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विद्याधर द्विवेदी ‘विज्ञ’ की रचनाएँ

बहुत बड़ी हार है

दर्द मैं जिला रहा
मगर कहूँ कि दर्द ही सिंगार है
बहुत बड़ी हार है।

प्यार थके प्राणों की पीर नापने लगा
सुधियों का फूल सा शरीर कांपने लगा
डिगा नहीं फिर भी यह दर्द का पपीहरा
नीर भरे नयनों के तीर झाँकने लगा

अश्रु पिये जा रहा
मगर कहूँ कि अश्रु ही बहार है
बहुत बड़ी हार है।

कण्ठों से करुणा का राग उड़ा जा रहा
दुलहिन सी प्यास का सुहाग उड़ा जा रहा
उड़ा जा रहा यौवन बंधन की बाँह में
आहों में साँस का पराग उड़ा जा रहा

गीत गुनगुना रहा
मगर कहूँ कि गीत ही सितार है
बहुत बड़ी हार है।

गीतों में ज़िन्दगी न राह अभी पा सकी
आँसू की बाढ़ में ना थाह अभी पा सकी
सुन सका न दर्द अभी मंज़िल की रागिनी
प्यास भरी चातकी न चाह अभी पा सकी

मौन चला जा रहा
मगर कहूँ कि मौन ही पुकार है
बहुत बड़ी हार है।

आसमान बड़ी दूर है

धरती पर आग लगी – पंछी मजबूर है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!

लपटों में नीड़ जला
आग ने धुआँ उगला
पंछी दृग बंद किये
आकुल मन उड़ निकला

सिंधु किरन में डूबी – और साँझ हो गई
आँसू बन बरस रहा पंख का गरूरा है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!

बोझिल तम से अंबर
शंकित उर का गह्वर
जाने किस देश में
गिरेगा गति का लंगर

काँप रहे प्राण आज पीपल के पात से
कंठ करुण कम्पन के स्वर में भरपूर है
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!

उड़ उड़ जुगनू हारे
कब बन पाए तारे
अपने मन का पंछी
किस बल पर उड़ता रे,

प्रश्न एक पवन के प्रमाद में मुखर हुआ
पंछी को धरती पर जलना मंजूर है।
क्योंकि आसमान बड़ी दूर है!

झुर झुर बहता पवन 

झुर झुर बहता पवन – पुलक से भरा प्रात लहरा गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया

बीत गई जैसे कि शीत की साधना
जीत गई यह वासंती आराधना
पकड़ प्रात की बाँह कि जो कहने लगी –
‘आज तुझे देना है बड़ा उलाहना

छोड़ नींद में निर्मोही तू कौन देश में छा गया’
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।

धरती और गगन के बीच खुली दूरी
भरा भरा सौभाग्य उषा का सिंदूरी
गम गम गमक उठी सुधियों की केतकी
या कि प्राण-मृग की फूटी है कस्तूरी

जिसे ढूँढता सा मेरा मन अपने ही भरमी गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।

दिग्वधुओं ने पेड़ों पर ली अंगड़ाई
चल अंचल से खुली शिशिर की गहराई
डूबा मैं छन भर को डूब गई वाणी
पर बजती ही रही प्यार की शहनाई

चढ़कर जिसकी लय पर मेरा गीत नया स्वर पा गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।

मैं पागल, प्राण लुटा आया 

दुनिया ने केवल स्वर माँगा- मैं पागल, प्राण लुटा आया!

मन का बन फूला फूला था
साँसों में सौरभ झूला था
प्राणों की धरती पर जैसे
माधव का यौवन झूला था

तब ढँक न सका मैं अपनापन भर गये सुरभि से धरा गगन
इसलिए कि स्वर-माला से मैं फूलों सा गान लुटा आया!

फिर चिंता के दो क्षण आये
पग थके डगर पर भरमाये
मन ऊब गया सूनेपन में
आँखों में बादल भर आये

तब मैंने मन पहचान लिया, जग आतुर है यह जान लिया
इसलिए धुएँ में डूबा भी उर की मुस्कान लुटा आया!

