Skip to content

शार्दुला नोगजा की रचनाएँ

तेरे बिना

सच कहूँ तेरे बिना ठंडे तवे सी ज़िंदगानी
और मन भूखा सा बच्चा एक रोटी ढूँढता है
चाँद आधा, आधे नंबर पा के रोती एक बच्ची
और सूरज अनमने टीचर सा खुल के ऊंघता है !

आस जैसे सीढ़ियों पे बैठ जाए थक पुजारिन
और मंदिर में रहे ज्यों देव का श्रृंगार बासी
बिजलियाँ बन कर गिरें दुस्वप्न उस ही शाख पे बस
घोंसला जिस पे बना बैठी हो मेरी पीर प्यासी !

सच कहूँ तेरे बिना !

पूछती संभावना की बुढ़िया आपत योजनायें
कह गया था तीन दिन की, तीन युग अब बीतते हैं
नाम और तेरा पता जिस पर लिखा खोया वो पुर्जा
कोष मन के और तन के हाय छिन छिन रीतते हैं !

सच कहूँ तेरे बिना मेरी नहीं कोई कहानी
गीत मेरे जैसे ऊंचे जा लगे हों आम कोई
तोड़ते हैं जिनको बच्चे पत्थरों की चोट दे कर
और फिर देना ना चाहे उनका सच्चा दाम कोई !

सच कहूँ तेरे बिना !

प्यार का रंग ना बदला

परिवर्तन के नियम ठगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
अब तक है उतना ही उजाला !

आम का पकना, रस्ता तकना
पगडंडी का घर घर रुकना
कोयल का पंचम सुर गाना
हर महीने पूनम का आना
अरे कहो! कब व्रत है अगला ?
तीज, चौथ कब, कब कोजगरा ?
क्या कहते हो सब कुछ बदला !
गाँव का मेरे ढंग ना बदला !

आम मधुर, रस नेह पगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
होली के हुड़दंग सा पगला !

इक पल जो घर आँगन दौड़ा
चढ़ भईया का कंधा चौड़ा
आज अरूण रंग साड़ी लिपटा
खड़ा हुआ है वह पल सिमटा
उस पल को आँखों में भरता
छाया माँ मन कोहरा धुंधला !
अभी चार दिन पहले ही तो
पहनाया चितकबरा झबला !

माँ के आगे सब बच्चे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
हर सागर है उससे उथला !

नयन छवि बिन, गगन शशि बिन
माधव बिन ज्यों राधा के दिन
कृषक मेह बिन, दीप नेह बिन
शरद ऋतु में दीन गेह बिन
उतना की कम खेत को पैसा
जितना हाथ अनाज ने बदला
जल विहीन मन बिना तुम्हारे
मीन बना तड़पा और मचला !

कष्ट जगत के बहुत बड़े हैं
प्यार का रंग हो जाता धुंधला !
आज बुद्ध तज घर फिर निकला !

कद्दू पे बैठी दो बच्चियाँ 

रूप ले ले मेरा, रंग भी छीन ले
ये कमर लोच रख, ये नयन तीर ले !
वो जो कद्दू पे बैठी हैं दो बच्चियाँ
ओ उमर तू मुझे बस वहीं छोड़ दे !

बस समय मोड़ दे !

आ उमर बैठ सीढ़ी पे बातें करें
आंगनों में बिछे, काली रातें करें
फूल बन कर कभी औ’ कभी बन घटा
माँ से नज़रें बचा पेड़ पे जा चढ़ें !

आ ये पग खोल दे !

क्या तुझे याद है सीपियाँ बीनना
दूर से आम कितना पका चीन्हना
और चुपके से दादी के जा सामने
चाचियों का बढ़ा घूँघटा खींचना !

पल वो अनमोल दे !

वो जो भईया का था छोटा सा मेमना
उसकी रस्सी नरम ऊन ला गूंथना
बस मुझे तू वहीँ छोड़ आ अब उमर
चारागाहों में भाता मुझे घूमना !

पट खुले छोड़ दे!

सूरज से मेरे दादाजी

सूर्य किरण फिर आज पहन के एक घड़ी जापानी
कमरे में आयी सुबह-सवेरे, मिन्नत एक ना मानी
हाय! तिलस्मी सपनोंं में मैं मार रहा था बाज़ी
और हैं दादा जी, “जल्दी उठ्ठो” आवाज़ लगा दी !!

बिल्कुल मेरे दादू जैसा ही है ये सूरज भी
सुबह इसे आराम नहीं, ना देर रात धीरज ही !
“जल्दी सोना, जल्दी उठना”, यही राग ये गाते
ऊपर से हर रोज़ एक सा गाते, गीत सुनाते !

“*नाक में उंगली, कान में तिनका
मत कर, मत कर, मत कर !
दाँत में मंजन, आँख में अंजन
नित कर, नित कर, नित कर !”*

ज़रा कहो तो “टूथ ब्रश” को मंजन कौन है कहता ?
और कौन सी नाक ना जिसमें आंगुर घुसा है रहता !
आँख में अंजन, यानी काजल, मैं लगाऊं ? पागल हूँ !!
दादा जी जो सूर्य चमकते, मैं चंचल बादल हूँ !

लड़ता रहता हूँ मैं उनसे, हम हैं यार घनेरे
माँ के बाद वही तो हैं ना सबसे अपने मेरे
अपने मन की बात सभी मैं झट उनसे कह देता
और ना सोता रात में जब तक किस्से ना सुन लेता !

दादा जी ने ही सिखलाया, नहीं माँगना कुछ ईश्वर से
और नहीं कुछ माँगा करता मैं भी दादा जी के डर से
एक बात बस आप से कहता, दादाजी को नहीं बताएं
हूँ मैं चाहता मेरे बच्चों को दादू ही गा के उठाएं !

सूरज से मेरे दादाजी!
मेरे काबा, मेरे काशी !

नाम ले मुझको बुलाओ

ओ नदी ! मैं बन के धारा
या कि बन दूजा किनारा
संग तेरे चल पडूँगी, नाम ले मुझको बुलाओ

दधि कसैला पात्र पीतल
पात्र बस चमका रे पागल
तर्क की तलवार से भयी
भावना भयभीत घायल

ओ प्रिये! तुम स्वर्ण मन में
अहं का दधि ना जमाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

जो निशा से भोर का
प्राची-प्रतीची छोर का
बंध मेरा और तुम्हारा
जो घटा से मोर का

तुम समय के कुन्तलों को
मोर पंखों से सजाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

तुहिन कण सी उज्ज्वला जो
चन्द्रिका सी चंचला जो
पात पे फिसली मचलकर
स्निग्ध निर्मल प्रीति थी वो

है अड़ी नवयौवना सी
पाँव इसके गुदगुदाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

पथिक ऐसे थोड़े गिन के
साथ हैं मनमीत जिनके
हम मिले हैं सुन सजनवा
साज और संगीत बन के

राह की संगीतिका को
मिलन धुन में ना भुलाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

नाम ले मुझको बुलाओ !

उठ चल मेरे मन

हो विलग सबसे, अकेला चल पड़ा तू
एक अपनी ही नयी दुनिया बसाने
तूफ़ान निर्मम रास्ते के शीर्य तुझ को
मन! ना घबरा, गीत जय के गुनगुना ले !

स्वर्ण, रजत व कांस्य घट ले नित्य दिनकर
भर रहा अंबर की नीली झील में क्षण
गा रहे खग के समूह तज नीड़ अपना
तू भी मगन दोहरा नव निर्माण के प्रण

ले विदा तू हाथ जिनको जोड़ आया
कर गहेंगी स्मृतियाँ तेरे बालपन की
ओ मेरे मन! राह से ना विलग होना
खींचें अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की

एक मुठ्ठी धरा, एक टुकड़ा गगन का
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में
वेग मरुतों का ढला बन श्वास प्रतिपल

विलय तुझ में हैं सकल अवरोध पथ के
नीतियाँ तुझ में ही जयश्री के वरण की
तू स्वयं ही द्वारपालों सा खड़ा मन
तुझ से निकलती सीढियाँ अंतिम चरण की

उठ मेरे मन दूर तू इस घाट से चल
तोड़ चल तू मोह के सब बन्धनों को
राह की कठिनाईयाँ तकतीं हैं रस्ता
दे नया तू अर्थ मानव जीवनों को !

उठ चल मेरे मन !
चल !

मौसम की ये कारस्तानी 

वन में आग लगा कर चंचल
टेसू मन ही मन मुस्काता
कब आओगे दमकल ले कर
रंग-बिरंगे फागुन दादा?

कोयल फिर सुर की कक्षा के
अभ्यासों में जुटी हुई है
और मेघ की नटखट टोली
कर के मंत्रणा घुटी हुई है!

एक बूंद भी नहीं बरसती
देख हँसी दूब को आयी
होता है हर साल यही तो
कह मेंढक ने ली जंभाई।

बालक सा मन पढ़ने लगता
पंचतंत्र की कथा पुरानी
नया साल फिर ले आया है
बातें सब जानी पहचानी।

दुनियावी सवाल सुलझाते
याद हमें आ जाती नानी
पर मन को शीतल कर जाती
मौसम की ये कारस्तानी!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे

खिलते हैं सखि वन में टेसू
फागुन भी अब आता होगा
धरती ओढ़े लाल चुनरिया
गीत गगन मृदु गाता होगा।

पगड़ी बाँधे अरुण पात की
वृक्ष खड़े हैं श्रद्धानत हो
स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!
रश्मि रोली, मेघ अक्षत लो।

हरित पहाड़ों की पगडंडी
रवि दर्शन को दौड़ी आये
चित्रलिखित सा खड़ा चन्द्रमा
इस पथ जाये, उस पथ जाये?

आज क्लांत मत रह तू मनवा
तू भी धवल वस्त्र धारण कर
स्वयं प्रकृति से जुड़ जा तू भी
सकल भाव तेरे चारण भर!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!

पाँव नदी में धो आते हैं

यादों के जब थके मुसाफिर, पाँव नदी में धो आते हैं
देर रात तक चूल्हे जल के, गंध पाहुनी बिखराते हैं।

माँ-बाबूजी के दुलार का, हाथ रहे जब सर के ऊपर
चाहे दिशाशूल में निकलूँ, कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं।

बहना ने भेजी जो हमको, हँसी ठिठोली चिट्ठी में भर
जब भी उनको खोल पढ़ूँ मैं, याद सुनहरी बो जाते हैं।

कितने सालों बाद जो ननदी, घर सबसे मिलने आती है
गठिया वाले पाँव हैं चलते, दर्द पुराने खो जाते हैं।

आंगन में आता है जब भी सावन का हरियल सा महीना
बिना तुम्हारे पिया ये प्यासे नयन कटोरी हो जाते हैं।

तेरी मेरी प्रीत निराली

तेरी मेरी प्रीत निराली
तू चन्दा है नील गगन का
मैं पीतल की जलमय थाली!

क्या तूने देखा धारा को
सीपी मुक्ता माल पिरोते?
क्या तूने देखा बंसी को
छिद्रयुक्त हो सुर संजोते?
क्या मलयज भी सकुचाती है
धवल गिरि के सम्मुख होते?
क्यों घबराती पिया मैं तन मन
तेरा जो तुझ पर ही खोते?

तू नीलाभ गगन का स्पन्दन
मैं धूलि हूँ पनघट वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

हो रूप गुणों से आकर्षित यदि
तेरी चेतना मुझ तक आती
कैसे फिर मेरे शून्यों को
अपने होने से भर पाती!
डोर प्रीत की तेरी प्रियतम
खण्ड मेरे है बाँधे जाती!
तेल बिना क्या कभी वर्तिका
जग उजियारा है कर पाती?

दिनकर! तेरे स्नेह स्पर्श बिन
नहीं कली ये खिलने वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

धरा संजोती जैसे अंकुर
मुझे हथेली में तू रखता
अपनी करुणा से तू ईश्वर
मेरे सब संशय है हरता!
प्राण मेरे! बन प्राण सुधा तू
पल-पल प्राणों में है झरता!
जग अभिनन्दन करता जय का
दोषों पर मेरे तू ढरता!

नहीं मुझे अवलम्बन खुद का
तू ही भरता मेरी प्याली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

तू शंकर का तप कठोर
मैं एक कुशा माँ सीता वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

१० दिसम्बर ०८

अभिनन्दन

स्थूल में और सूक्ष्म में सौन्दर्य जो, उनको समर्पित
व्यक्त और अव्यक्त में सिमटी हुई सारी ऋचायें,
है समर्पित फूल हर, खिलता हुआ जन में,विजन में
और हर रंग के अधर, पा कर खुशी जो मुस्कुरायें।

थाल पूजा का सजा, धो कर रखी सब भावनायें
नववधू की हिचकिचाहट, शिशु देखती माँ की ललक भी,
संस्कारों में रंगी हल्दी, सुपारी और मेंहदी,
ज्ञान के कुछ श्वेत चावल, प्रीति का अरुणिम तिलक भी।

और दीपक आस के, विश्वास के मन में जला कर
आज स्वागत कर रही हूँ द्वार पर जा कर उषा के,
मधुरिमा मधु-मिलन मंगल, मांगलिक मानस में मेरे
देखो, अंबर झुक गया पदचाप सुन शंकर-उमा के!

अभिनन्दन उनको दिवस का!
मिलन हो सुख और सुयश का!

प्रकृति जितना देती है 

जहाँ हँसे हैं लाल फूल, वहाँ
नीले भी अक्सर खिल जाते
निश्छलता कितनी प्रकॄति में
रंग दूर के घुल-मिल जाते!

सुघड़ पेड़ के पास खड़े
मुँह बाये, तकते नहीं अघाते
कितने सुकुमार ललायित अंकुर
बूँद स्नेह की पा सिंच जाते!

और कभी संध्या प्रभात मिल
दोनों जब खुल के गपियाते
सूरज दादा देर गये तक
रिरियाते छुट्टी ना पाते!

कभी पवन का बैग खोलते
कभी बरखा की बूंदों के खाते,
काश! प्रकृति जितना देती है
अंश मात्र उसको लौटाते!

१३ नवम्बर ०८

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की
बस आज ये सिंगार कर ले,
स्टील, लोहा, सोना, चांदी
जो मिले, ले रीढ़ मढ़ ले!

तू पीठ सीधी . . .

आज तू काजल लगा ना
अपनी कलम स्याही से भर ले,
झूमर में हैं जो दो सितारे
कर यत्न, आँखों में उतर लें!

तू पीठ सीधी . . .

गूढ़तम जो प्रश्न होगा
लौटेगा अनुत्तरित समझ ले
ना रामशलाकाप्रश्नावली ये जीवन
तू जी इसे, उत्तरित कर ले!

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की!

१० नवम्बर ०८

गुडमार्निग सूरज 

सुबह उठी तो ये क्या देखा
वान गो की पेंटिंग जैसा
सूर्यमुखी का पीलापन ले
आज निखर आया है सूरज!

शाम लगाई डुबकी जल में
और बादलों से मुँह पोंछा
लाली लगा कमलदल वाली
कितना इतराया है सूरज!

आजा तुझ को मजा चखाऊँ
डुबो चाय में मैं खा जाऊँ
पा कर मेरे प्यार की झप्पी
कितना शरमाया है सूरज!

आज बांध कर चुन्नी में मैं
अमलतास पे लटका दूँगी
रंगोगे क्या जीवन सबके
सुन क्यों घबराया है सूरज!

७ नवम्बर ०८

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा
याद में तेरी ना वो जोगन बनेगी
ईंट, पत्थर, पानी और आलाव का घर
सेंक रोटी हाथ की रेखा दहेगी

वह नदी जो जंगलों में बह रही है
मानिनी सागर से जा कर ना मिलेगी
हर लहर हो वाष्पित अंत: तपन से
याद के दीपक विसर्जित कर जलेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

क्यों बंधा ये बंध तुझ से, वो ना समझी
रेशमी ये गांठ तुझसे ना खुलेगी
तोलता जिसमें है तू कुछ काँच, हीरे
खुशबूएं ये उस तराज़ू ना तुलेंगीं

होंठ पे गुड़मुड़ रखी एक मुस्कुराहट
देखना, कुछ ही पलों में खिल हँसेगी
फिर कहेगी गीत से, तू क्यों खड़ा है
जिन्दगी की टेक है, चलती रहेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

२ नवम्बर ०८

याद कुछ पक्का नहीं है 

है अनिश्चित वह घड़ी, बैठे हुए या हम खड़े थे
याद इतना है भंवर दो, गाल पर गहरे पड़े थे
चूमती थी तब गुलाबी चूनरी का छोर धरती
ढीठ थे कुछ पर्ण सूखे, कंटकों में सिल जड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

ये कमल लाये कहाँ से, पूछ कर तुम हँस दिये थे
कह न कारण मैं सका, क्यों बूट कीचड़ में मढ़े थे
और हमने साथ में “सिज़लर” कहा जब रेस्तरां में
आँख तो मिल न सकीं थीं, होंठ पर, दहके बड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

हाजिरी में ज्यामिती की नाम बोला था तुम्हारा
हाथ मेरा उठ गया था, शर्म के फ़ूटे घड़े थे
सिर्फ़ तुमको ही पढ़ा, मैं अनुसरण करता रहा था
हार कर भी खुश हुआ ज्यों जीत के झंडे गड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

क्षण नहीं हैं प्रेम के बस, प्रीत जब गहरी हुई थी
तप्त होकर पीर से पक्के हुए जीवन-घड़े थे
आज गिन कर वक्त नापें अर्थहीना हो गया है
लग रहा अनगिन जनम से संग अपने पग बढ़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

१७ अक्तूबर २००८

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी

पेड़ों के झुरमुट से छन के जो आती
धवल धूप क्या याद मुझ को दिलाती
हरे खेतों की जो मड़ैया से जाता
थका-हारा राही मधुर गीत गाता

चूड़ा-दही-खाजा और कुछ बराती
अनब्याही दीदी मधुर सुर में गातीं
अभी दाई गोबर की थपली थपेगी
माँ भंसाघर में जा पूये तलेगी

सिल-बट्टे पे चटनी पीसे सुनयना
“किसी ने निकाला जो देना है बायना?”
“अभी लीपा है घर!”, उफ! बड़के भईया
चिल्ला रहे पर्स खोंसे रुपैया

आँधी में दादी हैं छ्प्पर जुड़ातीं
भागे हम झटपट गिरें आम गाछी
वो मामू का तगड़ा कंधा सुहाना
जिस पे था झूला नम्बर से खाना।

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी
नमक-तेल-मिर्ची और रोटी बासी।

०९ अक्तूबर ०८

गीतकार

लेखनी से जब गिरें
झर स्वर्ग के मोती
पाने को उनको सीपियाँ
निज अंक हैं धोतीं।
कोई चले घर छोड़ जब
अहम् , दुख , सपने
उस केसरी आँचल तले
आ सभ्यता सोती।

जब तू शिशु था ईश ने आ
हाथ दो मोती दिये
एक लेखनी अनुपम औ’ दूजे
भाव नित सुरभित नये।
ये हैं उसी की चिर धरोहर
तू गा उसी का नाम ले
जो नाव सब की खे रहा
उसे गीत उतराई तू दे।

तू गीत उन्नत भाल के रच
मन को तू खंगाल के रच
कृष्ण के कुन्तल से लिपटे
गीत अरुणिम गाल के रच।
तू दलित पे गीत लिख
और गीत लिख तू वीर पे
जो मूक मन में पीर हो
उसको कलम की नीर दे।

तू तीन ऐसे गीत रच जो
भू-गगन को नाप लें
माँ को, प्रभु को पाती लिख
लिख प्रेम को निष्काम रे।
ये गीत मेरा जो तुम्हारे
पाँव छूने आ रहा
जिस ठाँव तू गाये
ये उसकी धूल बस हटला रहा।

०५ अक्टूबर ०९

ज़िन्दगी के तीन दिन

दे सको तो दो प्रिये मुझे ज़िन्दगी के तीन दिन
एक दिन उल्लास का, मृदु हास का, उच्छ्वास का
एक दिन रस-रास का, सहवास का, सुवास का
एक दिन पूजा का, श्रद्धा का, अमर विश्वास का .

वो दिन कि जिसमें तुम हो, मैं हूँ, तीसरा कोई नहीं हो.

वो दिन कि तुम नदियों से दूजी कह दो तुम में ना समायें
वो दिन कि माज़ी याद ले के दूसरी कोई ना आये
वो दिन कि जिसमें साँस लो तुम, प्राण मेरे प्राण पायें
वो दिन कि जब ना दिन ढले ना शाम जिद्दी घर को जाये .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !

वो दिन कि जब ये सूर्य बोले स्वर्ण भी हूँ , अरूण भी हूँ
और बादल हँस के बोले वृद्ध भी हूँ , तरुण भी हूँ
प्रीति बोले त्याग हूँ मैं और प्रिय का वरण भी हूँ
चिति बोले ब्रह्म हूँ मैं और स्व का हरण भी हूँ .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !
दे सको तो दो प्रिये मुझे !

तेरी याद !

उफ़! तेरी याद की मरमरी उँगलियाँ
आ के काँधे पे लम्हें पिरोती रहें
जैसे सूने पहाड़ों पे गाये कोई
और नदियाँ चरण आ भिगोती रहें !

पगतली से उठे, पीठ की राह ले
एक सिहरन सी है याद अब बन गई
चाँदनी की किरण दौड़ आकाश में
सब सितारों को ले शाल एक बुन गई !

ताक पे जा रखा था उठा के उसे
तेरी ग़ज़लों को सीढ़ी बनाके हँसी
गीतों का ले सहारा दबे पाँव वो
उतरी है मुझसे नज़रें चुरा के अभी !

बन के छोटी सी बच्ची मचलने लगी
गोद में जा छुपी, हाथ है चूमती
चाहे डाटूँ उसे या दुलारूँ उसे
आगे-पीछे पकड़ पल्लू वो घूमती !

एक गमले में जा याद को रख दिया
घर गुलाबों की खुशबू से भर सा गया
जाने कब मैं बनी मीरा, तू श्याम बन
मेरे जीवन में छन्न-छन्न उतरता गया !

क्या समय के पहले समय नहीं था?

