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विनोद श्रीवास्तव की रचनाएँ

नदी के तीर पर ठहरे

नदी के तीर पर
ठहरे
नदी के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
लहर की बानगी
हमको नहीं मिलती

हवा को हो गया क्या
नहीं पत्ते खड़कते हैं
घरों में गूजते खंडहर
बहुत सीने धड़कते हैं

धुएं के शीर्ष पर
ठहरे
धुएं के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
नज़र की बानगी
हमको नहीं मिलती

नकाबें पहनते हैं दिन
कि लगता रात पसरी है
जिसे सब स्वर्ग कहते हैं
न जाने कौन नगरी है
गली के मोड़ पर
ठहरे
गली के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
शहर की बानगी
हमको नहीं मिलती

कहाँ मन्दिर, कहाँ गिरजा
कहाँ चैतन्य की आभा
कहाँ नानक, कहाँ कबिरा
कहाँ खोया हुआ काबा

अवध की शाम को
ठहरे
बनारस की सुबह
गुजरे
कहीं भी तो
सफ़र की बानगी
हमको नहीं मिलती

गीत हम गाते नहीं तो

गीत
हम गाते नहीं तो
कौन गाता?

ये पटरियाँ
ये धुआँ
उस पर अंधेरे रास्ते
तुम चले आओ
यहाँ
हम हैं तुम्हारे वास्ते

गीत!
हम आते नहीं तो
कौन आता?

छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से
गीत
हम लाते नहीं तो
कौन लाता?

प्यार ही छूटा नहीं
घर-बार भी
त्योहार भी
और शायद छूट जाये
प्राण का आधार भी

गीत
हम पाते नहीं तो
कौन पाता?

हमारी देह का तपना 

हमारी देह का तपना
तुम्हारी धूप क्या जाने

बहुत गहरे नहीं सम्बन्ध होते
रंक राजा के
न रौंदें गाँव की मिट्टी
किसी के बूट आ-जा के

हमारे गाँव का सपना
तुम्हारा भूप क्या जाने

नशें में है बहुत ज्यादा
अमीरी आपकी कमसिन
गरीबी मौन है फिर भी
उजाड़ी जा रही दिन-दिन

तुम्हारी प्यास का बढ़ना
तुम्हारा कूप क्या जाने

हमारे दर्द गूगे हैं
तुम्हारे कान बहरे हैं
तुम्हारा हास्य सतही है
हम्रारे घाव गहरे हैं

हमारी भूख का उठना
तुम्हारा सूप क्या जाने

रेत के घर हो गये हैं हम

रेत के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
किस क्षण हमें ढहना पड़े

सब्र के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कितने युगों दहना पड़े

मोम होकर
पीर पिघली है
या कि सांसें हो गई ठंडी
रात की आवाज़
कातिल है
जागती है जबकि पगडंडी

नीर के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
किस छोर तक बहना पड़े

बंद आँखों में
शहर वीरान
दीप की लौ क्या करे बोलो
हो गये झूठे
सभी अनुमान
सूर्यवंशी मुट्ठियाँ खोलो

भूख के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कब क्या हमें सहना पड़े

इं दिनों तूफान को ओढ़े
बाँसुरी का गीत पागल है
हर पहर चिंगारियां
छोड़े
क्या यही हर बात का हाल है

धूप के घर
हो गये हैं हम
क्या पता
कब आग में रहना पड़े

तुम लिखोगे क्या 

तुम लिखोगे क्या
हमें मालूम है
तुम दिखोगे क्या
हमें मालूम है

शान पर
चढ़ती हुई तनहाइयाँ
आँख में
धंसती हुई परछाइयाँ

तुम सहोगे क्या
हमें मालूम है

टूटकर
गिरती हुई दीवार-सा
आदमी हर आदमी
बीमार-सा

तुम कहोगे क्या
हमें मालूम है
धूप की मानिंद
कुछ लिख दीजिए
आप तो दिनमान हैं
कुछ कीजिए

