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शर्मिष्ठा पाण्डेय की रचनाएँ

दशहरा 

परिवर्तनों के युग में…
कुछ नया होगा…
अब,दशहरे में…
नहीं जलेगा…
वह,दुराचारी,अनाचारी…
नराधम,दस मुखों वाला…
रावण…..
उसका वंश नहीं मिटा…
अमिट है…
बाँट दिए हैं उसने…
अपने गुण…
संस्कार…
एक मुख वालों में…
सत्तासीन हैं…
सँभालते हैं…
अपने पूर्वज की धरोहर…
और स्वतः ही…
संचित रखते हैं…
अपनी नाभि में अमृत…
रुपी विष…
जो,उन्हें जीवित रखता…
सदैव…
और अब…
बढती ही जाती…
उनकी वंश बेल…
दुगनी,तिगुनी…
रक्तबीज के समान…
और,
प्रवंचनाओं,धारणाओं…
के पत्थरों…
से,टूट गया है…
वह खप्पर…
जो,पान करता था…
उसके रक्त का…
और,पनपने न देता…
अन्य रक्तबीज…
अब आना होगा…
असंख्य रामों को…
क्यूंकि…
अब प्रत्येक…
एक मुखी का वध…
करना होगा…
दस दस रामों को…
और…
कल्पों तक…
चलता रहेगा त्रेता…
अन्य युग…
ऊँघ रहे…
करेंगे और प्रतीक्षा…
अपनी बारी की श.पा. …
क्यूंकि…रावण ….
अभी मरा नहीं….

इंतज़ार

चाँद तोड़ा है,रौशनी चुराई है..चले आओ…
फिर इन आँखों में चाहत झिलमिलाई है..चले आओ…
दरख्तों से शनासाई छिपाई है चले आओ…
हवाओं से नयी खुशबू मंगाई है..चले आओ…

बड़े एहतमाम किये हैं..सरेशाम किये हैं…
अँधेरी शब को उजालों के निजाम दिए हैं…
कहीं खुद लूट न ले रास्ता ही आज रहबर को…
निगहबानी है मुश्किल में..चले आओ..चले आओ…

धड़कने गिनती हूँ खुद की…
सांस गिन गिन के लेती हूँ…
उफ़! कहीं रुक ही न जाए…
नब्ज़ ये थम ही न जाए..बड़ी कैफियत तारी है…
चले आओ..चले आओ…

तुम्हें नोमानियत शायद हो आंसुओं से ग़ुरबत से…
नज़र धुल धुल के आई हूँ..चले आओ..चले आओ…
तेरे बस एक तबस्सुम वास्ते क्या क्या न किया श.पा. …
कहकहे क़र्ज़ में लायी..चले आओ..चले आओ…

बहुत अज़ीज़ थी मुझको अनापरस्ती ये मेरी…
मैं खुद को क़त्ल कर के आज आई हूँ..चले आओ…
सिपह्सालारी निभाई है शपा ने जंग -ए -मोहब्बत में…
शिकस्तों के नए तमगे सजा लायी..चले आओ…
बहुत शर्मिंदा है रुसवाई..चले आओ..चले आओ…

नयी सियासत

कभी चेहरा,कभी आईना बदल लेते हैं
खुदी पसंद हैं खुदा भी बदल लेते हैं
है शौक किस कदर बदल-बदल के जीने का
हैं वो हाकिम,इन्तिजामात बदल लेते हैं

मालिक ए मुंसिफ,कानूनात बदल लेते हैं
नक्शा ए शहर नमूनात बदल लेते हैं
खुदसरी इस कदर रवां हैं,रग रग में
चमन के गुल ए तास्सुरात बदल लेते हैं

पारसा हैं, इल्जामात बदल लेते हैं
हल हो मुमकिन तो सवालात बदल लेते हैं
इतिहास ए हिंद,रटा जुबानी उनको
सवाल ए सख्त, जवाबात बदल लेते हैं

जिन्हें जर्रे से बिठाया गया फलक पे
बदगुमानी में आफताब बदल लेते हैं
अजब ये खेल सियासत का जरा देखिये तो
जम्हूरियत में तख्तो -ताज बदल लेते हैं

बंद कमरों में हिफाज़त की तलब है जिनको
सहूलियत में वो दिन रात बदल लेते हैं
इस तरह उलझ रहे हैं वो होशो दानिश में
हाँ! गद्दारों के मुश्किलात बदल लेते हैं