क्या समय के पहले समय नहीं था?
पानी से पहले नहीं था पानी?
खड़ा हठीला टीला ये जो, क्या इससे पहले रेत नहीं था?

और मृदा संग हवा कुनमुनी,
धूप, पात, वारि ने मिल कर,
स्वर मिश्री सा साधा उससे पहले सुर समवेत नहीं था?

तैरे आकाशी गंगा सूरज,
धरा ज्योति में गोते खाये,
इससे पहले सभी श्याम था, कोई आंचल श्वेत नहीं था ?

नाम नहीं था जब चीजों का,
प्रीत, पीर क्या एक नहीं थे?
ऐसा क्यों लगता है मुझको, जैसे इनमें भेद नहीं था ?

तुमने जो इतने भावों को,
ले छिड़काया मन में मेरे,
पहले भी ये ज़मीं रही थी, पर चिर नूतन खेत नहीं था !

(गेबरियल गार्सिया मार्क्वेज़ को समर्पित)

हमको ऐसे मिली ज़िंदगी ! 

इक मुड़ी जीन्स में, फँस गई सीप-सी
आँधियों से भरे, एक कृत्रिम द्वीप-सी

नाखूनों में घुसी, कुछ हठी रेत-सी
पेड़ बौने लिए, बोन्साई खेत-सी

टूटी इक गिटार-सी, क्लिष्ट व्यवहार-सी
नाम भी ना रहे याद, भूले प्यार-सी

फोटो बिन फ्रेम की, बस कुशल-क्षेम-सी
बारिशों से स्थगित एक क्रिकेट गेम-सी

हाथ से ढुल गई मय ना प्याले गिरी
शाम जो रात लौटी नहीं सिरफिरी

देने में जो सरल, सस्ते इक ज्ञान-सी
भाव से हो रहित, हाय! उस गान-सी

खोल खिड़की किरण जो ना घर आ सकी
धुन ज़हन में रही ना जुबाँ पा सकी

आदतों की बनी इक गहन रेख-सी
बस जो होती बहू में ही, मीन-मेख-सी

बी.एम.आई इंडैक्स सी, बिन कमाई टैक्स-सी
जो कि पढ़ ना सके, उड़ गये फैक्स-सी

हमको ऐसे मिली कि हँसी आ गई
फिर गले से लगाया तो शर्मा गई

ज़िंदगी प्यार के झूठे ई-मेल सी
पुल पे आई विलम्बित थकी रेल सी !

कौन मेरे दर्पण में ?

चित्र एक दिख गया नयन में, एक दिवस मुझको अनजाने
छोड़ दिया है तबसे मैंने दर्पण में खुद को निहारना
एक जीर्ण सी यष्टि अपरिचित, बाल पके भुट्टे के जैसे !
अंतरमन तराशती तब से, छोड़ दिया तन को निखारना !

कौन सत्य दिखला जाता है, और कौन है बनता रक्षक
कौन दर्प मेरा सीमित कर, बन जाता है पंथ-प्रदर्शक
कौन बाद जो है बसंत के ग्रीष्मऋतु सखि ले आता है
कौन चाक पे रखी उमरिया की माटी, घट कर जाता है ?

कौन मुझे जो फल देता है, और अधिक झुकना सिखलाता
कौन मेरा संशय दावानल प्रेम सुधा से सींचे जाता
कौन मुझे हँस कह देता है प्राप्ति नहीं कर प्रेम सखि री
और कौन मन के दर्पण में सत्-चित-आनंद भाव भरे री ?

सुन ओ निराकार तुम मेरे, गुरु बनो, बाँहें संभालो
डगर नयी, पग कोमल मेरे, तृष्णा की ये फांस निकालो !
कलुषित, तृण सम बहते मन को, करुणा से अपनी सहेज लो
बालक सा क्रंदन सिखलाओ, शब्द निरथर्क सारे ले लो !

कच्ची गणित का प्रश्न

दोस्त मैं कन्धा तुम्हारा जिस पे सर रख रो सको तुम
वेदना के, हार के क्षण, भूल जिस पे सो सको तुम
बाहें मैं जिनको पकड़ तुम बाँटते खुशियाँ अनोखी
कान वो करते परीक्षा जो कि नित नव-नव सुरों की ।

मैं ही हर संगीत का आगाज़ हूँ और अंत भी हूँ
मैं तुम्हारी मोहिनी हूँ, मैं ही ज्ञानी संत भी हूँ
शिंजनी उस स्पर्श की जिसको नहीं हमने संवारा
चेतना उस स्वप्न की जो ना कभी होगा हमारा ।

हूँ दुआयें मैं वही जो नित तुम्हारे द्वार धोयें
और वो आँसू जो तुमने आज तक खुल के ना रोये
मैं तपिश उन सीढियों की जो दुपहरी लाँघती हैं
और असमंजस पथों की जो पता अब माँगती हैं ।

प्रश्न वो कच्ची गणित का जो नहीं सुलझा सके तुम
शाख जामुन की लचीली जिस पे चढ़ ना आ सके तुम
मैं तुम्हारे प्रणय की पहली कथा, पहली व्यथा हूँ
मैं तुम्हारा सत्य शाश्वत, मैं तुम्हारी परी-कथा हूँ ।

मैं हूँ तीस्ता नदी ! 

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा ।

‘पत्थरों पे उछल के संभलना सखि’
मुझ से हंस के कहा इक बुरुंश फूल ने
अपनी चांदी की पायल मुझे दे गयी
मुझ से बातें करी जब नरम धूप ने ।

मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गयी मलयजें
मुझ से ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
हो के कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें ।

कितने धर्मों के पाँवों मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझ में आ घुल गयी
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले ।

झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गयी
चीड़ ने देख मुझ में संवारा बदन
आप आये तो मुझ में ज्यों जां आ गयी
आप से मिल के मेरे भरे ये नयन ।

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई !

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते

हर एक पग जो मैं चला था
वह तेरे पथ ही गया था ,
ज्ञात ना गन्तव्य था पर
लक्ष्य आ खुद सध गया था ।

तू ही है मनमीत मेरा
तू ही मेरा प्राणधन,
कस्तूरी मृग सा मैं भटकता
तू है गंधवाही पवन ।

तू रहे किस काल में
किस देस में, किस भेस में ,
इसकी नहीं परवाह करता
तुझ से विलग ना शेष मैं !

विश्रांति में तुझ को पुकारे
बाट संजोये सदा
वो खोज मैं, मैं वो प्रतीक्षा
मैं वो चातक की व्यथा ।

द्वंद जितने भी लड़ा था
और जो लिखा-गढ़ा था,
वो तेरे ही द्वार की
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ा था ।

आज जब मैं पास हूँ
क्यों मुझ से तू मुख फेरता,
मैं ना हरकारा कोई
जो जाये घर-घर टेरता ।

मैं तेरे संग बोल लूँ
तुझको तुझी से तोल लूँ
मैं तेरा ही अंश प्रियतम
क्या पूर्ण का मैं मोल दूँ ?

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी
कलिष्ट वो शब्द जो अनकहा रह गया
मैं वो पाती जो बरसात में भीग कर
इतना रोई कि सब अनपढ़ा रह गया ।

मैं हूँ रश्मिरथी की त्रिभुज सी किरण
चूम कर भूमि, रथ फिर चढ़ा ना गया
मैं कभी वाष्प बन, फिर कभी मेह बन
इतना घूमी कि मोती गढ़ा ना गया ।

मैं वो धुंधली परी, कल्पना से भरी
जिसके पंखों को ले कर समय उड़ गया
नीले घोड़े पे आया था छोटा कुंवर
पर उबलती नदी से परे मुड़ गया ।

मैं वो यौवन जो आभाव से ब्याह गई
मैं वो बचपन जो पूरा जिया ना गया
तृष्णा और तृप्ति के मध्य में मैं खडी
एक अरदास मन से पढ़ा ना गया ।

मैं वो जोगन जो मेंहदी रचे पाँव ले
राजघर तो चली पर रहा ना गया
मीरा की चाह में, राणा की आह! में
मैं वो दोहा जो पूरा कहा ना गया ।

मैं काश ! अगर तितली होती

मैं काश ! अगर तितली होती
नभ में उड़ती, गुल पे सोती ।

नवजात मृदुल पंखुडियों का
पहला-पहला क्रन्दन सुनती
अंकुर के फूट निकलने पर
गर्वीला भू-स्पंदन सुनती ।

हो शांत , दोपहरी काँटों की
पीड़ा सुन ह्र्दय बिंधाती मैं
नव प्रेमी-युगल की बातें सुन
उनके ऊपर मंडराती मैं ।

शर्मा महकी शेफाली का
रत-जगा करा दर्शन करती
और झरते सुर्ख गुलाबों का
गीता पढ़ अभिनन्दन करती ।

प्रथम रश्मि के आने से
पहले झट ओस पियाला पी
मैं अनजानी बन कह देती
थी रात ने कुछ कम मदिरा दी ।

गर कोई गुल इठलाता तो
ठेंगा उसको दिखलाती मैं
कभी उपवन छोड़ पतंगों की
डोरें थामे उड़ जाती मैं ।

तेरे सुमन सरीखे छ्न्दों का
मधु पी सुध-बुध खो जाती मैं
फिर शाम ढले यूँ लिपट-चिपट
उन्हीं छ्न्दों पे सो जाती मैं ।

मैं काश ! अगर तितली होती !

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं सरिता सजल जिसके लिए पर्वत गला था ।
बेच आया छन्द कितने, जीत आया द्वंद कितने
पर विजय केशव न ये जिसके लिए राधेय छला था ।

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं …

मैं रहा मैं और मेरा है मुझे अब तक ममेतर
यह नहीं वह चेतना जिसके लिए तिल-तिल जला था ।
देख नन्हें श्रमिक का दुख हाय ! मैं हतप्रभ खड़ा हूँ
सीमित यहीं संवेदना जिसके लिए कवि-पथ वरा था ?

क्यों नहीं मैं सूर्य सा जल
या धवल हिम-खण्ड सा गल
इस जगत के काम आता
अंकुर उगाता !

या दलित की आँख में ढल
आह बन कर निर्धनों की
संग उनके गीत गाता
अर्थ पाता !

जब भी उठा था दान को किसने पकड़ कर कृपण कर मेरा धरा था ?
ये ही भविष्यत् का सुखन जिसके लिए संचय करा था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं वह बीज जिसके लिए गुल हँस-हँस झरा था ।

औेर लोगों पे मलूँ क्यों
अपने हृदय की लीक कालिख
काश! इसको धो मैं पाता
गंगा नाहाता !

या कि बन कार्बन सघन
कोयले से ले आतिश जलन
पाषाण से मैं घात पाता
चमक जाता !

“किस्से कहानी की ये बातें, सत्य ये होतीं नहीं हैं ”
क्या झूठ थे वे सब कथानक जिनको बचपन में सुना था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं उपवन हरित जिसके लिए मरूथल जला था ।

काश ! एक दिन वन्दना में
ईश का कर ध्यान पाता
खुद को मिटाता
जी मैं जाता !

गुलाबी

मधुसूदन के हस्त गुलाबी
बृज की गोपी मस्त गुलाबी
गोमुख, गोपद धूल गुलाबी
काली जमुना, कूल गुलाबी
राधा की चिर प्रीति गुलाबी
नटवर की हर नीति गुलाबी
मधुर गुलाबी जसुमति प्यार
बंधे कन्हाई जिस से हार !

नयन, अधर, नख, गाल गुलाबी
बहकी लहकी चाल गुलाबी
फूल, कली, नव पात गुलाबी
गयी शाम बरसात गुलाबी
संध्या का लहराता आँचल
सिक्त किरण चमकाता बादल
पंख, शंख, परवाज़ गुलाबी
गीत, सदा, आवाज़ गुलाबी

प्रथम प्रणय की आंच गुलाबी
पिया मिलन की सांझ गुलाबी
नन्हें पग और स्मित की रेख
हर्षाती माँ जिनको देख
शिशु तो लालम लाल गुलाबी
जीवन के कुछ साल गुलाबी
बिटिया से घर-द्वार गुलाबी
रीति, रस्म, व्यवहार गुलाबी

हाय! काट के प्याज़ गुलाबी
हो गईं आँखें आज गुलाबी
गोभी, शलजम और तरबूज
हुए गुलाबी कुछ अमरुद
दादी गातीं छंद गुलाबी
पान बीच गुलकंद गुलाबी
दादा जी की पाग गुलाबी
होते कुछ-कुछ साग गुलाबी

क्या होते कुछ घाव गुलाबी?
चढ़ता ज्वर और ताव गुलाबी?
और गुलाबी पर्ची थाम
छूट गए जिन सब के काम
क्या उनके हालात गुलाबी?
पत्नी करती बात गुलाबी?
सुंदर प्रकृति के ये रंग
लालच कर देता सब भंग !

आप कहें क्या और गुलाबी
वस्तु, कार्य या ठौर गुलाबी ?

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी
जैसे बारिश हो धूप में हल्की
मेरे सर पे रखे जो वो आँचल
भीड़ में हाथ थाम लेते पल

मेरे आने पे वो बनाना कढ़ी
छौंकना साग और तलना बड़ी
एक लौकी से सब बना लेना
सब्जी और बर्फ़ी भी जमा देना

उसके गुस्से में प्यार का था मज़ा
कैसा बच्चों-सी देती थी वो सज़ा
उसका कहना “पापा को आने दे!”
बाद में हँस के कहना “जाने दे!”

याद आते हैं उसके हाथ सख़त
तेल मलना वो परीक्षा के वखत
वो ही कितने नरम हो जाते थे
ज़ख़्म धोते, मरहम लगाते थे

उसका ये पूछना “अच्छी तो है?”
कहना हर बात पे “बच्ची तो है!”
सुना होती है सबकी माँ ऎसी
होती धरती पे है ख़ुदा जैसी !

खोटा सिक्का

मैं एक खोटा सिक्का हूँ
कई हाथों से गुज़रा हूँ
किसी ने देख ना देखा
किसी ने जान कर फेंका

कभी मुजरा-कव्वाली में
कभी पूजा की थाली में
कभी लंगडे की झोली में
कभी ठट्ठा ठिठोली में

कभी मजदूर हाथों में
कभी मजबूर रातों में
जिये बस खोट ही मैंने
दिये बस चोट ही मैंने

आज नन्हें हाथ में
आ कर के ठिठका हूँ
इसे भी धूल झोंकूँ या
कह दूँ कि खोटा हूँ

“माँ देख इसको भी
लगी है चोट माथे पे
हो गया कितना गन्दा ये
इसे भी साथ नहला दे।”

मुझे धो पोंछ कर बच्चे ने
तकिये के तले डाला
कभी यारों को दिखलाया
कभी सहलाया, सँभाला

अब उसके साथ सोता हूँ
उसे गा कर जगाता हूँ
मैं लोहे का इक टुकड़ा हूँ
दुस्वपनों को भगाता हूँ।

कब आओगे नगरी मेरी

कल बड़े दिनों के बाद सजन
आँखों में ना डाला अंजन
सोचा वंशीधर आएँगे
तो पग काले हो जाएँगे।

फिर रात, प्रात:, संध्या बीतीं
आहट से रही ह्रदय सीती
कब आओगे नगरी मेरी
आँखे सूनी, देह की देहरी।

ये गीत तेरा

आज उसने गीत तेरा ये पढ़ा शत बार होगा
मिली होगी इक सहेली नाम जिसका प्यार होगा।

आइने को परे रख तेरी ग़ज़ल में देखा होगा
जुल्फ फिर सँवारी होगी, तीर तिरछा फेंका होगा।

छाप नीले अक्षरों में, अधर रख मुस्काया होगा
घर की गली के पास ही फेंक कर बिखराया होगा।

वहीं कोई रात-रानी सोचे ये चन्दा चितेरा,
तारकों को चुन निशा के गीत में फिर लाया होगा।

बोलो कहाँ उपजायी थी

जलपाइगुडी के स्टेशन पे तुमने थामा था हाथ मेरा
राइन नदी में बतखों ने फिर डुब-डुब डुबकी खाई थी

सिंगापुर के सूरज को एक हाथ बढा कर ढाँपा था
आल्पस् की अलसाई सुबह फिर थोड़ा सा गरमाई थी।

फिर भावों को तुम तोल रही हो देश-काल के पलड़ों में?
ये कह स्नेह-सिक्त माटी हरियल मलमल मुस्काई थी

जो भाप हवा में जुड़ता है, पा वेग पवन का उड़ता है
वो कहता नहीं कभी बूँदों से ‘सखि बोलो कहाँ उपजायी थी?’

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

किस रंग खिलीं कलियाँ
दुबकी आई क्या छिपकलियाँ
सूनी रोई होंगी गलियाँ
घर लौटूँ तो बताना

जो स्वप्न बुने मैंने
जो गीत चुने मैंने
किस्से जो गुने मैंने
मैं आऊँ तो दोहराना

थक सा गया है थोडा
मेरीे बाजुओं का जोडा
अब पाँव घर को मोडा
अपनी पलकें तुम बिछाना

आराधना

यों ही उस धार में बहे हम भी
जैसे पूजा के फूल बहते हैं,
मेरे हाथों में तेरा दामन है
मुझे तेरी तलाश कहते हैं।

तुझ को पा कर के क्या नहीं पाया
तुझ को खो कर के मैं अधूरी हूँ,
तू जहाँ बाग़ है वो ज़मीन हूँ मैं
तेरे होने में मैं ज़रूरी हूँ।

तू मुझे प्यार दे या ना देख मुझे
मेरी हर उड़ान तुझ तक है,
तेरी दुनिया है मंज़िल दर मंज़िल
मेरे दोनों जहान तुझ तक है।

चाहत के चिराग 

तुम जो खामोश रहोगे मेरे अफ़साने आ के
तुम्हारी रूह से बातें करेंगे जी भर के
और जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

तुम जो तन्हा कभी बैठे होंगे
न गम़गी़न न खुश बस यों ही
मेरी यादों के तबस्सुम आ के
तेरे लबों के किनारों से लिपट जाएँगे।

कुछ यों हमारे प्यार का किस्सा होगा
मेरी चाहत तुम्हें मायूस न होने देगी
और जो काँटें तेरी राह में बिखरे होंगे
मेरे कदमों की पनाहों में सिमट आएँगे।

जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

स्वप्न

लाख समझाओ
मगर मन कब समझता है
मेरा हर स्वप्न तेरी राह
हो कर ही गुज़रता है।

ख़्वाब

ना ये प्यार है न दोस्ती
ये एक हसीन-सा ख़्वाब है।
तू कहे तो ज़िंदगी
मैं आँख अपनी खोल दूँ।।

हँस के ज़माना कह गया
तेरे पास अब क्या रह गया।
बोलो तो अनमोल तुमको
किस तराजू तोल दूँ।।

वादा

जो वादा तूने किया नहीं
मुझे उस पे क्यों कर यकीन था।
ये तेरे हुनर की हद थी या
मेरे जुनू का था वाकया।।

किरन 

तू तो बादल है
चमक मेरी क्या छुपाएगा।
ढक भी लेगा तो
किनारे से जगमगाएगा।।

चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिंगारी

हवा इसे तू देते रहना
दिल में सपन समेटे रहना
हँसी होंठ पे जो रखता है
हर गम से वो लड़ सकता है
ऊँच नीच सबकी तैयारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

माना पैसा बहुत जरूरी
बन ना जाये ये मजबूरी
सबसे बढ़कर खुशी है मन की
गाते रहना धुन जीवन की
गीत सुने तेरा दुनिया सारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

दुनिया में इंसाफ ना हरदम
स्याही की चादर ओढ़े ग़म
फिर भी जो दिल जोड़े दिलों से
हँस के जो खेले ख़तरों से
सूरज भी है उसका पुजारी
बुझ ना पाये ये चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिनगारी

तेरे पीछे माया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

सहसा बिटिया बड़ी हो गई, छन्न से यौवन आया
लौटेगा क्या समय साथ जो हमने नहीं बिताया।

कब बसंत बौराया

बचपन की आँखों से धुल गई इंद्रधनुष की छाया
रंग ले गया कुछ बालों से हर मुश्किल का साया।

कब बसंत बौराया

धन शोहरत की राह चली, ग़म दबे पाँव से आया
ढूंढ़ा था क्या भला इसे ही, जिस मंज़िल को पाया।

कब बसंत बौराया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

दोस्त

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा
तेरी हर बात में अपना ही फ़लसफ़ा देखा।

मंज़िलों को चलें साथ हम मुमकिन नहीं मगर
जब से तू संग चला, फूलों का रस्ता देखा।

निखर गई मेरी रंगत, सँवर गईं जुल्फ़ें
ये तेरी आँख में देखा कि आईना देखा।

न गै़रों की नज़र लगे, न हम खुद हों बेवफ़ा
ये दुआ करी हमने, ये ही सपना देखा।

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा।

शार्दूला के दोहे

थोड़ा मन में चैन जो, तुझ को रहा उधार
तेरी भेजी लकड़ियाँ, मुझको हैं पतवार।

आधी-आधी तोड़ कर, बाँटी रोटी रोज़
पानी में भीगा चूल्हा, जाने किसका दोष।

परचम ना फहराइए, खुद को समझ महान
औरों के भी एब पे, थोड़ी चादर तान।

कम ज़्यादा का ये गणित, विधि का लिखा विधान
तू मुझको दे पा रहा, अपनी किस्मत जान।

और अंत में दोस्तों, तिनका-तिनका जोड़
औरों का मरहम बनें, यही दर्द का तोड़।

बसंत आया 

क्या तुम्हारे शहर में भी
सुर्ख गुलमोहर की कतारें हैं
क्या अमलतास की रंगोबू
तुम्हें भी दीवाना करती है
क्या भरी दोपहरी में तुम्हारा भी
भटकने को जी करता है
अगर हाँ तो सुनो जो यों जीता है
वो पल-पल मरता है
क्योंकि हर क्षण कहीं कोई पेड़
तो कहीं सर कटता है।

पारस

मैं तो पारस हूँ , मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

हर मोड़ पे हो जिसके बिछुड़ जाने का डर
ऐसे राही के संग यारों सफ़र ना करना।

गर फूल खिलाते हो दिल की मिट्टी में
एक आँख में सूरज़, एक में शबनम रखना।

मैंने इन होठों से जिनको छुआ था जाते समय
उसने छोड़ा है उन जख़्मों पे मरहम रखना।

वो मेरे आँख का मोती था या हाथों का नगीना
जो गुम गया अब उस पे बहस क्या करना!

