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शलभ श्रीराम सिंह की रचनाएँ

नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम

नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब – २
जहाँ आवाम के ख़िलाफ़ साज़िशें हो शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
जहाँ पे लब्ज़े-अमन एक ख़ौफ़नाक राज़ हो
जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज़ हो
वहाँ न चुप रहेंगे हम
कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
इन्क़लाब इन्क़लाब -२

यक़ीन आँख मूँद कर किया था जिनको जानकर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर
उन्ही की सरहदों में क़ैद हैं हमारी बोलियाँ
वही हमारी थाल में परस रहे हैं गोलियाँ
जो इनका भेद खोल दे
हर एक बात बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली क़िताब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब

वतन के नाम पर ख़ुशी से जो हुए हैं बेवतन
उन्ही की आह बेअसर उन्ही की लाश बेकफ़न
लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके
करें तो क्या करें भला जो जी सके न मर सके
स्याह ज़िन्दगी के नाम
जिनकी हर सुबह और शाम
उनके आसमान को सुर्ख़ आफ़ताब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब -2

तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल सोच और सोचकर सवाल कर
किधर गए वो वायदे सुखों के ख़्वाब क्या हुए
तुझे था जिनका इन्तज़ार वो जवाब क्या हुए
तू इनकी झूठी बात पर
ना और ऐतबार कर
के तुझको साँस-साँस का सही हिसाब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब

नफ़स-नफ़स, क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए
जवाब दर-सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब
जहाँ आवाम के ख़िलाफ साज़िशें हों शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
वहाँ न चुप रहेंगे हम, कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब

ज़माने को बदलना है

मजूर आ ! किसान आ !
वतन के नवजवान आ !
तुझे सितम की सरहदों के पार अब निकलना है !
य’ राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
ज़माने को बदलना है !
ज़माने को बदलना है !

यहाँ पे मुद्दतों से आदमी ने है अश्क पिया
रहम करेंगे लोग इस उम्मीद पर बहुत जिया
मगर सवाल पेट का बिना जवाब के रहा
किसी ने कुछ नहीं सुना, किसी ने कुछ नहीं कहा
तो उसने सर उठा लिया
नया बिगुल बजा दिया
उसी बिगुल की धुन में तेरे सुर को आज ढलना है !
य’ राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
ज़माने को बदलना है !
ज़माने को बदलना है !

ये आदमी की शक्ल में भटकते लोग कौन हैं ?
क़दम-क़दम से खौफ़ से अटकते लोग कौन हैं ?
न जिनके बाग़ में उम्मीद की कोई कली खिली !
अँधेरा पी के मर गए मगर न रोशनी मिली !
उन्हीं का ख़्वाब तू भी है
पसीना और लहू भी है
उन्हीं की यादगार का चिराग़ बन के जलना है !
य’ राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
ज़माने को बदलना है !
ज़माने को बदलना है !

ये जिनकी साँस-साँस में तड़प रही हैं बिजलियाँ
उन्हीं को मिल रही हैं रोज़ लाख-लाख धमकियाँ
य’ डर है उनले लब पे भूख का सवाल आए ना
कि उनकी धमनियों में ख़ून का उबाल आए ना
कहीं ज़बाँ न खोल दें
ये सच कहीं न बोल दें
हुकुमतों की ख़ैर-ख़्वाहियत को यों ही पलना है !
य’ राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
ज़माने को बदलना है !
ज़माने को बदलना है !

सुबह की रोशनी से जिसने इनको काट रक्खा है
दिलों की वादियों को साजिशों से बाँट रक्खा है
सड़क पे खींच ला कि अब उसे सबक सिखा दे तू
वतन परस्त ! इंकलाब करके अब दिखा दे तू
य’ सच है इस ‘जनून’ से
शहीद ! तेरे ख़ून से
समन्दरे-निज़ाम को उबलना है ! उबलना है !
य’ राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
ज़माने को बदलना है !
ज़माने को बदलना है !

ज़मीं के पूत से ज़मीन छिन ली गई यहाँ
जला उसी का घर, पड़ी उसी के पाँव बेड़ियाँ
हुक़ूक मिल सके नहीं कभी अमन के रास्ते
कभी नहीं रही ज़मीन कायरों के वास्ते
‘लहू-लहू’ के राग में
जवाँ दिलों की आग में
हर इक चटाने-ज़ुल्म को पिघलना है ! पिघलना है !
य’ राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
ज़माने को बदलना है !
ज़माने को बदलना है !

