Skip to content

तुम जैसा मनमीत नहीं है

कसम खुदा की खाकर कहता तुम जैसा मनमीत नहीं है
जितनी सुन्दर तुम हो उतना, सुन्दर मेरा गीत नहीं है

पगभर हमसे चला न जाता थककर इतने टूट गए
तुम्हे मनाने की जिद में प्रिय खुद से ही हम रूठ गए
फिर भी जाने क्यूँ लगता है, तुमको मुझसे प्रीत नहीं है
जितनी सुन्दर तुम हो उतना, सुन्दर मेरा गीत नहीं है

पाँव थिरकने लगें तुम्हारे गीतों के सुर पर मेरे
आओ अमर संगीत सुनाऊँ सर रख लो उर पर मेरे
सुन्दर धड़कन से ज़्यादा, प्रिय कोई भी संगीत नहीं है
जितनी सुन्दर तुम हो उतना, सुन्दर मेरा गीत नहीं है

तुम्हे निहारूँ प्रियतम जी भर इतना तो अधिकार मुझे
अब आ भी जाओ जीवन में प्रत्येक शर्त स्वीकार मुझे
प्रेम की पावन शर्तों मे प्रिय, हार नहीं है जीत नहीं है
जितनी सुन्दर तुम हो उतना, सुन्दर मेरा गीत नहीं है

सब उजियारे कहाँ गए

उलझे सारे तंतु ह्रदय के इसीलिए उलझी है भाषा
जाने कब से खोज रहे हैं हम संबंधो की परिभाषा
भाग्य देवता रूठ रहे हैं मन में तारे टूट रहे हैं
लेकिन कौन जान पाया है टूटे तारे कहाँ गए
अंधियारा ही अंधियारा है
सब उजियारे कहाँ गए ?

आँखों मे आँसू लाता है रिश्तों का हर एक कथानक
वे भी आँसू दान कर गए जो थे मुस्कानो के मानक
तथाकथित देवों की हमने बढ़ती देखी नित्य पिपासा
इसीलिए रह गया हमारे अरमानों का पौधा प्यासा
आँखो से बह निकले आँसू गहरी प्यासें छिछले आँसू
कोई नहीं जान पाया है
आँसू खारे कहाँ गए ?

इस चेहरे से उस चेहरे तक भटक रही हर ओर उदासी
किन महलों मे कैद हुई है आख़िर सुख की पूरनमासी
कभी नहीं भर पाया दुःख के सन्यासी का खाली कासा
दुःख की देहरी का हर दीपक क्यों रहता है बुझा बुझा सा
मन में रहे उमड़ते अक्सर सौ सौ प्रश्नों के सौ सागर
कोई नहीं जान पाया है
उत्तर सारे कहाँ गए ?

कुछ आँसू कुछ थकन उदासी और साथ कुछ क्लेश बचे हैं
इनकी सबकी अगुवाई में हम ही केवल शेष बचे हैं
लो हमने अनसुना कर दिया बजता रहा युद्ध का तासा
और हमारे अश्वमेघ का अस्व लग रहा थका थका सा
दुःख के सारे दिन बीते हैं देखे दुनिया हम जीते हैं
कोई नहीं जान पाया है
वे दिन हारे कहाँ गए ?

अपना काबा एक नहीं था 

अपना काबा एक नहीं था, अपनी कासी एक नहीं थी

निष्ठुर पतझर के हाँथों से, पूरा जंगल छला गया
कुछ पल ठहरा फिर मुस्काकर, प्रिय वसंत भी चला गया
ऋतुरूपी ख़ुशीयाँ त्रैमासिक, बारहमासी एक नहीं थी
अपना काबा एक नहीं था, अपनी कासी एक नहीं थी

घूम रहे थे उलझे उलझे, रिश्तों के गहन झमेले मे
बेशक बिके नहीं पर हमने, आँसू बेचे मेले मे
हँसकर सबने नज़रें फेरीं, नज़र प्यासी एक नही थी
अपना काबा एक नहीं था, अपनी कासी एक नहीं थी

तुमने याद आयतें की थीं, हमने रटी ऋचायें थीं
हम दोनो के पथ में प्रियतम, ये दोनो विपदायें थीं
अपनी एक अमावस्या पर, पूरनमासी एक नहीं थी
अपना काबा एक नहीं था, अपनी कासी एक नहीं थी

पादुका से रह गए

पाँव के संग धूल भी अंदर गई
द्वार पर हम पादुका से रह गए

जिसपे हमको गर्व था वह
रेत का घर ढह चुका था
दर्द आँसू जाने क्या क्या
बाढ़ मे सब बह चुका था

कौरवों की सत्यता को जानकर
कर्ण के जैसे रुआसे रह गए

देख व्याकुल आप आकुल
संग हमारे आप रोये
वेदना के शुद्ध मोती
आँख ने उस रात खोये

गोपियाँ अंदर गईं कान्हा से मिलने
राधिका के प्राण प्यासे रह गए

स्वप्न टूटा और टूटा
कल्पना का तंत्र साँचा
हाय उसको कैसे भूला
रात दिन जो मंत्र वाँचा

चाँद अपना देखकर सबने पिया जल
हम उपासे थे उपासे रह गए

प्रतिउत्तर मे युद्ध मिल गए

जिन प्रश्नों का हल ही छल था, उनको पथ अनिरुद्ध मिल गए
हमने जब – जब नेह पुकारा, प्रतिउत्तर मे युद्ध मिल गए

