Skip to content

शान-उल-हक़ हक़्क़ी की रचनाएँ

ऐ दिल अब और कोई क़िस्सा-ए-दुनिया न सुना

ऐ दिल अब और कोई क़िस्सा-ए-दुनिया न सुना
छेड़ दे ज़िक्र-ए-वफ़ा हाँ कोई अफ़्साना सुना

ग़ीबत-ए-दहर बहुत गोश-ए-गुनहगार में है
कुछ ग़म-ए-इश्क़ के औसाफ़-ए-करीमाना सुना

कार-ए-दीरोज़ अभी आँखों से कहाँ सिमटा है
ख़ूँ रूलाने के लिए क़िस्सा-ए-फ़र्दा न सुना

दामन-ए-बाद को है दौलत-ए-शबनम काफ़ी
रूह को ज़िक्र-ए-तुनुक बख़्शी-ए-दरिया न सुना

सुनते हैं उस में वो जादा है कि दिल चीज़ है क्या
सुनते हैं उस पे वो आलम है कि देखा न सुना

गोश-ए-बेहोश वो क्या जिस ने कि हंगाम-ए-नवा
कोई नाला ही लब-ए-नय से निकलता न सुना

हम-नशीं पर्दगी-ए-राज़ इसके कहते हैं
लब-ए-साग़र से किसी रिंद का चर्चा न सुना

कुछ अजब चाल से जाता है ज़माना अब के
हश्र देखे हैं मगर हश्र का ग़ौग़ा न सुना

बढ़ गया रोज़-ए-क़यामत से शब-ए-ग़म का सुकूत
जिस्म-ए-आदम में कहीं दिल ही धड़कता न सुना

नौहा-ए-ग़म कोई उस बज़्म में छेड़े क्यूँकर
जिस ने गीतों को भी बा-ख़ातिर-ए-बेगाना सुना

इक महक सी दम-ए-तहरीर कहाँ से आई

इक महक सी दम-ए-तहरीर कहाँ से आई
नाम में तेरे ये तासीर कहाँ से आई

पहलू-ए-साज़ से इक मौज-ए-हवा गुज़री थी
ये छनकती हुई ज़ंजीर कहाँ से आई

दम हमारा तो रहा हल्क़ा-ए-लब ही में आसीर
बू-ए-गुल ये तिरी तक़दीर कहाँ से आई

अहल-ए-हिम्मत के मिटाने से तो फ़ारिग़ हो ले
दहर को फ़ुर्सत-ए-तामीर कहाँ से आई

गो तरसता है अभी तक तिरी तहरीर को दिल
फिर भी जाने तिरी तस्वीर कहाँ से आई

यूँही हो जाता है क़िस्मत से कोई ग़म बेदार
इश्क़ के हाथ में तदबीर कहाँ से आई

किस तरफ़ जाते हैं यारो ये बिगड़ते हुए नक़्श
ये सँवरती हुई तस्वीर कहाँ से आई

लहन-ए-बुलबुल का चला कौन से गुल पर अफ़्सूँ
सिर्फ़ इक तर्ज़ है तासीर कहाँ से आई

पड़ गया सोज़-ए-सुख़न हाथ हमारे क्यूँकर
ख़ाक होने को ये इक्सीर कहाँ से आई

इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है

इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है
शब को आ कर मिरे आग़ोश में सो जाती है

ये निगाहों के अंधेरे नहीं छटने पाते
सुब्ह का ज़िक्र नहीं सुब्ह तो हो जाती है

रिश्ता-ए-जाँ को सँभाले हूँ कि अक्सर तिरी याद
इस में दो-चार गुहर आ के पिरो जाती है

दिल की तौफ़ीक़ से मिलता है सुराग़-ए-मंज़िल
आँख तो सिर्फ़ तमाशों ही में खो जाती है

कब मुझे दावा-ए-इस्मत है मगर याद उस की
जब भी आ जाती है दामन मिरा धो जाती है

नाख़ुदा चारा-ए-तूफ़ाँ करे कोई वर्ना
अब कोई मौज सफ़ीने को डुबो जाती है

कर चुका जश्न-ए-बहाराँ से मैं तौबा ‘हक़्की’
फ़स्ल-ए-गुल आ के मिरी जान को रो जाती है

नज़र चुरा गए इज़हार-ए-मुद्दआ से मिरे 

नज़र चुरा गए इज़हार-ए-मुद्दआ से मिरे
तमाम लफ़्ज़ जो लगते थे आश्ना से मिरे

रफ़ीक़ो राह के ख़म सुब्ह कुछ हैं शाम कुछ और
मिलेगी तुम को न मंज़िल नुक़ूश-ए-पा से मिरे

