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वीरेन्द्र कुमार जैन की रचनाएँ

सौन्दर्य का एक क्षण

सर्दी की सुबह :
कॉलेज के बरामदे में,
ताश-चिड़ियानुमा जाली,
उसमें झलमलाती हरियाली पत्राली :
इस ओर चिड़ियों की
धूप-छाया चित्राली।
…यह क्षण चित्रित था मेरे भीतर
कहीं बहुत दूर :
वक़्त के पहले कहीं और।
वक़्त में होना किस क़दर दिलचस्प है,
उसकी हदों तक जाने के सफ़र के लिए!

…प्याला बेशक टूट गया
हाथ से गिरकर :
मगर साबुत है प्याला वहाँ
जहाँ मैं हूँ आख़िर!

रचनाकाल : 20 नवम्बर 1975, कॉलेज परीक्षा-हॉल

एक एबसर्ड कविता

वह बात वहीं रही।
तुम्हारा आना अनिश्चित था।
सब कुछ किया नहीं जाता,
होता रहता है।
तो फिर मैं क्यों रुकूँ, सोचूँ
या इन्तज़ार करूँ?

हाँ, हाँ चाहे आओ या जाओ,
इसमें पूछने की क्या बात है!
मैं यहाँ रहूँ या और कहीं,
मिलूँ या न मिलूँ,
क्या फ़र्क़ पड़ता है!

अच्छा तो तुम आए भी,
और चले भी गए,
और मैं यहाँ मौज़ूद था,
और तुम मुझसे मिले भी!…

…हो सकता है, मुझे नहीं मालूम!
तुम्हारा कहीं और होना
अब अहसास में नहीं आता :
जवाब कौन दे
और किसे दे?

रचनाकाल : 20 फ़रवरी 1975, मीठीबाई कॉलेज

कौन अपनी जुल्फ़ कहीं खोलकर

कौन अपनी जुल्फ़ कहीं
खोलकर सँवार रही है
कि हवाएँ ऐसी हसीन और शरशार हो गई हैं :
जाने किस कल्प-सरोवर में
नहा रही है कोई मृदुला सुन्दरी
कि मैं अनायास दिगम्बर हो उठा हूँ,
और मेरे हम्माम के पानी में
सुगन्धों भरे स्पर्श लहरा रहे हैं…!

आइने पर आइने पर चोट की

आइने ने आइने पर चोट की,
आप ही तड़ककर तिलमिला उठा :
दूसरा आईना तो कहीं था ही नहीं ।
एक निस्तब्ध शून्य में
तैरने लगा आईना…
पाया कि
यह दरार नहीं, प्रकाश की लकीर है :
अब तक वह औरों को ही उनके मुँह दिखा रहा था,
आज अपने में पहली बार, उसने अपना मुँह देखा :
…अपने सौन्दर्य को देखकर
वह चूर-चूर हो गया…
उसके हृदय में जो हुआ विस्फ़ोट –
वह उसका नवजन्म था।
तट पर कोई नहीं था,
एक नदी अपने ही आपको देखती हुई
बही जा रही थी… बही जा रही थी!

तुमने ग़ाली मुझे नहीं, अपने ही को दी है

तुमने ग़ाली मुझे नहीं,
अपने ही को दी है :
तुम पर मुझे क्रोध नहीं आया,
करूणा आ गई :
तुम्हारे गुस्से से तनी
कपाल की नस देखकर।

हाय तुम इतने सुन्दर,
पल मात्र में क्यों हो गए इतने असुन्दर :
यह मुझे सह्य नहीं है :
अपनी ही सूरत मुझे बदसूरत लग उठी।
लाओ, तुम्हारी तनी हुई रगों को सहला दूँ
अरे मैं कितना सुन्दर हूँ
आज पहली ही बार पता चला…।

कुल्हाड़ी वृक्ष को काटते-काटते

कुल्हाड़ी वृक्ष को काटते-काटते
ठिठक गई :
गिर पड़ी…
हाय, उसने अपने ही को काट डाला!
सारा जंगल उसमें पसीज उठा,
वह चल पड़ी अरण्यानियों के पार :
देखते-देखते पारान्तर में
अचिन्ह हो गई।

एक ऊर्ध्वमूल वट-वृक्ष
शून्य में उग आया :
सारे वृक्ष उसकी शाखाओं में झूल गए!