झोला टँगा रहा कंधे पर, कुछ भी मेरा बिका नहीं
सारी दुनिया देख रही थी, किंतु तुम्हे कुछ दिखा नहीं
आँखो पर थी चढ़ीं ख़ुमारी, मन मंथन मे मुझे तुम्हारी
भाव-भंगिमा शुद्ध मिली न, और विचार अशुद्ध मिल गए
हमने जब – जब नेह पुकारा, प्रतिउत्तर मे युद्ध मिल गए

फिसलन वाली राहों पर हम, जितना संभले उतना फिसले
गीत गगन के कई ऋषि बस, बाहर – बाहर उजले निकले
सोच रहे थे वर माँगेंगे, सुप्त अवस्था को त्यागेंगे
पर कुटिया मे जब हम पहुँचे, ऋषिवर हमको क्रुद्ध मिल गए
हमने जब – जब नेह पुकारा, प्रतिउत्तर मे युद्ध मिल गए

कुछ भी नहीं अजर होता है, कुछ भी अविनाश नहीं होता
प्रिय कुछ खो जाने का मतलब, सर्वस्व विनाश नहीं होता
तुमसे मिलकर मैंने जाना, मै नगण्य था मैंने माना
तुम मिले तो अंगुलिमाल को, जैसे गौतम बुद्ध मिल गए
हमने जब – जब नेह पुकारा, प्रतिउत्तर मे युद्ध मिल गए

रो रहा मन

हो सके तो
लौटकर आना नहीं तुम
तुमको अंतर
में सहेजे रो रहा मन

नेह का
विस्तार मेरे
तुम समाहित कर न पाए
मरुथली
मन पर कभी तुम
मेघ बनकर झर न पाए
हाँ ! तुम्हारे
छोड़कर जाने से मेरा
एक सूखे
वृक्ष जैसा हो रहा मन

ओढ़कर
प्रिय मौन चादर
सत्य को झुठला रहे हैं
मन-पटल
पर चित्र अपने
दिन व दिन धुँधला रहे हैं
लाख समझाता
हुँ लेकिन मन न माने
तुमको अंतर
से निरंतर खो रहा मन

तुम कभी
सुलझी नहीं थीं
बहुत उलझा प्रश्न थीं तुम
क्या बताते
क्या छिपाते
मन-नगर का स्वप्न थीं तुम
टूटने की
शक्ति फिर से कर के संचित
आस के
कुछ बीज उर में बो रहा मन

पत्थरों के देवता 

व्यर्थ में तुम मत बहाओ क़ीमती आँसू तुम्हारे
आँसुओं से पत्थरों के देवता गलते नहीं हैं

नेह की नदियाँ तुम्हारी आँसुओं संग बह न जाए
यूँ किसी के छोड़ने से दुर्ग नेह का ढह न जाए
उँगलियों के पोर से तुम आँसुओं को पोछ डालो
आँसुओं से स्वयं को ही उम्रभर छलते नही हैं
आँसुओं से पत्थरों के……

जो ह्रदय हो शैल सम प्रिय उस ह्रदय झरना नही
आवागमन है क्रम नियति का मन दुखी करना नही
जब ढलेंगे ये ढलेंगे स्वयं अपने आप इक दिन
आँसुओं से दुर्दिनों के सूर्य प्रिय ढलते नहीं हैं
आँसुओं से पत्थरों के……

धीर धरकर तुम अधर पर मुस्कुराकर मौन साधो
आँख की बहती नदी पर निडर होकर बाँध बाँधो
लेशभर भी प्रेम होगा तो स्वतः ही जल उठेंगे
आँसुओं से नेह के दीपक कभी जलते नही हैं
आँसुओं से पत्थरों के……

स्वप्न देखो ख़ूब जी भर किंतु इतना याद रखना
पहले रिश्तों को समझना बाद में बुनियाद रखना
स्वप्न होते हैं हक़ीक़त मात्र दृढ़ संकल्प से ही
आँसुओं से स्वप्न प्रियतम फूलते-फलते नही हैं
आँसुओं से पत्थरों के……

सबसे छिपकर रोते होंगे

अपनों से ही घातें पाकर, अपनो की ही देख दुर्दशा
बैठे-बैठे नदी किनारे, सबसे छिपकर रोते होंगे

इड़ा,पिंगला और सुषुम्ना, चिल्लाते हैं नाड़ी-नाड़ी
भोग भोगते मैंने देखे, राजयोग के निपुण खिलाड़ी
मुझको पग-पग पर मिल जाते, पथिकों को भटकाने वाले
जाने कौन लोक मे होंगे, दुर्दिन मे समझाने वाले
होंगे भी या नहीं भी होंगे, ऐसा भी कुछ ज्ञात नहीं है
लेकिन मेरा मन कहता है, निश्चित ही वे होते
बैठे-बैठे नदी किनारे, सबसे छिपकर रोते होंगे

सच बतलाना इतना कड़वा, आख़िर कैसे कह लेते हो
अपनों की यादें बिसराकर, आख़िर कैसे रह लेते हो
जाने कैसा समय आ गया, तोड रहे सब रिश्ते-नाते
मन के कहने पर चलते हैं, मन को साध नहीं पाते
अधरों पर मुस्कान बिखेरे, जगभर को समझाने वाले
मुझे पता अक्सर रातों में , रोते-रोते सोते होंगे
बैठे-बैठे नदी किनारे, सबसे छिपकर रोते होंगे