मुझको खुदा दुनिया में गर फिर लाएगा
दिल मेरा बड़ा, उमर मेरी ज़रा कम रखना।

मैं तो पारस हूँ, मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

माँ

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

मेरी सर्दी मेरी खाँसी
मेरा ताप और बीमारी
हँस के तू अपना लेती थी
करती कितनी सेवादारी

पा कर तेरा स्पर्श तेजस्वी
मैं अच्छा हो जाता था
फिर लूट पतंगें फाड़ जुराबें
देर रात घर आता था

दरवाजे पे खड़ी रही होगी
तू जाने कब से
श्! श्! कर किवाड़ खोलती
बाबू जी गुस्सा तुझ से!”

फिर बड़ा हुआ मैं, बना प्रणेता
किस्मत ने पलटा खाया
जो समझ शूल दुनिया ने फेंका
बना ताज उसे अपनाया

सब चाहने वालों से घिर भी
तेरा प्यार ढूँढ़ता हूँ
जो धरती अंकुर पर करती
वो उपकार ढूँढ़ता हूँ .

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

विदा की अगन

मैं कोयला हूँ कहो तो आग दूँ
या फिर धुआँ कर दूँ।
मुझे डर है ना दर्देदिल
निगाहों से बयाँ कर दूँ।

मुझे अफ़सोस है तुमने मुझे
अपना नहीं समझा।
खुशी तो बाँट ली मुझ से
मगर गम पास ही रखा।

सुना था दिल की मिट्टी में
ये गम बन फूल खिलता है।
बेगरज दोस्त दुनिया में
बड़ी किस्मत से मिलता है।

चलो छोड़ो गिले शिकवे
विदा होने की बारी है।
इस कोयले में चमक जो है
अमानत वो तुम्हारी है।

सूरज में गरमी ना हो

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।

देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।

ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।

बोली को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जो जाता है सब छोड़ कर
उसको रोको ना तुम जाने दो।

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो।

सच कहूँ तेरे बिना

सच कहूँ तेरे बिना ठंडे तवे सी ज़िंदगानी
और मन भूखा सा बच्चा एक रोटी ढूँढता है
चाँद आधा, आधे नंबर पा के रोती एक बच्ची
और सूरज अनमने टीचर सा खुल के ऊंघता है !

आस जैसे सीढ़ियों पे बैठ जाए थक पुजारिन
और मंदिर में रहे ज्यों देव का श्रृंगार बासी
बिजलियाँ बन कर गिरें दुस्वप्न उस ही शाख पे बस
घोंसला जिस पे बना बैठी हो मेरी पीर प्यासी !

सच कहूँ तेरे बिना !

पूछती संभावना की बुढ़िया आपत योजनायें
कह गया था तीन दिन की, तीन युग अब बीतते हैं
नाम और तेरा पता जिस पर लिखा खोया वो पुर्जा
कोष मन के और तन के हाय छिन छिन रीतते हैं !

सच कहूँ तेरे बिना मेरी नहीं कोई कहानी
गीत मेरे जैसे ऊंचे जा लगे हों आम कोई
तोड़ते हैं जिनको बच्चे पत्थरों की चोट दे कर
और फिर देना ना चाहे उनका सच्चा दाम कोई !

सच कहूँ तेरे बिना !

प्यार का रंग ना बदला

परिवर्तन के नियम ठगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
अब तक है उतना ही उजाला !

आम का पकना, रस्ता तकना
पगडंडी का घर घर रुकना
कोयल का पंचम सुर गाना
हर महीने पूनम का आना
अरे कहो! कब व्रत है अगला ?
तीज, चौथ कब, कब कोजगरा ?
क्या कहते हो सब कुछ बदला !
गाँव का मेरे ढंग ना बदला !

आम मधुर, रस नेह पगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
होली के हुड़दंग सा पगला !

इक पल जो घर आँगन दौड़ा
चढ़ भईया का कंधा चौड़ा
आज अरूण रंग साड़ी लिपटा
खड़ा हुआ है वह पल सिमटा
उस पल को आँखों में भरता
छाया माँ मन कोहरा धुंधला !
अभी चार दिन पहले ही तो
पहनाया चितकबरा झबला !

माँ के आगे सब बच्चे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
हर सागर है उससे उथला !

नयन छवि बिन, गगन शशि बिन
माधव बिन ज्यों राधा के दिन
कृषक मेह बिन, दीप नेह बिन
शरद ऋतु में दीन गेह बिन
उतना की कम खेत को पैसा
जितना हाथ अनाज ने बदला
जल विहीन मन बिना तुम्हारे
मीन बना तड़पा और मचला !

कष्ट जगत के बहुत बड़े हैं
प्यार का रंग हो जाता धुंधला !
आज बुद्ध तज घर फिर निकला !

कद्दू पे बैठी दो बच्चियाँ 

रूप ले ले मेरा, रंग भी छीन ले
ये कमर लोच रख, ये नयन तीर ले !
वो जो कद्दू पे बैठी हैं दो बच्चियाँ
ओ उमर तू मुझे बस वहीं छोड़ दे !

बस समय मोड़ दे !

आ उमर बैठ सीढ़ी पे बातें करें
आंगनों में बिछे, काली रातें करें
फूल बन कर कभी औ’ कभी बन घटा
माँ से नज़रें बचा पेड़ पे जा चढ़ें !

आ ये पग खोल दे !

क्या तुझे याद है सीपियाँ बीनना
दूर से आम कितना पका चीन्हना
और चुपके से दादी के जा सामने
चाचियों का बढ़ा घूँघटा खींचना !

पल वो अनमोल दे !

वो जो भईया का था छोटा सा मेमना
उसकी रस्सी नरम ऊन ला गूंथना
बस मुझे तू वहीँ छोड़ आ अब उमर
चारागाहों में भाता मुझे घूमना !

पट खुले छोड़ दे!

सूरज से मेरे दादाजी

सूर्य किरण फिर आज पहन के एक घड़ी जापानी
कमरे में आयी सुबह-सवेरे, मिन्नत एक ना मानी
हाय! तिलस्मी सपनोंं में मैं मार रहा था बाज़ी
और हैं दादा जी, “जल्दी उठ्ठो” आवाज़ लगा दी !!

बिल्कुल मेरे दादू जैसा ही है ये सूरज भी
सुबह इसे आराम नहीं, ना देर रात धीरज ही !
“जल्दी सोना, जल्दी उठना”, यही राग ये गाते
ऊपर से हर रोज़ एक सा गाते, गीत सुनाते !

“*नाक में उंगली, कान में तिनका
मत कर, मत कर, मत कर !
दाँत में मंजन, आँख में अंजन
नित कर, नित कर, नित कर !”*

ज़रा कहो तो “टूथ ब्रश” को मंजन कौन है कहता ?
और कौन सी नाक ना जिसमें आंगुर घुसा है रहता !
आँख में अंजन, यानी काजल, मैं लगाऊं ? पागल हूँ !!
दादा जी जो सूर्य चमकते, मैं चंचल बादल हूँ !

लड़ता रहता हूँ मैं उनसे, हम हैं यार घनेरे
माँ के बाद वही तो हैं ना सबसे अपने मेरे
अपने मन की बात सभी मैं झट उनसे कह देता
और ना सोता रात में जब तक किस्से ना सुन लेता !

दादा जी ने ही सिखलाया, नहीं माँगना कुछ ईश्वर से
और नहीं कुछ माँगा करता मैं भी दादा जी के डर से
एक बात बस आप से कहता, दादाजी को नहीं बताएं
हूँ मैं चाहता मेरे बच्चों को दादू ही गा के उठाएं !

सूरज से मेरे दादाजी!
मेरे काबा, मेरे काशी !

नाम ले मुझको बुलाओ

ओ नदी ! मैं बन के धारा
या कि बन दूजा किनारा
संग तेरे चल पडूँगी, नाम ले मुझको बुलाओ

दधि कसैला पात्र पीतल
पात्र बस चमका रे पागल
तर्क की तलवार से भयी
भावना भयभीत घायल

ओ प्रिये! तुम स्वर्ण मन में
अहं का दधि ना जमाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

जो निशा से भोर का
प्राची-प्रतीची छोर का
बंध मेरा और तुम्हारा
जो घटा से मोर का

तुम समय के कुन्तलों को
मोर पंखों से सजाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

तुहिन कण सी उज्ज्वला जो
चन्द्रिका सी चंचला जो
पात पे फिसली मचलकर
स्निग्ध निर्मल प्रीति थी वो

है अड़ी नवयौवना सी
पाँव इसके गुदगुदाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

पथिक ऐसे थोड़े गिन के
साथ हैं मनमीत जिनके
हम मिले हैं सुन सजनवा
साज और संगीत बन के

राह की संगीतिका को
मिलन धुन में ना भुलाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

नाम ले मुझको बुलाओ !

उठ चल मेरे मन

हो विलग सबसे, अकेला चल पड़ा तू
एक अपनी ही नयी दुनिया बसाने
तूफ़ान निर्मम रास्ते के शीर्य तुझ को
मन! ना घबरा, गीत जय के गुनगुना ले !

स्वर्ण, रजत व कांस्य घट ले नित्य दिनकर
भर रहा अंबर की नीली झील में क्षण
गा रहे खग के समूह तज नीड़ अपना
तू भी मगन दोहरा नव निर्माण के प्रण

ले विदा तू हाथ जिनको जोड़ आया
कर गहेंगी स्मृतियाँ तेरे बालपन की
ओ मेरे मन! राह से ना विलग होना
खींचें अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की

एक मुठ्ठी धरा, एक टुकड़ा गगन का
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में
वेग मरुतों का ढला बन श्वास प्रतिपल

विलय तुझ में हैं सकल अवरोध पथ के
नीतियाँ तुझ में ही जयश्री के वरण की
तू स्वयं ही द्वारपालों सा खड़ा मन
तुझ से निकलती सीढियाँ अंतिम चरण की

उठ मेरे मन दूर तू इस घाट से चल
तोड़ चल तू मोह के सब बन्धनों को
राह की कठिनाईयाँ तकतीं हैं रस्ता
दे नया तू अर्थ मानव जीवनों को !

उठ चल मेरे मन !
चल !

मौसम की ये कारस्तानी 

वन में आग लगा कर चंचल
टेसू मन ही मन मुस्काता
कब आओगे दमकल ले कर
रंग-बिरंगे फागुन दादा?

कोयल फिर सुर की कक्षा के
अभ्यासों में जुटी हुई है
और मेघ की नटखट टोली
कर के मंत्रणा घुटी हुई है!

एक बूंद भी नहीं बरसती
देख हँसी दूब को आयी
होता है हर साल यही तो
कह मेंढक ने ली जंभाई।

बालक सा मन पढ़ने लगता
पंचतंत्र की कथा पुरानी
नया साल फिर ले आया है
बातें सब जानी पहचानी।

दुनियावी सवाल सुलझाते
याद हमें आ जाती नानी
पर मन को शीतल कर जाती
मौसम की ये कारस्तानी!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे

खिलते हैं सखि वन में टेसू
फागुन भी अब आता होगा
धरती ओढ़े लाल चुनरिया
गीत गगन मृदु गाता होगा।

पगड़ी बाँधे अरुण पात की
वृक्ष खड़े हैं श्रद्धानत हो
स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!
रश्मि रोली, मेघ अक्षत लो।

हरित पहाड़ों की पगडंडी
रवि दर्शन को दौड़ी आये
चित्रलिखित सा खड़ा चन्द्रमा
इस पथ जाये, उस पथ जाये?

आज क्लांत मत रह तू मनवा
तू भी धवल वस्त्र धारण कर
स्वयं प्रकृति से जुड़ जा तू भी
सकल भाव तेरे चारण भर!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!

पाँव नदी में धो आते हैं

यादों के जब थके मुसाफिर, पाँव नदी में धो आते हैं
देर रात तक चूल्हे जल के, गंध पाहुनी बिखराते हैं।

माँ-बाबूजी के दुलार का, हाथ रहे जब सर के ऊपर
चाहे दिशाशूल में निकलूँ, कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं।

बहना ने भेजी जो हमको, हँसी ठिठोली चिट्ठी में भर
जब भी उनको खोल पढ़ूँ मैं, याद सुनहरी बो जाते हैं।

कितने सालों बाद जो ननदी, घर सबसे मिलने आती है
गठिया वाले पाँव हैं चलते, दर्द पुराने खो जाते हैं।

आंगन में आता है जब भी सावन का हरियल सा महीना
बिना तुम्हारे पिया ये प्यासे नयन कटोरी हो जाते हैं।

तेरी मेरी प्रीत निराली

तेरी मेरी प्रीत निराली
तू चन्दा है नील गगन का
मैं पीतल की जलमय थाली!

क्या तूने देखा धारा को
सीपी मुक्ता माल पिरोते?
क्या तूने देखा बंसी को
छिद्रयुक्त हो सुर संजोते?
क्या मलयज भी सकुचाती है
धवल गिरि के सम्मुख होते?
क्यों घबराती पिया मैं तन मन
तेरा जो तुझ पर ही खोते?

तू नीलाभ गगन का स्पन्दन
मैं धूलि हूँ पनघट वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

हो रूप गुणों से आकर्षित यदि
तेरी चेतना मुझ तक आती
कैसे फिर मेरे शून्यों को
अपने होने से भर पाती!
डोर प्रीत की तेरी प्रियतम
खण्ड मेरे है बाँधे जाती!
तेल बिना क्या कभी वर्तिका
जग उजियारा है कर पाती?

दिनकर! तेरे स्नेह स्पर्श बिन
नहीं कली ये खिलने वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

धरा संजोती जैसे अंकुर
मुझे हथेली में तू रखता
अपनी करुणा से तू ईश्वर
मेरे सब संशय है हरता!
प्राण मेरे! बन प्राण सुधा तू
पल-पल प्राणों में है झरता!
जग अभिनन्दन करता जय का
दोषों पर मेरे तू ढरता!

नहीं मुझे अवलम्बन खुद का
तू ही भरता मेरी प्याली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

तू शंकर का तप कठोर
मैं एक कुशा माँ सीता वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

१० दिसम्बर ०८

अभिनन्दन

स्थूल में और सूक्ष्म में सौन्दर्य जो, उनको समर्पित
व्यक्त और अव्यक्त में सिमटी हुई सारी ऋचायें,
है समर्पित फूल हर, खिलता हुआ जन में,विजन में
और हर रंग के अधर, पा कर खुशी जो मुस्कुरायें।

थाल पूजा का सजा, धो कर रखी सब भावनायें
नववधू की हिचकिचाहट, शिशु देखती माँ की ललक भी,
संस्कारों में रंगी हल्दी, सुपारी और मेंहदी,
ज्ञान के कुछ श्वेत चावल, प्रीति का अरुणिम तिलक भी।

और दीपक आस के, विश्वास के मन में जला कर
आज स्वागत कर रही हूँ द्वार पर जा कर उषा के,
मधुरिमा मधु-मिलन मंगल, मांगलिक मानस में मेरे
देखो, अंबर झुक गया पदचाप सुन शंकर-उमा के!

अभिनन्दन उनको दिवस का!
मिलन हो सुख और सुयश का!

प्रकृति जितना देती है 

जहाँ हँसे हैं लाल फूल, वहाँ
नीले भी अक्सर खिल जाते
निश्छलता कितनी प्रकॄति में
रंग दूर के घुल-मिल जाते!

सुघड़ पेड़ के पास खड़े
मुँह बाये, तकते नहीं अघाते
कितने सुकुमार ललायित अंकुर
बूँद स्नेह की पा सिंच जाते!

और कभी संध्या प्रभात मिल
दोनों जब खुल के गपियाते
सूरज दादा देर गये तक
रिरियाते छुट्टी ना पाते!

कभी पवन का बैग खोलते
कभी बरखा की बूंदों के खाते,
काश! प्रकृति जितना देती है
अंश मात्र उसको लौटाते!

१३ नवम्बर ०८

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की
बस आज ये सिंगार कर ले,
स्टील, लोहा, सोना, चांदी
जो मिले, ले रीढ़ मढ़ ले!

तू पीठ सीधी . . .

आज तू काजल लगा ना
अपनी कलम स्याही से भर ले,
झूमर में हैं जो दो सितारे
कर यत्न, आँखों में उतर लें!

तू पीठ सीधी . . .

गूढ़तम जो प्रश्न होगा
लौटेगा अनुत्तरित समझ ले
ना रामशलाकाप्रश्नावली ये जीवन
तू जी इसे, उत्तरित कर ले!

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की!

१० नवम्बर ०८

गुडमार्निग सूरज 

सुबह उठी तो ये क्या देखा
वान गो की पेंटिंग जैसा
सूर्यमुखी का पीलापन ले
आज निखर आया है सूरज!

शाम लगाई डुबकी जल में
और बादलों से मुँह पोंछा
लाली लगा कमलदल वाली
कितना इतराया है सूरज!

आजा तुझ को मजा चखाऊँ
डुबो चाय में मैं खा जाऊँ
पा कर मेरे प्यार की झप्पी
कितना शरमाया है सूरज!

आज बांध कर चुन्नी में मैं
अमलतास पे लटका दूँगी
रंगोगे क्या जीवन सबके
सुन क्यों घबराया है सूरज!

७ नवम्बर ०८

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा
याद में तेरी ना वो जोगन बनेगी
ईंट, पत्थर, पानी और आलाव का घर
सेंक रोटी हाथ की रेखा दहेगी

वह नदी जो जंगलों में बह रही है
मानिनी सागर से जा कर ना मिलेगी
हर लहर हो वाष्पित अंत: तपन से
याद के दीपक विसर्जित कर जलेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

क्यों बंधा ये बंध तुझ से, वो ना समझी
रेशमी ये गांठ तुझसे ना खुलेगी
तोलता जिसमें है तू कुछ काँच, हीरे
खुशबूएं ये उस तराज़ू ना तुलेंगीं

होंठ पे गुड़मुड़ रखी एक मुस्कुराहट
देखना, कुछ ही पलों में खिल हँसेगी
फिर कहेगी गीत से, तू क्यों खड़ा है
जिन्दगी की टेक है, चलती रहेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

२ नवम्बर ०८

याद कुछ पक्का नहीं है 

है अनिश्चित वह घड़ी, बैठे हुए या हम खड़े थे
याद इतना है भंवर दो, गाल पर गहरे पड़े थे
चूमती थी तब गुलाबी चूनरी का छोर धरती
ढीठ थे कुछ पर्ण सूखे, कंटकों में सिल जड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

ये कमल लाये कहाँ से, पूछ कर तुम हँस दिये थे
कह न कारण मैं सका, क्यों बूट कीचड़ में मढ़े थे
और हमने साथ में “सिज़लर” कहा जब रेस्तरां में
आँख तो मिल न सकीं थीं, होंठ पर, दहके बड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

हाजिरी में ज्यामिती की नाम बोला था तुम्हारा
हाथ मेरा उठ गया था, शर्म के फ़ूटे घड़े थे
सिर्फ़ तुमको ही पढ़ा, मैं अनुसरण करता रहा था
हार कर भी खुश हुआ ज्यों जीत के झंडे गड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

क्षण नहीं हैं प्रेम के बस, प्रीत जब गहरी हुई थी
तप्त होकर पीर से पक्के हुए जीवन-घड़े थे
आज गिन कर वक्त नापें अर्थहीना हो गया है
लग रहा अनगिन जनम से संग अपने पग बढ़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

१७ अक्तूबर २००८

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी

पेड़ों के झुरमुट से छन के जो आती
धवल धूप क्या याद मुझ को दिलाती
हरे खेतों की जो मड़ैया से जाता
थका-हारा राही मधुर गीत गाता

चूड़ा-दही-खाजा और कुछ बराती
अनब्याही दीदी मधुर सुर में गातीं
अभी दाई गोबर की थपली थपेगी
माँ भंसाघर में जा पूये तलेगी

सिल-बट्टे पे चटनी पीसे सुनयना
“किसी ने निकाला जो देना है बायना?”
“अभी लीपा है घर!”, उफ! बड़के भईया
चिल्ला रहे पर्स खोंसे रुपैया

आँधी में दादी हैं छ्प्पर जुड़ातीं
भागे हम झटपट गिरें आम गाछी
वो मामू का तगड़ा कंधा सुहाना
जिस पे था झूला नम्बर से खाना।

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी
नमक-तेल-मिर्ची और रोटी बासी।

०९ अक्तूबर ०८

गीतकार

लेखनी से जब गिरें
झर स्वर्ग के मोती
पाने को उनको सीपियाँ
निज अंक हैं धोतीं।
कोई चले घर छोड़ जब
अहम् , दुख , सपने
उस केसरी आँचल तले
आ सभ्यता सोती।

जब तू शिशु था ईश ने आ
हाथ दो मोती दिये
एक लेखनी अनुपम औ’ दूजे
भाव नित सुरभित नये।
ये हैं उसी की चिर धरोहर
तू गा उसी का नाम ले
जो नाव सब की खे रहा
उसे गीत उतराई तू दे।

तू गीत उन्नत भाल के रच
मन को तू खंगाल के रच
कृष्ण के कुन्तल से लिपटे
गीत अरुणिम गाल के रच।
तू दलित पे गीत लिख
और गीत लिख तू वीर पे
जो मूक मन में पीर हो
उसको कलम की नीर दे।

तू तीन ऐसे गीत रच जो
भू-गगन को नाप लें
माँ को, प्रभु को पाती लिख
लिख प्रेम को निष्काम रे।
ये गीत मेरा जो तुम्हारे
पाँव छूने आ रहा
जिस ठाँव तू गाये
ये उसकी धूल बस हटला रहा।

०५ अक्टूबर ०९

ज़िन्दगी के तीन दिन

दे सको तो दो प्रिये मुझे ज़िन्दगी के तीन दिन
एक दिन उल्लास का, मृदु हास का, उच्छ्वास का
एक दिन रस-रास का, सहवास का, सुवास का
एक दिन पूजा का, श्रद्धा का, अमर विश्वास का .