बहे अगर ख़िलाफ़ तो हवा का रुख़ बदल दे तू
जो साँप फन उठाते हैं तो उनका फन कुचल दे तू
जो हाथ तेरे हाथ से जुदा हैं उनको काट दे
ज़रूरतन ज़मीं को सरों से दोस्त पाट दे
तुझी को यह भी करना है !
कि ख़ुद ब ख़ुद उबरना है !
बहुत गिरा है तू कि अब सम्हलना है ! सम्हलना है !
य’ राह पुरखतर है पर इसी पे तुझको चलना है !
ज़माने को बदलना है !
ज़माने को बदलना है !

क़दम ये इंक़लाब के

ये गीत अधूरा है, आपके पास हो तो इसे पूरा कर दें ।

…य’ किसने कह दिया भला सितम के दिन निकल गए !
रिकाबोज़ीन है वही सवार तो बदल गए !
सुना जो आँधियों के देश में चिराग जल गए !
वतनफ़रोश भी वतन के रहनुमाँ में ढल गए !
जिसे न पढ़ सके हो तुम
न ख़ुद पे मढ़ सके हो तुम
बदल के ज़िल्द आ गए सफ़े उसी क़िताब के !
भटक न जाएँ साथियो ! क़दम ये इंक़लाब के !
ये इंक़लाब के क़दम !
क़दम ये इंकलाब के !

बाढ़ में ज़रूरतें क्यों नहीं बहतीं /

बाढ़ में ज़रूरतें क्यों नहीं बहतीं ?
उसने पूछा
मैंने कहा –ज़रूरतें बाढ़ की कोख में बढ़ती हैं
उन बढ़ी हुई ज़रूरतों का क्या होता है? उसने फिर पूछा
मैंने कहा –बढ़ी हुई ज़रूरतें विज्ञापनों में ढाली जाती हैं
उनसे सत्ता के संचालन
और राजनीति की ऐसी सूरतें निकाली जाती हैं
जिनसे जन-प्रतिनिधियों की चिन्ता को फलक मिलती है,
एक ललक मिलती है, बाढ़ में डूबे हुए लोगों को जीने की,
जीने की ललक
मरी हुई बच्ची और बहे हुए भाई को
डबलरोटी और अस्पताल की चारपाई में बदल देती है
जहाँ
आदमी और और ज़िन्दा रहने की कोशिश करते हुए
एक दिन ज़मीन में गड़ जाता है ।
होशियार कवि उसे अपनी कविता की विषय-वस्तु में
ढालकर
ख़ुद के सरकारीकरण की ज़मीन तैयार कर लेता है
मरने के बाद
सरकारीकरण के बाद उसकी आत्मा को मिली हुई शान्ति
क्रान्ति के भूतपूर्व नारों का मज़ाक उड़ाती है
जैसे
नंगे पैर चलते ग्रामीण के चेहरे पर
धूल और धुआँ फेंकती जीप ।

एक दिन

एक दिन
पृथ्वी पर जन्मे
असंख्य लोगों की तरह
मिट जाऊंगा मैं,

मिट जाएंगी मेरी स्मृतियाँ
मेरे नाम के शब्द भी हो जाएंगे
एक दूसरे से अलग
कोश में अपनी-अपनी जगह पहुँचने की
जल्दबाजी में
अपने अर्थ समेट लेंगे वे

शलभ कहीं होगा
कहीं होगा श्रीराम
और सिंह कहीं और

लघुता-मर्यादा और हिंस्र पशुता का
समन्वय समाप्त हो जाएगा एक दिन
एक दिन
असंख्य लोगों की तरह
मिट जाऊँगा मैं भी।

फिर भी रहूंगा मैं
राख में दबे अंगारे की तरह
कहीं न कहीं अदृश्य, अनाम,अपरिचित
रहूंगा फिर भी-फिर भी मैं