सबकी नज़रों मे होते हैं, नज़र चुराकर बचने वाले
अनुबंधों को स्वयं तोड़ते, अनुबंधों को रचने वाले
हो सकता है विस्तृत नभ मे, बनकर ध्रुव-तारा चमकें वो
सपने सच करने की ख़ातिर, संबंधो को रौंद रहे जो
दुनियाभर की दौलत पाकर, रीते-रीते जीते होंगे
देकर सपनों को महत्व जो संबंधो को खोते होंगे
बैठे-बैठे नदी किनारे, सबसे छिपकर रोते होंगे

मंज़िल दूर नहीं अब 

मंज़िल दूर नहीं अब हमसे हम संभल रहे गिरते-गिरते

अधरों को तपती रेत मिली जब-जब नदिया-तट पर पहुँचे
हर चौखट पर मिली उपेक्षा जब-जब जिस चौखट पर पहुँचे
बोझ नेह का सर-पर धर-कर हम ऊब रहे फिरते – फिरते

भोला मन मुझसे कहता है सबसे रिश्ते तोड़-ताड़ लो
जिसमे सब अपने ही दिखते ऐसा दर्पण फोड़-फाड लो
मन – मेघों के षड्यंत्रो से हम बच निकले घिरते-घिरते

तुम पहले से बदल गई हो

केवल मेरे छूने भर से, हद से ज़्यादा मचल गई हो
ओ ! धरती की विस्वमोहिनी, तुम पहले से बदल गई हो

संबंधो की ओढ़ चुनरिया, साथ समय के ऐसे बदले
सही समय आ जाने पर प्रिय, मौसम खुद को जैसे बदले
जैसे गागर जल को बदले, बदले दल को काफ़िर जैसे
जैसे रूह देह को बदले, बदले राह मुसाफ़िर जैसे
गिरगिट जैसे रंग बदलकर, प्रिय मेरे तन मन को छलकर
संबंधो के रथ पर चढ़कर, बहुत दूर तुम निकल गई हो
ओ ! धरती की विस्वमोहिनी, तुम पहले से बदल गई हो
केवल मेरे छूने भर से, हद से ज़्यादा मचल गई हो

हिम्मत मेरे पास नहीं है, उर मे मेरे साँस नहीं है
हाथ छुड़ाकर जाने वाले, शेष कोई अब आस नहीं है
विरह प्रणय की नियति है प्रियतम, हाँ मेरे मन मे रोष नहीं
मुझे पता है लेशमात्र भी, कोई तुम्हारा दोष नहीं
मैं तो सिर्फ़ अचम्भित इस पर, इतनी जल्दी आख़िर कैसे
पिछली सब यादें बिसराकर, समझौतों पर संभल गई हो
ओ ! धरती की विस्वमोहिनी, तुम पहले से बदल गई हो
केवल मेरे छूने भर से, हद से ज़्यादा मचल गई हो

साथ तुम्हारा गम रहता है

किसको हाल सुनाऊँ अपना
दृग का मौसम नम रहता है
मुझे अकेला मत समझो तुम
साथ तुम्हारा गम रहता है

इक दिन नहीं मिले हम तुम तो
लगा की सदियाँ बीत गई हैं
बिना बात के बरस-बरस कर
दोनों अखियाँ रीत गई हैं
अखियाँ जिनकी आदी थीं वह
अब अखियों मे कम रहता है
मुझे अकेला मत समझो तुम
साथ तुम्हारा गम रहता है

पंचामृत की चाह किसे है
सूखा मरुथल बस जल चाहे
कुछ और मिले न मिले मुझको
पर प्रणय प्रश्न का हल मिल जाए
तुम मुझे मिलोगी किसी दिवस
अब तक मन को भ्रम रहता है
मुझे अकेला मत समझो तुम
साथ तुम्हारा गम रहता है

मन को यह प्रतिकार लगा

मन को यह प्रतिकार लगा

छुट्टी ले तुम घर आये
राह तक रहा था मैं कबसे
पाँव जमी पर रुके नहीं
खबर सुनी थी ये जबसे
तुम आये और चले गए
जब बिना मिले ही
क्षण भर को मुझको मेरा
सारा कुछ बेकार लगा
मन को यह प्रतिकार लगा

हरे भरे उपवन में मेरे
उदास शाम घर आई
बहुत दिनों के बाद
नमी आँख में भर आई
बूँद धरा पर व्यर्थ गिरा
खुद मेरा अन्तःकरण रहा
मुझको फटकार लगा
मन को यह प्रतिकार लगा

जहाँ रहो आबाद रहो तुम
और भला क्या कह सकता
बचपन की सुधियों से सुन्दर
उपहार भला क्या दे सकता
यौवन के पहले पड़ाव पर
जीवन के इस ठाट बाट पर
पहली दफा धिक्कार लगा
मन को यह प्रतिकार लगा

मेरा जीवन तुम्हें समर्पित

मेरा जीवन तुम्हे समर्पित

तुम भोर की अरुणिम किरणों सी
तुम वन की चंचल हिरणों सी
तुम धूल हो पावन चरणों सी
तुम फूल हो सुन्दर तरुणों सी
तुम मंदिर की मूरत सी पावन
पावन मस्जिद की इनायत सी
वेदों की ऋचाओं सी पावन तुम
पावन कुरान की आयत सी
निराशाओं के घोर तिमिर में
प्रेम का दीपक तुम पर अर्पित
मेरा जीवन तुम्हे समर्पित