बदलने पे हैं आयें क्या क्या न बदल डालें
ऊँचे खानदान पे, माँ-बाप बदल लेते हैं

दशहरा 

परिवर्तनों के युग में…
कुछ नया होगा…
अब,दशहरे में…
नहीं जलेगा…
वह,दुराचारी,अनाचारी…
नराधम,दस मुखों वाला…
रावण…..
उसका वंश नहीं मिटा…
अमिट है…
बाँट दिए हैं उसने…
अपने गुण…
संस्कार…
एक मुख वालों में…
सत्तासीन हैं…
सँभालते हैं…
अपने पूर्वज की धरोहर…
और स्वतः ही…
संचित रखते हैं…
अपनी नाभि में अमृत…
रुपी विष…
जो,उन्हें जीवित रखता…
सदैव…
और अब…
बढती ही जाती…
उनकी वंश बेल…
दुगनी,तिगुनी…
रक्तबीज के समान…
और,
प्रवंचनाओं,धारणाओं…
के पत्थरों…
से,टूट गया है…
वह खप्पर…
जो,पान करता था…
उसके रक्त का…
और,पनपने न देता…
अन्य रक्तबीज…
अब आना होगा…
असंख्य रामों को…
क्यूंकि…
अब प्रत्येक…
एक मुखी का वध…
करना होगा…
दस दस रामों को…
और…
कल्पों तक…
चलता रहेगा त्रेता…
अन्य युग…
ऊँघ रहे…
करेंगे और प्रतीक्षा…
अपनी बारी की श.पा. …
क्यूंकि…रावण ….
अभी मरा नहीं….

इंतज़ार

चाँद तोड़ा है,रौशनी चुराई है..चले आओ…
फिर इन आँखों में चाहत झिलमिलाई है..चले आओ…
दरख्तों से शनासाई छिपाई है चले आओ…
हवाओं से नयी खुशबू मंगाई है..चले आओ…

बड़े एहतमाम किये हैं..सरेशाम किये हैं…
अँधेरी शब को उजालों के निजाम दिए हैं…
कहीं खुद लूट न ले रास्ता ही आज रहबर को…
निगहबानी है मुश्किल में..चले आओ..चले आओ…

धड़कने गिनती हूँ खुद की…
सांस गिन गिन के लेती हूँ…
उफ़! कहीं रुक ही न जाए…
नब्ज़ ये थम ही न जाए..बड़ी कैफियत तारी है…
चले आओ..चले आओ…

तुम्हें नोमानियत शायद हो आंसुओं से ग़ुरबत से…
नज़र धुल धुल के आई हूँ..चले आओ..चले आओ…
तेरे बस एक तबस्सुम वास्ते क्या क्या न किया श.पा. …
कहकहे क़र्ज़ में लायी..चले आओ..चले आओ…

बहुत अज़ीज़ थी मुझको अनापरस्ती ये मेरी…
मैं खुद को क़त्ल कर के आज आई हूँ..चले आओ…
सिपह्सालारी निभाई है शपा ने जंग -ए -मोहब्बत में…
शिकस्तों के नए तमगे सजा लायी..चले आओ…
बहुत शर्मिंदा है रुसवाई..चले आओ..चले आओ…

नयी सियासत

कभी चेहरा,कभी आईना बदल लेते हैं
खुदी पसंद हैं खुदा भी बदल लेते हैं
है शौक किस कदर बदल-बदल के जीने का
हैं वो हाकिम,इन्तिजामात बदल लेते हैं

मालिक ए मुंसिफ,कानूनात बदल लेते हैं
नक्शा ए शहर नमूनात बदल लेते हैं
खुदसरी इस कदर रवां हैं,रग रग में
चमन के गुल ए तास्सुरात बदल लेते हैं

पारसा हैं, इल्जामात बदल लेते हैं
हल हो मुमकिन तो सवालात बदल लेते हैं
इतिहास ए हिंद,रटा जुबानी उनको
सवाल ए सख्त, जवाबात बदल लेते हैं

जिन्हें जर्रे से बिठाया गया फलक पे
बदगुमानी में आफताब बदल लेते हैं
अजब ये खेल सियासत का जरा देखिये तो
जम्हूरियत में तख्तो -ताज बदल लेते हैं

बंद कमरों में हिफाज़त की तलब है जिनको
सहूलियत में वो दिन रात बदल लेते हैं
इस तरह उलझ रहे हैं वो होशो दानिश में
हाँ! गद्दारों के मुश्किलात बदल लेते हैं

बदलने पे हैं आयें क्या क्या न बदल डालें
ऊँचे खानदान पे, माँ-बाप बदल लेते हैं

दशहरा 

परिवर्तनों के युग में…
कुछ नया होगा…
अब,दशहरे में…
नहीं जलेगा…
वह,दुराचारी,अनाचारी…
नराधम,दस मुखों वाला…
रावण…..
उसका वंश नहीं मिटा…
अमिट है…
बाँट दिए हैं उसने…
अपने गुण…
संस्कार…
एक मुख वालों में…
सत्तासीन हैं…
सँभालते हैं…
अपने पूर्वज की धरोहर…
और स्वतः ही…
संचित रखते हैं…
अपनी नाभि में अमृत…
रुपी विष…
जो,उन्हें जीवित रखता…
सदैव…
और अब…
बढती ही जाती…
उनकी वंश बेल…
दुगनी,तिगुनी…
रक्तबीज के समान…
और,
प्रवंचनाओं,धारणाओं…
के पत्थरों…
से,टूट गया है…
वह खप्पर…
जो,पान करता था…
उसके रक्त का…
और,पनपने न देता…
अन्य रक्तबीज…
अब आना होगा…
असंख्य रामों को…
क्यूंकि…
अब प्रत्येक…
एक मुखी का वध…
करना होगा…
दस दस रामों को…
और…
कल्पों तक…
चलता रहेगा त्रेता…
अन्य युग…
ऊँघ रहे…
करेंगे और प्रतीक्षा…
अपनी बारी की श.पा. …
क्यूंकि…रावण ….
अभी मरा नहीं….

