Skip to content

छायाचित्र

1.
फाटोग्राफ:
जीवन की फिल्म का
फ्रीज कर दिया गया
दृश्य।

2.
जीवन:
सृष्टि की फिल्म के
फ्रीज कर दिए गए
दृश्यों का एलबम।

3.
सृष्टि:
समय की फिल्म के
फ्रीज कर दिएगए
कुछ दृश्यों का एलबम।

एम.जे. 

ग्लैमर की दुनिया में कदम रखते ही
कलाकार, ऐसी मायावी रोशनी से घिर जाता है
जिसकी चकाचौंध में वह सिर्फ अपने आपको ही
देख पाता है, औरों को नहीं

सफलता उसकी आत्ममुग्धता को और बढ़ाती है
असाधारण होते हुए सामान्य बने रहने का तनाव,
सफलता के शिखर पर टिके रहने की चिंता,
समय के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध लड़ते हुए,
आसमान से जमीन पर गिरने का डर,
बाजारवाद के इस उत्तर-आधुनिक दौर में
सेलेबिलिटी के चार्ट पर नम्बर-1 पर
चिपके रहने का दबाव,
उसे आत्मध्वंस की
उस अंतहीन सुरंग में धकेल देते हैं
जिसमें से अब तक
कोई जीवित बाहर नहीं निकल पाया-
दुनिया का सबसे बड़ा रॉकस्टार: एल्विस प्रेस्ले
और सबसे बड़ा पॉपस्टार: माइकल जैक्सन भी नहीं
ऐसी अकाल मृत्यु देखकर
समदर्शी होने का अर्थ समझ में आ जाता है

यह आकस्मिक नहीं है कि टैगोर गीतांजलि में
एक जगह ईश्वर से प्रार्थना करते दिखाईदेते हैं-
”मेरे जीवन को बांसुरी के समान सरल कर दे,
और उस बांसुरी के सभी छिद्रों में,
अपने गीतों का स्वर भर दे

और पढ़ रहे थे
अपने जीवन के अंतिम दिनों में
टैगोर की कविताएं-
एम.जे. यानी
माइकल जैक्सन।

अंतिम यक्षप्रश्न 

हे महाकवि व्यास!
आपके महाकाव्य ‘महाभारत’ के अंतिम अंश को
मैं-कलियुग का एक अदना सा कवि,
किंतु आपका मानस पुत्र-बदलना चाहता हूं।

कारण?
हे महर्षि!
आपने लिखी थी युद्ध की यह गाथा
राजतंत्र के दमघोंटू माहौल में
और मैं चाहता हूं इस अद्भुत कथा को
फिर से कहना लोकतंत्र की खुली हवा में।

हे युगद्रष्टा!
सुनिए, नए पाठ का अंतिम अंश-
सहसा गलने लगी युधिष्ठिर की देह बर्फ में
चिल्ला उठे
एकमात्र साथी श्वान की ओर देखकर,
हतप्रभ, वे!
”मैं धर्मराज भी?“
”हां वत्स, तुम भी!“
श्वान की जगह खड़े एक देवपुरुष ने कहा-
”मैं धर्मराज हूं।“
युधिष्ठिर ने पूछा (हाथ जोड़कर)-
”मेरे अवसान का कारण?“
धर्मराज ने तीखे स्वर में पूछा-
”द्रौपदी के चीरहरण और
दासी सैरंध्री के अपमान के साक्षी
और दास कंक के अपमान के भुक्तभोगी!“

”हे नरश्रेष्ठ! जवाब दो।
क्या तुम्हरे राज्य में-
प्राप्त था स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी का दर्जा?
हो पाई थी समाप्त दास प्रथा?“

झुका लिया सिर कुंतीपुत्र ने
और शर्मसार मैंने भी!

हे राम!