वो दिन कि जिसमें तुम हो, मैं हूँ, तीसरा कोई नहीं हो.

वो दिन कि तुम नदियों से दूजी कह दो तुम में ना समायें
वो दिन कि माज़ी याद ले के दूसरी कोई ना आये
वो दिन कि जिसमें साँस लो तुम, प्राण मेरे प्राण पायें
वो दिन कि जब ना दिन ढले ना शाम जिद्दी घर को जाये .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !

वो दिन कि जब ये सूर्य बोले स्वर्ण भी हूँ , अरूण भी हूँ
और बादल हँस के बोले वृद्ध भी हूँ , तरुण भी हूँ
प्रीति बोले त्याग हूँ मैं और प्रिय का वरण भी हूँ
चिति बोले ब्रह्म हूँ मैं और स्व का हरण भी हूँ .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !
दे सको तो दो प्रिये मुझे !

तेरी याद !

उफ़! तेरी याद की मरमरी उँगलियाँ
आ के काँधे पे लम्हें पिरोती रहें
जैसे सूने पहाड़ों पे गाये कोई
और नदियाँ चरण आ भिगोती रहें !

पगतली से उठे, पीठ की राह ले
एक सिहरन सी है याद अब बन गई
चाँदनी की किरण दौड़ आकाश में
सब सितारों को ले शाल एक बुन गई !

ताक पे जा रखा था उठा के उसे
तेरी ग़ज़लों को सीढ़ी बनाके हँसी
गीतों का ले सहारा दबे पाँव वो
उतरी है मुझसे नज़रें चुरा के अभी !

बन के छोटी सी बच्ची मचलने लगी
गोद में जा छुपी, हाथ है चूमती
चाहे डाटूँ उसे या दुलारूँ उसे
आगे-पीछे पकड़ पल्लू वो घूमती !

एक गमले में जा याद को रख दिया
घर गुलाबों की खुशबू से भर सा गया
जाने कब मैं बनी मीरा, तू श्याम बन
मेरे जीवन में छन्न-छन्न उतरता गया !

क्या समय के पहले समय नहीं था?

क्या समय के पहले समय नहीं था?
पानी से पहले नहीं था पानी?
खड़ा हठीला टीला ये जो, क्या इससे पहले रेत नहीं था?

और मृदा संग हवा कुनमुनी,
धूप, पात, वारि ने मिल कर,
स्वर मिश्री सा साधा उससे पहले सुर समवेत नहीं था?

तैरे आकाशी गंगा सूरज,
धरा ज्योति में गोते खाये,
इससे पहले सभी श्याम था, कोई आंचल श्वेत नहीं था ?

नाम नहीं था जब चीजों का,
प्रीत, पीर क्या एक नहीं थे?
ऐसा क्यों लगता है मुझको, जैसे इनमें भेद नहीं था ?

तुमने जो इतने भावों को,
ले छिड़काया मन में मेरे,
पहले भी ये ज़मीं रही थी, पर चिर नूतन खेत नहीं था !

(गेबरियल गार्सिया मार्क्वेज़ को समर्पित)

हमको ऐसे मिली ज़िंदगी ! 

इक मुड़ी जीन्स में, फँस गई सीप-सी
आँधियों से भरे, एक कृत्रिम द्वीप-सी

नाखूनों में घुसी, कुछ हठी रेत-सी
पेड़ बौने लिए, बोन्साई खेत-सी

टूटी इक गिटार-सी, क्लिष्ट व्यवहार-सी
नाम भी ना रहे याद, भूले प्यार-सी

फोटो बिन फ्रेम की, बस कुशल-क्षेम-सी
बारिशों से स्थगित एक क्रिकेट गेम-सी

हाथ से ढुल गई मय ना प्याले गिरी
शाम जो रात लौटी नहीं सिरफिरी

देने में जो सरल, सस्ते इक ज्ञान-सी
भाव से हो रहित, हाय! उस गान-सी

खोल खिड़की किरण जो ना घर आ सकी
धुन ज़हन में रही ना जुबाँ पा सकी

आदतों की बनी इक गहन रेख-सी
बस जो होती बहू में ही, मीन-मेख-सी

बी.एम.आई इंडैक्स सी, बिन कमाई टैक्स-सी
जो कि पढ़ ना सके, उड़ गये फैक्स-सी

हमको ऐसे मिली कि हँसी आ गई
फिर गले से लगाया तो शर्मा गई

ज़िंदगी प्यार के झूठे ई-मेल सी
पुल पे आई विलम्बित थकी रेल सी !

कौन मेरे दर्पण में ?

चित्र एक दिख गया नयन में, एक दिवस मुझको अनजाने
छोड़ दिया है तबसे मैंने दर्पण में खुद को निहारना
एक जीर्ण सी यष्टि अपरिचित, बाल पके भुट्टे के जैसे !
अंतरमन तराशती तब से, छोड़ दिया तन को निखारना !

कौन सत्य दिखला जाता है, और कौन है बनता रक्षक
कौन दर्प मेरा सीमित कर, बन जाता है पंथ-प्रदर्शक
कौन बाद जो है बसंत के ग्रीष्मऋतु सखि ले आता है
कौन चाक पे रखी उमरिया की माटी, घट कर जाता है ?

कौन मुझे जो फल देता है, और अधिक झुकना सिखलाता
कौन मेरा संशय दावानल प्रेम सुधा से सींचे जाता
कौन मुझे हँस कह देता है प्राप्ति नहीं कर प्रेम सखि री
और कौन मन के दर्पण में सत्-चित-आनंद भाव भरे री ?

सुन ओ निराकार तुम मेरे, गुरु बनो, बाँहें संभालो
डगर नयी, पग कोमल मेरे, तृष्णा की ये फांस निकालो !
कलुषित, तृण सम बहते मन को, करुणा से अपनी सहेज लो
बालक सा क्रंदन सिखलाओ, शब्द निरथर्क सारे ले लो !

कच्ची गणित का प्रश्न

दोस्त मैं कन्धा तुम्हारा जिस पे सर रख रो सको तुम
वेदना के, हार के क्षण, भूल जिस पे सो सको तुम
बाहें मैं जिनको पकड़ तुम बाँटते खुशियाँ अनोखी
कान वो करते परीक्षा जो कि नित नव-नव सुरों की ।

मैं ही हर संगीत का आगाज़ हूँ और अंत भी हूँ
मैं तुम्हारी मोहिनी हूँ, मैं ही ज्ञानी संत भी हूँ
शिंजनी उस स्पर्श की जिसको नहीं हमने संवारा
चेतना उस स्वप्न की जो ना कभी होगा हमारा ।

हूँ दुआयें मैं वही जो नित तुम्हारे द्वार धोयें
और वो आँसू जो तुमने आज तक खुल के ना रोये
मैं तपिश उन सीढियों की जो दुपहरी लाँघती हैं
और असमंजस पथों की जो पता अब माँगती हैं ।

प्रश्न वो कच्ची गणित का जो नहीं सुलझा सके तुम
शाख जामुन की लचीली जिस पे चढ़ ना आ सके तुम
मैं तुम्हारे प्रणय की पहली कथा, पहली व्यथा हूँ
मैं तुम्हारा सत्य शाश्वत, मैं तुम्हारी परी-कथा हूँ ।

मैं हूँ तीस्ता नदी ! 

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा ।

‘पत्थरों पे उछल के संभलना सखि’
मुझ से हंस के कहा इक बुरुंश फूल ने
अपनी चांदी की पायल मुझे दे गयी
मुझ से बातें करी जब नरम धूप ने ।

मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गयी मलयजें
मुझ से ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
हो के कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें ।

कितने धर्मों के पाँवों मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझ में आ घुल गयी
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले ।

झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गयी
चीड़ ने देख मुझ में संवारा बदन
आप आये तो मुझ में ज्यों जां आ गयी
आप से मिल के मेरे भरे ये नयन ।

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई !

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते

हर एक पग जो मैं चला था
वह तेरे पथ ही गया था ,
ज्ञात ना गन्तव्य था पर
लक्ष्य आ खुद सध गया था ।

तू ही है मनमीत मेरा
तू ही मेरा प्राणधन,
कस्तूरी मृग सा मैं भटकता
तू है गंधवाही पवन ।

तू रहे किस काल में
किस देस में, किस भेस में ,
इसकी नहीं परवाह करता
तुझ से विलग ना शेष मैं !

विश्रांति में तुझ को पुकारे
बाट संजोये सदा
वो खोज मैं, मैं वो प्रतीक्षा
मैं वो चातक की व्यथा ।

द्वंद जितने भी लड़ा था
और जो लिखा-गढ़ा था,
वो तेरे ही द्वार की
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ा था ।

आज जब मैं पास हूँ
क्यों मुझ से तू मुख फेरता,
मैं ना हरकारा कोई
जो जाये घर-घर टेरता ।

मैं तेरे संग बोल लूँ
तुझको तुझी से तोल लूँ
मैं तेरा ही अंश प्रियतम
क्या पूर्ण का मैं मोल दूँ ?

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी
कलिष्ट वो शब्द जो अनकहा रह गया
मैं वो पाती जो बरसात में भीग कर
इतना रोई कि सब अनपढ़ा रह गया ।

मैं हूँ रश्मिरथी की त्रिभुज सी किरण
चूम कर भूमि, रथ फिर चढ़ा ना गया
मैं कभी वाष्प बन, फिर कभी मेह बन
इतना घूमी कि मोती गढ़ा ना गया ।

मैं वो धुंधली परी, कल्पना से भरी
जिसके पंखों को ले कर समय उड़ गया
नीले घोड़े पे आया था छोटा कुंवर
पर उबलती नदी से परे मुड़ गया ।

मैं वो यौवन जो आभाव से ब्याह गई
मैं वो बचपन जो पूरा जिया ना गया
तृष्णा और तृप्ति के मध्य में मैं खडी
एक अरदास मन से पढ़ा ना गया ।

मैं वो जोगन जो मेंहदी रचे पाँव ले
राजघर तो चली पर रहा ना गया
मीरा की चाह में, राणा की आह! में
मैं वो दोहा जो पूरा कहा ना गया ।

मैं काश ! अगर तितली होती

मैं काश ! अगर तितली होती
नभ में उड़ती, गुल पे सोती ।

नवजात मृदुल पंखुडियों का
पहला-पहला क्रन्दन सुनती
अंकुर के फूट निकलने पर
गर्वीला भू-स्पंदन सुनती ।

हो शांत , दोपहरी काँटों की
पीड़ा सुन ह्र्दय बिंधाती मैं
नव प्रेमी-युगल की बातें सुन
उनके ऊपर मंडराती मैं ।

शर्मा महकी शेफाली का
रत-जगा करा दर्शन करती
और झरते सुर्ख गुलाबों का
गीता पढ़ अभिनन्दन करती ।

प्रथम रश्मि के आने से
पहले झट ओस पियाला पी
मैं अनजानी बन कह देती
थी रात ने कुछ कम मदिरा दी ।

गर कोई गुल इठलाता तो
ठेंगा उसको दिखलाती मैं
कभी उपवन छोड़ पतंगों की
डोरें थामे उड़ जाती मैं ।

तेरे सुमन सरीखे छ्न्दों का
मधु पी सुध-बुध खो जाती मैं
फिर शाम ढले यूँ लिपट-चिपट
उन्हीं छ्न्दों पे सो जाती मैं ।

मैं काश ! अगर तितली होती !

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं सरिता सजल जिसके लिए पर्वत गला था ।
बेच आया छन्द कितने, जीत आया द्वंद कितने
पर विजय केशव न ये जिसके लिए राधेय छला था ।

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं …

मैं रहा मैं और मेरा है मुझे अब तक ममेतर
यह नहीं वह चेतना जिसके लिए तिल-तिल जला था ।
देख नन्हें श्रमिक का दुख हाय ! मैं हतप्रभ खड़ा हूँ
सीमित यहीं संवेदना जिसके लिए कवि-पथ वरा था ?

क्यों नहीं मैं सूर्य सा जल
या धवल हिम-खण्ड सा गल
इस जगत के काम आता
अंकुर उगाता !

या दलित की आँख में ढल
आह बन कर निर्धनों की
संग उनके गीत गाता
अर्थ पाता !

जब भी उठा था दान को किसने पकड़ कर कृपण कर मेरा धरा था ?
ये ही भविष्यत् का सुखन जिसके लिए संचय करा था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं वह बीज जिसके लिए गुल हँस-हँस झरा था ।

औेर लोगों पे मलूँ क्यों
अपने हृदय की लीक कालिख
काश! इसको धो मैं पाता
गंगा नाहाता !

या कि बन कार्बन सघन
कोयले से ले आतिश जलन
पाषाण से मैं घात पाता
चमक जाता !

“किस्से कहानी की ये बातें, सत्य ये होतीं नहीं हैं ”
क्या झूठ थे वे सब कथानक जिनको बचपन में सुना था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं उपवन हरित जिसके लिए मरूथल जला था ।

काश ! एक दिन वन्दना में
ईश का कर ध्यान पाता
खुद को मिटाता
जी मैं जाता !

गुलाबी

मधुसूदन के हस्त गुलाबी
बृज की गोपी मस्त गुलाबी
गोमुख, गोपद धूल गुलाबी
काली जमुना, कूल गुलाबी
राधा की चिर प्रीति गुलाबी
नटवर की हर नीति गुलाबी
मधुर गुलाबी जसुमति प्यार
बंधे कन्हाई जिस से हार !

नयन, अधर, नख, गाल गुलाबी
बहकी लहकी चाल गुलाबी
फूल, कली, नव पात गुलाबी
गयी शाम बरसात गुलाबी
संध्या का लहराता आँचल
सिक्त किरण चमकाता बादल
पंख, शंख, परवाज़ गुलाबी
गीत, सदा, आवाज़ गुलाबी

प्रथम प्रणय की आंच गुलाबी
पिया मिलन की सांझ गुलाबी
नन्हें पग और स्मित की रेख
हर्षाती माँ जिनको देख
शिशु तो लालम लाल गुलाबी
जीवन के कुछ साल गुलाबी
बिटिया से घर-द्वार गुलाबी
रीति, रस्म, व्यवहार गुलाबी

हाय! काट के प्याज़ गुलाबी
हो गईं आँखें आज गुलाबी
गोभी, शलजम और तरबूज
हुए गुलाबी कुछ अमरुद
दादी गातीं छंद गुलाबी
पान बीच गुलकंद गुलाबी
दादा जी की पाग गुलाबी
होते कुछ-कुछ साग गुलाबी

क्या होते कुछ घाव गुलाबी?
चढ़ता ज्वर और ताव गुलाबी?
और गुलाबी पर्ची थाम
छूट गए जिन सब के काम
क्या उनके हालात गुलाबी?
पत्नी करती बात गुलाबी?
सुंदर प्रकृति के ये रंग
लालच कर देता सब भंग !

आप कहें क्या और गुलाबी
वस्तु, कार्य या ठौर गुलाबी ?

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी
जैसे बारिश हो धूप में हल्की
मेरे सर पे रखे जो वो आँचल
भीड़ में हाथ थाम लेते पल

मेरे आने पे वो बनाना कढ़ी
छौंकना साग और तलना बड़ी
एक लौकी से सब बना लेना
सब्जी और बर्फ़ी भी जमा देना

उसके गुस्से में प्यार का था मज़ा
कैसा बच्चों-सी देती थी वो सज़ा
उसका कहना “पापा को आने दे!”
बाद में हँस के कहना “जाने दे!”

याद आते हैं उसके हाथ सख़त
तेल मलना वो परीक्षा के वखत
वो ही कितने नरम हो जाते थे
ज़ख़्म धोते, मरहम लगाते थे

उसका ये पूछना “अच्छी तो है?”
कहना हर बात पे “बच्ची तो है!”
सुना होती है सबकी माँ ऎसी
होती धरती पे है ख़ुदा जैसी !

खोटा सिक्का

मैं एक खोटा सिक्का हूँ
कई हाथों से गुज़रा हूँ
किसी ने देख ना देखा
किसी ने जान कर फेंका

कभी मुजरा-कव्वाली में
कभी पूजा की थाली में
कभी लंगडे की झोली में
कभी ठट्ठा ठिठोली में

कभी मजदूर हाथों में
कभी मजबूर रातों में
जिये बस खोट ही मैंने
दिये बस चोट ही मैंने

आज नन्हें हाथ में
आ कर के ठिठका हूँ
इसे भी धूल झोंकूँ या
कह दूँ कि खोटा हूँ

“माँ देख इसको भी
लगी है चोट माथे पे
हो गया कितना गन्दा ये
इसे भी साथ नहला दे।”

मुझे धो पोंछ कर बच्चे ने
तकिये के तले डाला
कभी यारों को दिखलाया
कभी सहलाया, सँभाला

अब उसके साथ सोता हूँ
उसे गा कर जगाता हूँ
मैं लोहे का इक टुकड़ा हूँ
दुस्वपनों को भगाता हूँ।

कब आओगे नगरी मेरी

कल बड़े दिनों के बाद सजन
आँखों में ना डाला अंजन
सोचा वंशीधर आएँगे
तो पग काले हो जाएँगे।

फिर रात, प्रात:, संध्या बीतीं
आहट से रही ह्रदय सीती
कब आओगे नगरी मेरी
आँखे सूनी, देह की देहरी।

ये गीत तेरा

आज उसने गीत तेरा ये पढ़ा शत बार होगा
मिली होगी इक सहेली नाम जिसका प्यार होगा।

आइने को परे रख तेरी ग़ज़ल में देखा होगा
जुल्फ फिर सँवारी होगी, तीर तिरछा फेंका होगा।

छाप नीले अक्षरों में, अधर रख मुस्काया होगा
घर की गली के पास ही फेंक कर बिखराया होगा।

वहीं कोई रात-रानी सोचे ये चन्दा चितेरा,
तारकों को चुन निशा के गीत में फिर लाया होगा।

बोलो कहाँ उपजायी थी

जलपाइगुडी के स्टेशन पे तुमने थामा था हाथ मेरा
राइन नदी में बतखों ने फिर डुब-डुब डुबकी खाई थी

सिंगापुर के सूरज को एक हाथ बढा कर ढाँपा था
आल्पस् की अलसाई सुबह फिर थोड़ा सा गरमाई थी।

फिर भावों को तुम तोल रही हो देश-काल के पलड़ों में?
ये कह स्नेह-सिक्त माटी हरियल मलमल मुस्काई थी

जो भाप हवा में जुड़ता है, पा वेग पवन का उड़ता है
वो कहता नहीं कभी बूँदों से ‘सखि बोलो कहाँ उपजायी थी?’

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

किस रंग खिलीं कलियाँ
दुबकी आई क्या छिपकलियाँ
सूनी रोई होंगी गलियाँ
घर लौटूँ तो बताना

जो स्वप्न बुने मैंने
जो गीत चुने मैंने
किस्से जो गुने मैंने
मैं आऊँ तो दोहराना

थक सा गया है थोडा
मेरीे बाजुओं का जोडा
अब पाँव घर को मोडा
अपनी पलकें तुम बिछाना

आराधना

यों ही उस धार में बहे हम भी
जैसे पूजा के फूल बहते हैं,
मेरे हाथों में तेरा दामन है
मुझे तेरी तलाश कहते हैं।

तुझ को पा कर के क्या नहीं पाया
तुझ को खो कर के मैं अधूरी हूँ,
तू जहाँ बाग़ है वो ज़मीन हूँ मैं
तेरे होने में मैं ज़रूरी हूँ।

तू मुझे प्यार दे या ना देख मुझे
मेरी हर उड़ान तुझ तक है,
तेरी दुनिया है मंज़िल दर मंज़िल
मेरे दोनों जहान तुझ तक है।

चाहत के चिराग 

तुम जो खामोश रहोगे मेरे अफ़साने आ के
तुम्हारी रूह से बातें करेंगे जी भर के
और जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

तुम जो तन्हा कभी बैठे होंगे
न गम़गी़न न खुश बस यों ही
मेरी यादों के तबस्सुम आ के
तेरे लबों के किनारों से लिपट जाएँगे।

कुछ यों हमारे प्यार का किस्सा होगा
मेरी चाहत तुम्हें मायूस न होने देगी
और जो काँटें तेरी राह में बिखरे होंगे
मेरे कदमों की पनाहों में सिमट आएँगे।

जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

स्वप्न

लाख समझाओ
मगर मन कब समझता है
मेरा हर स्वप्न तेरी राह
हो कर ही गुज़रता है।

ख़्वाब

ना ये प्यार है न दोस्ती
ये एक हसीन-सा ख़्वाब है।
तू कहे तो ज़िंदगी
मैं आँख अपनी खोल दूँ।।

हँस के ज़माना कह गया
तेरे पास अब क्या रह गया।
बोलो तो अनमोल तुमको
किस तराजू तोल दूँ।।

वादा

जो वादा तूने किया नहीं
मुझे उस पे क्यों कर यकीन था।
ये तेरे हुनर की हद थी या
मेरे जुनू का था वाकया।।

किरन 

तू तो बादल है
चमक मेरी क्या छुपाएगा।
ढक भी लेगा तो
किनारे से जगमगाएगा।।

चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिंगारी

हवा इसे तू देते रहना
दिल में सपन समेटे रहना
हँसी होंठ पे जो रखता है
हर गम से वो लड़ सकता है
ऊँच नीच सबकी तैयारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

माना पैसा बहुत जरूरी
बन ना जाये ये मजबूरी
सबसे बढ़कर खुशी है मन की
गाते रहना धुन जीवन की
गीत सुने तेरा दुनिया सारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

दुनिया में इंसाफ ना हरदम
स्याही की चादर ओढ़े ग़म
फिर भी जो दिल जोड़े दिलों से
हँस के जो खेले ख़तरों से
सूरज भी है उसका पुजारी
बुझ ना पाये ये चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिनगारी

तेरे पीछे माया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

सहसा बिटिया बड़ी हो गई, छन्न से यौवन आया
लौटेगा क्या समय साथ जो हमने नहीं बिताया।

कब बसंत बौराया

बचपन की आँखों से धुल गई इंद्रधनुष की छाया
रंग ले गया कुछ बालों से हर मुश्किल का साया।

कब बसंत बौराया

धन शोहरत की राह चली, ग़म दबे पाँव से आया
ढूंढ़ा था क्या भला इसे ही, जिस मंज़िल को पाया।

कब बसंत बौराया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

दोस्त

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा
तेरी हर बात में अपना ही फ़लसफ़ा देखा।

मंज़िलों को चलें साथ हम मुमकिन नहीं मगर
जब से तू संग चला, फूलों का रस्ता देखा।

निखर गई मेरी रंगत, सँवर गईं जुल्फ़ें
ये तेरी आँख में देखा कि आईना देखा।

न गै़रों की नज़र लगे, न हम खुद हों बेवफ़ा
ये दुआ करी हमने, ये ही सपना देखा।

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा।

शार्दूला के दोहे

थोड़ा मन में चैन जो, तुझ को रहा उधार
तेरी भेजी लकड़ियाँ, मुझको हैं पतवार।

आधी-आधी तोड़ कर, बाँटी रोटी रोज़
पानी में भीगा चूल्हा, जाने किसका दोष।

परचम ना फहराइए, खुद को समझ महान
औरों के भी एब पे, थोड़ी चादर तान।

कम ज़्यादा का ये गणित, विधि का लिखा विधान
तू मुझको दे पा रहा, अपनी किस्मत जान।

और अंत में दोस्तों, तिनका-तिनका जोड़
औरों का मरहम बनें, यही दर्द का तोड़।

बसंत आया 

क्या तुम्हारे शहर में भी
सुर्ख गुलमोहर की कतारें हैं
क्या अमलतास की रंगोबू
तुम्हें भी दीवाना करती है
क्या भरी दोपहरी में तुम्हारा भी
भटकने को जी करता है
अगर हाँ तो सुनो जो यों जीता है
वो पल-पल मरता है
क्योंकि हर क्षण कहीं कोई पेड़
तो कहीं सर कटता है।

पारस

मैं तो पारस हूँ , मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

हर मोड़ पे हो जिसके बिछुड़ जाने का डर
ऐसे राही के संग यारों सफ़र ना करना।

गर फूल खिलाते हो दिल की मिट्टी में
एक आँख में सूरज़, एक में शबनम रखना।

मैंने इन होठों से जिनको छुआ था जाते समय
उसने छोड़ा है उन जख़्मों पे मरहम रखना।

वो मेरे आँख का मोती था या हाथों का नगीना
जो गुम गया अब उस पे बहस क्या करना!