इंतज़ार

चाँद तोड़ा है,रौशनी चुराई है..चले आओ…
फिर इन आँखों में चाहत झिलमिलाई है..चले आओ…
दरख्तों से शनासाई छिपाई है चले आओ…
हवाओं से नयी खुशबू मंगाई है..चले आओ…

बड़े एहतमाम किये हैं..सरेशाम किये हैं…
अँधेरी शब को उजालों के निजाम दिए हैं…
कहीं खुद लूट न ले रास्ता ही आज रहबर को…
निगहबानी है मुश्किल में..चले आओ..चले आओ…

धड़कने गिनती हूँ खुद की…
सांस गिन गिन के लेती हूँ…
उफ़! कहीं रुक ही न जाए…
नब्ज़ ये थम ही न जाए..बड़ी कैफियत तारी है…
चले आओ..चले आओ…

तुम्हें नोमानियत शायद हो आंसुओं से ग़ुरबत से…
नज़र धुल धुल के आई हूँ..चले आओ..चले आओ…
तेरे बस एक तबस्सुम वास्ते क्या क्या न किया श.पा. …
कहकहे क़र्ज़ में लायी..चले आओ..चले आओ…

बहुत अज़ीज़ थी मुझको अनापरस्ती ये मेरी…
मैं खुद को क़त्ल कर के आज आई हूँ..चले आओ…
सिपह्सालारी निभाई है शपा ने जंग -ए -मोहब्बत में…
शिकस्तों के नए तमगे सजा लायी..चले आओ…
बहुत शर्मिंदा है रुसवाई..चले आओ..चले आओ…

नयी सियासत

कभी चेहरा,कभी आईना बदल लेते हैं
खुदी पसंद हैं खुदा भी बदल लेते हैं
है शौक किस कदर बदल-बदल के जीने का
हैं वो हाकिम,इन्तिजामात बदल लेते हैं

मालिक ए मुंसिफ,कानूनात बदल लेते हैं
नक्शा ए शहर नमूनात बदल लेते हैं
खुदसरी इस कदर रवां हैं,रग रग में
चमन के गुल ए तास्सुरात बदल लेते हैं

पारसा हैं, इल्जामात बदल लेते हैं
हल हो मुमकिन तो सवालात बदल लेते हैं
इतिहास ए हिंद,रटा जुबानी उनको
सवाल ए सख्त, जवाबात बदल लेते हैं

जिन्हें जर्रे से बिठाया गया फलक पे
बदगुमानी में आफताब बदल लेते हैं
अजब ये खेल सियासत का जरा देखिये तो
जम्हूरियत में तख्तो -ताज बदल लेते हैं

बंद कमरों में हिफाज़त की तलब है जिनको
सहूलियत में वो दिन रात बदल लेते हैं
इस तरह उलझ रहे हैं वो होशो दानिश में
हाँ! गद्दारों के मुश्किलात बदल लेते हैं

बदलने पे हैं आयें क्या क्या न बदल डालें
ऊँचे खानदान पे, माँ-बाप बदल लेते हैं

तुम्हारे लिए

सुनो प्रिय
तृषित पिहु सा मेरा ह्रदय
और,’स्वाति’ की एक बूँद सा
तुम्हारा प्रेम
‘अश्विनी’ का उन्माद भरे
‘भरणी’ से प्रतीक्षारत
तुम्हारी आस पर
‘कृतिका’ सा नीरस हो चला
‘रोहिणी’ जगाती है
पुनः आस तुम्हारे
मिलन की
और तपने लगी है
‘मेरी सुकुमार देह ‘मृगशिरा’ सी
बरसा दो,तुम ‘आर्द्रा’ सी बूँदें
और ‘पुनर्बसू’ हो जाए
मेरा तन-मन
संतृप्त हो जाए ‘पुष्य’ सा
बह जाएँ समस्त विकार ‘मेघा’ से
लग जाओ ‘आश्लेषा’ से अंजन
बनकर नयनों में
और महारास हो जाए मेरा
प्रेम ‘विशाखा’ की मधुयामिनी में
नव जीवन सा प्रस्फुटित हो
‘अनुराधा’ संग और ‘ज्येष्ठा’
‘मूल’ हो जाए मेरा यौवन
‘पूर्वी’ सी अभिलाषा में
तुम ‘हस्त’ सदृश बरस जाओ
और ‘चित्र’ सा इन्द्रधनुषी
हो जाए मेरा आँचल
भिगो जाओ ‘आसाढी’ बदरा
बन कर मनमीत और
‘श्रवण’ सी हरी- भरी हो जाए
मेरी मेहँदी की लाली
और ‘घनिष्ठा’ सा आतुर
मेरा प्रेम,’शक्तिभिषा’ के उदय
संग,निरख-निरख जाए
और,सौंधी-सौंधी सी खुशबू के साथ
‘उत्तरा भाद्रपद’ से गीले अधर
पुनः ‘रेवती’ में मधुसिंचित हो चले
बौराई अमराई सी उमड़ती
‘पूर्वा फाल्गुनी’ की बयार सी
मेरी कामनाएं
पुनः निर्बाध हो चलीं हैं
और ‘उत्तरा फाल्गुनी’ सी शपा
गुलाल हो चले मेरे रक्तिम कपोल
हाँ! तुम नक्षत्र हो
और मैं चन्द्र सदृश
विचरती हूँ
तुम्हारे ही निकट तुम्हारे लिए