हे राम!
अयोध्या का वह युवराज कौन था?
जिसने अपने राजतिलक के दिन
राजधर्म के बजाए पुत्रधर्म का पालन किया
और अपने पिता के वचनों का मान रखने के लिए
राजमहल छोड़कर वन में जाना स्वीकार किया

तुम्हीं थे न?

हे विष्ण के अवतार राम!
अयोध्या का वह राजा कौन था?
जिसने पति धर्म के बजाए
राजधर्म का पालन किया
और अपनी निर्दोष गर्भवती पत्नी को
एक धोबी के कहने पर त्याग दिया
जिसने कभी उसका साथ निभाने के लिए
स्वेच्छासे वनवास स्वीकार किया था।
”हे अहल्या के मुक्तिदाता राम!
सर्वज्ञ, भगवान राम!
सब कुछ जानते हुए भी
राजधर्म का पालन करने के बाद
भरत को राजपाट सौंपकर
स्वेच्छा से वन में जाकर
अपनी पत्नी के साथ रहकर
तुमने पतिधर्म क्यों नहीं निभाया?

ओ जग के पालनहार!
तुम्हारी लीला अपरम्पार!

क्या तुमने सुना?

कुछ तुमने कहा
कुछ मैंने सुना
यों-
जो तुमने कहा
वो मैंने नहीं सुना
और जो मैंने सुना
वो तुमने नहीं कहा

मगर अब नैतिकता का तकाजा है
कि सुनने की मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए
मुझे माफी मांगनी चाहिए
मगर किससे?
कहने वालों से यानी तुमसे

वो भी तब जबकि
दुनिया को ठंडी उदासीनता के विशाल समुद्र में
तुम्हरी और मेरी जिंदगी को गर्माने वाली
देह की आंच अब लगभग ठंडी हो चुकी है
और दोस्तो, पड़ोसियों और रिश्तेदारों की
मतलबपरस्ती और ईर्ष्या के अंधकार में
उजाला फैलाने वाली
आत्मा के प्यार की दिव्य आभा
अब पड़ चुकी है मद्धम

फिर भी लो
तुम्हीं से मांगता हूं मैं क्षमा
क्या तुमने सुना?
जो मैंने कहा।

एक प्रमेय यह भी

जीवन में आता है
या तो दुख
या फिर सुख

जिन्दगी जीना भी एक कला है
जिसे सिखाता है हमें दुख
और परखता है सुख

इसलिए हमें हर पल
सतर्क
कमर-कसे
और डटे रहना पड़ता है।

दरअसल हर पल
या तो हम सीख रहे होते हें
या फिर दे रहे होते हैं इम्तहान

यों दुनिया में
ऐसे लोग भी होतेहैं
जो समझ बैठते हैं
सुख को दोस्त
और दुख को दुश्मन।

ऐसे महानुभाव
या तो सोते हैं
या फिर रोते हैं।

ईश्वर का जन्म

जिस क्षण जागा
मुझमें
तुझमें
हम सब में-
यह अहसास
कि हम मनुष्य हैं:
निरंतर घूमते हुए समय के पहिए
की गति के नियमों से संचालित
परिवर्तनशील सृष्टि के नश्वर प्राणी

हम नहीं
सर्वव्यापी
सर्वज्ञ
और सर्वशक्तिमान,
कोई और है

उसी क्षण
ईश्वर का जन्म हुआ।

नीली रोशनी का अंधकार

अपने से परे धकेलते हैं एक दूसरे को,
चुम्बक के समान धु्रव
और विपरीत धु्रव एक दूसरे को
खींचते हैं अपनी ओर

जैसे चुम्बक और लोहे के टुकड़े
जैसे पुरुष और स्त्री

आदमी और औरत का परस्पर आकर्षण
देह से देह का, मन से मन का और
आत्मा से आत्मा का
कीाी न खत्म होने वाला संवाद है