तुम माथे पर लट बिखरी सी
तुम हाँथ मे मेंहदी निखरी सी
तुम मुख पर भौहें उभरी सी
तुम आँख में फैली कजरी सी
तुम पावन सावन की बिजुरी सी
पनघट की अधजल गगरी सी
तुम तपती रेत मे बदरी सी
बरसात मे निकली छतरी सी
आँखों से बरसे हर बादल की
बूँद-बूँद तुमको प्रत्यर्पित
मेरा जीवन तुम्हे समर्पित

जिनको कूप समझता था मैं

जिनको कूप समझता था मैं
गज दो गज़ ही गहरे निकले

अधरों पर मुस्कान बिखेरे
अंदर अंदर ख़ूब दहा मैं
उनसे ही अब भय लगता है
जिनके संग निर्भीक रहा मैं
स्वतंत्रता का भ्रम था केवल
मुझपर अनगिन पहरे निकले
जिनको कूप समझता था मैं
गज दो गज़ ही गहरे निकले

इस दम्भी दुनिया में बोलो
किसको मन की बात बताऊँ
मतलब के सब रिश्ते-नाते
किसको अपनी कथा सुनाऊँ
जिनसे जिनसे दुखडा रोया
बे सब के सब बहरे निकले
जिनको कूप समझता था मैं
गज दो गज़ ही गहरे निकले

जो ख़ुद ही जन्मों के प्यासे
क्या इनसे अब आस लगायें
ये छिछले गड्ढे बतलाओ
कैसे मेरी प्यास बुझायें
इन छिछले गड्ढों के अंदर
गंदे नाले ठहरे निकले
जिनको कूप समझता था मैं
गज दो गज़ ही गहरे निकले

चहल पहल बढ़ गई अचानक

गाड़ी आ पहुँची स्टेशन पर
चहल पहल बढ़ गई अचानक

बहुत देर से चुप बैठे थे
किंतु एकदम लगे बोलने
कंपट टाफी वाली डलिया
जल्दी जल्दी लगे खोलने
मैंने पूछा कहाँ चल दिए
लम्बी साँस खींचकर बोले
रोज़ रोज़ की वही कहानी
रोज़ रोज़ के वही कथानक
गाड़ी आ पहुँची स्टेशन पर
चहल पहल बढ़ गई अचानक

चाबी वाली कार देखकर
बच्चे का मन मचल रहा था
पापा मुझको कार दिलादो
बच्चा ज़िद कर उछल रहा था
हाथ फिराकर सिरपर हँसकर
जब पापा ने मना कर दिया
बच्चा वहीं फ़र्श पर लोटे
बच्चे को था क्रोध भयानक
गाड़ी आ पहुँची स्टेशन पर
चहल पहल बढ़ गई अचानक

दूर देश को जाने वाले
अपना सबकुछ छोड़ रहे थे
हँसते-हँसते हाथ हिलाकर
सबसे नाता तोड़ रहे थे
ज्यों ही गाड़ी आगे लुढ़की
आँखों से आँसू भी लुढ़के
मैंने देखा प्लेटफ़ोर्म पर
भावुकता के टूटे मानक
गाड़ी आ पहुँची स्टेशन पर
चहल पहल बढ़ गई अचानक

वेदना के गीत गाये

जब कभी
तुम याद आये
वेदना के गीत गाये

क्या लिखूँ तुम पर बताओ
व्यंजना के भाव छिछले
आँख रोना चाहती पर
आँख से आँसू न निकले

आज मेरे
मन नगर में
याद के फिर मेघ छाये… (1)

व्योम के अनगिन सितारों
में तुम्हें मैं खोजता हूँ
बंद करके आँख अपनी
जब कभी भी सोचता हूँ

तुम नज़र
आते मुझे प्रिय
आज भी पलकें झुकाये… (2)

तुम नहीं हो पास मेरे
पर तुम्हारी रिक्तता है
जा चुके हो दूर इतना
अब न लौटोगे पता है

किंतु फिर
भी बाबरा मन
बोझ यादों का उठाये… (3)

जीवन कितना सुंदर होता

जीवन कितना सुंदर होता
सच में यदि आ जातीं तुम

हिम-गिरि जैसे मेरे उर को
साँसों से तुमने पिघलाया
साथ जिएँगे साथ मरेंगे
बातों से मुझको बहलाया

उलझी-उलझी बातें करके
घंटो प्रिय बतियातीं तुम… (1)

मुझे देखकर तुम रोई थीं
झरझर-झरझर नीर झरा था
काश कि सोचा होता तब
जब, दूजे का सिंदूर भरा था

किसी और को चुनकर प्रियतम
सच में क्या पछतातीं तुम… (2)

अब अपने रिश्ते में मधुरिम
कोई बंधन शेष नहीं है
जबसे तुमसे नाता टूटा
मन में कोई क्लेश नहीं है

पर अक्सर सपनों में आकर
मेरी नींद उड़ातीं तुम… (3)

क्षीण होता जा रहा है स्वर तुम्हारा

क्षीण होता जा रहा है स्वर तुम्हारा
लग रहा है तुम अचानक रो पड़ोगे

मोह तजकर तुम निरंतर
शून्य होते जा रहे हो
सब तुम्हें ही देखते हैं
गीत कैसा गा रहे हो

तुम विरह में इस क़दर टूटे हुए हो
लग रहा है तुम सभी को छोड़ दोगे… (1)