अक्लमंदी

ये सबक अक्लमंदी के सीखे हैं शपा ने
हों जब जवाब सारे,सवालात कम करें

ये कुर्बतें ही सारी मुसीबत का हैं सबब
ऐसा करें की दोनों मुलाकात कम करें

धुंधली सी हुई जा रही कम उम्र में नज़र
आँखों से बेमौसम की ये बरसात कम करें

इक पल में सुलझ जायेंगी सारी ही गुत्थियाँ
मजहब के नाम पर के,मुश्किलात कम करें

कम बोलेंगे और सुनेंगे तो समझेंगे ज्यादा
सरकारी दफ्तरों के से,हालात कम करें

आओ ना भूखे पेटों को रोटी का चैन दें
अब फूल,तितलियों की ज़रा बात कम करें

लाखों,हजारों में कोई एक,’ख़ास’ है होता
हर इक के लिए एक से ज़ज्बात कम करें

अग्नि

खिलते हैं,फूल पलाश के
जंगले में लगी वह आग, वह दावानल
वैसे ही तुम्हारे प्रेम के पलाश
प्रस्फुटित हो उठे हैं, मेरे काया वन में
और सुलग उठा है,मेरा रोम रोम
क्या, ये भी दावानल है

अदाकार 

नज़र का पानी वो सुलगा के राख करता है
राज़ खूब कीमियागरी के फाश करता है

इन्तेहा पर्दानशीनी की इस कदर है रवां
जला सय्यारों को,धुएं से चाँद ढंकता है

नर्गिसे-मयगूं पे साया किसी आसेब का जान
मय की बोतल पे दुआ हौले-हौले फूंकता है

सीपियों की तन्हाई से बड़ा ग़मगीन रहा
अर्के-जिस्म को मोतियों की जगह रखता है

हरफनमौला है शपा माहिरे-अदाकारी
रूह के शहर में सजा के बदन हँसता है

अवशेष 

ज़माने से तलाश थी
आँखों की बावड़ी में
इकठ्ठा होने वाले पानी के स्त्रोत की
बावड़ी के रास्ते उतरीगहरे बहुत गहरे
पहुँच गयी भावनाओं की ज़मीन पर
देखावहीँ से रिसता था बूँद-बूँद पानी
साथ में बहा लाता
ढेरों नाकाम हसरतें,इच्छाएं,तमन्नाएँ
फिर सब संचित होता रहता इन बावड़ियों में
पता है
बावड़ी के किनारे कच्चे हैं,
काले अंजन से लीपे जाते रहे हैं
और,
रिसते-रिसते पानी जा पहुँचता भीतर-भीतर
छुपी हुई,दिल की गुप्त दीवारों तक
सीलनबहुत सीलन उतर चुकी इन दीवारों पर
उखड़ने लगे हैं संवेदनाओं के पलस्तर
गिर सकती है कभी भी देह की ईमारत
फिर ढूंढें जायेंगे अवशेष
बनेगा इतिहास
जिंदा होंगी नयी लिपियाँ
पर पढ़ी न जा सकेंगी
काश!! मरम्मत हो पाती

आकाश में मेरा दृश्य है- शून्य 

आकाश में मेरा दृश्य है- शून्य
पृथ्वी में मेरा अंश है- धूल
जल में मेरी नियति है- शुष्क
वायु में मेरा प्रभाव है- उष्ण
अग्नि में मेरा योग है- समिधा
दिशाओं में मेरा गंतव्य है- भ्रमित
यज्ञ में मेरा भाग है- राख
वेदों में मेरी हिस्सेदारी है- वर्जित
अवशेषों में मेरा प्रमाण है- अस्थि भंग
अंतरिक्ष में मेरा बल है- हीन
वनस्पति में मेरा हरापन है- जड़
क्यूंकि मेरी यही सहभागिता निश्चित करती है कि
‘मैं एक स्त्री हूँ ‘

आँखों में जमा कीच

आँखों में जमा कीच
आँखों में बेइंतिहा पानी जमा होने से था
बचपन में सुना था
नमक वाले पानी से सींचने से
पौधे जल जाते हैं
आँखों में जमा पानी भी
नमकीन था इसीलिए तो
ख्वाबों की पौध मुरझा गयी
ये नमक भी सिर्फ ज़ख्मों को
हरा रख सकता
पौधों को सपनों को नहीं
है ना?