मुझको खुदा दुनिया में गर फिर लाएगा
दिल मेरा बड़ा, उमर मेरी ज़रा कम रखना।

मैं तो पारस हूँ, मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

माँ

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

मेरी सर्दी मेरी खाँसी
मेरा ताप और बीमारी
हँस के तू अपना लेती थी
करती कितनी सेवादारी

पा कर तेरा स्पर्श तेजस्वी
मैं अच्छा हो जाता था
फिर लूट पतंगें फाड़ जुराबें
देर रात घर आता था

दरवाजे पे खड़ी रही होगी
तू जाने कब से
श्! श्! कर किवाड़ खोलती
बाबू जी गुस्सा तुझ से!”

फिर बड़ा हुआ मैं, बना प्रणेता
किस्मत ने पलटा खाया
जो समझ शूल दुनिया ने फेंका
बना ताज उसे अपनाया

सब चाहने वालों से घिर भी
तेरा प्यार ढूँढ़ता हूँ
जो धरती अंकुर पर करती
वो उपकार ढूँढ़ता हूँ .

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

विदा की अगन

मैं कोयला हूँ कहो तो आग दूँ
या फिर धुआँ कर दूँ।
मुझे डर है ना दर्देदिल
निगाहों से बयाँ कर दूँ।

मुझे अफ़सोस है तुमने मुझे
अपना नहीं समझा।
खुशी तो बाँट ली मुझ से
मगर गम पास ही रखा।

सुना था दिल की मिट्टी में
ये गम बन फूल खिलता है।
बेगरज दोस्त दुनिया में
बड़ी किस्मत से मिलता है।

चलो छोड़ो गिले शिकवे
विदा होने की बारी है।
इस कोयले में चमक जो है
अमानत वो तुम्हारी है।

सूरज में गरमी ना हो

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।

देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।

ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।

बोली को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जो जाता है सब छोड़ कर
उसको रोको ना तुम जाने दो।

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो।

सच कहूँ तेरे बिना

सच कहूँ तेरे बिना ठंडे तवे सी ज़िंदगानी
और मन भूखा सा बच्चा एक रोटी ढूँढता है
चाँद आधा, आधे नंबर पा के रोती एक बच्ची
और सूरज अनमने टीचर सा खुल के ऊंघता है !

आस जैसे सीढ़ियों पे बैठ जाए थक पुजारिन
और मंदिर में रहे ज्यों देव का श्रृंगार बासी
बिजलियाँ बन कर गिरें दुस्वप्न उस ही शाख पे बस
घोंसला जिस पे बना बैठी हो मेरी पीर प्यासी !

सच कहूँ तेरे बिना !

पूछती संभावना की बुढ़िया आपत योजनायें
कह गया था तीन दिन की, तीन युग अब बीतते हैं
नाम और तेरा पता जिस पर लिखा खोया वो पुर्जा
कोष मन के और तन के हाय छिन छिन रीतते हैं !

सच कहूँ तेरे बिना मेरी नहीं कोई कहानी
गीत मेरे जैसे ऊंचे जा लगे हों आम कोई
तोड़ते हैं जिनको बच्चे पत्थरों की चोट दे कर
और फिर देना ना चाहे उनका सच्चा दाम कोई !

सच कहूँ तेरे बिना !

प्यार का रंग ना बदला

परिवर्तन के नियम ठगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
अब तक है उतना ही उजाला !

आम का पकना, रस्ता तकना
पगडंडी का घर घर रुकना
कोयल का पंचम सुर गाना
हर महीने पूनम का आना
अरे कहो! कब व्रत है अगला ?
तीज, चौथ कब, कब कोजगरा ?
क्या कहते हो सब कुछ बदला !
गाँव का मेरे ढंग ना बदला !

आम मधुर, रस नेह पगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
होली के हुड़दंग सा पगला !

इक पल जो घर आँगन दौड़ा
चढ़ भईया का कंधा चौड़ा
आज अरूण रंग साड़ी लिपटा
खड़ा हुआ है वह पल सिमटा
उस पल को आँखों में भरता
छाया माँ मन कोहरा धुंधला !
अभी चार दिन पहले ही तो
पहनाया चितकबरा झबला !

माँ के आगे सब बच्चे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
हर सागर है उससे उथला !

नयन छवि बिन, गगन शशि बिन
माधव बिन ज्यों राधा के दिन
कृषक मेह बिन, दीप नेह बिन
शरद ऋतु में दीन गेह बिन
उतना की कम खेत को पैसा
जितना हाथ अनाज ने बदला
जल विहीन मन बिना तुम्हारे
मीन बना तड़पा और मचला !

कष्ट जगत के बहुत बड़े हैं
प्यार का रंग हो जाता धुंधला !
आज बुद्ध तज घर फिर निकला !

कद्दू पे बैठी दो बच्चियाँ 

रूप ले ले मेरा, रंग भी छीन ले
ये कमर लोच रख, ये नयन तीर ले !
वो जो कद्दू पे बैठी हैं दो बच्चियाँ
ओ उमर तू मुझे बस वहीं छोड़ दे !

बस समय मोड़ दे !

आ उमर बैठ सीढ़ी पे बातें करें
आंगनों में बिछे, काली रातें करें
फूल बन कर कभी औ’ कभी बन घटा
माँ से नज़रें बचा पेड़ पे जा चढ़ें !

आ ये पग खोल दे !

क्या तुझे याद है सीपियाँ बीनना
दूर से आम कितना पका चीन्हना
और चुपके से दादी के जा सामने
चाचियों का बढ़ा घूँघटा खींचना !

पल वो अनमोल दे !

वो जो भईया का था छोटा सा मेमना
उसकी रस्सी नरम ऊन ला गूंथना
बस मुझे तू वहीँ छोड़ आ अब उमर
चारागाहों में भाता मुझे घूमना !

पट खुले छोड़ दे!

सूरज से मेरे दादाजी

सूर्य किरण फिर आज पहन के एक घड़ी जापानी
कमरे में आयी सुबह-सवेरे, मिन्नत एक ना मानी
हाय! तिलस्मी सपनोंं में मैं मार रहा था बाज़ी
और हैं दादा जी, “जल्दी उठ्ठो” आवाज़ लगा दी !!

बिल्कुल मेरे दादू जैसा ही है ये सूरज भी
सुबह इसे आराम नहीं, ना देर रात धीरज ही !
“जल्दी सोना, जल्दी उठना”, यही राग ये गाते
ऊपर से हर रोज़ एक सा गाते, गीत सुनाते !

“*नाक में उंगली, कान में तिनका
मत कर, मत कर, मत कर !
दाँत में मंजन, आँख में अंजन
नित कर, नित कर, नित कर !”*

ज़रा कहो तो “टूथ ब्रश” को मंजन कौन है कहता ?
और कौन सी नाक ना जिसमें आंगुर घुसा है रहता !
आँख में अंजन, यानी काजल, मैं लगाऊं ? पागल हूँ !!
दादा जी जो सूर्य चमकते, मैं चंचल बादल हूँ !

लड़ता रहता हूँ मैं उनसे, हम हैं यार घनेरे
माँ के बाद वही तो हैं ना सबसे अपने मेरे
अपने मन की बात सभी मैं झट उनसे कह देता
और ना सोता रात में जब तक किस्से ना सुन लेता !

दादा जी ने ही सिखलाया, नहीं माँगना कुछ ईश्वर से
और नहीं कुछ माँगा करता मैं भी दादा जी के डर से
एक बात बस आप से कहता, दादाजी को नहीं बताएं
हूँ मैं चाहता मेरे बच्चों को दादू ही गा के उठाएं !

सूरज से मेरे दादाजी!
मेरे काबा, मेरे काशी !

नाम ले मुझको बुलाओ

ओ नदी ! मैं बन के धारा
या कि बन दूजा किनारा
संग तेरे चल पडूँगी, नाम ले मुझको बुलाओ

दधि कसैला पात्र पीतल
पात्र बस चमका रे पागल
तर्क की तलवार से भयी
भावना भयभीत घायल

ओ प्रिये! तुम स्वर्ण मन में
अहं का दधि ना जमाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

जो निशा से भोर का
प्राची-प्रतीची छोर का
बंध मेरा और तुम्हारा
जो घटा से मोर का

तुम समय के कुन्तलों को
मोर पंखों से सजाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

तुहिन कण सी उज्ज्वला जो
चन्द्रिका सी चंचला जो
पात पे फिसली मचलकर
स्निग्ध निर्मल प्रीति थी वो

है अड़ी नवयौवना सी
पाँव इसके गुदगुदाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

पथिक ऐसे थोड़े गिन के
साथ हैं मनमीत जिनके
हम मिले हैं सुन सजनवा
साज और संगीत बन के

राह की संगीतिका को
मिलन धुन में ना भुलाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

नाम ले मुझको बुलाओ !

उठ चल मेरे मन

हो विलग सबसे, अकेला चल पड़ा तू
एक अपनी ही नयी दुनिया बसाने
तूफ़ान निर्मम रास्ते के शीर्य तुझ को
मन! ना घबरा, गीत जय के गुनगुना ले !

स्वर्ण, रजत व कांस्य घट ले नित्य दिनकर
भर रहा अंबर की नीली झील में क्षण
गा रहे खग के समूह तज नीड़ अपना
तू भी मगन दोहरा नव निर्माण के प्रण

ले विदा तू हाथ जिनको जोड़ आया
कर गहेंगी स्मृतियाँ तेरे बालपन की
ओ मेरे मन! राह से ना विलग होना
खींचें अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की

एक मुठ्ठी धरा, एक टुकड़ा गगन का
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में
वेग मरुतों का ढला बन श्वास प्रतिपल

विलय तुझ में हैं सकल अवरोध पथ के
नीतियाँ तुझ में ही जयश्री के वरण की
तू स्वयं ही द्वारपालों सा खड़ा मन
तुझ से निकलती सीढियाँ अंतिम चरण की

उठ मेरे मन दूर तू इस घाट से चल
तोड़ चल तू मोह के सब बन्धनों को
राह की कठिनाईयाँ तकतीं हैं रस्ता
दे नया तू अर्थ मानव जीवनों को !

उठ चल मेरे मन !
चल !

मौसम की ये कारस्तानी 

वन में आग लगा कर चंचल
टेसू मन ही मन मुस्काता
कब आओगे दमकल ले कर
रंग-बिरंगे फागुन दादा?

कोयल फिर सुर की कक्षा के
अभ्यासों में जुटी हुई है
और मेघ की नटखट टोली
कर के मंत्रणा घुटी हुई है!

एक बूंद भी नहीं बरसती
देख हँसी दूब को आयी
होता है हर साल यही तो
कह मेंढक ने ली जंभाई।

बालक सा मन पढ़ने लगता
पंचतंत्र की कथा पुरानी
नया साल फिर ले आया है
बातें सब जानी पहचानी।

दुनियावी सवाल सुलझाते
याद हमें आ जाती नानी
पर मन को शीतल कर जाती
मौसम की ये कारस्तानी!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे

खिलते हैं सखि वन में टेसू
फागुन भी अब आता होगा
धरती ओढ़े लाल चुनरिया
गीत गगन मृदु गाता होगा।

पगड़ी बाँधे अरुण पात की
वृक्ष खड़े हैं श्रद्धानत हो
स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!
रश्मि रोली, मेघ अक्षत लो।

हरित पहाड़ों की पगडंडी
रवि दर्शन को दौड़ी आये
चित्रलिखित सा खड़ा चन्द्रमा
इस पथ जाये, उस पथ जाये?

आज क्लांत मत रह तू मनवा
तू भी धवल वस्त्र धारण कर
स्वयं प्रकृति से जुड़ जा तू भी
सकल भाव तेरे चारण भर!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!

पाँव नदी में धो आते हैं

यादों के जब थके मुसाफिर, पाँव नदी में धो आते हैं
देर रात तक चूल्हे जल के, गंध पाहुनी बिखराते हैं।

माँ-बाबूजी के दुलार का, हाथ रहे जब सर के ऊपर
चाहे दिशाशूल में निकलूँ, कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं।

बहना ने भेजी जो हमको, हँसी ठिठोली चिट्ठी में भर
जब भी उनको खोल पढ़ूँ मैं, याद सुनहरी बो जाते हैं।

कितने सालों बाद जो ननदी, घर सबसे मिलने आती है
गठिया वाले पाँव हैं चलते, दर्द पुराने खो जाते हैं।

आंगन में आता है जब भी सावन का हरियल सा महीना
बिना तुम्हारे पिया ये प्यासे नयन कटोरी हो जाते हैं।

तेरी मेरी प्रीत निराली

तेरी मेरी प्रीत निराली
तू चन्दा है नील गगन का
मैं पीतल की जलमय थाली!

क्या तूने देखा धारा को
सीपी मुक्ता माल पिरोते?
क्या तूने देखा बंसी को
छिद्रयुक्त हो सुर संजोते?
क्या मलयज भी सकुचाती है
धवल गिरि के सम्मुख होते?
क्यों घबराती पिया मैं तन मन
तेरा जो तुझ पर ही खोते?

तू नीलाभ गगन का स्पन्दन
मैं धूलि हूँ पनघट वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

हो रूप गुणों से आकर्षित यदि
तेरी चेतना मुझ तक आती
कैसे फिर मेरे शून्यों को
अपने होने से भर पाती!
डोर प्रीत की तेरी प्रियतम
खण्ड मेरे है बाँधे जाती!
तेल बिना क्या कभी वर्तिका
जग उजियारा है कर पाती?

दिनकर! तेरे स्नेह स्पर्श बिन
नहीं कली ये खिलने वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

धरा संजोती जैसे अंकुर
मुझे हथेली में तू रखता
अपनी करुणा से तू ईश्वर
मेरे सब संशय है हरता!
प्राण मेरे! बन प्राण सुधा तू
पल-पल प्राणों में है झरता!
जग अभिनन्दन करता जय का
दोषों पर मेरे तू ढरता!

नहीं मुझे अवलम्बन खुद का
तू ही भरता मेरी प्याली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

तू शंकर का तप कठोर
मैं एक कुशा माँ सीता वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

१० दिसम्बर ०८

अभिनन्दन

स्थूल में और सूक्ष्म में सौन्दर्य जो, उनको समर्पित
व्यक्त और अव्यक्त में सिमटी हुई सारी ऋचायें,
है समर्पित फूल हर, खिलता हुआ जन में,विजन में
और हर रंग के अधर, पा कर खुशी जो मुस्कुरायें।

थाल पूजा का सजा, धो कर रखी सब भावनायें
नववधू की हिचकिचाहट, शिशु देखती माँ की ललक भी,
संस्कारों में रंगी हल्दी, सुपारी और मेंहदी,
ज्ञान के कुछ श्वेत चावल, प्रीति का अरुणिम तिलक भी।

और दीपक आस के, विश्वास के मन में जला कर
आज स्वागत कर रही हूँ द्वार पर जा कर उषा के,
मधुरिमा मधु-मिलन मंगल, मांगलिक मानस में मेरे
देखो, अंबर झुक गया पदचाप सुन शंकर-उमा के!

अभिनन्दन उनको दिवस का!
मिलन हो सुख और सुयश का!

प्रकृति जितना देती है 

जहाँ हँसे हैं लाल फूल, वहाँ
नीले भी अक्सर खिल जाते
निश्छलता कितनी प्रकॄति में
रंग दूर के घुल-मिल जाते!

सुघड़ पेड़ के पास खड़े
मुँह बाये, तकते नहीं अघाते
कितने सुकुमार ललायित अंकुर
बूँद स्नेह की पा सिंच जाते!

और कभी संध्या प्रभात मिल
दोनों जब खुल के गपियाते
सूरज दादा देर गये तक
रिरियाते छुट्टी ना पाते!

कभी पवन का बैग खोलते
कभी बरखा की बूंदों के खाते,
काश! प्रकृति जितना देती है
अंश मात्र उसको लौटाते!

१३ नवम्बर ०८

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की
बस आज ये सिंगार कर ले,
स्टील, लोहा, सोना, चांदी
जो मिले, ले रीढ़ मढ़ ले!

तू पीठ सीधी . . .

आज तू काजल लगा ना
अपनी कलम स्याही से भर ले,
झूमर में हैं जो दो सितारे
कर यत्न, आँखों में उतर लें!

तू पीठ सीधी . . .

गूढ़तम जो प्रश्न होगा
लौटेगा अनुत्तरित समझ ले
ना रामशलाकाप्रश्नावली ये जीवन
तू जी इसे, उत्तरित कर ले!

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की!

१० नवम्बर ०८

गुडमार्निग सूरज 

सुबह उठी तो ये क्या देखा
वान गो की पेंटिंग जैसा
सूर्यमुखी का पीलापन ले
आज निखर आया है सूरज!

शाम लगाई डुबकी जल में
और बादलों से मुँह पोंछा
लाली लगा कमलदल वाली
कितना इतराया है सूरज!

आजा तुझ को मजा चखाऊँ
डुबो चाय में मैं खा जाऊँ
पा कर मेरे प्यार की झप्पी
कितना शरमाया है सूरज!

आज बांध कर चुन्नी में मैं
अमलतास पे लटका दूँगी
रंगोगे क्या जीवन सबके
सुन क्यों घबराया है सूरज!

७ नवम्बर ०८

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा
याद में तेरी ना वो जोगन बनेगी
ईंट, पत्थर, पानी और आलाव का घर
सेंक रोटी हाथ की रेखा दहेगी

वह नदी जो जंगलों में बह रही है
मानिनी सागर से जा कर ना मिलेगी
हर लहर हो वाष्पित अंत: तपन से
याद के दीपक विसर्जित कर जलेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

क्यों बंधा ये बंध तुझ से, वो ना समझी
रेशमी ये गांठ तुझसे ना खुलेगी
तोलता जिसमें है तू कुछ काँच, हीरे
खुशबूएं ये उस तराज़ू ना तुलेंगीं

होंठ पे गुड़मुड़ रखी एक मुस्कुराहट
देखना, कुछ ही पलों में खिल हँसेगी
फिर कहेगी गीत से, तू क्यों खड़ा है
जिन्दगी की टेक है, चलती रहेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

२ नवम्बर ०८

याद कुछ पक्का नहीं है 

है अनिश्चित वह घड़ी, बैठे हुए या हम खड़े थे
याद इतना है भंवर दो, गाल पर गहरे पड़े थे
चूमती थी तब गुलाबी चूनरी का छोर धरती
ढीठ थे कुछ पर्ण सूखे, कंटकों में सिल जड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

ये कमल लाये कहाँ से, पूछ कर तुम हँस दिये थे
कह न कारण मैं सका, क्यों बूट कीचड़ में मढ़े थे
और हमने साथ में “सिज़लर” कहा जब रेस्तरां में
आँख तो मिल न सकीं थीं, होंठ पर, दहके बड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

हाजिरी में ज्यामिती की नाम बोला था तुम्हारा
हाथ मेरा उठ गया था, शर्म के फ़ूटे घड़े थे
सिर्फ़ तुमको ही पढ़ा, मैं अनुसरण करता रहा था
हार कर भी खुश हुआ ज्यों जीत के झंडे गड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

क्षण नहीं हैं प्रेम के बस, प्रीत जब गहरी हुई थी
तप्त होकर पीर से पक्के हुए जीवन-घड़े थे
आज गिन कर वक्त नापें अर्थहीना हो गया है
लग रहा अनगिन जनम से संग अपने पग बढ़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

१७ अक्तूबर २००८

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी

पेड़ों के झुरमुट से छन के जो आती
धवल धूप क्या याद मुझ को दिलाती
हरे खेतों की जो मड़ैया से जाता
थका-हारा राही मधुर गीत गाता

चूड़ा-दही-खाजा और कुछ बराती
अनब्याही दीदी मधुर सुर में गातीं
अभी दाई गोबर की थपली थपेगी
माँ भंसाघर में जा पूये तलेगी

सिल-बट्टे पे चटनी पीसे सुनयना
“किसी ने निकाला जो देना है बायना?”
“अभी लीपा है घर!”, उफ! बड़के भईया
चिल्ला रहे पर्स खोंसे रुपैया

आँधी में दादी हैं छ्प्पर जुड़ातीं
भागे हम झटपट गिरें आम गाछी
वो मामू का तगड़ा कंधा सुहाना
जिस पे था झूला नम्बर से खाना।

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी
नमक-तेल-मिर्ची और रोटी बासी।

०९ अक्तूबर ०८

गीतकार

लेखनी से जब गिरें
झर स्वर्ग के मोती
पाने को उनको सीपियाँ
निज अंक हैं धोतीं।
कोई चले घर छोड़ जब
अहम् , दुख , सपने
उस केसरी आँचल तले
आ सभ्यता सोती।

जब तू शिशु था ईश ने आ
हाथ दो मोती दिये
एक लेखनी अनुपम औ’ दूजे
भाव नित सुरभित नये।
ये हैं उसी की चिर धरोहर
तू गा उसी का नाम ले
जो नाव सब की खे रहा
उसे गीत उतराई तू दे।

तू गीत उन्नत भाल के रच
मन को तू खंगाल के रच
कृष्ण के कुन्तल से लिपटे
गीत अरुणिम गाल के रच।
तू दलित पे गीत लिख
और गीत लिख तू वीर पे
जो मूक मन में पीर हो
उसको कलम की नीर दे।

तू तीन ऐसे गीत रच जो
भू-गगन को नाप लें
माँ को, प्रभु को पाती लिख
लिख प्रेम को निष्काम रे।
ये गीत मेरा जो तुम्हारे
पाँव छूने आ रहा
जिस ठाँव तू गाये
ये उसकी धूल बस हटला रहा।

०५ अक्टूबर ०९

ज़िन्दगी के तीन दिन

दे सको तो दो प्रिये मुझे ज़िन्दगी के तीन दिन
एक दिन उल्लास का, मृदु हास का, उच्छ्वास का
एक दिन रस-रास का, सहवास का, सुवास का
एक दिन पूजा का, श्रद्धा का, अमर विश्वास का .