सुख ने तो मधुर पराग लिया
दुख ने छती को आग किया
फिर भी जब दुनिया वालों ने
मेरा घर मुझसे माँग लिया

तब बेघर का बेचारा मैं अपनी मंज़िल से हारा मैं
असहाय पड़े करुणा वाले पथ को आह्वान लुटा आया!

रक्त रंजित चरन मेरे

रक्त-रंजित चरन मेरे पर न हारे।

दूर निर्जन घाटियों में ढल चुके अनुमान मेरे
उड़ रहे तमसी गुहा में गीत के अभियान मेरे
किंतु कोई सुन न पाता व्योम से फिर आ रहे स्वर
प्राण में मुस्का न पाते ज्योति के वरदान मेरे

बढ़ रही है राह काँटों के सहारे।
रक्त-रंजित चरन मेरे पर न हारे।

आज मेरे आंसुओं में शिशिर की गति पल रही है
प्राण के सूने क्षितिज में जेठ की लू चल रही है
प्रलय की बोझिल शिला पर साँस केवल रागिनी जब
स्वप्न के जल-जात जैसी एक छाया छल रही है

कह रही है – “लौट जा रे, लौट जा रे”!
रक्त-रंजित चरन मेरे पर न हारे।

अनल के तूफान में भी भूख का अभ्यास बाकी
मिट न पाती है क्षुधा पर ज़िंदगी की आस बाकी
सुन रहा हूँ धार के स्वर पग उतरना चाहते हैं
क्योंकि सूने कंठ में तलवार जैसी प्यास बाकी

किंतु टूटे जा रहे नद के किनारे।
रक्त-रंजित चरन मेरे पर न हारे।

प्रणाम 

सौ सौ शूलों सा लगता है प्रिये! प्रणाम तुम्हारा।

चीख रहा मेरे अंतर में दर्द तुम्हारे मन का
रोम-रोम से फूट रहा है अट्टहास बंधन का
काँप रही धरती की छाती आसमान भरमाया
चिहुँक-चिहुँक उठता सूने में सोया प्राण विजन का

अंधकार से लड़-लड़ आता पागल नाम तुम्हारा।

आज तुम्हारी आँखों में जो आँसू डोल रहे हैं
भावी कल के बँधे प्यार की गाँठें खोल रहे हैं
लेकिन कुछ न समझ पाते ये सुधि के घन मतवाले
दूर देश से आकर मेरा साहस तोल रहे हैं

भारी ही भारी रहता है मन अविराम तुम्हारा।

फिर भी तुमने भेज दिया जो यह प्रणाम का पानी
उतर पड़ा मेरी आँखों में बन कर क्र्रूर कहानी
पागल! तुमने दर्द न जाना व्यंग्य बाण यों मारा?
धीर नीर सा ढुलक पड़ा है काँपा स्वर अभिमानी

लेकिन मैं न हिला तृण भर भी साहस थाम तुम्हारा।

प्राण! न जाना भूल कि मेरा दर्द और भी भारी
तड़प रही मेरी आँखों में कितनों की लाचारी
बड़े पुण्य के बाद मिली है जीवन की यह ज्वाला
इसी लपट में जल जाएँगे बंधन के व्यापारी

किंतु आज तो देख रहा हूँ – तमाम तुम्हारा!

मैं आज भी न गाता

मैं आज भी न गाता।

कल की व्यथा नयन में, साकार हो गई है
यह राह जिंदगी की, मझधार हो गई है

उठती हुई लहर में, गिरती हुई लहर में
मन टूट सा रहा है, स्वर साज भी न पाता।

तम की घनी गुहा में, जो दीप जल रहा है
उस ज्योति की शिखा पर, यह प्राण पल रहा है

पर भाव की धरा पर, ढलता हुआ सितारा
भीगे हुए गगन से, आवाज़ भी न पाता।

भीगे हुए गगन को, ऊषा सँवार लेगी
खोये हुए स्वरों को, कोयल पुकार लेगी

ये स्वर उमड़ उठे हैं, पर राह जल रही है
चिर दग्ध वर्तिका सी, यह ज़िंदगी जलाता।

तुम क्यों न गा रहे हो?