इस चैत को 

इस चैत को
पूरे १६ की हो गयी ‘बैसखिया’
काम भी ज्यादा मिलने लगा था
खेतों पर ‘बाबू साहेब को
‘नये’ ईमानदार लोगन
पर भरोसा रहा और,
१६ से ज्यादा नया तो
कउनो मजूरा नहीं था
अधेड़ थे या उस से ऊपर
‘प्रतिपदा’ की सुबह
नयी देह के अनाज वाले गेंहू की बालियों को
ओढ़ाई मिली एक ओढ़नी
बैसखिया की माई बोली
अन्नदाता को सबसे पहले
नयी फसल का अनाज चढ़ावत हैं
मुंह न खोलियो
अन्नदाता रुष्ट हो जावेंगे
हम नमकहराम थोड़े न हैं

उन दिनों

उन दिनों
नानी कहती थी
अतिशय रूप सुख न लेने देगा
स्वघाती है डस लेता है खुद का चैन
यूँ तो जड़ की पहली परत तक
छील डाले गए वनबहार
के पौधे में पुनः बसंत आने तक
सर उठाने के दु:साहस सरीखी
सुनहरी बिंदियों की गोलाइयों ने
सर उठाना शुरू कर दिया था
माथे का क्षेत्रफल मापती अर्ध-गोलार्ध काली भवें
ज्यामिति के नए आयाम रचती रहीं
सुना है! जब-जब नए नियम बने
पुरखों की तानी वक्र भवों के दुरूह नियमों ने
पीढ़ी के पाठ्यक्रम से विदाई ले ली है

हर इतवार मंगल की सुबह
शाम मिर्च-लोहबान जला जला कर
नज़र उतारने वाली
बूढ़ी नज़रों ने जाने कब भांप लिया था
चौराहों वाले प्रेतों की काली नज़रों का नीलापन
जिन कागजों के पुलिंदों में
वो लपेटती रही थी न
अपनी अचूक नज़र मारक वाली
पंसारी सामग्री आग में जल-जल
उन पुलिंदों से उठते नीले धुवें
हवा में घुल कर कानों में फुसफुसाते रहे
“नज़र-गुज़र नज़र गुज़र”

आह! क्या कभी किसी ने
हवाओं की बात पर कान धरा है नहीं ना
नीले धुवें नीला नशा बनते रहे और
जब बन गए नीला ज़हर डस लिया भाग्य का चन्द्र

नानी कहती थी
चाँद में जो नीलापन है ना
वो भी उसके रूप का ही अभाग है
इसीलिए तो घटता बढ़ता है
बेचैन बेहद बेचैन है
सच कहा था उसने

उस आलीशान घर में

उस आलिशान घर में ढेरों सजे थे
कीमती सामान
आसाइशें
रोने को भी खाली न थे कोने
उन कोनों पर भी पहले से ही थी नमी
सीलन वाली देह की मिट्टी का भुरभुरापन
सनता रहा अपने ही आंसुओं के गीलेपन से
ज़बरन दबाई गयी भावनाओं को ये कब्र ही मुनासिब पायी
फूल ज़रूरी नहीं इन पर
बताया तो था
ढेरों सजावटी
कीमती सामान पहले ही थे

कागज़ की उदासीनता

कागज़ की उदासीनता से भरा-भरा रहा कलम का दिल
तटस्थता हद से बढ़ी तो स्याही
बन ढुलक आये उसके आंसू
छप गयीं दर्द की इबारतें
बदल गया कोरापन कालेपन में
हर काला निशान महाकाव्य नहीं रचता
हर काला धब्बा
नज़र का टीका भी नहीं बनता
हाँ! कुछ काले दाग नसीब की लकीरों से संघर्ष करते उग आते
जिन्हें न स्याही धो पाती न आंसू
तुम चाहो तो किस्मत और कागज़ को अलग-अलग मान लो
मैं नहीं मान सकी कभी

खुदी और खुदा 

पूछा जो एक ‘मुरीद’ ने कभी अपने ‘पीर’ से
प्यारा है तुझको कौन ‘वली’ और मुरीद से
दिन-रात तुझसे तेरे ही गुर सीखता हूँ मैं
करता हूँ इबादत तुझे सराहता हूँ मैं
तेरे बताये रास्तों से चलता रहा मैं
बा-लफ्ज़,हर्फ़-हर्फ़ तुझको पढ़ता रहा मैं
फिर,क्यूँ न जान पाया हूँ तुझको मैं मुकम्मल
क्या रह गयी कमी है? या के दिल ही दूँ बदल
हौले से मुस्कराया पीर,मुतमईन था
फिर धीरे से उसने पुकारा सुन इधर ‘वली’
तू कौन है? करता है क्यूँ खिदमत नयी नयी
क़दमों में गिर के ‘वली’ ने चूमा जो ‘पीर’ को
बोला के,तू और मैं कहाँ जुदा रहे कभी
ये खिदमतें,नवाज़िशें,बेलौस मोहतरम
तू मुझमें और मैं तुझमें फिर,काहे का भरम
ये सुना जो सर झुक गया ‘पीर-ए-मुरीद’ शपा
खुद को मिटा दे फ़कत जो,वही पायेगा खुदा