वो दिन कि जिसमें तुम हो, मैं हूँ, तीसरा कोई नहीं हो.

वो दिन कि तुम नदियों से दूजी कह दो तुम में ना समायें
वो दिन कि माज़ी याद ले के दूसरी कोई ना आये
वो दिन कि जिसमें साँस लो तुम, प्राण मेरे प्राण पायें
वो दिन कि जब ना दिन ढले ना शाम जिद्दी घर को जाये .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !

वो दिन कि जब ये सूर्य बोले स्वर्ण भी हूँ , अरूण भी हूँ
और बादल हँस के बोले वृद्ध भी हूँ , तरुण भी हूँ
प्रीति बोले त्याग हूँ मैं और प्रिय का वरण भी हूँ
चिति बोले ब्रह्म हूँ मैं और स्व का हरण भी हूँ .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !
दे सको तो दो प्रिये मुझे !

तेरी याद !

उफ़! तेरी याद की मरमरी उँगलियाँ
आ के काँधे पे लम्हें पिरोती रहें
जैसे सूने पहाड़ों पे गाये कोई
और नदियाँ चरण आ भिगोती रहें !

पगतली से उठे, पीठ की राह ले
एक सिहरन सी है याद अब बन गई
चाँदनी की किरण दौड़ आकाश में
सब सितारों को ले शाल एक बुन गई !

ताक पे जा रखा था उठा के उसे
तेरी ग़ज़लों को सीढ़ी बनाके हँसी
गीतों का ले सहारा दबे पाँव वो
उतरी है मुझसे नज़रें चुरा के अभी !

बन के छोटी सी बच्ची मचलने लगी
गोद में जा छुपी, हाथ है चूमती
चाहे डाटूँ उसे या दुलारूँ उसे
आगे-पीछे पकड़ पल्लू वो घूमती !

एक गमले में जा याद को रख दिया
घर गुलाबों की खुशबू से भर सा गया
जाने कब मैं बनी मीरा, तू श्याम बन
मेरे जीवन में छन्न-छन्न उतरता गया !

क्या समय के पहले समय नहीं था?

क्या समय के पहले समय नहीं था?
पानी से पहले नहीं था पानी?
खड़ा हठीला टीला ये जो, क्या इससे पहले रेत नहीं था?

और मृदा संग हवा कुनमुनी,
धूप, पात, वारि ने मिल कर,
स्वर मिश्री सा साधा उससे पहले सुर समवेत नहीं था?

तैरे आकाशी गंगा सूरज,
धरा ज्योति में गोते खाये,
इससे पहले सभी श्याम था, कोई आंचल श्वेत नहीं था ?

नाम नहीं था जब चीजों का,
प्रीत, पीर क्या एक नहीं थे?
ऐसा क्यों लगता है मुझको, जैसे इनमें भेद नहीं था ?

तुमने जो इतने भावों को,
ले छिड़काया मन में मेरे,
पहले भी ये ज़मीं रही थी, पर चिर नूतन खेत नहीं था !

(गेबरियल गार्सिया मार्क्वेज़ को समर्पित)

हमको ऐसे मिली ज़िंदगी ! 

इक मुड़ी जीन्स में, फँस गई सीप-सी
आँधियों से भरे, एक कृत्रिम द्वीप-सी

नाखूनों में घुसी, कुछ हठी रेत-सी
पेड़ बौने लिए, बोन्साई खेत-सी

टूटी इक गिटार-सी, क्लिष्ट व्यवहार-सी
नाम भी ना रहे याद, भूले प्यार-सी

फोटो बिन फ्रेम की, बस कुशल-क्षेम-सी
बारिशों से स्थगित एक क्रिकेट गेम-सी

हाथ से ढुल गई मय ना प्याले गिरी
शाम जो रात लौटी नहीं सिरफिरी

देने में जो सरल, सस्ते इक ज्ञान-सी
भाव से हो रहित, हाय! उस गान-सी

खोल खिड़की किरण जो ना घर आ सकी
धुन ज़हन में रही ना जुबाँ पा सकी

आदतों की बनी इक गहन रेख-सी
बस जो होती बहू में ही, मीन-मेख-सी

बी.एम.आई इंडैक्स सी, बिन कमाई टैक्स-सी
जो कि पढ़ ना सके, उड़ गये फैक्स-सी

हमको ऐसे मिली कि हँसी आ गई
फिर गले से लगाया तो शर्मा गई

ज़िंदगी प्यार के झूठे ई-मेल सी
पुल पे आई विलम्बित थकी रेल सी !

कौन मेरे दर्पण में ?

चित्र एक दिख गया नयन में, एक दिवस मुझको अनजाने
छोड़ दिया है तबसे मैंने दर्पण में खुद को निहारना
एक जीर्ण सी यष्टि अपरिचित, बाल पके भुट्टे के जैसे !
अंतरमन तराशती तब से, छोड़ दिया तन को निखारना !

कौन सत्य दिखला जाता है, और कौन है बनता रक्षक
कौन दर्प मेरा सीमित कर, बन जाता है पंथ-प्रदर्शक
कौन बाद जो है बसंत के ग्रीष्मऋतु सखि ले आता है
कौन चाक पे रखी उमरिया की माटी, घट कर जाता है ?

कौन मुझे जो फल देता है, और अधिक झुकना सिखलाता
कौन मेरा संशय दावानल प्रेम सुधा से सींचे जाता
कौन मुझे हँस कह देता है प्राप्ति नहीं कर प्रेम सखि री
और कौन मन के दर्पण में सत्-चित-आनंद भाव भरे री ?

सुन ओ निराकार तुम मेरे, गुरु बनो, बाँहें संभालो
डगर नयी, पग कोमल मेरे, तृष्णा की ये फांस निकालो !
कलुषित, तृण सम बहते मन को, करुणा से अपनी सहेज लो
बालक सा क्रंदन सिखलाओ, शब्द निरथर्क सारे ले लो !

कच्ची गणित का प्रश्न

दोस्त मैं कन्धा तुम्हारा जिस पे सर रख रो सको तुम
वेदना के, हार के क्षण, भूल जिस पे सो सको तुम
बाहें मैं जिनको पकड़ तुम बाँटते खुशियाँ अनोखी
कान वो करते परीक्षा जो कि नित नव-नव सुरों की ।

मैं ही हर संगीत का आगाज़ हूँ और अंत भी हूँ
मैं तुम्हारी मोहिनी हूँ, मैं ही ज्ञानी संत भी हूँ
शिंजनी उस स्पर्श की जिसको नहीं हमने संवारा
चेतना उस स्वप्न की जो ना कभी होगा हमारा ।

हूँ दुआयें मैं वही जो नित तुम्हारे द्वार धोयें
और वो आँसू जो तुमने आज तक खुल के ना रोये
मैं तपिश उन सीढियों की जो दुपहरी लाँघती हैं
और असमंजस पथों की जो पता अब माँगती हैं ।

प्रश्न वो कच्ची गणित का जो नहीं सुलझा सके तुम
शाख जामुन की लचीली जिस पे चढ़ ना आ सके तुम
मैं तुम्हारे प्रणय की पहली कथा, पहली व्यथा हूँ
मैं तुम्हारा सत्य शाश्वत, मैं तुम्हारी परी-कथा हूँ ।

मैं हूँ तीस्ता नदी ! 

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा ।

‘पत्थरों पे उछल के संभलना सखि’
मुझ से हंस के कहा इक बुरुंश फूल ने
अपनी चांदी की पायल मुझे दे गयी
मुझ से बातें करी जब नरम धूप ने ।

मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गयी मलयजें
मुझ से ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
हो के कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें ।

कितने धर्मों के पाँवों मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझ में आ घुल गयी
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले ।

झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गयी
चीड़ ने देख मुझ में संवारा बदन
आप आये तो मुझ में ज्यों जां आ गयी
आप से मिल के मेरे भरे ये नयन ।

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई !

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते

हर एक पग जो मैं चला था
वह तेरे पथ ही गया था ,
ज्ञात ना गन्तव्य था पर
लक्ष्य आ खुद सध गया था ।

तू ही है मनमीत मेरा
तू ही मेरा प्राणधन,
कस्तूरी मृग सा मैं भटकता
तू है गंधवाही पवन ।

तू रहे किस काल में
किस देस में, किस भेस में ,
इसकी नहीं परवाह करता
तुझ से विलग ना शेष मैं !

विश्रांति में तुझ को पुकारे
बाट संजोये सदा
वो खोज मैं, मैं वो प्रतीक्षा
मैं वो चातक की व्यथा ।

द्वंद जितने भी लड़ा था
और जो लिखा-गढ़ा था,
वो तेरे ही द्वार की
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ा था ।

आज जब मैं पास हूँ
क्यों मुझ से तू मुख फेरता,
मैं ना हरकारा कोई
जो जाये घर-घर टेरता ।

मैं तेरे संग बोल लूँ
तुझको तुझी से तोल लूँ
मैं तेरा ही अंश प्रियतम
क्या पूर्ण का मैं मोल दूँ ?

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी
कलिष्ट वो शब्द जो अनकहा रह गया
मैं वो पाती जो बरसात में भीग कर
इतना रोई कि सब अनपढ़ा रह गया ।

मैं हूँ रश्मिरथी की त्रिभुज सी किरण
चूम कर भूमि, रथ फिर चढ़ा ना गया
मैं कभी वाष्प बन, फिर कभी मेह बन
इतना घूमी कि मोती गढ़ा ना गया ।

मैं वो धुंधली परी, कल्पना से भरी
जिसके पंखों को ले कर समय उड़ गया
नीले घोड़े पे आया था छोटा कुंवर
पर उबलती नदी से परे मुड़ गया ।

मैं वो यौवन जो आभाव से ब्याह गई
मैं वो बचपन जो पूरा जिया ना गया
तृष्णा और तृप्ति के मध्य में मैं खडी
एक अरदास मन से पढ़ा ना गया ।

मैं वो जोगन जो मेंहदी रचे पाँव ले
राजघर तो चली पर रहा ना गया
मीरा की चाह में, राणा की आह! में
मैं वो दोहा जो पूरा कहा ना गया ।

मैं काश ! अगर तितली होती

मैं काश ! अगर तितली होती
नभ में उड़ती, गुल पे सोती ।

नवजात मृदुल पंखुडियों का
पहला-पहला क्रन्दन सुनती
अंकुर के फूट निकलने पर
गर्वीला भू-स्पंदन सुनती ।

हो शांत , दोपहरी काँटों की
पीड़ा सुन ह्र्दय बिंधाती मैं
नव प्रेमी-युगल की बातें सुन
उनके ऊपर मंडराती मैं ।

शर्मा महकी शेफाली का
रत-जगा करा दर्शन करती
और झरते सुर्ख गुलाबों का
गीता पढ़ अभिनन्दन करती ।

प्रथम रश्मि के आने से
पहले झट ओस पियाला पी
मैं अनजानी बन कह देती
थी रात ने कुछ कम मदिरा दी ।

गर कोई गुल इठलाता तो
ठेंगा उसको दिखलाती मैं
कभी उपवन छोड़ पतंगों की
डोरें थामे उड़ जाती मैं ।

तेरे सुमन सरीखे छ्न्दों का
मधु पी सुध-बुध खो जाती मैं
फिर शाम ढले यूँ लिपट-चिपट
उन्हीं छ्न्दों पे सो जाती मैं ।

मैं काश ! अगर तितली होती !

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं सरिता सजल जिसके लिए पर्वत गला था ।
बेच आया छन्द कितने, जीत आया द्वंद कितने
पर विजय केशव न ये जिसके लिए राधेय छला था ।

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं …

मैं रहा मैं और मेरा है मुझे अब तक ममेतर
यह नहीं वह चेतना जिसके लिए तिल-तिल जला था ।
देख नन्हें श्रमिक का दुख हाय ! मैं हतप्रभ खड़ा हूँ
सीमित यहीं संवेदना जिसके लिए कवि-पथ वरा था ?

क्यों नहीं मैं सूर्य सा जल
या धवल हिम-खण्ड सा गल
इस जगत के काम आता
अंकुर उगाता !

या दलित की आँख में ढल
आह बन कर निर्धनों की
संग उनके गीत गाता
अर्थ पाता !

जब भी उठा था दान को किसने पकड़ कर कृपण कर मेरा धरा था ?
ये ही भविष्यत् का सुखन जिसके लिए संचय करा था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं वह बीज जिसके लिए गुल हँस-हँस झरा था ।

औेर लोगों पे मलूँ क्यों
अपने हृदय की लीक कालिख
काश! इसको धो मैं पाता
गंगा नाहाता !

या कि बन कार्बन सघन
कोयले से ले आतिश जलन
पाषाण से मैं घात पाता
चमक जाता !

“किस्से कहानी की ये बातें, सत्य ये होतीं नहीं हैं ”
क्या झूठ थे वे सब कथानक जिनको बचपन में सुना था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं उपवन हरित जिसके लिए मरूथल जला था ।

काश ! एक दिन वन्दना में
ईश का कर ध्यान पाता
खुद को मिटाता
जी मैं जाता !

गुलाबी

मधुसूदन के हस्त गुलाबी
बृज की गोपी मस्त गुलाबी
गोमुख, गोपद धूल गुलाबी
काली जमुना, कूल गुलाबी
राधा की चिर प्रीति गुलाबी
नटवर की हर नीति गुलाबी
मधुर गुलाबी जसुमति प्यार
बंधे कन्हाई जिस से हार !

नयन, अधर, नख, गाल गुलाबी
बहकी लहकी चाल गुलाबी
फूल, कली, नव पात गुलाबी
गयी शाम बरसात गुलाबी
संध्या का लहराता आँचल
सिक्त किरण चमकाता बादल
पंख, शंख, परवाज़ गुलाबी
गीत, सदा, आवाज़ गुलाबी

प्रथम प्रणय की आंच गुलाबी
पिया मिलन की सांझ गुलाबी
नन्हें पग और स्मित की रेख
हर्षाती माँ जिनको देख
शिशु तो लालम लाल गुलाबी
जीवन के कुछ साल गुलाबी
बिटिया से घर-द्वार गुलाबी
रीति, रस्म, व्यवहार गुलाबी

हाय! काट के प्याज़ गुलाबी
हो गईं आँखें आज गुलाबी
गोभी, शलजम और तरबूज
हुए गुलाबी कुछ अमरुद
दादी गातीं छंद गुलाबी
पान बीच गुलकंद गुलाबी
दादा जी की पाग गुलाबी
होते कुछ-कुछ साग गुलाबी

क्या होते कुछ घाव गुलाबी?
चढ़ता ज्वर और ताव गुलाबी?
और गुलाबी पर्ची थाम
छूट गए जिन सब के काम
क्या उनके हालात गुलाबी?
पत्नी करती बात गुलाबी?
सुंदर प्रकृति के ये रंग
लालच कर देता सब भंग !

आप कहें क्या और गुलाबी
वस्तु, कार्य या ठौर गुलाबी ?

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी
जैसे बारिश हो धूप में हल्की
मेरे सर पे रखे जो वो आँचल
भीड़ में हाथ थाम लेते पल

मेरे आने पे वो बनाना कढ़ी
छौंकना साग और तलना बड़ी
एक लौकी से सब बना लेना
सब्जी और बर्फ़ी भी जमा देना

उसके गुस्से में प्यार का था मज़ा
कैसा बच्चों-सी देती थी वो सज़ा
उसका कहना “पापा को आने दे!”
बाद में हँस के कहना “जाने दे!”

याद आते हैं उसके हाथ सख़त
तेल मलना वो परीक्षा के वखत
वो ही कितने नरम हो जाते थे
ज़ख़्म धोते, मरहम लगाते थे

उसका ये पूछना “अच्छी तो है?”
कहना हर बात पे “बच्ची तो है!”
सुना होती है सबकी माँ ऎसी
होती धरती पे है ख़ुदा जैसी !

खोटा सिक्का

मैं एक खोटा सिक्का हूँ
कई हाथों से गुज़रा हूँ
किसी ने देख ना देखा
किसी ने जान कर फेंका

कभी मुजरा-कव्वाली में
कभी पूजा की थाली में
कभी लंगडे की झोली में
कभी ठट्ठा ठिठोली में

कभी मजदूर हाथों में
कभी मजबूर रातों में
जिये बस खोट ही मैंने
दिये बस चोट ही मैंने

आज नन्हें हाथ में
आ कर के ठिठका हूँ
इसे भी धूल झोंकूँ या
कह दूँ कि खोटा हूँ

“माँ देख इसको भी
लगी है चोट माथे पे
हो गया कितना गन्दा ये
इसे भी साथ नहला दे।”

मुझे धो पोंछ कर बच्चे ने
तकिये के तले डाला
कभी यारों को दिखलाया
कभी सहलाया, सँभाला

अब उसके साथ सोता हूँ
उसे गा कर जगाता हूँ
मैं लोहे का इक टुकड़ा हूँ
दुस्वपनों को भगाता हूँ।

कब आओगे नगरी मेरी

कल बड़े दिनों के बाद सजन
आँखों में ना डाला अंजन
सोचा वंशीधर आएँगे
तो पग काले हो जाएँगे।

फिर रात, प्रात:, संध्या बीतीं
आहट से रही ह्रदय सीती
कब आओगे नगरी मेरी
आँखे सूनी, देह की देहरी।

ये गीत तेरा

आज उसने गीत तेरा ये पढ़ा शत बार होगा
मिली होगी इक सहेली नाम जिसका प्यार होगा।

आइने को परे रख तेरी ग़ज़ल में देखा होगा
जुल्फ फिर सँवारी होगी, तीर तिरछा फेंका होगा।

छाप नीले अक्षरों में, अधर रख मुस्काया होगा
घर की गली के पास ही फेंक कर बिखराया होगा।

वहीं कोई रात-रानी सोचे ये चन्दा चितेरा,
तारकों को चुन निशा के गीत में फिर लाया होगा।

बोलो कहाँ उपजायी थी

जलपाइगुडी के स्टेशन पे तुमने थामा था हाथ मेरा
राइन नदी में बतखों ने फिर डुब-डुब डुबकी खाई थी

सिंगापुर के सूरज को एक हाथ बढा कर ढाँपा था
आल्पस् की अलसाई सुबह फिर थोड़ा सा गरमाई थी।

फिर भावों को तुम तोल रही हो देश-काल के पलड़ों में?
ये कह स्नेह-सिक्त माटी हरियल मलमल मुस्काई थी

जो भाप हवा में जुड़ता है, पा वेग पवन का उड़ता है
वो कहता नहीं कभी बूँदों से ‘सखि बोलो कहाँ उपजायी थी?’