तुम्हारी अनन्या

कितने महत्त्वहीन हो तुम
इस दुनिया में हर किसी के लिए,
कि जब और किसी से मिलना नहीं होता है,
और कुछ पाना या और कहीं जाना
बाक़ी नहीं रह जाता है,
तो आख़िर तुम तो होते ही हो :
सब कुछ शेष हो जाने पर जो बच रहता है,
वही तुम हो :
इतने सुलभ, कि तुम्हारे पास होने या पाने को
महसूस नहीं किया जा सकता है :
एक उपस्थिति, जो भीतर सदा वर्तमान है,
पर जिससे हर कोई अनजान है :
एक अचूक उत्तर,
जिसे पाने की इच्छा किसी को नहीं :
साँसों से भी समीपतर का एक प्यार और अपनत्व,
जो पहचानने तक में नहीं आता :
एक चेहरा, जो हर किसी का नितान्त
अपना हो सकता है,
अनदेखा ही हर किसी के पीछे छूट गया है :
कोई अपने अन्तर की आरसी को बुझाकर
दुनिया के भड़कीले बाज़ार में
अपने दिल का आईना खोजने को निकल पड़ा है :

लौटकर वह घर नहीं आता,
एक परित्यक्त प्रेतावास में आकर पड़ रहने को मज़बूर होता है…!
आत्मनाश के ख़तरनाक आलिंगन की तलब में
जो बेतहाशा खिंचा जा रहा है;
जो अपने ही से हर पल झूठ बोलकर
अबूझ अन्यत्रताओं में
अपना चैन खोज रहा है :
जो अपने ही विरुद्ध शतरंज खेल रहा है
और षड़यन्त्र रच रहा है,
उसकी तलब में तुम यों कब तक
ग़मगीन और परेशान रहोगे, मेरे प्यार…!

राह-सड़क के पत्थर को कौन कब ठुकराकर
निकल गया, मानी नहीं रखता :
पर लक्षय में जो महल है, वह खंडहर नहीं है,
इसका क्या यक़ीन है…?
नव वधू के आलिंगन से चूककर
जो वासक-सज्जा के तले जा छुपा है,
उस पर कब किसी का ध्यान गया है?
किसको किसका विरह सता रहा है,
काश इसका ज्ञान हो सकता…!

अपनी बाहों में अनायास लिपटे आकाश का अनन्त
जिन्हें तृप्ति नहीं दे सकता,
उन्हें परफ़्यूम की वारांगना गन्ध-लहर में ही
भटकने दो :
बाज़ार की रौनक से खाली हाथ घर लौटने की
आदत से वे कभी बाज़ नहीं आएँगे…!
तुम पास बैठे हो, और कोई,
हर किसी दूर के अनजान आकर्षण की
चका चौंध में खोया है,
तो उसकी तलब में
तुम क्यों उदास होते हो, मेरे भगवान…?
किसी को भी नहीं है यहाँ
तुम्हारी अनन्त और अचूक प्रीति की चाह और पहचान…!

…शून्य में कब से उभर रहा है एक वक्ष,
तुम्हारे निराधार अस्तित्व को धारण करने के लिए :
ढाल दो अपनी ही छाती में अपना सर :
देखो न, तुम्हारी अनन्या, जो केवल तुम्हारी है,
तुम्हेंअपने गर्भ में लीन करके
नया जन्म देने को आकुल है…!