लगी है चश्म-ए-ज़माना अगरचे वो दामन
बहुत है दूर अभी दस्त-ए-ना-रसा से मिरे

यहीं कहीं वो हक़ीक़त न क्यूँ तलाश करूँ
जिसे गुरेज़ है औहाम-ए-मा-वरा से मिरे

गिराँ हैं कान पे उन के वही सुख़न जो अभी
अदा हुए भी नहीं नुत्क़-ए-बे-नवा से मिरे

खुला चमन न हवा में फिर ऐ नक़ीब-ए-बहार
अभी तो ज़ख़्म हरे हैं तिरी दुआ से मिरे

नशात ओ रंग के ख़ूगर मुझे मुआफ़ रखें
छलक पड़े जो लहू साज़-ए-ख़ुश-नवा से मिरे

निकले तिरी दुनिया के सितम और तरह के

निकले तिरी दुनिया के सितम और तरह के
दरकार मिरे दिल को थे ग़म और तरह के

तुम और तरह के सही हम और तरह के
हा जाएँ बस अब क़ौल-ओ-क़सम और तरह के

बुत-ख़ाने का मंज़र ब-ख़ुदा आज ही देखा
थे मेरे तसव्वुर में सनम और तरह के

करती हैं मिरे दिल से वो ख़ामोश निगाहें
कुछ रम्ज़ इशारों से भी कम और तरह के

ग़म होते रहे दिल में कम-ओ-बेश व लेकिन
बेश और तरह के हुए कम और तरह के

मायूस तलब जान के इस दश्त-ए-हवस में
यारों ने दिए हैं मुझ दम और तरह के

रहती है किसी और तरफ़ आस नज़र की
हैं वक़्त के हाथों में अलम और तरह के

रहबर का तो अंदाज़-ए-क़दम और ही कुछ था
हैं क़ाफ़िले वालों के क़दम और तरह के

कुछ और हैं उस हुस्न-ए-बसंती की अदाएँ
हैं नाज़ निगारान-ए-अजम और तरह के

कहते हो कि फीकी सी रूनखी सी हैं ग़ज़लें
लो शेर सुनाएँ तुम्हें हम और तरह के

ये किस ने किया याद कहाँ जाते हो ‘हक़्क़ी’
कुछ आज तो पड़ते हैं क़दम और तरह के

रू भी अक्स-ए-रू भी मैं

रू भी अक्स-ए-रू भी मैं
मैं भी मैं हूँ तू भी मैं

ख़ुद से बच कर जाऊँ कहाँ
हूँ गोया हर सू भी मैं

ले कर रूख़ पर इतने कलंक
लगता हूँ ख़ुश-रू भी मैं

शामिल-ए-मय पैमाना भर
पीता हूँ आँसू भी मैं

सदक़े मैं उन आँखों के
सीख गया जादू भी मैं

उस की बज़्म-ए-नाज़ से दूर
उस के हम-पहलू भी मैं

दीद से बे-परवा हो कर
शौक़ से बे-क़ाबू भी मै।

बैर ही रखता मुझ से सनम
होता गर हिन्दू भी मैं

वाए तिलिस्म-ए-नक़्श-ए-फ़रंग
भूल गया उर्दू भी मैं

क़ाएल ख़ुद भी हूँ ‘हक़्क़ी’
शाग़िल-ए-इल्ला-हू भी मैं

समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती

समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती
चराग़ जलते हैं और रौशनी नहीं आती

किसी के नाज़ पे अफ़्सुर्दा-ख़ातिरी दिल की
हँसी की बात है फिर भी हँसी नहीं आती

न पूछ हैअत-ए-तरफ़-ओ-चमन कि ऐसी भी
बहार बाग़ में बहकी हुई नहीं आती

हुजूम-ए-ऐश तो इन तीरा-बस्तियों में कहाँ
कहीं से आह की आवाज़ भी नहीं आती

जुदाइयों से शिकायत तो हो भी जाती है
रिफ़ाक़तों से वफ़ा मेें कमी नहीं आती

कुछ ऐसा मह्व है असबाब-ए-रंज-ओ-ऐश में दिल
कि ऐश ओ रंज की पहचान ही नहीं आती

सज़ा ये है कि रहें चश्म-ए-लुत्फ़ से महरूम
ख़ता ये है कि हवस पेशगी नहीं आती

ख़ुदा रखे तिरी महफ़िल की रौनक़ें आबाद
नज़ारगी से नज़र में कमी नहीं आती

बड़ी तलाश से मिलती हैं ज़िंदगी ऐ दोस्त
क़ज़ा की तरह पता पूछती नहीं आती

उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक 

उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक
देखी अगरचे राह-ए-ख़िज़ाँ से बहार तक

रखने को तेरे वादा-ए-ना-मो‘तबर की लाज
झेली है दिल ने ज़हमत-ए-सब्र-ओ-क़रार तक

देखा किस ने मुँह सहर-ए-जल्वा-साज़ का
सब वलवले हैं एक शब-ए-इंतिज़ार तक

सय्याद के सितम से रिहाई का ज़िक्र क्या
सौ दाम थे क़फ़स से सर-ए-शाख़-सार तक

मातम ये है कि ज़ौक़-ए-फुग़ाँ भी नहीं नसीब
बे-सोज़ हो गया नफ़स-ए-शोला-कार तक

जाती है दिल की हसरत-ए-नज़्ज़ारगी कहाँ
नज़ारा हो गया है निगाहों पे बार तक

क्या उस की शान-ए-बंदा-नवाज़ी का पूछना
बख़्शा है मुफ़लिसों को ग़म-ए-शाह-वार तक

फिर उस के बाद दिल में न उतरी कोई निगाह
वो तेज़ियाँ रहीं तिरे ख़्ंाजर की धार तक

‘हक़्क़ी’ से सरगिराँ ही सही नुक्ता-दान-ए-शेर
इक रंग है कि है कुछ इसी जान-ए-हार तक

Leave a Reply

Your email address will not be published.