उस दिन

ईख की सूखी पत्ती का
एक टुकड़ा था बालों में
पीछे की तरफ़

ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ गई थी
गालों की लाली।

आईने में
अपने चेहरे की सहजता
सहेज रही थीं तुम
खड़ी-खड़ी।

सब कुछ देकर चली आईं थीं
किसी को
चुपचाप।

सब कुछ देकर
सब कुछ पाने का सुख था
तुम्हारे चेहरे और उस दिन

उस दिन
तुमको ख़ुद से शर्माते हुए
देख रहा था आईना।

रचनाकाल : 1992 विदिशा

तुम्हारा शरीर है यह

यह तुम्हारा शरीर है मेरे शरीर में समाता हुआ
आता हुआ आईने के सामने
प्यार का मतलब बताता हुआ पूरे यक़ीन के साथ ।

यह तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में बदलता हुआ
निकलता हुआ आस्तीन से बाहर
चलता हुआ भूख और प्यास के ख़िलाफ़ ।

यह तुम्हारी आँख है मेरी आँख में ढलती हुई
मचलती हुई देखने को पूरी दुनिया
सम्भलती हुई किसी भी दृश्य का मुकाबला करने के लिए ।

यह तुम्हारा मन है मेरे मन को जागता हुआ
बजाता हुआ मेरी उम्मीद को बाँसुरी की तरह
सजाता हुआ बच्चे की तरह मेरे एक-एक सपने को ।

तुम्हारा शरीर है यह मेरे शरीर में समाता हुआ

रचनाकाल : 1992 विदिशा

कामरेड नछत्तर सिंह

आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान में कलकत्ता स्थित भवानीपुर के जग्गू बाज़ार इलाके में पंजाब से आकर स्थाई तौर पर बस जाने वाले कॉमरेड नछत्तर सिंह से मेरी मुलाकात सुभाषचन्द्र बोस के जन्मदिन पर २३ जनवरी १९७९ को उन्हीं के निवासस्थान पर रात साढ़े ग्यारह बजे हुई थी। मैं उनके इकलौते बेटे और पंजाबी के उभरते हुए जनवादी कवि श्री कुलदीप थिन्द का मेहमान था। २४ जनवरी १९७९ की सुबह घर-परिवार और आसपास के लोगों से मिलने के बाद नछत्तर सिंह के बारे में जो जानकारी हासिल हुई, उसके तहत उनकी जो तहत उनकी जो तस्वीर मेरे जहन में उभरी, उसे मैंने ज्यों का त्यों क़लमबन्द करने की कोशिश की है।

पहली ही मुलाकात में मुझे इस हद तक प्रभावित करने वाला यह पहला इन्सान है जो ’मैं’ की जगह ’हम’ बना हुआ, साथीपन की एक ज़िन्दा मिसाल की तरह हर सवाल के कद्दावर जवाब की शक्ल में मेरे दिल की गहराइयों तक उतरता चला गया है। ज्ञान से व्यवहार तक ’मैं’ से ज़्यादा ’हम’ प्रतीत होने वाला कॉमरेड नछत्तर सिंह अपने वुजूद का घोषणापत्र स्वयं है। — शलभ

1.

समुद्र था कि गहगह रोशन सूरज
उसके अन्दर से निकल रहा था
पयम्बर की तरह उसके ऊपर चलता हुआ लग रहा था
नछत्तर सिंह रौंदता हुआ सूरज को
चमकता हुआ उससे कई गुना ज़्यादा।
उस रात का आख़िरी आशीर्वाद एकर हमें
सिन्ध-सतलज के साथ चला गया एक दीवार ऊर
शुभ रात्रि की कामना करता हमारे लिए।
जीवित सपने की तरह
साथ रह गया मेरे ’कुलदीप’
शराब से शराबों तक बहता हुआ ज़मीन से ज़मीर के भीतर तक
किसी ख़ामोश ख़याल की तरह पनपता हुआ।

2.

कोपलों में वसन्त हँस पड़ा अचानक
शहर में सुबह के पाँव पड़ रहे थे
नींद-भरी आँखों वाली नन्ही-सी ’बीताँ’
सीने से लगकर
पिछले जन्मों के रिश्तों की ताईद कर रही थी
कच्ची मुस्कानों पर सवार ज़िन्दगी की तरह।

3.