रचनाकाल : 21 मई 1969

महाभिनिष्क्रम

मैं तुम्हें जाते हुए देख रहा हूँ :
किस क़दर निर्लक्ष्य है तुम्हारा ये चलना…!
जहाँ इस क्षण तुम जा रहे हो,
वह तो महज़ एक बहाना है :
यहाँ और कहीं जाने को नहीं है,
तो वहीं चले जाते हो, जहाँ जा रहे हो…!
कैसी अनिश्चिति का विषाद है इस जाने में :
क्योंकि वहाँ किसी के मिलने पर भी,
मिलन अनिश्चित है :
एक ऐसा मिलन, जो किसी भी क्षण
अन्तिम विच्छेद का साक्षात्कार करा देता है :
जो अन्तिम रूप से अकेला कर देता है…!

छाती के आरपार बिछी छाती
केवल अपनी ही है, अपने ही लिए है,
इसका यक़ीन नही होता है :
उसमें कसकने वाला संवेदन और किनारों में
कब भटक जाता है, तुम्हें क्या मालूम…?
उस बहुत महीन और नितान्त अपनी लगनेवाली
प्यारी आवाज़ का दरद,
कब किसी और के लिए हो जाएगा,
यह उस आवाज़ को भी नहीं मालूम…!

इसी से जब तुम्हें जाते हुए देख रहा हूँ,
तो लगता है कि तुम कहीं जा नहीं रहे हो,
किसी के पास नहीं जा रहे हो :
मगर तुम अपने मुक़ाम पर भी नहीं हो :
स्थिति और गति से परे के इस अभियान को
क्या नाम दिया जाए…?
पृथ्वी के नव-नवीन सर्जन भी
तुम्हें मात्र सीमा के दोहराव लगते हैं :
तुम्हारी बाँहों की चाह के उत्तर में
आकाश भी छोटा पड़ रहा है…!

परिभाषाओं, विधि-निषेधों, विरोधों,
त्यागों, इनकारों से निर्देशित
निर्वाण और भगवान भी
तुम्हारे इस अभियान में
पीछे छूट गए हैं…!
मरण से भी अधिक भयावने विजन वीरानों के
तुम यात्री हो :
कौन हो सकता है इस पन्थ का संगी…?

एक अन्तहीन और विराट प्रश्न की धुरी से
आरपार बिंधे हृदय का यह महाभिनिष्क्रमण है
महाकाल के मस्तक पर
जो सुदर्शन चक्र, कैवल्य और क्रूस
के पार चला गया है।
तुम्हारी गतिमान पीठ के इस महा अवकाश में
सृष्टि सिमट रही है,
तुम्हारे गतिमान मस्तक के
इस परात्पर एकाकीपन में
वीतराग केवली की समाधिलीन आँखों से
आँसू फूट आए हैं :
सिद्धालय की अर्ध-चन्द्राकार शिला पर
ये किस अनन्या के उरोज उमड़ आए हैं,
मनुष्य के चिर प्यासे ओठों की
प्रतीक्षा में…!

रचनाकाल : 21 मई 1969

तुम्हारे और बिस्तरे के बीच

ऐसा नहीं लगता
कि तुम अपने बिस्तरे में सोए हो :
तुम्हारे और बिस्तरे के बीच
शताब्दियों की एक खन्दक खुल गई है
उसमें आदिम नारी की योनि
परित्यक्ता पराजित और पथराई पड़ी है
एक अथाह गुहा-कूप में
रहस्य का जल-कम्पन नहीं
प्यासी हिरणी की बिंधी हुई आँखों के
निस्पन्द काँच हैं।

उसके ऊपर के झाड़ी-झंखाड़ों में
केवल साँपों की कोमलता
सरसरा कर गुज़र जाती है
उचाट दोपहरियों में :
दो फूटे घड़ों-से दो स्तन इधर-उधर लुढ़के पड़े हैं,
उनके ठीकरों में उग आई है निरर्थक घास :
उनकी मृदुलता और ऊष्मा के अनन्त को
बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण की पदचाप
सदा को कुचलकर चली गई…!