हर ग़लत संवाद पर तुम
होंठ अपने-सी रहे हो
इस जहाँ के शोरगुल में
मौन होकर जी रहे हो

प्रेम को आयाम निशिदिन दे रहे तुम
लग रहा है तुम नई गाथा गढ़ोगे… (2)

जो स्वयं ही जड़ हुआ है
गति उसी से माँगते हो
रात-दिन तुम मंदिरों में
पत्थरों को ताकते हो

पत्थरों की मूक भाषा पढ़ रहे तुम
लग रहा है तुम समय का घोष होगे… (3)

वेदना में रात बीती दिन हुआ

वेदना में रात बीती दिन हुआ
आज पहला दिन तुम्हारे बिन हुआ

आज पहली बार मेरी देहरी पर
दीप कोई भी नहीं था, बस अंधेरा
उस अंधेरे में निरंतर घुल रहा था
बस तुम्हारे नाम के संग नाम मेरा

एक युग से भी बड़ा हर छिन हुआ
आज पहला दिन तुम्हारे बिन हुआ… (1)

गीत नदिया के किनारे, शांति फैली
दूर तक किंचित न कोलाहल मिला है
आज पहली बार मेरी ज़िंदगी को
यह अभोगा या अगाया पल मिला है

दुःख मृदंगो पर धिनक-ता-धिन हुआ
आज पहला दिन तुम्हारे बिन हुआ… (2)

आज पहली बार सारी रात जागी
आँसुओं ने साथ आँखों का दिया है
भर रहा हूँ आँसुओं के मोतियों से
हर ख़ुशी का कर्ज जो मैंने लिया है

पर्वतों-सा अब सुखों का ऋण हुआ
आज पहला दिन तुम्हारे बिन हुआ… (3)

हम नदी के दो किनारे 

हम नदी के दो किनारे
चाह कर भी मिल न पाए

मधु-मिलन के मंत्र पावन
रात-दिन हमने पढ़े थे
बंधनो की आस बाँधे
भुज प्रतीक्षारत खड़े थे
किंतु पग जड़ पर्वतों सम
लेश भर भी हिल न पाए
हम नदी के दो किनारे
चाह कर भी मिल न पाए… (1)

जब कभी तुमको भुलाया
तीव्र-गति से याद आई
दर्द की दारुण कहानी
झूम कर हमने सुनाई
इस जहाँ के मन मुताबिक़
होंठ अपने सिल न पाए
हम नदी के दो किनारे
चाह कर भी मिल न पाए… (2)

दोष इतना था हमारा
देखते थे मिलन सपना
इस मिलन की चाह ने पर
खो दिया हर एक अपना
आँख उपवन में कभी भी
फ़ूल सुंदर खिल न पाए
हम नदी के दो किनारे
चाह कर भी मिल न पाए… (3)

जब से जी भर तुमको देखा

जब से जी भर तुमको देखा
दृग संदल से महक रहे हैं

मन में जो कुछ भी है प्रियतम
मन करता है सब कह डालूँ
जगभर की परवाह छोड़कर
तुमको अपना रब कह डालूँ

मुझमें इतना हर्ष देखकर
वृक्षों पर खग चहक रहे हैं… (1)

लेकर मेरी कठिन परीक्षा
ईश्वर मुझसे छलकर बैठा
अम्बर का हर एक सितारा
रूप तुम्हारा धरकर बैठा

ऊपर से आभास हो रहा
रजनी के पति बहक रहे हैं… (2)

जब जी चाहे जी भर देखूँ
मुझको यह अधिकार बहुत है
मिलना इतना सरल नहीं है
दूरी का विस्तार बहुत है

पर मिलने की समिधा लेकर
अंदर अंदर दहक रहे हैं… (3)

जाने वाला चला गया है 

सूना पथ
क्यों देख रहे हो
जाने वाला चला गया है

जिसको पढ़ स्वीकार किया था
प्रेम पगा प्रस्ताव तुम्हारा
जिसको पढ़कर कहता था वह
कितना सुंदर भाव तुम्हारा

आज तुम्हारे
उसी पत्र को
जाते-जाते जला गया है… (1)

कसमें रसमें रोक न पाईं
हर बंधन को तोड गया वो
जीवन भर का वादा करके
क्षणभर में ही छोड़ गया वो

कोई छवि
अब पास नहीं हर
चित्र तुम्हारा गला गया है… (2)

सबके सपने छलती दुनिया
कब तक झूठा जग देखोगे
धूल सनी राहों पर बोलो
कब तक उसके पग देखोगे

तुम मानो
या मत मानो पर
सच में तुमको छला गया है… (3)

द्वार पर हारा तुम्हारे

जीतकर संसार सारा द्वार पर हारा तुम्हारे

मैं तुम्हे कितना मनाऊँ और कितना टूट जाऊँ
किस तरह तुमसे बिछड़कर मैं प्रणय के गीत गाऊँ
आँसुओं को भी बहाकर कुछ नहीं निकला नतीजा
रात-दिन मैं ख़ूब रोया उर नहीं लेकिन पसीजा
हो सके तो रोक लो तुम मैं तुम्हे आगाह करता
आँसुओं संग बह रहे हैं आँख के सपने कुँवारे
जीतकर संसार सारा द्वार पर हारा तुम्हारे