समुद्र था कि गहगह रोशन सूरज
उसके अन्दर से निकल रहा था।

बसों के अन्दर ताज़ा हवा
हवा में चिड़ियों के गीत
गीतों में आमंत्रण दिन का

बच्चों की उंगलियाँ थामे हुए
स्कूलों की ओर जाते पिताओं के पाँव
थकन के बावजूद आश्वस्त थे
कि जन्म लेकर बढ़ रहे थे वे समय के दूसरे हिस्से में
नन्हें-नन्हें इतिहासों की शक्ल में
सामूहिक रूप से पढ़े जाने के लिए
एक नए देश के पक्ष में
रूपायित हो रही थीं उनकी आकांक्षाएँ
ट्यूबवेल की तरह धरती के भीतर
पानी के ख़िलाफ़ गति पकड़ती हुई…

4

मुसाफ़िरों के लिए मंज़िलों की तलाश में
जाने कहाँ होगा इस वक़्त वह कॉमरेड नछत्तर सिंह
एक सार्वजनिक संज्ञा से जु़ड़ा– ’टैक्सी !’

’टैक्सी !’ नछत्तर सिंह को इस नाम से पुकारने वाले
नहीं जानते कि रोज़ सूरज को रौंदता है वह
उसकी रोशनी के साथ
उससे कहीं ज़्यादा चमकते हुए
कहीं ज़्यादा ऊँचे उद्देश्यों और इरादों के साथ
ज़्यादा बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए
दिन का पहला पानी पीने से लेकर
रात का आख़िरी आशीर्वाद देने तक
अपने पूरे पितापन के साथ
जीवित पंजाब की तरह
जिसे नक्शे की बेजान लकीरें
और
मज़हबी बारूद से खेलती सियासत
तक्सीद नहीं कर सकीं

’टैक्सी !’ अपने इस नए और सार्वजनिक नाम में
मुकम्मिल हिन्दुस्तान बन गया है
पंजाब से आकर बंगाल में बस जाने वाला वह
कि अपना कॉमरेड नछत्तर सिंह
समुद्र के भीतर से निकलते हुए
सूरज की छाती पर खड़ा
दिन के पहले पानी और रात के आख़िरी आशीर्वाद के साथ।

5.

गाँव से शहर और शहर से फिर जिस्म में
हर लम्हा तब्दील होने वाला यह इन्सान
आदमीयत के क़त्ल में कभी शरीक नहीं हुआ।

ज़बान और मज़हब से बड़ी चीज़ के लिए
टैक्सी के चक्कों पर अपने दिमाग़ को तैनात कर
स्टीयरिंग को हमेशा अपने हाथ की ज़िम्मेदारी पर रखता है
ख़ून और झण्डे के रंगों को
बे-फ़र्क़ बनाता हुआ…

अपने कुर्ते और पजामे और पग्गड़ में
एक ज़िन्दा तवारीख़ का सफ़ह कि एक आदमी
सब से ऊपर एक गाता हुआ जंगल
जागता हुआ पहाड़
हँसता हुआ दरिया
बहता अपने अन्दाज़ में
बढ़ता अपनी मंज़िल की ओर
किसी भी जगह समुद्र बन जाने को तैयार
अपनी आग को अपने भीतर बरकरार रखता
कि मर्यादा संयम की सीमा में
अर्थवती है नछत्तर सिंह की मुस्कराहट की तरह
उसके होठों के भीतर

अपनी हथेलियों में उतर आता है वह
कि पूरा का पूरा इन्सान
आशीर्वाद देते हुए
भाषा में बदल जाता है पूरी तरह बतियाते हुए
सफ़र बन जाता है चलाते हुए टैक्सी
मैंने देखा है
तुमने देखा है
उसने देखा है जिसने उस पर विश्वास किया है।

पूरा का पूरा दिखता है वह देखने वालों को
इस दौर में
अपना वह कॉमरेड नछत्तर सिंह
साथीपन के साथ
समन्दर के भीतर से निकलते सूरज की छाती पर सवार…

6.

इतिहास की उँगली थामे
लाहौर से कलकत्ता चला आया था नछत्तर सिंह
लाहौर और अमृतसर की झुकी आँखों से बचता
हैरान– यह जानकर कि माँ भी तक्सीम हो सकती है
सियासत के हक में
बगैर बाजुओं की मूरत
बग़ैर कन्धों की सरज़मीन
लहूलुहान
अपने दूध की पवित्रता पर शक करने को मज़बूर
एक माँ
कि उसके लाडले
उसे नंगी कर देने पर आमादह थे
ग्रन्थ साहब और कुरान शरीफ़ के पन्ने
ख़ौफ़ज़दह पंछियों की तरह
फड़फड़ाकर चिपक गए थे एक दूसरे से
इब्लीसी निज़ाम के तहत।

7.