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

किस रंग खिलीं कलियाँ
दुबकी आई क्या छिपकलियाँ
सूनी रोई होंगी गलियाँ
घर लौटूँ तो बताना

जो स्वप्न बुने मैंने
जो गीत चुने मैंने
किस्से जो गुने मैंने
मैं आऊँ तो दोहराना

थक सा गया है थोडा
मेरीे बाजुओं का जोडा
अब पाँव घर को मोडा
अपनी पलकें तुम बिछाना

आराधना

यों ही उस धार में बहे हम भी
जैसे पूजा के फूल बहते हैं,
मेरे हाथों में तेरा दामन है
मुझे तेरी तलाश कहते हैं।

तुझ को पा कर के क्या नहीं पाया
तुझ को खो कर के मैं अधूरी हूँ,
तू जहाँ बाग़ है वो ज़मीन हूँ मैं
तेरे होने में मैं ज़रूरी हूँ।

तू मुझे प्यार दे या ना देख मुझे
मेरी हर उड़ान तुझ तक है,
तेरी दुनिया है मंज़िल दर मंज़िल
मेरे दोनों जहान तुझ तक है।

चाहत के चिराग 

तुम जो खामोश रहोगे मेरे अफ़साने आ के
तुम्हारी रूह से बातें करेंगे जी भर के
और जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

तुम जो तन्हा कभी बैठे होंगे
न गम़गी़न न खुश बस यों ही
मेरी यादों के तबस्सुम आ के
तेरे लबों के किनारों से लिपट जाएँगे।

कुछ यों हमारे प्यार का किस्सा होगा
मेरी चाहत तुम्हें मायूस न होने देगी
और जो काँटें तेरी राह में बिखरे होंगे
मेरे कदमों की पनाहों में सिमट आएँगे।

जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

स्वप्न

लाख समझाओ
मगर मन कब समझता है
मेरा हर स्वप्न तेरी राह
हो कर ही गुज़रता है।

ख़्वाब

ना ये प्यार है न दोस्ती
ये एक हसीन-सा ख़्वाब है।
तू कहे तो ज़िंदगी
मैं आँख अपनी खोल दूँ।।

हँस के ज़माना कह गया
तेरे पास अब क्या रह गया।
बोलो तो अनमोल तुमको
किस तराजू तोल दूँ।।

वादा

जो वादा तूने किया नहीं
मुझे उस पे क्यों कर यकीन था।
ये तेरे हुनर की हद थी या
मेरे जुनू का था वाकया।।

किरन 

तू तो बादल है
चमक मेरी क्या छुपाएगा।
ढक भी लेगा तो
किनारे से जगमगाएगा।।

चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिंगारी

हवा इसे तू देते रहना
दिल में सपन समेटे रहना
हँसी होंठ पे जो रखता है
हर गम से वो लड़ सकता है
ऊँच नीच सबकी तैयारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

माना पैसा बहुत जरूरी
बन ना जाये ये मजबूरी
सबसे बढ़कर खुशी है मन की
गाते रहना धुन जीवन की
गीत सुने तेरा दुनिया सारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

दुनिया में इंसाफ ना हरदम
स्याही की चादर ओढ़े ग़म
फिर भी जो दिल जोड़े दिलों से
हँस के जो खेले ख़तरों से
सूरज भी है उसका पुजारी
बुझ ना पाये ये चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिनगारी

तेरे पीछे माया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

सहसा बिटिया बड़ी हो गई, छन्न से यौवन आया
लौटेगा क्या समय साथ जो हमने नहीं बिताया।

कब बसंत बौराया

बचपन की आँखों से धुल गई इंद्रधनुष की छाया
रंग ले गया कुछ बालों से हर मुश्किल का साया।

कब बसंत बौराया

धन शोहरत की राह चली, ग़म दबे पाँव से आया
ढूंढ़ा था क्या भला इसे ही, जिस मंज़िल को पाया।

कब बसंत बौराया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

दोस्त

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा
तेरी हर बात में अपना ही फ़लसफ़ा देखा।

मंज़िलों को चलें साथ हम मुमकिन नहीं मगर
जब से तू संग चला, फूलों का रस्ता देखा।

निखर गई मेरी रंगत, सँवर गईं जुल्फ़ें
ये तेरी आँख में देखा कि आईना देखा।

न गै़रों की नज़र लगे, न हम खुद हों बेवफ़ा
ये दुआ करी हमने, ये ही सपना देखा।

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा।

शार्दूला के दोहे

थोड़ा मन में चैन जो, तुझ को रहा उधार
तेरी भेजी लकड़ियाँ, मुझको हैं पतवार।

आधी-आधी तोड़ कर, बाँटी रोटी रोज़
पानी में भीगा चूल्हा, जाने किसका दोष।

परचम ना फहराइए, खुद को समझ महान
औरों के भी एब पे, थोड़ी चादर तान।

कम ज़्यादा का ये गणित, विधि का लिखा विधान
तू मुझको दे पा रहा, अपनी किस्मत जान।

और अंत में दोस्तों, तिनका-तिनका जोड़
औरों का मरहम बनें, यही दर्द का तोड़।

बसंत आया 

क्या तुम्हारे शहर में भी
सुर्ख गुलमोहर की कतारें हैं
क्या अमलतास की रंगोबू
तुम्हें भी दीवाना करती है
क्या भरी दोपहरी में तुम्हारा भी
भटकने को जी करता है
अगर हाँ तो सुनो जो यों जीता है
वो पल-पल मरता है
क्योंकि हर क्षण कहीं कोई पेड़
तो कहीं सर कटता है।

पारस

मैं तो पारस हूँ , मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

हर मोड़ पे हो जिसके बिछुड़ जाने का डर
ऐसे राही के संग यारों सफ़र ना करना।

गर फूल खिलाते हो दिल की मिट्टी में
एक आँख में सूरज़, एक में शबनम रखना।

मैंने इन होठों से जिनको छुआ था जाते समय
उसने छोड़ा है उन जख़्मों पे मरहम रखना।

वो मेरे आँख का मोती था या हाथों का नगीना
जो गुम गया अब उस पे बहस क्या करना!

मुझको खुदा दुनिया में गर फिर लाएगा
दिल मेरा बड़ा, उमर मेरी ज़रा कम रखना।

मैं तो पारस हूँ, मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

माँ

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

मेरी सर्दी मेरी खाँसी
मेरा ताप और बीमारी
हँस के तू अपना लेती थी
करती कितनी सेवादारी

पा कर तेरा स्पर्श तेजस्वी
मैं अच्छा हो जाता था
फिर लूट पतंगें फाड़ जुराबें
देर रात घर आता था

दरवाजे पे खड़ी रही होगी
तू जाने कब से
श्! श्! कर किवाड़ खोलती
बाबू जी गुस्सा तुझ से!”

फिर बड़ा हुआ मैं, बना प्रणेता
किस्मत ने पलटा खाया
जो समझ शूल दुनिया ने फेंका
बना ताज उसे अपनाया

सब चाहने वालों से घिर भी
तेरा प्यार ढूँढ़ता हूँ
जो धरती अंकुर पर करती
वो उपकार ढूँढ़ता हूँ .

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

विदा की अगन

मैं कोयला हूँ कहो तो आग दूँ
या फिर धुआँ कर दूँ।
मुझे डर है ना दर्देदिल
निगाहों से बयाँ कर दूँ।

मुझे अफ़सोस है तुमने मुझे
अपना नहीं समझा।
खुशी तो बाँट ली मुझ से
मगर गम पास ही रखा।

सुना था दिल की मिट्टी में
ये गम बन फूल खिलता है।
बेगरज दोस्त दुनिया में
बड़ी किस्मत से मिलता है।

चलो छोड़ो गिले शिकवे
विदा होने की बारी है।
इस कोयले में चमक जो है
अमानत वो तुम्हारी है।

सूरज में गरमी ना हो

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।

देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।

ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।

बोली को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जो जाता है सब छोड़ कर
उसको रोको ना तुम जाने दो।

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो।

सच कहूँ तेरे बिना

सच कहूँ तेरे बिना ठंडे तवे सी ज़िंदगानी
और मन भूखा सा बच्चा एक रोटी ढूँढता है
चाँद आधा, आधे नंबर पा के रोती एक बच्ची
और सूरज अनमने टीचर सा खुल के ऊंघता है !

आस जैसे सीढ़ियों पे बैठ जाए थक पुजारिन
और मंदिर में रहे ज्यों देव का श्रृंगार बासी
बिजलियाँ बन कर गिरें दुस्वप्न उस ही शाख पे बस
घोंसला जिस पे बना बैठी हो मेरी पीर प्यासी !

सच कहूँ तेरे बिना !

पूछती संभावना की बुढ़िया आपत योजनायें
कह गया था तीन दिन की, तीन युग अब बीतते हैं
नाम और तेरा पता जिस पर लिखा खोया वो पुर्जा
कोष मन के और तन के हाय छिन छिन रीतते हैं !

सच कहूँ तेरे बिना मेरी नहीं कोई कहानी
गीत मेरे जैसे ऊंचे जा लगे हों आम कोई
तोड़ते हैं जिनको बच्चे पत्थरों की चोट दे कर
और फिर देना ना चाहे उनका सच्चा दाम कोई !

सच कहूँ तेरे बिना !

प्यार का रंग ना बदला

परिवर्तन के नियम ठगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
अब तक है उतना ही उजाला !

आम का पकना, रस्ता तकना
पगडंडी का घर घर रुकना
कोयल का पंचम सुर गाना
हर महीने पूनम का आना
अरे कहो! कब व्रत है अगला ?
तीज, चौथ कब, कब कोजगरा ?
क्या कहते हो सब कुछ बदला !
गाँव का मेरे ढंग ना बदला !

आम मधुर, रस नेह पगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
होली के हुड़दंग सा पगला !

इक पल जो घर आँगन दौड़ा
चढ़ भईया का कंधा चौड़ा
आज अरूण रंग साड़ी लिपटा
खड़ा हुआ है वह पल सिमटा
उस पल को आँखों में भरता
छाया माँ मन कोहरा धुंधला !
अभी चार दिन पहले ही तो
पहनाया चितकबरा झबला !

माँ के आगे सब बच्चे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
हर सागर है उससे उथला !

नयन छवि बिन, गगन शशि बिन
माधव बिन ज्यों राधा के दिन
कृषक मेह बिन, दीप नेह बिन
शरद ऋतु में दीन गेह बिन
उतना की कम खेत को पैसा
जितना हाथ अनाज ने बदला
जल विहीन मन बिना तुम्हारे
मीन बना तड़पा और मचला !

कष्ट जगत के बहुत बड़े हैं
प्यार का रंग हो जाता धुंधला !
आज बुद्ध तज घर फिर निकला !

कद्दू पे बैठी दो बच्चियाँ 

रूप ले ले मेरा, रंग भी छीन ले
ये कमर लोच रख, ये नयन तीर ले !
वो जो कद्दू पे बैठी हैं दो बच्चियाँ
ओ उमर तू मुझे बस वहीं छोड़ दे !

बस समय मोड़ दे !

आ उमर बैठ सीढ़ी पे बातें करें
आंगनों में बिछे, काली रातें करें
फूल बन कर कभी औ’ कभी बन घटा
माँ से नज़रें बचा पेड़ पे जा चढ़ें !

आ ये पग खोल दे !

क्या तुझे याद है सीपियाँ बीनना
दूर से आम कितना पका चीन्हना
और चुपके से दादी के जा सामने
चाचियों का बढ़ा घूँघटा खींचना !

पल वो अनमोल दे !

वो जो भईया का था छोटा सा मेमना
उसकी रस्सी नरम ऊन ला गूंथना
बस मुझे तू वहीँ छोड़ आ अब उमर
चारागाहों में भाता मुझे घूमना !

पट खुले छोड़ दे!

सूरज से मेरे दादाजी

सूर्य किरण फिर आज पहन के एक घड़ी जापानी
कमरे में आयी सुबह-सवेरे, मिन्नत एक ना मानी
हाय! तिलस्मी सपनोंं में मैं मार रहा था बाज़ी
और हैं दादा जी, “जल्दी उठ्ठो” आवाज़ लगा दी !!

बिल्कुल मेरे दादू जैसा ही है ये सूरज भी
सुबह इसे आराम नहीं, ना देर रात धीरज ही !
“जल्दी सोना, जल्दी उठना”, यही राग ये गाते
ऊपर से हर रोज़ एक सा गाते, गीत सुनाते !

“*नाक में उंगली, कान में तिनका
मत कर, मत कर, मत कर !
दाँत में मंजन, आँख में अंजन
नित कर, नित कर, नित कर !”*

ज़रा कहो तो “टूथ ब्रश” को मंजन कौन है कहता ?
और कौन सी नाक ना जिसमें आंगुर घुसा है रहता !
आँख में अंजन, यानी काजल, मैं लगाऊं ? पागल हूँ !!
दादा जी जो सूर्य चमकते, मैं चंचल बादल हूँ !

लड़ता रहता हूँ मैं उनसे, हम हैं यार घनेरे
माँ के बाद वही तो हैं ना सबसे अपने मेरे
अपने मन की बात सभी मैं झट उनसे कह देता
और ना सोता रात में जब तक किस्से ना सुन लेता !

दादा जी ने ही सिखलाया, नहीं माँगना कुछ ईश्वर से
और नहीं कुछ माँगा करता मैं भी दादा जी के डर से
एक बात बस आप से कहता, दादाजी को नहीं बताएं
हूँ मैं चाहता मेरे बच्चों को दादू ही गा के उठाएं !

सूरज से मेरे दादाजी!
मेरे काबा, मेरे काशी !

नाम ले मुझको बुलाओ

ओ नदी ! मैं बन के धारा
या कि बन दूजा किनारा
संग तेरे चल पडूँगी, नाम ले मुझको बुलाओ

दधि कसैला पात्र पीतल
पात्र बस चमका रे पागल
तर्क की तलवार से भयी
भावना भयभीत घायल

ओ प्रिये! तुम स्वर्ण मन में
अहं का दधि ना जमाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

जो निशा से भोर का
प्राची-प्रतीची छोर का
बंध मेरा और तुम्हारा
जो घटा से मोर का

तुम समय के कुन्तलों को
मोर पंखों से सजाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

तुहिन कण सी उज्ज्वला जो
चन्द्रिका सी चंचला जो
पात पे फिसली मचलकर
स्निग्ध निर्मल प्रीति थी वो

है अड़ी नवयौवना सी
पाँव इसके गुदगुदाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

पथिक ऐसे थोड़े गिन के
साथ हैं मनमीत जिनके
हम मिले हैं सुन सजनवा
साज और संगीत बन के

राह की संगीतिका को
मिलन धुन में ना भुलाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

नाम ले मुझको बुलाओ !

उठ चल मेरे मन

हो विलग सबसे, अकेला चल पड़ा तू
एक अपनी ही नयी दुनिया बसाने
तूफ़ान निर्मम रास्ते के शीर्य तुझ को
मन! ना घबरा, गीत जय के गुनगुना ले !

स्वर्ण, रजत व कांस्य घट ले नित्य दिनकर
भर रहा अंबर की नीली झील में क्षण
गा रहे खग के समूह तज नीड़ अपना
तू भी मगन दोहरा नव निर्माण के प्रण

ले विदा तू हाथ जिनको जोड़ आया
कर गहेंगी स्मृतियाँ तेरे बालपन की
ओ मेरे मन! राह से ना विलग होना
खींचें अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की

एक मुठ्ठी धरा, एक टुकड़ा गगन का
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में
वेग मरुतों का ढला बन श्वास प्रतिपल

विलय तुझ में हैं सकल अवरोध पथ के
नीतियाँ तुझ में ही जयश्री के वरण की
तू स्वयं ही द्वारपालों सा खड़ा मन
तुझ से निकलती सीढियाँ अंतिम चरण की

उठ मेरे मन दूर तू इस घाट से चल
तोड़ चल तू मोह के सब बन्धनों को
राह की कठिनाईयाँ तकतीं हैं रस्ता
दे नया तू अर्थ मानव जीवनों को !

उठ चल मेरे मन !
चल !

मौसम की ये कारस्तानी 

वन में आग लगा कर चंचल
टेसू मन ही मन मुस्काता
कब आओगे दमकल ले कर
रंग-बिरंगे फागुन दादा?

कोयल फिर सुर की कक्षा के
अभ्यासों में जुटी हुई है
और मेघ की नटखट टोली
कर के मंत्रणा घुटी हुई है!

एक बूंद भी नहीं बरसती
देख हँसी दूब को आयी
होता है हर साल यही तो
कह मेंढक ने ली जंभाई।

बालक सा मन पढ़ने लगता
पंचतंत्र की कथा पुरानी
नया साल फिर ले आया है
बातें सब जानी पहचानी।

दुनियावी सवाल सुलझाते
याद हमें आ जाती नानी
पर मन को शीतल कर जाती
मौसम की ये कारस्तानी!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे

खिलते हैं सखि वन में टेसू
फागुन भी अब आता होगा
धरती ओढ़े लाल चुनरिया
गीत गगन मृदु गाता होगा।

पगड़ी बाँधे अरुण पात की
वृक्ष खड़े हैं श्रद्धानत हो
स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!
रश्मि रोली, मेघ अक्षत लो।

हरित पहाड़ों की पगडंडी
रवि दर्शन को दौड़ी आये
चित्रलिखित सा खड़ा चन्द्रमा
इस पथ जाये, उस पथ जाये?

आज क्लांत मत रह तू मनवा
तू भी धवल वस्त्र धारण कर
स्वयं प्रकृति से जुड़ जा तू भी
सकल भाव तेरे चारण भर!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!

पाँव नदी में धो आते हैं

यादों के जब थके मुसाफिर, पाँव नदी में धो आते हैं
देर रात तक चूल्हे जल के, गंध पाहुनी बिखराते हैं।

माँ-बाबूजी के दुलार का, हाथ रहे जब सर के ऊपर
चाहे दिशाशूल में निकलूँ, कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं।

बहना ने भेजी जो हमको, हँसी ठिठोली चिट्ठी में भर
जब भी उनको खोल पढ़ूँ मैं, याद सुनहरी बो जाते हैं।

कितने सालों बाद जो ननदी, घर सबसे मिलने आती है
गठिया वाले पाँव हैं चलते, दर्द पुराने खो जाते हैं।

आंगन में आता है जब भी सावन का हरियल सा महीना
बिना तुम्हारे पिया ये प्यासे नयन कटोरी हो जाते हैं।

तेरी मेरी प्रीत निराली

तेरी मेरी प्रीत निराली
तू चन्दा है नील गगन का
मैं पीतल की जलमय थाली!

क्या तूने देखा धारा को
सीपी मुक्ता माल पिरोते?
क्या तूने देखा बंसी को
छिद्रयुक्त हो सुर संजोते?
क्या मलयज भी सकुचाती है
धवल गिरि के सम्मुख होते?
क्यों घबराती पिया मैं तन मन
तेरा जो तुझ पर ही खोते?

तू नीलाभ गगन का स्पन्दन
मैं धूलि हूँ पनघट वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

हो रूप गुणों से आकर्षित यदि
तेरी चेतना मुझ तक आती
कैसे फिर मेरे शून्यों को
अपने होने से भर पाती!
डोर प्रीत की तेरी प्रियतम
खण्ड मेरे है बाँधे जाती!
तेल बिना क्या कभी वर्तिका
जग उजियारा है कर पाती?

दिनकर! तेरे स्नेह स्पर्श बिन
नहीं कली ये खिलने वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

धरा संजोती जैसे अंकुर
मुझे हथेली में तू रखता
अपनी करुणा से तू ईश्वर
मेरे सब संशय है हरता!
प्राण मेरे! बन प्राण सुधा तू
पल-पल प्राणों में है झरता!
जग अभिनन्दन करता जय का
दोषों पर मेरे तू ढरता!

नहीं मुझे अवलम्बन खुद का
तू ही भरता मेरी प्याली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

तू शंकर का तप कठोर
मैं एक कुशा माँ सीता वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

१० दिसम्बर ०८

अभिनन्दन

स्थूल में और सूक्ष्म में सौन्दर्य जो, उनको समर्पित
व्यक्त और अव्यक्त में सिमटी हुई सारी ऋचायें,
है समर्पित फूल हर, खिलता हुआ जन में,विजन में
और हर रंग के अधर, पा कर खुशी जो मुस्कुरायें।

थाल पूजा का सजा, धो कर रखी सब भावनायें
नववधू की हिचकिचाहट, शिशु देखती माँ की ललक भी,
संस्कारों में रंगी हल्दी, सुपारी और मेंहदी,
ज्ञान के कुछ श्वेत चावल, प्रीति का अरुणिम तिलक भी।

और दीपक आस के, विश्वास के मन में जला कर
आज स्वागत कर रही हूँ द्वार पर जा कर उषा के,
मधुरिमा मधु-मिलन मंगल, मांगलिक मानस में मेरे
देखो, अंबर झुक गया पदचाप सुन शंकर-उमा के!

अभिनन्दन उनको दिवस का!
मिलन हो सुख और सुयश का!

प्रकृति जितना देती है 

जहाँ हँसे हैं लाल फूल, वहाँ
नीले भी अक्सर खिल जाते
निश्छलता कितनी प्रकॄति में
रंग दूर के घुल-मिल जाते!

सुघड़ पेड़ के पास खड़े
मुँह बाये, तकते नहीं अघाते
कितने सुकुमार ललायित अंकुर
बूँद स्नेह की पा सिंच जाते!

और कभी संध्या प्रभात मिल
दोनों जब खुल के गपियाते
सूरज दादा देर गये तक
रिरियाते छुट्टी ना पाते!

कभी पवन का बैग खोलते
कभी बरखा की बूंदों के खाते,
काश! प्रकृति जितना देती है
अंश मात्र उसको लौटाते!

१३ नवम्बर ०८

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की
बस आज ये सिंगार कर ले,
स्टील, लोहा, सोना, चांदी
जो मिले, ले रीढ़ मढ़ ले!

तू पीठ सीधी . . .

आज तू काजल लगा ना
अपनी कलम स्याही से भर ले,
झूमर में हैं जो दो सितारे
कर यत्न, आँखों में उतर लें!

तू पीठ सीधी . . .

गूढ़तम जो प्रश्न होगा
लौटेगा अनुत्तरित समझ ले
ना रामशलाकाप्रश्नावली ये जीवन
तू जी इसे, उत्तरित कर ले!

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की!

१० नवम्बर ०८

गुडमार्निग सूरज 

सुबह उठी तो ये क्या देखा
वान गो की पेंटिंग जैसा
सूर्यमुखी का पीलापन ले
आज निखर आया है सूरज!

शाम लगाई डुबकी जल में
और बादलों से मुँह पोंछा
लाली लगा कमलदल वाली
कितना इतराया है सूरज!

आजा तुझ को मजा चखाऊँ
डुबो चाय में मैं खा जाऊँ
पा कर मेरे प्यार की झप्पी
कितना शरमाया है सूरज!

आज बांध कर चुन्नी में मैं
अमलतास पे लटका दूँगी
रंगोगे क्या जीवन सबके
सुन क्यों घबराया है सूरज!