चुड़ैल

लम्बे घने काले बाल छितराए
रात की घूरती लाल आँखों
के नीचे पत्तों वाले रोंगटे खड़े किये
झुरझुराता पीपल
उसके उलटे पैरों की पदचाप
सुन सिहर उठता है
नीचवंश्जन्मी/अजन्मी ,उन्मादिनी का
हृदयविदारक तरल विलाप सोख लेता है
अपनी सहस्त्र भुजाओं में और दूध बनकर शिराओं से
टपकता है वह रहस्यमयी क्रंदन
सारी आहें धर लेती हैं पत्तियों के बीच
विभाजित प्रकोस्ठकों का सा रूप
प्रत्येक डाल पर बाँधी गयी अतृप्त ब्रह्म प्रेत आत्माओं के
जनेऊ और लाल कौपीन
वाली पोटली में कुछ नहीं शेष सिवाय तिरस्कृत अतीत के

सीवान पार नजदीक के गाँव में
दिन डूबते ही बांस वाले झुरमुट के पीछे
चुपके से खड़ी
वो प्रतीक्षा करती है
अलाव के बुझ जाने के बाद
भीतर अधबुझी चिंगारी वाले राख के बीच गलती से छूट गए
कुछ सौंधे भुने आलुओं को झपट लेने की

हाय! विधाता भूख से ऐंठती अंतड़ियों को
सीधा करने की खातिर
तरह-तरह के जतन करती वह
मनोविक्षिप्त रच डालती है
नए क्षुधा-गीत
जो न समझे जा सके
न फिर गाये जा सके
जिसे समझ कर मृत्युविलाप
बंद कर लेते हैं सभी अपने किवाड़

कहीं गाय की नाद के पास
भूलवश पड़े रोटी के टुकड़े और मुनिया के लाल फीते
को आँचल में छुपा आनंद की पराकास्ठा से करती है अट्टहास !!
हा हा हा हा हा
हाँ! वही ‘चुड़ैल

चौखट के बाहर 

चौखट के बाहर तुलसी चौरे के नीचे की
गीली माटी के पिंड में
अंगूठे से दबा कर बनाये गए
कच्चे दीपक में
सहनशक्ति पक्की थी
शालिग्राम की अर्चना में डाले जाने वाले
समस्त घृत सोखता रहा दीपक और,
बाहर पड़ी-पड़ी सूखती रही तुलसी
शायद, प्रेम और विश्वास सींचने के लिए
केवल कार्तिक मास का होना ज़रूरी तो नहीं

छोड़ी हुई औरत

तिरस्कृत,अभिशप्त
स्वयं से परित्यक्त
बौराई सी
निष्पंद ह्रदय लिए
सूखे अल्तमाश के पत्तों सरीखी
मांड निकले भात सी
स्वादहीन,निरर्थक
जो मिटा सकती
केवल क्षुधा
लेकिन,कहाँ
तृप्त कर पाती
आवश्यकता ज़रूरी तत्वों की
बासी श्रृंगार धरे
रससिक्त होंठों पर प्यास
कहाँ खिल पाती
उसके गजरे की
कोमल कलियाँ
रूठ जाता है वसंत उससे
नहीं मिलता
चुटकी भर अपनापन
मिलती है,शपा
केवल सलाह
अवहेलना, और
दयनीय दृष्टि के पीछे
छिपी गिद्ध चेष्टा
विलीन हो जाता है
कहीं आत्मविश्वास
घूमती है धरती
उसके इर्द-गिर्द
फटने को आतुर
क्यूंकि,उसे समा जाना है
एक दिन
नहीं होता उसके पास
वापस लौट जाने का विकल्प
जीती है
एक टुकड़ा आसमान तले
आखिर को वो होती है
एक छोड़ी हुई औरत
‘रामायण साक्षी है’

जो… जब…जैसा माँगा 

जो जब जैसा माँगा जवाब मिला,
सब तुम्हारा ही तो है
धरती अम्बर सब तुम्हारा जितना चाहो ले लो
ज्यादा से ज्यादा लेना चाहती थी तो
पूरी लेट गयी धरती पर
पाया मेरे आकार से ज्यादा
न ज़मीं थी मेरी न आसमां
देह आकार के इतर पुरुषों के बनाये पाताली खड्ड थे
और, उतने ही आसमान के इतर शून्य सिर्फ शून्य
बीच में थी हवा सिर्फ और सिर्फ हवा
ताकि मैं सांस ले सकूँ
और फिर पूछूं ‘मेरा क्या है’ ?
कहा ना सब तुम्हारा ही तो है ‘स्त्री’

‘मुझे जो चाहिए था मुझमें ही समाया मिला
ये महज़ इत्तेफाक था की तुम न मेरे हुए ‘

तात! आसान नहीं था

तात आसान नहीं था
ईश्वर होकर मानव रूप धरे
राम के लिए ‘बाली’ जैसे महायोद्धा से मल्ल /मुष्टि युद्ध
किन्तु ये तो पहले से तय की जा चुकी नियति थी
जिसने मनुष्य होना तय किया,विधान रचे
युद्ध रचे,विजय रची हाँ,
ईश ने स्वयं के लिए पराजय कभी नहीं रची
चाहे रूप कोई धरा हो
विभिन्न पटकथाएं रचीं,
पात्र रचे,
सुविधा-असुविधा नियत किये,
हास्य-रुदन धरे गए
सभी यथासमय क्रमवार घटे