विध्वंस के बियाबान में निर्माण की पुकार है
सृजन का आह्लाद है।

मगर, पुरुष की देह में,पुरुष की
और स्त्री की देह में, स्त्री की आसक्ति
अपवादों का अपवाद है
समान धु्रवों का यह आकर्षण
विकृत वासना की नीली रोशनी का अंधकार है

कुदरत का भद्दा मजाक है, अश्लील खेल है
देह का उन्माद है
मन की भाषा से देह की भाषा में
प्रेम-कविता का,
अनाड़ी अनुवादक के द्वारा किया गया
अटपटा अनुवाद है।

अनाम कलाकारों केनाम

सलाम उन महान कलाकारों को
उकेरे जिन्होंने दुर्लभ चित्र
अजंता और एलोरा की गुफाओं की दीवारों पर

और नाम और दाम के पीछे
बेतहाशा दौड़ते हुए लोगों की
इस पागल दुनिया के गाल पर जड़ते हुए
एक करारा तमाचा हो गए गायब
गुमनामी के अंधेरों में न छोड़ते हुए
किसी के लिए भी कोई सूत्र
पहुंचने का अपनी पहचान तक

क्या कालजयी कृति के अमर कृतिकार
होने के भ्रम की संभावना
मायावी आत्ममुग्धता के अदृश्य जाल
में फंस जाने का पूर्वाभास
या फिर अपने प्रभामंडल की दिव्य
रोशनी की चकाचौंध में
इन चित्रों में व्याप्त रोशनी के
धूमिल पड़ जाने की आशंका के कारण
लिया था उन्होंने
अपनी पहचान को गुप्त रखने का निर्णय?

या फिर शायद
वे जान चुके थे
कि समय और परिवर्तन के अटूट
नियमों से बंधी सृष्टि भी
मल्टीकलर, मल्टीस्टार कास्ट
से सजी, समय की एक लम्बी फिल्म के,
फ्रीज के, एलबम से ज्यादा कुछ नहीं

और ‘कालजयी कृति’ और ‘अमर कलाकार’
जैसे खोखले शब्द
सर्कस के विदूषक के चुटकुले से
ज्यादा अहमियत नहीं रखते।

एक पत्र: महामहिम के नाम

महामहिम
आखिर आप सत्त के इस सर्वोच्च शिखर पर
पहुंच ही गए, बधाई
आप यहां कैसे पहुंचे?
इस प्रश्न की आड़ में, मैं आपकी योग्यता
और नीयत पर संदेह करने की गुस्ताखी
नहीं करूंगा क्योंकि कल ही प्रेस-कॉन्फ्रेंस में
आप ने कहा था कि आप महात्मा गांधी के
सच्चे अनुयायी हैं और नैतिकता तथा
‘साध्य’ और ‘साधन’ की पवित्रता में विश्वास रखते हैं।

फिर भी, इस शिखर पर
जो दिव्यऔर अभिमंत्रित स्वर्णिम सिंहासन रखा हुआ है
उस पर बैठने से पहले आप खुद से
ये पांच सवाल अवश्य पूछें
और अपने दिल से मिले जवाब
यदि आपको सही लगें
तो आप इस सिंहासन पर बैठें
वरना हो सकता है कि कुछ समय के बाद
आप अपना मानसिक संतुलन खो बैठें
और प्रलोभनों के शिकार होकर
स्वर्गाधिपति नहुष की तरह शापग्रस्त हो जाएं-
1. इस सिंहासन पर बैठना आपका सौभाग्य है मगर, कहीं देश का दुर्भाग्य तो नहीं?
2. इस सिंहासन से जुड़े दायित्वों को निभाने में आप सक्षम हैं या नहीं?
3. क्या आप युद्ध में जीतने या शत्रु को परास्त करने की योजना बनाते समय नैतिकता की कम से कम क्षति होने की संभावना को उसके केन्द्र में रखते हैं?
4. क्या आप अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और जन कल्याण की अपनी भावनाओं के बीच संतुलन रखने में विश्वास करते हैं?
5. क्या आप यह मानते हैं कि जो आप समझते हैं और जो आप कहते हैं, वही अंतिम सत्य है?
इस उम्मीद से कि आप
मेरी सदाशयता पर संदेह नहीं करेंगे,
शुभकामनाओं सहित,
आपका प्रशंसक-
विनोद शर्मा।