…निर्वाण के शून्य में
ठिठके रह गए हैं शास्ता के चरण :
कमंडलु में काँप गए एकाएक
दो दूध से उमड़ते स्तन :
और छूट कर गिर पड़ा सहसा कमंडलु
बोधिसत्त्व के उदबोधक हाथ से…!
फिर भले ही यशोधरा के आँसू
अनपोंछे और अवहेलित ही सूख गए हों :
भले ही वे डूब गए हों
कैवल्य की शताब्दियों-व्यापि जयकारों में…!

…आत्मन‍, तुम्हारे और तुम्हारे बिस्तरे के बीच
फैल गई है जो अन्धकार की खाई
इस आधी रात में :
उसमें छटपटा रही है एक परित्यक्ता की शैया,
संसार और निर्वाण के बीच ठिठके
दो चरणों में
गाँठ पड़ गई है :
जो उलझती ही जा रही है,
किसी भी तरह खुल नहीं पा रही है…!

मुक्त हैं केवल
विराट में दूध से उमड़ते दो स्तन,
जिनके और तुम्हारे बीच
पड़ा है गलतफ़हमी का एक महाकाल सर्प :
जिसे मनुष्य की युगान्तर-व्यापी तपस्या भी
जीत नहीं पाई है…!

नहीं जन्मी है अभी वह अनामा
जो आप ही हो जाए तुम्हारी शैया :
आत्मन‍, सहा नहीं जाता है
अब तुम्हारा यह अनसोया बिछौना :
एक लपट, जो तुम्हें जला भी नहीं पाती है,
और जीने भी नहीं देती है।

रचनाकाल : 17 मई 1969

चराचर

निःस्वप्न दोपहरी :
उस सुनसान टीले पर
चरती
एकाकिनी गाय
अचर हो गई :

उसकी टाँगों में
चौखम्भे अलिन्द में
पृथिवि आकाश हो गई है :
आकाश पृथिवि हो गया है :
चर अचर हो गया है :
अचर चर हो गया है…!

रचनाकाल : 21 मई 1963, गजपन्थ सिद्धक्षेत्र

शृंगिनी

उन दिगन्तरगामी
पर्वत-शृंगों पर
तुम बैठी
दिखाई पड़ती हो :

तुम
जो कभी नहीं थीं,
अभी नहीं हो,
कभी नहीं हो‍ओगी…

तुम
जो सदा थी,
सदा हो,
सदा रहोगी…

उन दिगन्तरगामी
पर्वत-शृंगों पर
सदा मुझे
तुम्हीं बैठी दिखाई पड़ती हो…।

रचनाकाल : 21 मई 1963, गजपन्थ सिद्धक्षेत्र

अविकल सम्पूरन

इधर इमलियों और नागफ़नियों से उगी
कगारों के बीच दूर जाकर खो जाती
ग्राम-नदी की सूखी, सिलेटी पथरीली शैया :
उसमें घिर आते
सायाह्न के भयावने साये :
उधर सघन गुथी हरियाली वन-वीथी के पार
झाँकता आकाश का पारदर्शी मुखड़ा :
एक ही विपल में
पाया मैंने जीवन का दर्शन,
अविकल… सम्पूरन

रचनाकाल : 16 मई 1963, सीता-सरोवर

ओ मेरी अन्तिम नीरवता

एक के पार एक
खुलते ही जाते हैं
नीरवता के अन्तराल,
इस वन के
अनाहत एकान्त में…

खुलते ही जाते हैं
गहन से गहनतर
भीतर से भीतर
नीरवता के गोपन कक्ष
एक के पार एक…
इस वन के अनाहत एकान्त में…
…और लो, छोर पर
खुल पड़ा अनायास
अन्तिम नीरवता का
नील लोक…
उसकी नीलमणि शिला पर
गहन विश्रब्धता में
बैठी हो तुम
कल्प-वृक्ष की छाया तले
ओ मेरी अन्तिम नीरवता!

