तू याद आया और मिरी आँख भर गई
अक्सर तिरे बग़ैर क़यामत गुज़र गई

अव्वल तो मुफ़लिसों की कोई आरज़ू नहीं
पैदा कभी हुई भी तो घुट घुट के मर गई

इक इश्क़ जैसे लफ़्ज़ में मुजि़्मर हो काएनात
इक हुस्न जैसे धूप चढ़ी और उतर गई

नाज़ ओ अदा से पाँव उठे और लरज़ गए
अच्छा हुआ कि उस की बला उस के सर गई

‘तारिक़’ तसव्वुरात में आहट सी क्या हुई
जलते गए चराग़ जहाँ तक नज़र गई

नींद आँखों में समो लूँ तो सियह रात कटे

नींद आँखों में समो लूँ तो सियह रात कटे
ये ज़मीं ओढ़ के सो लूँ तो सियह रात कटे

क़तरा-ए-अश्क़ भी लौ देते हैं जुगनू की तरह
दो घड़ी फूट के रो लूँ तो सियह रात कटे

रोने-धोने से नहीं उगता ख़ुशी का सूरज
क़हक़हे होंट पे बोलूँ तो सियह रात कटे

आँखा ना-दीदा मनाज़िर के तजस्सुस का है नाम
मोतियाँ आँख में रो लूँ तो सियह रात कटे

कर्ब-ए-तन्हाई मिरी रूह का करती हैं सिंघार
ज़हर एहसास का घोलूँ तो सियह रात कटे

पहुँचा मैं कू-ए-यार में जब सर लिए

पहुँचा मैं कू-ए-यार में जब सर लिए हुए
नाज़ुक बदन निकल पड़े पत्थर लिए हुए

ऐ दोस्त ज़िंदगी की मुझे बद-दुआ न दे
मैं ख़ाक हो चुका हूँ मुक़द्दर लिए हुए

चलती है रौंदती हुए पल पल मिरा वजूद
हर साँस ख़्वाहिशात का लश्कर लिए हुए

परछाइयों के देस में बे-अस्ल कुछ नहीं
मंज़र भी है यहाँ पस-मंज़र लिए हुए

गुज़री है रौंदती हुई लम्हों का क़ाफ़िला
‘तारिक़’ की मुश्त-ए-ख़ाक है महशर लिए हुए

महबूब सा अंदाज़-ए-बयाँ बे-अदबी है

महबूब सा अंदाज़-ए-बयाँ बे-अदबी है
मंसूर इसी जुर्म में गर्दन-ज़दनी है

ख़ुद अपने ही चेहरे का तअय्युन नहीं होता
हालाँकि मिरा काम ही आईना-गरी है

आने दो अभी जुब्बा ओ दस्तार पे पत्थर
कुछ काबा-नशीनों में अभी बू-लहबी है

लोग क्यूँ ढूँड रहे हैं मुझे पत्थर ले कर

ख़ाली ही रहा दीदा-ए-पुर-शौक़ का दामन
अँधों की अक़ीदत में बसी-उन-नज़री है

हर पाँव से उलझा हूँ कटी डोर के मानिंद
‘तारिक़’ मिरी क़िस्मत की पतंग जब से कटी है

लोग क्यूँ ढूँड रहे हैं मुझे पत्थर ले कर

लोग क्यूँ ढूँड रहे हैं मुझे पत्थर ले कर
मैं तो आया नहीं किरदार-ए-पयम्बर ले कर

मुझ को मालूम है मादूम हुई नक़्द-ए-वफ़ा
फिर भी बाज़ार में बैठा हूँ मुक़द्दर ले कर

रूह बेताब है चेहरों का तअस्सुर पढ़ कर
यानी बे-घर हुआ मैं शहर में इक घर ले कर

किस नए लहजे में अब रूह का इज़हार करूँ
साँस भी चलती है एहसास का ख़ंजर ले कर

ये ग़लत है कि मैं पहचान गँवा बैठा हूँ
दार तक मैं ही गया हर्फ़-ए-मुकर्रर ले कर

मोजज़े हम से भी होते हैं पयम्बर की तरह
हम ने माबूद तराशे फ़न-ए-आज़र ले कर

ख़ुद-कुशी करने चला हूँ मुझे रोको ‘तारिक़’
ज़ख़्म-ए-एहसास में चुभते हुए नश्तर ले कर

हिचकियाँ लेता हुआ दुनिया से दीवाना चला

हिचकियाँ लेता हुआ दुनिया से दीवाना चला
जाँ-कनी के वक़्त तेरा ही अफ़्साना चला

मैं जुनून-ए-इश्क़ में जाने कहाँ तक आ गया
शहर के हर मोड़ से पत्थर जुदागाना चला

ख़ून की गर्दिश में शामिल हो गई दिल की उमंग
कू-ए-क़ातिल की तरफ़ बे-इख़्तियाराना चला

मौसम-ए-गुल ज़र्द है ख़ून-ए-तमन्ना के बग़ैर
नक़्द-ए-जाँ लेकर चमन में सरफ़रोशाना चला

मौत के साए में ‘तारिक़’ आरज़ू की धूप थी
कारोबार-ए-ज़िंदगी बे-ए‘तिबाराना चला