अब विरह की वेदना को झेलना संभव नहीं है
दर्द से हर मोड़ पर प्रिय खेलना संभव नहीं है
टूटने का भय, निरंतर तार इतने कस चुका हूँ
सब असंभव लग रहा है मैं भँवर में फँस चुका हूँ
मैं तुम्हारे द्वार पर प्रिय इस तरह नज़रें टिकाए
जिस तरह कोई भिखारी एकटक चौखट निहारे
जीतकर संसार सारा द्वार पर हारा तुम्हारे

इस जनम मिलना कठिन है मन नहीं यह मानता है
मन मिलन की आस बाँधे जबकि यह सब जानता है
शैल-निर्मित मूर्ति कोई क्या कभी भी गल सकी है
काल की दुर्दम्य इच्छा क्या कभी भी टल सकी है
वक़्त की हर चाल में भी हाँ बुरे इस हाल में भी
मौन हैं मेरे अधर पर मन सदा तुमको पुकारे
जीतकर संसार सारा द्वार पर हारा तुम्हारे

गीत मेरा गुनगुनाना

यदि कभी
मैं याद आऊँ
गीत मेरा गुनगुनाना

प्राण
केवल पास मेरे
पास में वैभव नहीं है

व्योम-वसुधा
का मिलन प्रिय
हाँ कभी संभव नहीं है

हो सके
तो बंद कर दो
रात-दिन सपने सजाना (1)

जब कभी
तुमको पुकारा
दौड़कर संत्रास आए

दूरियाँ
दुगनी हुईं प्रिय
जब कभी भी पास आए

दूरियाँ ही
भाग्य हैं तो
तुम कभी मत पास आना (2)

हाथ अपने
खोलकर अब
नेह का मन व्यय करेगा

हाँ वही
स्वीकार होगा
जो समय अब तय करेगा

भूल
जाऊँगा तुम्हे मैं
तुम मुझे भी भूल जाना (3)

गीत कैसा पढ़ूँ कुछ इशारा करो

मुस्कुरा कर मुझे मत निहारा करो
गीत कैसा पढ़ूँ कुछ इशारा करो

यामिनी का अभी तो प्रथम दौर है
चाँद तारे गगन में न आए हुए
फूल हँसते रहे आज जो डाल पर
देखता हूँ सभी सिर झुकाए हुए
रातरानी कभी भी खिले मत खिले
भाव सुंदर कभी भी मिले मत मिले
मन मिलन का तुम्हारा करे जब प्रिये
कंगनो की खनक से पुकारा करो
गीत कैसा पढ़ूँ कुछ इशारा करो
मुस्कुरा कर मुझे मत निहारा करो

वेदना की कहानी लिखी हो जहाँ
ज़िंदगी भर वही पृष्ठ मोड़े रहें
दुःख तुम्हारे कभी पास आए नहीं
सुख सदा द्वार पर हाथ जोड़े रहें
नेह झरना बनूँ मैं निरंतर झरूँ
इस धरा के सभी सुख समर्पित करूँ
स्वप्न तक में कभी रूठना मत प्रिये
रूठकर तुम स्वयं को न हारा करो
गीत कैसा पढ़ूँ कुछ इशारा करो
मुस्कुरा कर मुझे मत निहारा करो

मुस्कुरा कर झुका लो नयन बाबरे
गीत का हार स्वर्णिम पिन्हा दूँ तुम्हे
ज़िंदगी भर अगर साथ तुम दे सको
हमसफर आयुभर का बना लूँ तुम्हें
दिव्य-सी लग रहीं हैं कुँवारी लटें
मुग्ध करतीं मुझे ये तुम्हारी लटें
नेह के पाश में बाँधती हैं प्रिये
स्याह बिखरी लटें मत सँवारा करो
गीत कैसा पढ़ूँ कुछ इशारा करो
मुस्कुरा कर मुझे मत निहारा करो

स्वप्न के संग हम नदी में

स्वप्न के संग हम नदी मे
धार के विपरीत बहते

कुछ नहीं
है पास फिर भी
लग रहा रीते नहीं हैं

आज तक
प्रारब्ध के प्रिय
खेल में जीते नहीं हैं

इस तरह हारे हुए हैं
हार को ही जीत कहते (1)

लाख चाहा
पर कभी भी
मन मुताबिक ढल न पाए

अंत तक
का दे भरोसा
दो क़दम संग चल न पाए

साथ यदि मिलता तुम्हारा
कष्ट हँसकर मीत सहते (2)

मौन होता
जा रहा मन
क्षोभ मन में अब नहीं है

हाँ मिलन
का लेशभर भी
लोभ मन में अब नहीं है

अब ह्रदय में तुम नहीं प्रिय
अब ह्रदय में गीत रहते (3)

केवल मेरे छूने भर से 

केवल मेरे छू

ने भर से, हद से ज़्यादा मचल गई हो
ओ! धरती की विश्वमोहिनी, तुम पहले से बदल गई हो

सम्बंधो की ओढ़ चुनरिया, जाने क्यों तुम ऐसे बदले
सही समय आ जाने पर प्रिय, मौसम खुद को जैसे बदले
जैसे गागर जल को बदले, बदले दल को काफ़िर जैसे
जैसे रूह देह को बदले, बदले राह मुसाफ़िर जैसे

गिरगिट जैसे रंग बदलकर, प्रिय मेरे तन मन को छलकर
सम्बंधो के रथ पर चढ़कर, बहुत दूर तुम निकल गई हो
ओ! धरती की विश्वमोहिनी, तुम पहले से बदल गई हो
केवल मेरे छूने भर से, हद से ज़्यादा मचल गई हो