विडम्बना-2

भाषण के अंत में मैंने कहा
‘बहादुरी ’ के नाम पर
असाध्य रोग से जूझते हुए
निरंतर घोर यातनाएं झेलते रहने की विवशता
ढोते रहना
कहां की अक्लमंदी है?

आत्महत्या कीजिए
या सुखमृत्यु की शरण में जाइए
और बीमारी से मुक्ति पाइए

श्रोताओं में मौजूद
सयानों ने कहा- ‘आत्महत्या कायरता है
खुद का खुद से करवाता है खून
बेकाबू हो जाए अगर जुनून’

धर्मगुरुओं ने कहा- ‘पाप है, घोर पाप!
बाप रे बाप!’

बुद्धिजीवियों ने कहा-‘इजाजत नहीं देता कानून गुड आफ्टरनून’

दर्द से मुक्ति की कोशिश को
कायरता, पाप और अपराध की संज्ञा देना
नैतिक अपराध नहीं तो और क्या है?

इस संगीन अपराध के लिए
जिम्मेदार कौन है?

मैंने जब से यह पूछा है
देश के सबसे बड़े कानूनविद से
तभी से वह मौन है।

जिस दिन

जिस दिन
दुनिया की सारी स्त्रियां
समझ जाएंगी कि स्त्री दासी नहीं
जीवनसंगिनी है पुरुष की

और स्त्रियों के अधिकारों के लिए
उठाएंगी मिलकर आवाज
पुरुषों के खिलाफ

उस दिन
हां उसी दिन
मर जाएगा ईश्वर
उनका,
इस दुनिया का भी।

देह की पवित्रता

वे,
जो खुद को नैतिकता का ठेकेदार
और पाप-पुण्य के सिद्धान्त का व्याख्याकार
समझते हैं

और अपहरण या बलात्कार की शिकार
औरत को ढाढ़स न बंधाकर
उसकी विवशता को
पूरी तरह नजरअंदाज करके
उसकी देह की पवित्रता को
संदेह के दायरे में घसीटते हैं
उसे कलंकिनी कहकर अपमानित करते हैं
और
घर से निर्वासित और समाज से बहिष्कृत
करने के समर्थन में वहशियों की तरह
चीखते-चिल्लाते हैं

इन महानुभावों से मैं पूछना चाहता हूं
कि यदि कोई सत्ता-शक्ति सम्पन्न पुरुष
जो स्त्री की देह के बजाए
पुरुष की देह में रखता हो आसक्ति
अगर उनका अपहरण कर ले
तो क्या वे अपनी देह की पवित्रता को भी
संदेह के दायरे में घसीटेंगे
और ख़ुद को भी करेंगे निर्वासित
अपने घर से
बहिष्कृत समाज से?

और इसलिए भी..

हर क्षण
कहीं न कहीं
कोई न कोई
तुम्हें पुकार रहा है-
मदद के लिए

सुनो!
उसकी पुकार सुनो
क्योंकि इन्सानियत कायही तकाजा है

और इसलिए भी
कि ताकि कभी जब तुम्हें
किसी की मदद की जरूरत पड़े

तो तुम भी
पुकार सको किसी को
बिना किसी अपराध-बोध के।

गॉडो

कौन है गॉडो[1]?
गॉडो, गॉडो है और कौन?
वही गॉडो
जो उस नाटक[2] का भी पात्र नहीं
जिसमें उसका जिक्र बार-बार आता है
और जिसके नाम को
नाटक के शीर्षक में शामिल किया गया है
और जिसका इंतजार करते हैं
नाटक में दो आदमी हर रोज़
मगर जो कभी नहीं मिलता उन्हें
और कहला भेजता है हर बार
अगले दिन आने को