तुम रचोगे क्या
हमें मालूम है

हुए चीड़-से /

हुए चीड़-से
दर्द बिचारे
आँसू नदी हुए
अंजुरी भर हैं
पर्व हमारे
रोते सदी हुए

पोर-पोर
बस पीड़ाएं हैं
क्षण-प्रतिक्षण
टूटन
हंसने में भी
सीमाएं हैं
सुविधाएं
जूठन

कंधे
कर्ज
उठाते फिरते
पत्थर
पांव हुए
अधरों पर
अंगारे गिरते
बंजर
गाँव हुए

कांप रही हैं
छत, दीवारें
आंगन हैं ख़ामोश
उस घर से
आतीं झंकारें
इस घर में
अफ़सोस

शिरा-शिरा में
जहर भरा है
काले पहर हुए
हर कोई
बेमौत मरा है
खाली शहर हुएहुए चीड़-से
दर्द बिचारे
आँसू नदी हुए
अंजुरी भर हैं
पर्व हमारे
रोते सदी हुए

पोर-पोर
बस पीड़ाएं हैं
क्षण-प्रतिक्षण
टूटन
हंसने में भी
सीमाएं हैं
सुविधाएं
जूठन

कंधे
कर्ज
उठाते फिरते
पत्थर
पांव हुए
अधरों पर
अंगारे गिरते
बंजर
गाँव हुए

कांप रही हैं
छत, दीवारें
आंगन हैं ख़ामोश
उस घर से
आतीं झंकारें
इस घर में
अफ़सोस

शिरा-शिरा में
जहर भरा है
काले पहर हुए
हर कोई
बेमौत मरा है
खाली शहर हुए

कौन मुस्काया

कौन मुस्काया
शरद के चाँद-सा
सिंधु जैसा मन हमारा हो गया

एक ही छवि
तैरनी है झील में
रूप के मेले न कुछ कर पायेंगे
एक ही लय
गूंजनी संसार में
दूसरे सुर-ताल किसको भायेंगे

कौन लहराया
महकती याद-सा
फूल जैसा तन हमारा हो गया

खिल गया आकाश
खुशबू ने कहा
दूर अब अवसाद का घेरा हुआ
जो कभी भी
पास तक आती न थी
उस समर्पित शाम ने
जी भर छुआ

कौन गहराया
सलोनी रात-सा
रागमय जीवन हमारा हो गया

पूर्व से आती
हवा फिर छू गई
फिर कमल मुख हो गई संवेदना
जल तरंगों में नहाकर चांदनी
हो गई है
इन्द्रधनु-सी चेतना

कौन शरमाया
सुनहरे गात-सा
धूप जैसा क्षण हमारा हो गया

शाम-सुबह महकी हुई

शाम-सुबह महकी हुई
देह बहुत बहकी हुई
ऐसा रूप कि
बंजर-सा मन
चन्दन-चन्दन हो गया

रोम-रोम सपना संवरा
पोर-पोर जीवन निखरा
अधरों की तृष्णा धोने
बूँद-बूँद जलधर बिखरा

परिमल पल होने लगे
प्राण कहीं खोने लगे
ऐसा रूप कि
पतझर-सा मन
सावन-सावन हो गया

दूर हुई तनहाइयाँ
गमक उठी अमराइयां
घाटी में झरने उतरे
गले मिली परछाइयाँ

फूलों-सा खिलता हुआ
लहरों-सा हिलता हुआ
ऐसा रूप कि
खण्डहर सा मन
मधुवन–मधुवन हो गया

डूबें भी, उतरायें भी
खिलें और कुम्हलायें भी
घुलें-मिलें तो कभी-कभी
मिलने में शरमायें भी

नील वरन गहराइयाँ
साँसों में शहनाईयां
ऐसा रूप कि
सरवर-सा मन
दर्पण-दर्पण हो गया

नदी के तीर पर ठहरे

नदी के तीर पर
ठहरे
नदी के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
लहर की बानगी
हमको नहीं मिलती

हवा को हो गया क्या
नहीं पत्ते खड़कते हैं
घरों में गूजते खंडहर
बहुत सीने धड़कते हैं

धुएं के शीर्ष पर
ठहरे
धुएं के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
नज़र की बानगी
हमको नहीं मिलती

नकाबें पहनते हैं दिन
कि लगता रात पसरी है
जिसे सब स्वर्ग कहते हैं
न जाने कौन नगरी है
गली के मोड़ पर
ठहरे
गली के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
शहर की बानगी
हमको नहीं मिलती

कहाँ मन्दिर, कहाँ गिरजा
कहाँ चैतन्य की आभा
कहाँ नानक, कहाँ कबिरा
कहाँ खोया हुआ काबा

अवध की शाम को
ठहरे
बनारस की सुबह
गुजरे
कहीं भी तो
सफ़र की बानगी
हमको नहीं मिलती

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