उसकी मुख़ालिफ़त में ख़ामोश
इतिहास की उँगली पकड़े
कलकत्ता चला आया था
अपना यह कॉमरेड कि यही नछत्तर सिंह
एक नए उजाले की तलाश में
जिसकी एक रेखा
पूरबी आसमान से उठकर
पूरी दुनिया को घेरने की तैयारी कर रही थी
कलकत्ता से लाहौर तक
कभी भी बढ़ जाने वाली इस रेखा
यानी अपनी उम्मीद के सहारे
अब तक ज़िन्दा है कॉमरेड नछत्तर सिंह
जी रहा है अब भी
कुलदीप में ख़ुद को ढालता
जानता हुआ अच्छी तरह
कि आदमीयत के हक में होने वाले तमाम फ़ैसले
अमूमन‌ कई-कई पीढ़ियों के हाथ में होते हैं।

इसी और इसी यकीन के साथ
कुलदीप के बच्चों में ज़िन्दा रहेगा नछत्तर सिंह
मुसलसिल तहज़ीब और मुकम्मिल एहसास की तरह
मुल्क और कौम का अलमबरदार वह कॉमरेड
दिन के पहले पानी
और
रात के आख़िरी आशीर्वाद के साथ
आदमीयत के कत्ल में कभी भी शरीक न होने के लिए
हर ख़तरे पर सवारी कसने को तैयार
हर लापरवाही के कान पर हॉर्न रखता
सावधान करता आने वाली नसलों को
कि नकली ज़िन्दगी की तवारीख़
आँधियों के जलते चिरागों के हवाले कि जा चुकी है
कि आदमी गणतन्त्र को उत्सव नहीं
आदमी की ज़रूरत समझने लगा है।

00

संविधान के अन्दर के संविधान को तलब करते हुए
लगातार सावधान कर रहा है नछत्तर सिंह
ठठाकर हँसते और धाड़ भर कर हँसते हुए
पहले पानी और आख़िरी आशीर्वाद के घंटों में
यहाँ-वहाँ
जहाँ-तहाँ
हर घड़ी
हर वक़्त
नछत्तर सिंह… कॉमरेड नछत्तर सिंह
टैक्सी और आदमी एक साथ
दूरियों से दूरियों को जोड़ता
झण्डे की तरह लहराता
अपने समय की सतह पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी
ज़िन्दा रहने के लिए
एक बाजुबान दस्तावेज़
नछत्तर सिंह… नछत्तर सिंह
सवाल के भीतर से पैदा होते जवाब कि तरह नछत्तर सिंह… नछत्तर सिंह

विकास

पृथ्वी युद्ध के भीतर से पैदा हुई
युद्ध के भीतर से पैदा हुआ आदमी
भाषा युद्ध के भीतर से पैदा हुई
प्रेम के प्रस्ताव की शक़्ल में ।

सभ्यता युद्ध के भीतर से पैदा हुई
युद्ध के भीतर से पैदा हुआ संगीत
कविता युद्ध के भीतर से पैदा हुई
शक्ति की आवश्यकता के अनुसार ।

व्यवस्था युद्ध के भीतर से पैदा हुई
युद्ध के भीतर से पैदा हुआ विचार
सिक्का युद्ध के भीतर से पैदा हुआ
हथियार की एक नई नस्ल की तरह ।

विज्ञान युद्ध के भीतर से पैदा हुई
युद्ध के भीतर से पैदा हुई कला
संस्कृति युद्ध के भीतर से पैदा हुई
भूगोल की नई पहचान बनकर ।

पत्थर युद्ध के भीतर से पैदा हुआ
युद्ध के भीतर से पैदा हुआ परमाणु
प्रार्थना युद्ध के भीतर से पैदा हुई
मानवीय मन के विषाद की घोषणा करती ।

एक ख़याल 

एक ख़याल आया है …
मन्दिर की तरह टूटा हूँ अभी-अभी
गिरा हूँ मस्जिद की तरह
मकान की तरह जला हूँ अभी-अभी मैं ।

