शोर-ए-तूफ़ान-ए-हवा है बे-अमाँ सुनते रहो
बंद कूचों में रवाँ है ख़ून-ए-जाँ सुनते रहो

कान सुन होने लगे हैं अपने गोश-ए-होश से
सुर्ख़ परियों की सदा दामन-कशां सुनते रहो

गर्मी-ए-आवाज़ को शोला बना कर फूल सा
दूर तक हद्द-ए-नज़र तक राएगाँ सुनते रहो

शोरिश-ए-बहार-ए-करम में माही-ए-मिशअल कहाँ
जिस्म-ए-शब में दिन की धड़कन बे-गुमाँ सुनते रहो

गाढ़ी तारीकी में भारी बर्ग-ए-ख़्वाहिश की महक
मिस्ल कौंदे के मकाँ अंदर मकाँ सुनते रहो

आख़िरी तमाशाई 

उठो कि वक़्त ख़त्म हो गया
तमाश-बीनों में तुम आख़िरी ही रह गए हो

अब चलो
यहाँ से आसमान तक तमाम शहर चादरें लपेट ली गईं

ज़मीन संग-रेज़ा सख़्त
दाँत सी सफ़ेद मल्गजी दिखाई दे रही है हर तरफ़

तुम्हें जहाँ गुमान-ए-सब्ज़ा था
वो झलक रही है कोहना काग़ज़ों की बर्फ़

वो जो चले गए उन्हें तो इख़्तितामिए के सब सियाह मंज़रों का इल्म था
वो पहले आए थे इसी लिए वो अक़्लमंद थे तुम्हें

तो सुब्ह का पता न शाम की ख़बर तुम्हें तो
इतना भी पता नहीं कि खेल ख़त्म हो तो उस को शाम

कहते हैं ऐ नन्हे शाइक़ान-ए-रक़्स
अब घरों को जाओ

बयान सफाई 

रात उतरती गई
मुझ को ख़बर ही न थी

काग़ज़-ए-बे-रंग में सर्द-हवस-जंग में
सुब्ह से मसरूफ़ लोग अपनी चादर में बंद

आँख खटकती नहीं
दिल पे बरसती नहीं

ख़ुश्क-हँसी बे-नमक़ शहर फ़ज़ा में बुलंद
तंग-गली की हवा

शाम को चूहों की दौड़
तेज़-क़दम गुर्ब-ए-शाह जहाँ कब झपट लेगी किसे

क्या पता
नींद का ऊँचा मकाँ रौशनियों से सजा

हम सब की खिड़कियाँ दरवाज़े बंद हैं
घर की छतें आहनी

घर की हिफ़ाज़त करो घर की हिफ़ाज़त करो
रात उतरती रहे हम को दिखाई न दे

हम प हवा इल्ज़ाम क्यूँ

रात शहर और उस के बच्चे

सर्द मैदानों पे शबनम सख़्त
सुकड़ी शा-राहों मुंजमिद गलियों पे

जाला नींद का
मसरूफ़ लोगों बे-इरादा घूमते आवारा

का हुजूम बे-दिमाग़ अब थम गया है
रंडियों ज़नख़ों उचक्कों जेब कतरों लूतियों

की फ़ौज इस्तिमाल कर्दा जिस्म के मानिंद ढीली
पड़ गई है

सनसनाती रौशनी हवाओं की फिसलती
गोद में चुप

ऊँघती है फ़र्श और दीवार ओ दर
फ़ुटपाथ

खम्बे
धुंदली मेहराबें

दुकानों के सियह वीरान-ज़ीने
सब के नंगे जिस्म में शब

नम हवा की सूइयाँ बे-ख़ौफ़
उतरती कूदती धूमें मचाती हैं

कुछ शिकस्ता तख़्तों के पीछे कई
मासूम जानें हैं

ख़्वाब कम-ख़्वाबी में लर्ज़ां
बाल ओ पर में सर्द-निश्तर

बाँस की हल्की एकहरी बे-हिफ़ाज़त
टोकरी में

दर्जनांे मजबूर ताइर
ज़ेर-ए-पर मिंक़ार मुँह ढाँपें ख़मोशी के समुंदर-ए-बे-निशाँ में

ग़र्क़ बाज़ू-बस्ता चुप
मख़्लूक ख़ुदा जो गोल काली गहरी आँखों के

न जाने कोन से मंज़र में गुम है

शोर थमने के बाद 

अब शोर थमा तो मैं ने जाना
आधी के क़रीब रो चुकी है

शब गर्द को अश्क धो चुकी है
चादर काली ख़ला की मुझ पर

भारी है मिस्ल-ए-मौत शहपर
है साँस को रूकने का बहाना

तस्बीह से टूटता है दाना
मैं नुक़्ता-ए-हक़ीर आसमानी

बे-फ़स्ल है बे-ज़माँ है तू भी
कहती है ये फ़लसफ़ा-तराज़ी

लेकिन से सनसनाती वुसअत
इतनी बे-हर्फ़ ओ बे-मुरव्वत

आमादा-ए-हर्ब-ए-ला-ज़मानी
दुश्मन की अजनबी निशानी

सब्ज़ सुरज की किरन

सब्ज़ बिल्ली सब्ज़
आँखें सब्ज़

सूरज की किरन
जब नीम ख़्वाबी की तरह उस आँख ऊपर

झूलती है झूमती है सब्ज़
आँखें सब्ज़-रौशन

रंग की बारीक लहरें
अर्ग़वानी क़ुर्मुज़ी थोड़ा बहुत सोने का झिलमिल रंग

आँखें ज़िंदगी बनती हैं धुंदली रौशनी में
सब्ज़ भूरी आँखें खुलती हैं तो फ़ौरन

क़ुमक़ुमे सी खिलखिलाती
बे-महाबा रौशनी हर गोशे से खिंच कर सिमट आती है भूरी सब्ज़

चश्म बे-हिजाबी कौंदती है
धूप की गर्मी नज़र

बेबाक उरियाँ
फैलते पारे की सूरत शाह-पारों और घरों में

मौजज़न है सब्ज़ आँखें सब्ज़
शफ़्फ़ाफ़ आबगीना बन गई हैं

अंधेरी शब से ला-हासिल

अँधेरी शब के शर्मीले मोअत्तर कान में उसे ने कहा वो शख़्स
दूर उफ़्तादा लेकिन मेरे दिल की तरह रौशन है

जो मेरे पाँव के तलवे हथेली का गुलाबी गाल में
काँटा सा चुभता है

जो मेरे जिस्म की खेती पे बारिश का छलावा है
वो जिस की आँख की क़ातिल

हवस इक मुंतज़िर लेकिन न ज़ाहिर होने वाले फूल की मानिंद
बेचैनी में रखती है मुझ वो

आने वाला है
मगर वो शख़्स इस शब भी नहीं आया

भला टूटी कलाई से
वो सारे ख़्वाब सब वादे मुलाक़ातों के पैमाने

कहाँ सँभलें
भला बे-नूर आँखों में वो सूरत

झमझमाती तुंद जोश-ए-ख़ून से गर्मी-ए-लब तक तमतमाती
किस तरह रूकती

अँधेरी रात ने
देखा न कुछ सुनना ही चाहा उस के गोश-ए-नाजुक और चश्म-ए-सियह मासूम होते हैं