लेकिन तात!!
तुम स्त्री का पक्ष भूल गए क्यूँ??
भूल गए ‘रुमा’ का सुग्रीव के लिए रुदन
भूल गए ‘अलका’ के साथ किये गए
समस्त पशुवत व्यवहार
और ‘जानकी’ ?
छोड़ो जानकी के विषय में बाद में बात करुँगी
हाँ,तो मैं कह रही थी
तुम्हें याद रहा तो केवल
पौरुष प्रदर्शन कर बाली का वध
और एक पुरुष यानी सुग्रीव को
‘किष्किन्धा’ का साम्राज्य देना
सोचती हूँ डूब मरुँ उसी ‘पम्पा सरोवर’में
जिसके जल से तुमने किया सुग्रीव का राज्याभिषेक
सुग्रीव सहृदय थे, सद्पुरुष भी
किष्किन्धा में सम्मान था उनका
हाँ, बाली के भाई होने का सम्मान
जानते हो तात रुतबा उसका होता
जिसके हाथ सत्ता होती, बल होता
और सुग्रीव! वे तो राजप्रासाद के विराट स्तंभों में जड़े
एक विराट प्रस्तर मात्र थे
जो प्रासाद का वैभव तो बढ़ा सकता
लेकिन उसे निर्णय लेने का कार्य नहीं सौंपा गया
आप उस से टकराकर माथा फोड़ सकते
लेकिन माथे का मुकुट नहीं बना सकते

और तो और
तुम्हें तो याद रहा रावण भी
यह भी तो पूर्व नियत था ना
तुम्हें उसका वध करना ही था
फिर ,
तुमने अपनी ही स्त्री को बना डाला मध्यस्थ??
तुमने नियति में ये क्यूँ लिखा कि
रावण द्वारा
तुम्हारी पत्नी के हरण के पश्चात ही तुम उसका वध करोगे
क्यूँ तुम पुरुष युगयुगान्तर से स्त्री को
अपनी ढाल तलवार बनाते आये हो
क्यूँ तुम्हारी विजय,पराजय अहं ,सम्मान की तुष्टि के लिए
तुम्हें स्त्री का ही सहारा लेना पड़ता
यहाँ तक की तुम ईश्वर भी इस से अछूते नहीं
आखिर को तुम भी पुरुष ही ठहरे
माना कि तुमने सब कल्याण हेतु रचा
शान्ति हेतु रचा
परन्तु अशांति और अकल्याण भी तो तुमने ही रचे
लेकिन हर बार अपनी लक्ष्य सिद्धि हेतु
स्त्रियों का प्रयोग एवं उनकी दुर्दशा मुझे सालते हैं राम!!
तुम स्वयंभू थे
किसी और तरीके से भी कार्य सिद्धि कर सकते थे न

जाने दो
ये सब इसलिए लिख रही हूँ कि
पुनः किसी युग में जब आना तो
अपनी पिछली भूलें मत दोहराना
तुम्हारी की गयीं गलतियाँ तुम्हारे सब वंशज
आज भी छाती ठोक के कर रहे हैं
साथ ही तुम्हें दोष देना और तुम्हारा
जयघोष भी नहीं भूलते वे नहीं भूलते
“जय श्री राम” कहना और पुनः सीता हरण करना

जानते हो मैं भी स्त्री हूँ
इतिहास में किये गए स्त्रियों के प्रति
अन्याय मुझे कमजोर बनाते हैं
विरोध का स्वर बुलंद करती हूँ
ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ
हमारे प्रति वर्तमान में किये जा रहे अन्यायों को समझ सकें
विरोध कर सकें
शायद ये भी क्रम चलता रहे
किसी युग में तो रुके ये सिलसिला

सुनो राम!!
मैं नास्तिक नहीं
मेरे संस्कारिक बीजों से बढ़े
आस्थावान वृक्ष की जड़ें मजबूत हैं
बस इन वृक्षों की शाखों पर
शाखामृग से लटके मेरे अधिकार
मुझे विद्रोह का फल खाने पर विवश करते
तुम तो सर्वज्ञ हो समझते हो ना सब
बस ईश्वर और पुरुष को एक में न मिलाना
अन्यथा बार-बार मारी जाती रहेंगी हम केवल हम स्त्रियाँ

क्षमा करना मैं ईश्वर से डरती हूँ
और तुम्हारी ही जाति के पुरुष से भी
क्षमा !!

तुम मेरे हो जाओगे

रूप-काव्य में ढली पंक्तियाँ,मंत्रमुग्ध हो जाओगे
शब्द-अर्थ की परिभाषा में खुद को ही तुम पाओगे
सीमाओं के तोड़ के बंधन,असीमित हो जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे

हिय के बंधन नेह के नाते,भूल के कैसे जाओगे
रक्त समान शिराओं में तुम खुद को बहता पाओगे
उठते-गिरते उच्छ्वास की लय संग रमते जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे

सीमित मन इच्छा असंख्य में मणि-मुक्ता बन जाओगे
ह्रदय-अंगूठी में जड़ कर तुम,खुद की ही छवि पाओगे
लगा मैं लूंगी सीने से जब,मोम से पिघले जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे

शपा की माटी काया में घुल-मिल कर जल बन जाओगे
गीली माटी की मूरत में खुद को प्राण सा पाओगे
जो मैं छूट गयी तो केवल निराकार रह जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे

लाल रंग में घोलूं तुमको,अधरों में बस जाओगे
नयन-कमान में अंजन बनकर तीर सा खुद को पाओगे
सजा,वक्ष पर हार बना लूँ,रत्नजटित हो जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे

मन की नदिया के उफान में ज्वार से बढ़ते जाओगे
उमर की रीति गागर में खुद को नवयौवन पाओगे
सृष्टि रुकेगी,वक्त थमेगा और तुम बीते जाओगे
-इतना विवश कर दूंगी तुमको,तुम मेरे हो जाओगे

तेरे मेरे दुःख

रोज़ सवेरे सर चढ़ आये सूरज से झुलसाते दुःख
शाम ढले तक छोटे छोटे सपनों में बँट जाते दुःख
रोज़ समेटा करती रहती अलग अलग से सारे दुःख
पल-पल कितना घटते बढ़ते सुरसा से मायावी दुःख
ठंडा चूल्हा ,गर्म पतीली जैसे ये बेमेल से दुःख
तेरी मेरी,प्यासी भूखी रोज़ कहानी कहते दुःख
नाज़ुक धागे,भरी मनका कैसे शपा संभाले दुःख
हड्डी के ढांचों पे सजते सोने तमगे जैसे दुःख
थोड़ा जीना ज्यादा मरना आम आदमी जैसे दुःख
मुझको लगे हैं मिलते जुलते,तेरे दुःख ये मेरे दुःख
बड़ी मुरादों जैसे पलते सीने में महबूब से दुःख
तुझसे पाया,सबसे छुपाया कुछ-कुछ शर्मिंदा से दुःख
थपकी देकर बहलाती हूँ दुधमुंहे से सोते दुःख
मिल कर तुझसे रो ही देंगे नन्हे ये मासूम से दुःख
ठहर गए मेरी आँखों में तेरी यादों जैसे दुःख
खारे-खारे,गीले-गीले कुछ कुछ आंसू जैसे दुःख
लिपटाये मैं घूम रही हूँ तेरे बदन की उतरन दुःख
सूती गठरी में गर्माते ऊनी कपड़ों जैसे दुःख
पत्थर मारा तोड़ के लायी आम की कैरी जैसे दुःख
मां के आँचल में गठियाये इकलौते रुपये से दुःख
इंसानों की भीड़ में चलते कुछ अपने,बेगाने दुःख
रोज़ बदलते शक्लें अपनी अनदेखे,अनजाने दुःख
रोज़ पूछती पता ठिकाना,कहाँ से आया रे तू दुःख
अल्हड़ लड़की से इठलाते छाती से लग जाते दुःख:(

सुनो देव! 

त्रिनेत्र धारे अलभ्य ज्योतिर्लिंग से फूटने वाले प्रचंड तेज़ ने आँखें मूंदने पर विवश कर दिया… समस्त वाह्य अंगों ने परम-पौरुष प्रतीक दिव्य ज्योति के समक्ष अभ्यर्थना में करबद्ध स्तुति गाई… चमड़ी भेदती दिव्य किरणों ने चुना अपनी प्राण-प्रतिष्ठा के लिए गर्भ का गृह… और ठीक उसी क्षण अनियत गर्भ-स्त्राव कर गर्भ ने अपने गृह में बना डाला अपने आराध्य के लिए देव स्थान… और नाभि-स्थल से श्वांस लेता देव पुंज धीरे-धीरे बढ़ाता रहा रक्त में प्रवाह ….इतना की पग धरने के साथ ही रक्तिम हो गयी पृथ्वी… श्वास वायु से स्पर्श पाकर लाल हो गया सूर्य… नक्षत्र और दिशाएं…

सुनो देव!
तुम्हारी कामना में देह का देवालय हो जाना तय था… इच्छाओं की भस्म पोत करती रही हूँ तुम्हारा श्रृंगार… वर्जनाओं की हरित खोल में लिपटी कंचुकी से मुक्ति दिला अर्पित करती रही हूँ तुम्हें उन्नत श्वेत मंदार पुष्प… तुम पर दृष्टि मात्र से नैनों में हिलोरें लेते अथाह मद्द राशि से लगाती रही हूँ तुम्हें भोग…

आस्था अनंत है देव… विधान कठिन… परीक्षाओं से लघुतर होता है इनका विस्तार… प्रतीक्षारत है आस्था का कौमार्य… अत्यधिक विलम्ब धैर्य की नींव में जल बनकर टपकने लगा है… सृष्टि तुम्हारी साधक है देव!… तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता अगर एक उपासक की आस्था मृत होने लगे… लेकिन उस से तो छिन जाएगा ना उसका इकलौता भगवान्…
सुनो, देव अंश रोपित करना तो सरल है… कठिन है उसे आकार देना…
आस्था दांव पर है
श्रद्धा निर्वात में
भूमि पर मैं हूँ
और
सृष्टि में तुम
मैं अब तक कभी नहीं हारी… सुना देव !!
मैं नहीं हारूंगी इस बार भी

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