या ईश्वर?
जिसके
दुनिया के कोने-कोने में
फैले हुए असंख्य भक्त
रोज जपते हैं उसका नाम
और करते हैं इंतजार रात-दिन
उसके प्रकट होने का
ताकि मांग सके वे कोई मनचाहा वर
मगर अभी तक इस युग में नहीं दिए उसने
किसी को भी अपने दर्शन

या चार्ली चैपलिन?
जो उलझा हुआ था जिंदगी में बुरी तरह
टूटा हुआ था ईश्वर की उदासीनता से
मगर जिसने सिद्ध की कला-
इंसान की मजबूरी को
एक मनोरंजक खेल में बदलने की
और हमें सिखाया
निरस्त करना
हताशा और अवसाद के दुष्प्रभावों को
स्वतः स्फूर्त हंसी से
जिसके लाखों प्रशंसक कर रहे हैं
पिछले 33 वर्षों से इंतजार
मृत्यु के उस पार से
उसके इस पार लौटने का
मगर जो अभी तक नहीं आया
और न किसी से मिला ही

या न्याय?
जिसका इंतजार करते हैं
बड़ी शिद्दत से हर रोज
घिसते हुए अपने जूते

शहर की छोटी-बड़ी अदालतों में कानूनी दाव-पेंच
और वकीलों की दुरभिसंधियों के शिकार
असंख्य लोग
मगर जो नहीं मिला उन्हें
आखिरी सांस के उखड़ने तक

या प्रेम?
जिसका इंतजार करते हैं अगणित लोग
(वे लोग-
जो इस घोर भौतिकवादी युग में भी
दिल की धड़कनें सुनने में
काफी ऊर्जा और समय खर्च करते हैं
ओर प्यार के अमरत्व
संबंधों की निरंतरता
और ऐन्द्रिक आकर्षण की शाश्वता
में यकीन रखते हैं
और अंततः फंस जाते हैं
एक विचित्र भूलभुलैया में-)
मगर जो नहीं मिला उन्हें
नब्ज के डूबने और सांसों के टूटने तक

या कामयाबी?
जिसे हर कोई पाना चाहता है
मगर जीवन के संघर्षों से लहूलुहान
अधिसंख्य लोग
(जैसे हमारे सवाल का जवाब
ढूंढ़ने वाले असंख्य जिज्ञासु)
जिसका इंतजार करते रहते हैं
और जो नहीं मिलती उन्हें मरते दम तक।

अर्द्धनारीश्वर का जन्म 

अगर मानव-सभ्यता के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं,
आदमी औरत के संबंधों
और उनसे जुड़ी असंख्य ग्रन्थियों की
जांच-पड़ताल पर नजर डाली जाए
तो यह निष्कर्ष निकलेगा-
प्यार या तथाकथित विवाह के बंधन में
बंध कर भी, अभी तक पुरुष
चाहे वह ईश्वर का अवतार
या पैगम्बर ही क्यों न हो?
स्त्री के रूप-रंग
नैन-नक्श
उसकी देह की भाषा
उसके सौन्दर्य और वैभव के महत्व
को ही समझ पाया है।

शायद यही वजह है
कि स्त्री को प्यार करने का दावा करने वाला
हर पुरुष स्त्री की देह को ही प्यार करता है
उस देह में रहने वाली स्त्री को नहीं।

जिस दिन पुरुष
स्त्री की देह
और उस देह में रहने वाली स्त्री के फर्क को,
उसकी देह की सुन्दरता और वैभव के बजाए
उस देह में रहने वाली स्त्री के
स्त्रीत्व के सौन्दर्य और
वैभव के महत्व को समझ जाएगा
उस दिन जन्म होगा अर्द्धनारीश्वर का।

Leave a Reply

Your email address will not be published.