पीड़ा थी
उसकी आँखों में…
उसने अपने शब्दों को
उस चित्र में तलाशने की
कोशिश की…
एक हल्की सी मुस्कराहट
उसके चहरे के
विस्तार को नाप गयी…

विषाद – 2 

उन्होंने मुझे शामिल नहीं किया
अपनी बिरादरी में….
सभी परिभाषाओं को नकारते हुए
मैंने छलांग लगाने की कोशीश की
तो आत्म विश्वास आड़े आ गया
अब वह मुझे पाताल की ओर
धकेले लिए जा रहा है…

विषाद – 3

उसने पाताल से निकलकर
लिखी एक कविता…
विजय पा ली
अपने गिरते आत्म विश्वाश पर..
शून्यता से दूर
गगन में तारों के साथ
खेलने लगी…
उसने एक कविता लिख दी
संसार रच डाला…

विषाद – 4

वह कुत्ते की तरह ललचाता हुआ
मेरे नजदीक आता है..
चाटने लगता है मुझे…
हिम्मत करके मैं उसे डांटता हूँ..
वह एक पल के लिए भागता है..
फिर धीरे धीरे वापस लौटता है..
उस दिन भी आया
पर मैंने उस पर विजय पा ली…
शायद मुझे रुकना आ गया…

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