मैंने सोचा अब भी दिल में, होगा संचित प्यार तुम्हारे
लेकिन मैं ये भूल गया था, बदल चुके अधिकार तुम्हारे
प्यार युगों से खेल रहा है, तुम भी इससे खेल रही हो
सच बतलाओ गीतों के ये, ताने कैसे झेल रही हो

क़समें रसमें सभी तोड़कर, सूने पथ पर मुझे छोड़कर
वादों वाली पगडंडी पर, आज अचानक फिसल गई हो
केवल मेरे छूने भर से, हद से ज़्यादा मचल गई हो
ओ! धरती की विश्वमोहिनी, तुम पहले से बदल गई हो

हिम्मत मेरे पास नहीं है, मन में मेरे प्यास नहीं है
हाथ छुड़ाकर जाने वाले, कोई भी अब आस नहीं है
विरह प्रणय की नियति है प्रियतम, मेरे मन में रोष नहीं है
मुझे पता है लेशमात्र भी, प्रिये तुम्हारा दोष नहीं है

मैं तो सिर्फ़ अचम्भित इस पर, इतनी जल्दी आख़िर कैसे
पिछली सब यादें बिसराकर, समझौतों पर संभल गई हो
ओ! धरती की विश्वमोहिनी, तुम पहले से बदल गई हो
केवल मेरे छूने भर से, हद से ज़्यादा मचल गई हो

शीर्ष की ईंट 

दुनियाँ की सबसे ऊंची
ईमारत के शीर्ष की ईंट
क्या कभी उस ईंट को
भूल सकती है
जो धरती की सतह से भी
चार फुट गहरे में दबी है
उस नींव की ईंट को
जिसने उसे शीर्ष पर
बैठने का अवसर
दिया है।
जिसने उसे सभी पर
नजर रखने की
जिम्मेदारी दी है
लेकिन क्या यह
वास्तविकता
हो सकती है।
खैर जो भी हो
भले ही आलोचकों को
यह उस ईंट के भाग्य की
विवशता लगे
मगर तीसरी आँख
हमेशा यही देखेगी
की उस ईंट के
बलिदान की बजह से
सतह से लेकर शीर्ष तक की
हर एक ईंट
यहाँ तक की
हर एक कण
उस खूबसूरत ईमारत को
उसके होने का
एहसास दिला रही है
और ईमारत की प्रत्येक ईंट
जोर जोर से चिल्लाकर
बोल रही है कि
तुम हो तो मैं हूँ।

रोज की तरह

लगभग रोज की तरह
तुम्हारी याद
अपने नियत समय
पर आई
और रोज की तरह ही
मुझे फिर से बैचेनी हुई,
पलकें गीली हुईं
मगर मैंने रोज की तरह
अपने आप को
किसी काम में नहीं लगाया
और ना ही तुम्हारी याद से
भागने की कोशिश की
मैं बस अपने कमरे में
चुपचाप बैठ गया
और खुद से ही बोलने लगा
आओ देखें
मछली कब तक पानी से
अलग रह सकती है
या फिर साँसे ह्रदय से
जैसे मैं खींझ रहा था
अपने ही आप पर
अंततः तुम्हारी याद को
विदा कर
केमिस्ट्री की किताब उठाई
उसमे कुछ
सुखी पंखुड़ियाँ
निकल आईं गुलाब की।

तुम्हारा चेहरा

तुमसे प्रेम करता था मैं
तुमसे मोहब्बत थी मुझे
इसलिए मैं निहारता रहता था
बिना पलक झपकाये
निरंतर तुम्हारा चेहरा।

हाँ ! केवल और केवल इसी लिए
अन्यथा यदि कोई और विचार
मेरे मस्तिष्क मे होता
या मेरी दृष्टि मे
कोई और भावना
निहित होती तुम्हारे लिए
या सीधे सीधे यूँ कहें
मेरी दृष्टि में काम का
लेशमात्र भाग भी होता
तो मैं तुम्हारा चेहरा नहीं
घूरता तुम्हारा वक्ष
तुम्हारी देह का
वह प्रत्येक अंग
जो कामुकता से ओतप्रोत था
नही बच पाता मेरी दृष्टि से।
किंतु मेरी दृष्टि
प्रेम की परिध्वंसक नहीं है।

मेरी दृष्टि तो नदी का वह किनारा है
जो सदैव दूसरे किनारे पर
तुम्हे स्थित देखती है
जो सदैव नीले नभ में
तैरते मेघों में तुम्हे ढूँढती है
दिन भर के
सारे उबाऊ कामों के पश्चात
मेरी दृष्टि खोजती है तुम्हे
रात के सन्नाटे में
ठीक उस तरह,
जिस तरह हिरन
खोजता है कस्तूरी
मृत्यु की दहलीज पर
खड़ी देह खोजती है साँसे
जिस तरह एक संन्यासी
खोजता है सत्य।

और तुम कहती हो
मेरी दृष्टि वासनामय है
नहीं नहीं !
यह मेरे प्रेम का
दुखमय समय है।

एक सपना

एक रोज
एक सपना देखा
उस सपने मे
तुम थीं
एक धुंधला
चेहरा था
और चारों ओर
लगी थी
भीड़ तुम्हारे,
रिश्ते नातेदारों की।

पहले पहल
डरा मैं
लेकिन
फिर आगे बढ़ा
देखने को
तब एक
ऐसा दृश्य
नजर ने देखा
जिसे देखकर
प्रेमी के
धरती-अम्बर
फट जाते हैं।
जिसे देखकर
प्रेमी के
आयु के
क्षण घट जाते हैं।

वो धुंधला चेहरा
एक सूत्र
तुम्हारे गले मे
बांध रहा था
और एक
उदास चेहरा
दूर खड़ा
बेबस बेचारा
अपना सारा
सब कुछ
रीत रहा था
जैसे उसे
हराकर कोई
उससे तुमको
जीत रहा था
उसका किस्सा
जानने बाले
सारे कंठ रुंधे थे
लेकिन,
तुम्हारे नयन नम नहीं थे……
उस ख्वाब में हम नहीं थे…..