रचनाकाल : 16 मई 1963

हवा की लड़की

दूर देशिनी हवा आई
पत्तियाँ मरमराईं
नीरवता गहराई
अमराई भूशाई
आमों के भार से
झुक-झुक आई…
कोयल कहीं अगोचर में
कुहू-कुहू कुहुक गई :
काली माटी की अन्तरित प्राणधारा
मेरे रुधिर में लहराई :
आसपास की निस्तब्धता
जाने कब मांसल हो उठ आई :
कोई साँवली पेशलता
चहुँ ओर से
मुझे अनुभूत ममता से आवरित कर गई
जाने कब, सत्ता मेरी
खो गई, खो गई…
आँखें खोल देखा जब,
कहीं था कुछ नहीं…
कहीं भी कोई नहीं…
पार वनान्तर में
पत्तों की अपनी अँगुलियों से मरमराती
दूर-देशिनी हवा की लड़की
बलखाती,खिलखिलाती,
दूर-दूर जा रही…
दूर-दूर जा रही…

रचनाकाल : 17 मई 1963, सीता-सरोवर : राजपन्थ सिद्धक्षेत्र

लीला सहचरी

इस जामुन के बाग़ की
बादली निर्जनता में
क्या तुम कभी खेलने नहीं आओगी
ओ मेरी बाली प्रिया!

यहाँ, तुम्हारी कभी न होने वाली लीला
चंचल धूप-छाँवों में
अनंग आकृतियाँ धरकर
विचर रही हैं…

क्या तुम, सचमुच कभी नहीं आओगी
मेरे वन-विहार के
इन एकान्त-प्रदेशों में…?
इस काली माटी के चप्पे-चप्पे में
तुम्हारे यहाँ कभी न आनेवाले
चरणों की पगचाप
मुद्रित होकर रह गई है…!

अपराह्न की उदास हवा के
प्रवासी झकोरे में
अचानक इस जम्बू-वृक्ष का
एक सूखा पत्ता
खनक कर टपक पड़ता है :
मैं चौकन्ना होकर
ताक उठता हूँ चहुँ ओर…
कहाँ से सुनाई पड़ गई है
यह तुम्हारी चूड़ी की झनक…!

इस जम्बू-वन के
काले-काले रस-सम्भार-विनत
जामुन-झुमकों में
तुम्हारी साँवली कपोल-पाली
उभर-उभर आई है,
फल-भार से झुक आई
इस डाल के ये गोल-गोल जम्बू
अनचाहे ही मेरे गाल से
रभस कर गए हैं…!
तुम्हारी सुगोल साँवली चिबुक
मेरे ओठों को
परस-रस से उर्मिल कर गई है!…
पर हाय, तुम कहीं नहीं हो
तुम कहीं नहीं हो
‘…कहीं और…कहीं और…कहीं और…’
की ध्वन्यातीत कातर पुकार से
इस वन-खंड की
अनहद निस्तब्धता विकल हो उठी है…!

ओ मेरी जम्बू-प्रिया,
ओ मेरी आदिम कृष्णा
क्या तुम कभी नहीं विचरोगी
इस जम्बू-वन में मेरे साथ…?
उन दूर-दूर के पर्वतों की
वे दिग्वलयित चूड़ाएँ
तुम्हारी कलाइयों में
नीलम-चूड़ियाँ बन जाने को
तरस उठी हैं :
मेरे गीतों की चराचर-जयनि
तान की सान
पर तराशी गई हैं
इन चूड़ाओं की
ये आकाश-वाहिनी चूड़ियाँ…!

तुम्हारे अभाव की निःशब्द गहन रिक्तता में
बिछुड़न-देश के नील सर्प बन कर
लहरा उठी हैं ये चूड़ियाँ
इन पर्वत-ढालों पर…!

और तुम्हारी यहाँ कभी न आनेवाली कलाइयाँ
इस आदिम शून्य में
आकार लेती-सी,
इन सर्पों को अपनी छाती की
रसाल-छाया में खिलाती-सी
मुझे चहुँ ओर से आवरित किए ले रही हैं
इन भुजंगम पर्वतों की
महाकाल छाया में…
तुम्हारी यहाँ कभी न आनेवाली
ये कलाइयाँ…

रचनाकाल : 21 नवम्बर 1963, अमराई पार के वन-प्रदेश में