एक ख़याल आया है …
चाकू की तरह चला हूँ अभी-अभी
उछला हूँ ख़ून की तरह
प्राण की तरह निकला हूँ अभी-अभी मैं ।

एक ख़याल आया है याद की तरह
दंगा और फ़साद की तरह आया है एक ख़याल
ख़तरनाक वारदात की तरह
एक ख़याल आया है अभी-अभी
याद की तरह आया है ख़याल…।

समय 

अपने समन्दरों को पाटने का समय है
अपने पहाड़ों को ढोने का
अपने अन्धेरों को पी जाने का समय है यह।

बीमार ख़याल लोगों को —
दुनिया से बाहर निकाल देने का समय है,
समय है स्वस्थ ज़िन्दगी के सपनों में रंग भरने का,
अलग-अलग धन्धों में लगे लोगों के
एक साथ उठने का समय है यह ।

आसमान की बदलती रंगत के ख़तरों से —
सावधान होने का समय है,
समय है एक साथ सोचने और बोलने का,
पृथ्वी को एकजुट होकर बचाने का समय है यह ।

सांसों पर जवान उम्मीदों के लश्कर उतारने का समय है,
समय है थकान और पस्तहिम्मती के ख़िलाफ़
लामबन्द होने का
मौत के ख़िलाफ़ ख़ुद-ब-ख़ुद
पैदा होने का समय है यह ।

भाषा की विपत्ति

व्याकरण भाषा का पीछा कर रहा है
पीछा कर रहा है सौन्दर्यशास्त्र
भाषाविज्ञान पीछा कर रहा है उसका ।

चिता से उठकर आधी जली स्त्री की तरह
भाग रही है भाषा
उसके जले-खुले अंगों से छिटक रहे हैं शब्द
अर्थ छिटक रहे हैं उसकी चीख़ की दरार से ।

कवि ! क्या कर रहे हो तुम ?
तुम्हारे जन्म का जश्न पृथ्वी ने भाषा में मनाया था
भाषा में पढ़ा जाएगा तुम्हारी मृत्यु का सम्वाद !

बची हुई भाषा का उपचार
उसे बचाए रखने का उपक्रम
उसकी चीख़ के पक्ष में चीख़े बिना कैसे कर पाओगे तुम ?

चीखो ! कि तुम्हारी चीख़
शब्दों और अर्थों को
झरने और गिरने से रोक सकती है
भाषा की चीख़ की बग़ल में खड़ी करो अपनी चीख़ !

तुम्हारी चीख़ व्याकरण को रोक सकती है
रोक सकती है सौन्दर्यशास्त्र और भाषाविज्ञान को
भाषा की विपत्ति में तुम्हारी चीख़ का दर्ज किया जाना
ज़रूरी है, कवि !

स्वातंत्र्योत्तर भारत /

बादल तो आ गए
पानी बरसा गए
लेकिन यह क्या हुआ? धानों के–
खिले हुए मुखड़े मुरझा गए!

हवा चली–शाखों से अनगिन पत्ते बिछुड़े!
बैठे बगुले उड़े।
लेकिन यह क्या हुआ? पोखर तीरे आकर–
डैने छितरा गए!
बादल तो आ गए…!

दूब हुलस कर विहँसी–जलने के दिन गए!
सूरज की आँख बचा–ईंट की ओट में
निकलने के दिन गए!
लेकिन यह क्या हुआ? पानी को छूते ही
अँखुए पियरा गए…!

निरवहिनों ने समझा–गीतों के दिन हुए!
पेंगों के पल हुए–कजरी के छिन हुए!
लेकिन यह क्या हुआ? आपस में
सब के सब झूले टकरा गए!
बादल तो आ गए…।

ताल भर सूरज

ताल भर सूरज–
बहुत दिन के बाद देखा आज हमने
और चुपके से उठा लाए–
जाल भर सूरज!

दृष्टियों में बिम्ब भर आकाश–
छाती से लगाए
घाट
घास
पलाश!

तट पर खड़ी बेला
निर्वसन
चुपचाप
हाथों से झुकाए–
डाल भर सूरज!
ताल भर सूरज…!

अब तक की यात्रा में

जल कुम्भी गंगा में बह आई है!
यहाँ भला कैसे रह पाएगी हाय,
बंधे हुए जल में जो रह आई है!
जल कुम्भी…!