मुक्तक संग्रह-1 

व्यर्थ मोती भी आँखो के खो न सके
चाहकर भी कभी खुल के रो न सके
राधिका कृष्ण जैसे जिए उम्र भर
एक होकर भी हम एक हो न सके

अपनी सुधियाँ सभी छोड़कर आ गया
आँसूओं की दिशा मोड़कर आ गया
तुम नकारा समझती रहीं, और मैं
टूटे रिश्ते पुनः जोड़कर आ गया

हर ख़ुशी पा के भी हम रुआसे रहे
राग – अनुराग के कूप प्यासे रहे
भूखा सोने की इच्छा नही थी मगर
तुम को पाने की खातिर उपासे रहे

खूबसूरत भवन प्रेम के ढह गए
स्वप्न सब आँख की कोर से बह गए
कोई सिंदूर भर उनको संग ले गया
और हम दूर से देखते रह गए

अपने मिलने की पावन घड़ी जा रही
आँसुओं की नदी फिर चढी जा रही
क्रोध मे जिसको फाड़ा था मैंने कभी
चिठठी वह प्रेम की फिर पढ़ी जा रही

मुक्तक संग्रह-2

सीढियाँ नेह की चढ़ नही पाए तुम
आँख से आँख को पढ़ नही पाए तुम
मैं अकेला ही दुनियाँ से लड़ता रहा
चंद अपनो से भी लड़ नही पाए तुम

दूर रहता सदा पास आता नहीं
गैर आते मगर ख़ास आता नहीं
जब से देखा उसे मैंने सच मानिए
आँख को कोई भी रास आता नहीं

रोक तुमको कोई भी शहर न सके
प्रेम की फिर पताका फहर न सके
जाते जाते ह्रदय तोड़ कर जाओ तुम
ताकि आकर कोई फिर ठहर न सके

भाग्य मुझसे कभी रूठता ही नहीं
साथ उनका कभी छूटता ही नहीं
टूटता है तो केवल ह्रदय टूटता
कोई वादा कभी टूटता ही नहीं

नेह का संचरण आज बाधित हुआ
हो गया है अहित या मेरा हित हुआ
पहले सबने कहा तुम समर्पण करो
जब समर्पण किया तो उपेक्षित हुआ

मुक्तक संग्रह-3

मुस्कुराकर दहे इक वचन के लिए
विरह हँस कर सहे इक वचन के लिए
सात फेरों के सातों वचन भूलकर
राम वन में रहे इक वचन के लिए

अनवरत तुम बहे इक वचन के लिए
कष्ट अनगिन सहे इक वचन के लिए
लाज लुटती रही आँख के सामने
कर्ण तुम चुप रहे इक वचन के लिए

कुछ नहीं था विषम इक वचन के लिए
पथ सभी थे सुगम इक वचन के लिए
इक वचन तक मुझे तुम नहीं दे सके
रात – दिन रोए हम इक वचन के लिए

धूल सपनों की उड़ाकर लौट आए
फूल मूरत पर चढ़ाकर लौट आए
प्यार पर यह जग हँसे मत इसलिए
अश्रु नदिया में बहाकर लौट आए

नेह का वैभव लुटाकर लौट आए
मंदिरों मे सिर झुकाकर लौट आए
हो सके तो माफ़ करना हम तुम्हारे
आस के दीपक बुझाकर लौट आए

मुक्तक संग्रह-4

नेह-संवाद होते तो आता मज़ा
हाथ में हाथ होते तो आता मज़ा
उड़ रहे व्योम में अनमने मन से हम
काश तुम साथ होते तो आता मज़ा

नेह- नेह करने के बाद नहीं मिलता
दुःख आँसू झरने के बाद नहीं मिलता
जीते जी ही स्वर्ग बनाओ जीवन को
स्वर्ग कभी मरने के बाद नहीं मिलता

बहुत उलझे हुए हैं हम हमारा क्या ठिकाना है
हमें हर क्षण मुहब्बत का मुहब्बत में गँवाना है
हमारी आँख में हरदम तुम्हारा रूप होता है
तुम्हारे स्वप्न देखें हम तुम्हे अपना बनाना है

तुम्हारे सुख तथा दुःख के सभी त्यौहार मे होंगे
तुम्हारी जिंदगी मे हम अहम किरदार मे होंगे
निराशा पास मे अपने कभी आने नहीं देना
तुम्हारे साथ जीवन भर सदा संसार मे होंगे

जहाँ में बाँट कर नफरत कलंदर हो नहीं सकता
हमें मालूम है मीठा समंदर हो नहीं सकता
दिलों को जीत ले जो प्यार से वो ही सिकंदर है
ज़मी को जीतने वाला सिकंदर हो नहीं सकता

Leave a Reply

Your email address will not be published.