तुम क्यों न गा रहे हो?

तूफान के चरन में, सोये हुए सितारों!
मत आज के नयन में, कल की व्यथा निहारो

कल दूर हो गया है, लो आज बीतने को
कल के लिये सजग हो, तुम क्यों न आ रहे हो?

ऐ हार के अधर में, पलते हुए सितारों!
धूमिल उपत्यका में, ढलते हुए सितारों

जो रात रात जलती, उस ज्योति के सहारे
आकाशा के नयन में, तुम क्यों न छा रहे हो?

सोए हुए सितारों! जगते हुए सितारों!
तम की शिला अधर से, रंगते हुए सितारों!

यह अंधकार भारी, यह अंधकार जारी
तुम ज्योति के परों से उड़ क्यों न जा रहे हो?

तूफान भी सदा को, आबाद तो नहीं है
अवसान की परिधि से, आजाद तो नहीं है

फिर क्यों न मुस्कराना, फिर क्यों न गीत गाना
तुम क्यों न चाँदनी की, गंगा बहा रहे हो!

बिरही के प्राण गये हार! 

नयन खुले गगन की पुकार
बिरही के प्राण गये हार!

किसकी यह करुणा रागिनी
गूंज उठी अंतर तम में जैसे
गा रही विहाग यामिनी

साँसों में घन का रव भर गया
नयनों के सिंधु में उछाह भर
पूनम का चाँद ज्यों उतर गया

बिजली की हँसी गई मार
दिशा-दिशा पुनः अंधकार!

तम में वह राह सो रही
चमक-चमक किरन की परी जैसे
घन में गुमराह हो रही

गति का अभिमान कौन ले गया?
धरती की मंज़िल हो दूर तो
क्षुब्ध आसमान कौन दे गया?

राहों के चरन की उभार!
राही से छल के व्यापार!

मैं आबाद रहूँगा 

मैं आबाद रहूँगा

छंद-छंद में बोल रहा हूँ, गीत-गीत में डोल रहा हूँ
औरों के हित पर अपनापन अपने हाथों तोल रहा हूँ

पर भगवान नहीं हूँ

बात-बात में बिक जाता हूँ, लहर-लहर पर टिक जाता हूँ
अपने मन की बात विश्व की डगर-डगर पर लिख जाता हूँ

पर आसान नहीं हूँ

हृदय-सिंधु में बढ़ जाने दो – भाव लहर पर चढ़ जाने दो
अपनी रानी के प्राणों का बन उन्माद रहूँगा

मैं आबाद रहूँगा।

केवल ऊषा में मुस्काता – तम से घिर आँसू बरसाता
अपने वैभव के चरणों से जो दुनियाँ की धूल उड़ाता

वह इंसान नहीं हूँ

उच्च शिखर से ढह जाता है – शीत-घाम सब सह जाता है
धरती की छाती पर केवल भार रूप जो रह जाता है

वह पाषाण नहीं हूँ

मुझे दर्द में पल जाने दो – मुझे गीत में ढल जाने दो
भू अम्बर निशि-दिन पल युग का बन आह्लाद रहूँगा!

मैं आबाद रहूँगा।

पीड़ा में जो मुस्काता है – वीणा में मधु बरसाता है
जिसको पी-पी कर जन-जन का जीवन मधुमय हो जाता है

मैं वरदान वही हूँ

सत्य-शिखर सा उठा हुआ है – सुंदरता सा झुका हुआ है
दुनियाँ के हित पर शिव जैसे भाव लिये जो रुका हुआ है

मैं अभिमान वही हूँ

अरमानों को जल जाने दो – पाषाणों को गल जाने दो
अपनी वाणी के पलने का बन प्रासाद रहूँगा।

मैं आबाद रहूँगा।

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