नौका परछाई को तट माने है
हर उठती हुई लहर को अक्सर
हवा चले हिलता पोखर जाने है
अपनावे पर यह विश्वास
फिर न कभी आ पाऊंगी शायद–
घाट-घाट कह आई है!
जल कुम्भी…!

बरखा की बूंद हो कि शबनम हो
पानी की उथल-पुथल
चाहे कुछ ज़्यादा हो या थोड़ी-सी कम हो
कभी नहीं तकती आकाश
इससे भी कहीं अधिक सुख-दुख वह
अब तक की यात्रा में सह आई है!
जल कुम्भी…!

धरे हथेली गाल पर

धरे हथेली गाल पर
सोच रहा हूँ कल की बातें- गए वर्ष की कुछ तस्वीरें
झूल रहीं दीवाल पर !
धरे हथेली गाल पर…!

हवा खिड़कियों के परदों पर छिटके गंध बबूल की ।
रोशनदान घुट रहे सारे- कई दिनों से गुलदस्तों पर-
पर्त जमी है धूल की।
बिस्तर पर सिलवटें, सिलवटों पर सिगरेट की छाई
हाथ उठाऊँ, इसके पहले ठमक गई है- दीठ किसी के-
नाम कढ़े रुमाल पर।
धरे हथेली गाल पर…।

गए क्षणों की पगध्वनियों को झेल रहा है कुहरा
मैं आवाज़ लगाने को हूँ- दिया सांझ का मना कर रहा-
कहता ठहर, न गुहरा !
देख कि कल तक घुटनों के बल चलने वाला चाँद
आज बाँटने स्वप्न रुपहले-क्षितिजों के झुरमुट से उभरा
ठण्डी हँसी उछालकर।
धरे हथेली गाल पर…।

थम-सा गया आज कल मन का दूर-दूर तक जाना।
बहुत भला लगता है अब तो- उकड़ूँ बैठे हरी घास पर-
अपने को दुहराना ।
काश कि कोई आकर मुझसे फिर न कभी कुछ कहता
नन्हा तिनका लिए हाथ में- यों ही जीने की तबियत करती है
पूरे साल भर।
धरे हथेली गाल पर…।

मोची की आँखों में 

आँखें उठी हुई हैं
आदम कद आस्था कि एक स्त्री खड़ी है सामने
कठवत के पानी को गंगा में बदलने की शक्ति से भरपूर
एक चंगा मन सहेजे अपने भीतर
मोची की आँखों में
सिर्फ़ राँपी नहीं हो सकती है कोई स्त्री

आँखें उठी हुई हैं
इतिहास का एक पन्ना खड़ा है सामने
पूरे परिदृश्य में सम्मान की तरह
व्यवधान से थोड़ा ऊपर, नीचे थोड़ा आग्रह और निवेदन से
मोची की आँखों में
सिर्फ़ सूजा नहीं हो सकता है कोई पुरुष

आँखें उठी हुई हैं
सामने बच्चे की शक्ल में खड़ा है पुष्पित अनुराग
पंखुड़ी-पंखुड़ी खुलकर खिलने का सपना परोसता
हास की सुगंध से सुवासित करता मन को
मोची की आँखों में
सिर्फ़ सूता नहीं हो सकता है कोई भी बच्चा

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।

तुमने कहाँ लड़ा है कोई युद्ध

कमज़ोर घोड़ों पर चढ़कर युद्ध नहीं जीते गए कभी
कमज़ोर तलवार की धार से मरते नहीं है दुश्मन
कमज़ोर कलाई के बूते उठता नहीं है कोई बोझ

भयानक हैं जीवन के युद्ध
भयानक है जीवन के शत्रु
भयानक हैं जीवन के बोझ

तुमने कहाँ लड़ा है कोई यद्ध ?
कहाँ उठाई है तलवार अभी तुमनें?
कहाँ संभाला है तुमने कोई बोझ ?

यथार्थ के पत्थर
कल्पना की क्यारियों को
तहस-नहस कर देते हैं।

कद्दावर घोड़ों
मजबूत तलवारों
दमदार कलाईयों के बिना
मैदान मारने की बात बे-मानी है।

आत्महत्या का रास्ता उधर से भी है
जिधर से गुजरने की नासमझ तैयारी में
रात को दिन कहने की जिद कर रही हो तुम।

युद्ध
कमज़ोर घोड़ों पर चढ़कर
कभी नहीं जीते गए

रचनाकाल : 1992 मसोढ़ा

आपकी नज़रों तक हम पहुँचे कुछ मख़सूस ख़यालों से

आपकी नज़रों तक हम पहँचे कुछ मख़सूस ख़यालों से
लोग तो दिल तक आ जाते है चलकर चंद सवालों से

ख़ैर हो उनकी जिनके लब तक उन हाथों से जाम गए
जिन हाथों ने फूल चुने हैं पेड़ से बिछड़ी डालों से

आँखों में पानी, मन में बादल, होंट पे चुप्पी बैठी कोई
दिल से दिल की बात हुई है दो हिलते रूमालों से

जिनके घर की छत से होकर सूरज रोज़ गुजरता है
उन तक कोई किरन न पहुँची पिछले अनगित सालों से

बे दस्तक-बेजान घरों के दरवाज़े मुँह खोल न दें
आज तो कमरों की तस्वीरें उलझी हैं दीवालों से

साबित चेहरा लेकर कैसे आज ‘शलभ’ तुम घूम रहे
झाँक रहे हैं टूटे-टूटे दरपन घर के आलों से

चाँद पहाड़ी के पिछवाड़े मुँह लटका कर बैठ गया
रूठ गया हो जैसे कोई अपने ही घर वालों से

रचनाकाल : 14 मार्च 1984, आगरा

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।

आपने जिसमें रंग भरा था, वह तस्वीर बदल गई है

आपने जिसमें रंग भरा था, वह तस्वीर बदल गई है
अब तो कानों-कान चलेगी, आख़िर बात निकल गई है

नीद में खोए तिफ़्ल के मुँह से रंग-बिरंगे फूल झरे
शायद पिछली भोर की लाली दीप की लौ में ढल गई है

टूटी किश्ती, दूर किनारा, सर पर है घनघोर घटा
ऐसे में तफ़ानों की नीयत भी चुपचाप बदल गई है

साहिल-साहिल शोर बया है दरिया-दरिया चर्चा है
आज किसी माँझी की शायद तूफ़ानों से चल गई है

मावस का मतलब बेटी की दुखिया माँ समझती है
भूख की मारी रात अचानक चाँद को आज निगल गई है

बाप की इज्ज़त मांग के सपनों से टकरा कर टूट गई है
ख़ून में डूबी रेल की पटरी, चीख़ हवा को चीर गई है

घटना तो कुछ ख़ास नहीं है, बात किसी की टल गई है
फूल से तन में आग लगा कर एक सुहागन जल गई है

सबने शलभ को हँसते देखा पत्थर की बौछारों में
आपके हाथ से लगने वाली फूल की पँखुरी खल गई है

रचनाकाल : 15 मार्च 1984

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।

रुत की नई किताब-सी खुलने लगी है वह 

गर्मी की दोपहर का रंग ज़िस्म पर लिए
ख़ुशबू की तरह साँस में घुलने लगी है वह

देखा निगाह भर के तो पलकें फड़क उठीं
रुत की नई किताब सी खुलने लगी है वह

रचनाकाल : 25 अगस्त 1984

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।

ये सदाओं की बात चलने दो 

ये सदाओं की बात चलने दो
अब असाओं की बात चलने दो

बावफ़ाई है सर निगूँ जिन से
बेवफ़ाओं की बात चलने दो

अब दुआओं से घुट रहा है दम
बददुआओं की बात चलने दो

अब्रे-जुल्मत निगल गया जिनको
उन शुआओं की बात चलने दो

जिनकी तामीर है जहाने-अमल
उन ख़ुदाओं की बात चलने दो

जिनकी अजमत रही शोला नशीं
उन अनाओं की बात चलने दो

ज़िक्रे-आतिश बहुत हुआ यारो
अब हवाओं की बात चलने दो

रोशनी को जहाँ पनाह मिले
उन फजाओं की बात चलने दो

मंज़िले जिनका इंतेख़ाब करें
ऐसे पाँवों की बात चलने दो

जिनके होने से हो गया हूँ ’शलभ’
उन खताओं की बात चलने दो

रचनाकाल : 03 फ़रवरी 1982,

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।

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