७ नवम्बर ०८

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा
याद में तेरी ना वो जोगन बनेगी
ईंट, पत्थर, पानी और आलाव का घर
सेंक रोटी हाथ की रेखा दहेगी

वह नदी जो जंगलों में बह रही है
मानिनी सागर से जा कर ना मिलेगी
हर लहर हो वाष्पित अंत: तपन से
याद के दीपक विसर्जित कर जलेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

क्यों बंधा ये बंध तुझ से, वो ना समझी
रेशमी ये गांठ तुझसे ना खुलेगी
तोलता जिसमें है तू कुछ काँच, हीरे
खुशबूएं ये उस तराज़ू ना तुलेंगीं

होंठ पे गुड़मुड़ रखी एक मुस्कुराहट
देखना, कुछ ही पलों में खिल हँसेगी
फिर कहेगी गीत से, तू क्यों खड़ा है
जिन्दगी की टेक है, चलती रहेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

२ नवम्बर ०८

याद कुछ पक्का नहीं है 

है अनिश्चित वह घड़ी, बैठे हुए या हम खड़े थे
याद इतना है भंवर दो, गाल पर गहरे पड़े थे
चूमती थी तब गुलाबी चूनरी का छोर धरती
ढीठ थे कुछ पर्ण सूखे, कंटकों में सिल जड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

ये कमल लाये कहाँ से, पूछ कर तुम हँस दिये थे
कह न कारण मैं सका, क्यों बूट कीचड़ में मढ़े थे
और हमने साथ में “सिज़लर” कहा जब रेस्तरां में
आँख तो मिल न सकीं थीं, होंठ पर, दहके बड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

हाजिरी में ज्यामिती की नाम बोला था तुम्हारा
हाथ मेरा उठ गया था, शर्म के फ़ूटे घड़े थे
सिर्फ़ तुमको ही पढ़ा, मैं अनुसरण करता रहा था
हार कर भी खुश हुआ ज्यों जीत के झंडे गड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

क्षण नहीं हैं प्रेम के बस, प्रीत जब गहरी हुई थी
तप्त होकर पीर से पक्के हुए जीवन-घड़े थे
आज गिन कर वक्त नापें अर्थहीना हो गया है
लग रहा अनगिन जनम से संग अपने पग बढ़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

१७ अक्तूबर २००८

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी

पेड़ों के झुरमुट से छन के जो आती
धवल धूप क्या याद मुझ को दिलाती
हरे खेतों की जो मड़ैया से जाता
थका-हारा राही मधुर गीत गाता

चूड़ा-दही-खाजा और कुछ बराती
अनब्याही दीदी मधुर सुर में गातीं
अभी दाई गोबर की थपली थपेगी
माँ भंसाघर में जा पूये तलेगी

सिल-बट्टे पे चटनी पीसे सुनयना
“किसी ने निकाला जो देना है बायना?”
“अभी लीपा है घर!”, उफ! बड़के भईया
चिल्ला रहे पर्स खोंसे रुपैया

आँधी में दादी हैं छ्प्पर जुड़ातीं
भागे हम झटपट गिरें आम गाछी
वो मामू का तगड़ा कंधा सुहाना
जिस पे था झूला नम्बर से खाना।

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी
नमक-तेल-मिर्ची और रोटी बासी।

०९ अक्तूबर ०८

गीतकार

लेखनी से जब गिरें
झर स्वर्ग के मोती
पाने को उनको सीपियाँ
निज अंक हैं धोतीं।
कोई चले घर छोड़ जब
अहम् , दुख , सपने
उस केसरी आँचल तले
आ सभ्यता सोती।

जब तू शिशु था ईश ने आ
हाथ दो मोती दिये
एक लेखनी अनुपम औ’ दूजे
भाव नित सुरभित नये।
ये हैं उसी की चिर धरोहर
तू गा उसी का नाम ले
जो नाव सब की खे रहा
उसे गीत उतराई तू दे।

तू गीत उन्नत भाल के रच
मन को तू खंगाल के रच
कृष्ण के कुन्तल से लिपटे
गीत अरुणिम गाल के रच।
तू दलित पे गीत लिख
और गीत लिख तू वीर पे
जो मूक मन में पीर हो
उसको कलम की नीर दे।

तू तीन ऐसे गीत रच जो
भू-गगन को नाप लें
माँ को, प्रभु को पाती लिख
लिख प्रेम को निष्काम रे।
ये गीत मेरा जो तुम्हारे
पाँव छूने आ रहा
जिस ठाँव तू गाये
ये उसकी धूल बस हटला रहा।

०५ अक्टूबर ०९

ज़िन्दगी के तीन दिन

दे सको तो दो प्रिये मुझे ज़िन्दगी के तीन दिन
एक दिन उल्लास का, मृदु हास का, उच्छ्वास का
एक दिन रस-रास का, सहवास का, सुवास का
एक दिन पूजा का, श्रद्धा का, अमर विश्वास का .

वो दिन कि जिसमें तुम हो, मैं हूँ, तीसरा कोई नहीं हो.

वो दिन कि तुम नदियों से दूजी कह दो तुम में ना समायें
वो दिन कि माज़ी याद ले के दूसरी कोई ना आये
वो दिन कि जिसमें साँस लो तुम, प्राण मेरे प्राण पायें
वो दिन कि जब ना दिन ढले ना शाम जिद्दी घर को जाये .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !

वो दिन कि जब ये सूर्य बोले स्वर्ण भी हूँ , अरूण भी हूँ
और बादल हँस के बोले वृद्ध भी हूँ , तरुण भी हूँ
प्रीति बोले त्याग हूँ मैं और प्रिय का वरण भी हूँ
चिति बोले ब्रह्म हूँ मैं और स्व का हरण भी हूँ .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !
दे सको तो दो प्रिये मुझे !

तेरी याद !

उफ़! तेरी याद की मरमरी उँगलियाँ
आ के काँधे पे लम्हें पिरोती रहें
जैसे सूने पहाड़ों पे गाये कोई
और नदियाँ चरण आ भिगोती रहें !

पगतली से उठे, पीठ की राह ले
एक सिहरन सी है याद अब बन गई
चाँदनी की किरण दौड़ आकाश में
सब सितारों को ले शाल एक बुन गई !

ताक पे जा रखा था उठा के उसे
तेरी ग़ज़लों को सीढ़ी बनाके हँसी
गीतों का ले सहारा दबे पाँव वो
उतरी है मुझसे नज़रें चुरा के अभी !

बन के छोटी सी बच्ची मचलने लगी
गोद में जा छुपी, हाथ है चूमती
चाहे डाटूँ उसे या दुलारूँ उसे
आगे-पीछे पकड़ पल्लू वो घूमती !

एक गमले में जा याद को रख दिया
घर गुलाबों की खुशबू से भर सा गया
जाने कब मैं बनी मीरा, तू श्याम बन
मेरे जीवन में छन्न-छन्न उतरता गया !

क्या समय के पहले समय नहीं था?

क्या समय के पहले समय नहीं था?
पानी से पहले नहीं था पानी?
खड़ा हठीला टीला ये जो, क्या इससे पहले रेत नहीं था?

और मृदा संग हवा कुनमुनी,
धूप, पात, वारि ने मिल कर,
स्वर मिश्री सा साधा उससे पहले सुर समवेत नहीं था?

तैरे आकाशी गंगा सूरज,
धरा ज्योति में गोते खाये,
इससे पहले सभी श्याम था, कोई आंचल श्वेत नहीं था ?

नाम नहीं था जब चीजों का,
प्रीत, पीर क्या एक नहीं थे?
ऐसा क्यों लगता है मुझको, जैसे इनमें भेद नहीं था ?

तुमने जो इतने भावों को,
ले छिड़काया मन में मेरे,
पहले भी ये ज़मीं रही थी, पर चिर नूतन खेत नहीं था !

(गेबरियल गार्सिया मार्क्वेज़ को समर्पित)

हमको ऐसे मिली ज़िंदगी ! 

इक मुड़ी जीन्स में, फँस गई सीप-सी
आँधियों से भरे, एक कृत्रिम द्वीप-सी

नाखूनों में घुसी, कुछ हठी रेत-सी
पेड़ बौने लिए, बोन्साई खेत-सी

टूटी इक गिटार-सी, क्लिष्ट व्यवहार-सी
नाम भी ना रहे याद, भूले प्यार-सी

फोटो बिन फ्रेम की, बस कुशल-क्षेम-सी
बारिशों से स्थगित एक क्रिकेट गेम-सी

हाथ से ढुल गई मय ना प्याले गिरी
शाम जो रात लौटी नहीं सिरफिरी

देने में जो सरल, सस्ते इक ज्ञान-सी
भाव से हो रहित, हाय! उस गान-सी

खोल खिड़की किरण जो ना घर आ सकी
धुन ज़हन में रही ना जुबाँ पा सकी

आदतों की बनी इक गहन रेख-सी
बस जो होती बहू में ही, मीन-मेख-सी

बी.एम.आई इंडैक्स सी, बिन कमाई टैक्स-सी
जो कि पढ़ ना सके, उड़ गये फैक्स-सी

हमको ऐसे मिली कि हँसी आ गई
फिर गले से लगाया तो शर्मा गई

ज़िंदगी प्यार के झूठे ई-मेल सी
पुल पे आई विलम्बित थकी रेल सी !

कौन मेरे दर्पण में ?

चित्र एक दिख गया नयन में, एक दिवस मुझको अनजाने
छोड़ दिया है तबसे मैंने दर्पण में खुद को निहारना
एक जीर्ण सी यष्टि अपरिचित, बाल पके भुट्टे के जैसे !
अंतरमन तराशती तब से, छोड़ दिया तन को निखारना !

कौन सत्य दिखला जाता है, और कौन है बनता रक्षक
कौन दर्प मेरा सीमित कर, बन जाता है पंथ-प्रदर्शक
कौन बाद जो है बसंत के ग्रीष्मऋतु सखि ले आता है
कौन चाक पे रखी उमरिया की माटी, घट कर जाता है ?

कौन मुझे जो फल देता है, और अधिक झुकना सिखलाता
कौन मेरा संशय दावानल प्रेम सुधा से सींचे जाता
कौन मुझे हँस कह देता है प्राप्ति नहीं कर प्रेम सखि री
और कौन मन के दर्पण में सत्-चित-आनंद भाव भरे री ?

सुन ओ निराकार तुम मेरे, गुरु बनो, बाँहें संभालो
डगर नयी, पग कोमल मेरे, तृष्णा की ये फांस निकालो !
कलुषित, तृण सम बहते मन को, करुणा से अपनी सहेज लो
बालक सा क्रंदन सिखलाओ, शब्द निरथर्क सारे ले लो !

कच्ची गणित का प्रश्न

दोस्त मैं कन्धा तुम्हारा जिस पे सर रख रो सको तुम
वेदना के, हार के क्षण, भूल जिस पे सो सको तुम
बाहें मैं जिनको पकड़ तुम बाँटते खुशियाँ अनोखी
कान वो करते परीक्षा जो कि नित नव-नव सुरों की ।

मैं ही हर संगीत का आगाज़ हूँ और अंत भी हूँ
मैं तुम्हारी मोहिनी हूँ, मैं ही ज्ञानी संत भी हूँ
शिंजनी उस स्पर्श की जिसको नहीं हमने संवारा
चेतना उस स्वप्न की जो ना कभी होगा हमारा ।

हूँ दुआयें मैं वही जो नित तुम्हारे द्वार धोयें
और वो आँसू जो तुमने आज तक खुल के ना रोये
मैं तपिश उन सीढियों की जो दुपहरी लाँघती हैं
और असमंजस पथों की जो पता अब माँगती हैं ।

प्रश्न वो कच्ची गणित का जो नहीं सुलझा सके तुम
शाख जामुन की लचीली जिस पे चढ़ ना आ सके तुम
मैं तुम्हारे प्रणय की पहली कथा, पहली व्यथा हूँ
मैं तुम्हारा सत्य शाश्वत, मैं तुम्हारी परी-कथा हूँ ।

मैं हूँ तीस्ता नदी ! 

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा ।

‘पत्थरों पे उछल के संभलना सखि’
मुझ से हंस के कहा इक बुरुंश फूल ने
अपनी चांदी की पायल मुझे दे गयी
मुझ से बातें करी जब नरम धूप ने ।

मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गयी मलयजें
मुझ से ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
हो के कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें ।

कितने धर्मों के पाँवों मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझ में आ घुल गयी
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले ।

झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गयी
चीड़ ने देख मुझ में संवारा बदन
आप आये तो मुझ में ज्यों जां आ गयी
आप से मिल के मेरे भरे ये नयन ।

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई !

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते

हर एक पग जो मैं चला था
वह तेरे पथ ही गया था ,
ज्ञात ना गन्तव्य था पर
लक्ष्य आ खुद सध गया था ।

तू ही है मनमीत मेरा
तू ही मेरा प्राणधन,
कस्तूरी मृग सा मैं भटकता
तू है गंधवाही पवन ।

तू रहे किस काल में
किस देस में, किस भेस में ,
इसकी नहीं परवाह करता
तुझ से विलग ना शेष मैं !

विश्रांति में तुझ को पुकारे
बाट संजोये सदा
वो खोज मैं, मैं वो प्रतीक्षा
मैं वो चातक की व्यथा ।

द्वंद जितने भी लड़ा था
और जो लिखा-गढ़ा था,
वो तेरे ही द्वार की
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ा था ।

आज जब मैं पास हूँ
क्यों मुझ से तू मुख फेरता,
मैं ना हरकारा कोई
जो जाये घर-घर टेरता ।

मैं तेरे संग बोल लूँ
तुझको तुझी से तोल लूँ
मैं तेरा ही अंश प्रियतम
क्या पूर्ण का मैं मोल दूँ ?

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी
कलिष्ट वो शब्द जो अनकहा रह गया
मैं वो पाती जो बरसात में भीग कर
इतना रोई कि सब अनपढ़ा रह गया ।

मैं हूँ रश्मिरथी की त्रिभुज सी किरण
चूम कर भूमि, रथ फिर चढ़ा ना गया
मैं कभी वाष्प बन, फिर कभी मेह बन
इतना घूमी कि मोती गढ़ा ना गया ।

मैं वो धुंधली परी, कल्पना से भरी
जिसके पंखों को ले कर समय उड़ गया
नीले घोड़े पे आया था छोटा कुंवर
पर उबलती नदी से परे मुड़ गया ।

मैं वो यौवन जो आभाव से ब्याह गई
मैं वो बचपन जो पूरा जिया ना गया
तृष्णा और तृप्ति के मध्य में मैं खडी
एक अरदास मन से पढ़ा ना गया ।

मैं वो जोगन जो मेंहदी रचे पाँव ले
राजघर तो चली पर रहा ना गया
मीरा की चाह में, राणा की आह! में
मैं वो दोहा जो पूरा कहा ना गया ।

मैं काश ! अगर तितली होती

मैं काश ! अगर तितली होती
नभ में उड़ती, गुल पे सोती ।

नवजात मृदुल पंखुडियों का
पहला-पहला क्रन्दन सुनती
अंकुर के फूट निकलने पर
गर्वीला भू-स्पंदन सुनती ।

हो शांत , दोपहरी काँटों की
पीड़ा सुन ह्र्दय बिंधाती मैं
नव प्रेमी-युगल की बातें सुन
उनके ऊपर मंडराती मैं ।

शर्मा महकी शेफाली का
रत-जगा करा दर्शन करती
और झरते सुर्ख गुलाबों का
गीता पढ़ अभिनन्दन करती ।

प्रथम रश्मि के आने से
पहले झट ओस पियाला पी
मैं अनजानी बन कह देती
थी रात ने कुछ कम मदिरा दी ।

गर कोई गुल इठलाता तो
ठेंगा उसको दिखलाती मैं
कभी उपवन छोड़ पतंगों की
डोरें थामे उड़ जाती मैं ।

तेरे सुमन सरीखे छ्न्दों का
मधु पी सुध-बुध खो जाती मैं
फिर शाम ढले यूँ लिपट-चिपट
उन्हीं छ्न्दों पे सो जाती मैं ।

मैं काश ! अगर तितली होती !

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं सरिता सजल जिसके लिए पर्वत गला था ।
बेच आया छन्द कितने, जीत आया द्वंद कितने
पर विजय केशव न ये जिसके लिए राधेय छला था ।

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं …

मैं रहा मैं और मेरा है मुझे अब तक ममेतर
यह नहीं वह चेतना जिसके लिए तिल-तिल जला था ।
देख नन्हें श्रमिक का दुख हाय ! मैं हतप्रभ खड़ा हूँ
सीमित यहीं संवेदना जिसके लिए कवि-पथ वरा था ?

क्यों नहीं मैं सूर्य सा जल
या धवल हिम-खण्ड सा गल
इस जगत के काम आता
अंकुर उगाता !

या दलित की आँख में ढल
आह बन कर निर्धनों की
संग उनके गीत गाता
अर्थ पाता !

जब भी उठा था दान को किसने पकड़ कर कृपण कर मेरा धरा था ?
ये ही भविष्यत् का सुखन जिसके लिए संचय करा था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं वह बीज जिसके लिए गुल हँस-हँस झरा था ।

औेर लोगों पे मलूँ क्यों
अपने हृदय की लीक कालिख
काश! इसको धो मैं पाता
गंगा नाहाता !

या कि बन कार्बन सघन
कोयले से ले आतिश जलन
पाषाण से मैं घात पाता
चमक जाता !

“किस्से कहानी की ये बातें, सत्य ये होतीं नहीं हैं ”
क्या झूठ थे वे सब कथानक जिनको बचपन में सुना था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं उपवन हरित जिसके लिए मरूथल जला था ।

काश ! एक दिन वन्दना में
ईश का कर ध्यान पाता
खुद को मिटाता
जी मैं जाता !

गुलाबी

मधुसूदन के हस्त गुलाबी
बृज की गोपी मस्त गुलाबी
गोमुख, गोपद धूल गुलाबी
काली जमुना, कूल गुलाबी
राधा की चिर प्रीति गुलाबी
नटवर की हर नीति गुलाबी
मधुर गुलाबी जसुमति प्यार
बंधे कन्हाई जिस से हार !

नयन, अधर, नख, गाल गुलाबी
बहकी लहकी चाल गुलाबी
फूल, कली, नव पात गुलाबी
गयी शाम बरसात गुलाबी
संध्या का लहराता आँचल
सिक्त किरण चमकाता बादल
पंख, शंख, परवाज़ गुलाबी
गीत, सदा, आवाज़ गुलाबी

प्रथम प्रणय की आंच गुलाबी
पिया मिलन की सांझ गुलाबी
नन्हें पग और स्मित की रेख
हर्षाती माँ जिनको देख
शिशु तो लालम लाल गुलाबी
जीवन के कुछ साल गुलाबी
बिटिया से घर-द्वार गुलाबी
रीति, रस्म, व्यवहार गुलाबी

हाय! काट के प्याज़ गुलाबी
हो गईं आँखें आज गुलाबी
गोभी, शलजम और तरबूज
हुए गुलाबी कुछ अमरुद
दादी गातीं छंद गुलाबी
पान बीच गुलकंद गुलाबी
दादा जी की पाग गुलाबी
होते कुछ-कुछ साग गुलाबी

क्या होते कुछ घाव गुलाबी?
चढ़ता ज्वर और ताव गुलाबी?
और गुलाबी पर्ची थाम
छूट गए जिन सब के काम
क्या उनके हालात गुलाबी?
पत्नी करती बात गुलाबी?
सुंदर प्रकृति के ये रंग
लालच कर देता सब भंग !

आप कहें क्या और गुलाबी
वस्तु, कार्य या ठौर गुलाबी ?

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी
जैसे बारिश हो धूप में हल्की
मेरे सर पे रखे जो वो आँचल
भीड़ में हाथ थाम लेते पल

मेरे आने पे वो बनाना कढ़ी
छौंकना साग और तलना बड़ी
एक लौकी से सब बना लेना
सब्जी और बर्फ़ी भी जमा देना

उसके गुस्से में प्यार का था मज़ा
कैसा बच्चों-सी देती थी वो सज़ा
उसका कहना “पापा को आने दे!”
बाद में हँस के कहना “जाने दे!”

याद आते हैं उसके हाथ सख़त
तेल मलना वो परीक्षा के वखत
वो ही कितने नरम हो जाते थे
ज़ख़्म धोते, मरहम लगाते थे

उसका ये पूछना “अच्छी तो है?”
कहना हर बात पे “बच्ची तो है!”
सुना होती है सबकी माँ ऎसी
होती धरती पे है ख़ुदा जैसी !

खोटा सिक्का

मैं एक खोटा सिक्का हूँ
कई हाथों से गुज़रा हूँ
किसी ने देख ना देखा
किसी ने जान कर फेंका

कभी मुजरा-कव्वाली में
कभी पूजा की थाली में
कभी लंगडे की झोली में
कभी ठट्ठा ठिठोली में

कभी मजदूर हाथों में
कभी मजबूर रातों में
जिये बस खोट ही मैंने
दिये बस चोट ही मैंने

आज नन्हें हाथ में
आ कर के ठिठका हूँ
इसे भी धूल झोंकूँ या
कह दूँ कि खोटा हूँ

“माँ देख इसको भी
लगी है चोट माथे पे
हो गया कितना गन्दा ये
इसे भी साथ नहला दे।”

मुझे धो पोंछ कर बच्चे ने
तकिये के तले डाला
कभी यारों को दिखलाया
कभी सहलाया, सँभाला

अब उसके साथ सोता हूँ
उसे गा कर जगाता हूँ
मैं लोहे का इक टुकड़ा हूँ
दुस्वपनों को भगाता हूँ।

कब आओगे नगरी मेरी

कल बड़े दिनों के बाद सजन
आँखों में ना डाला अंजन
सोचा वंशीधर आएँगे
तो पग काले हो जाएँगे।

फिर रात, प्रात:, संध्या बीतीं
आहट से रही ह्रदय सीती
कब आओगे नगरी मेरी
आँखे सूनी, देह की देहरी।

ये गीत तेरा

आज उसने गीत तेरा ये पढ़ा शत बार होगा
मिली होगी इक सहेली नाम जिसका प्यार होगा।

आइने को परे रख तेरी ग़ज़ल में देखा होगा
जुल्फ फिर सँवारी होगी, तीर तिरछा फेंका होगा।

छाप नीले अक्षरों में, अधर रख मुस्काया होगा
घर की गली के पास ही फेंक कर बिखराया होगा।

वहीं कोई रात-रानी सोचे ये चन्दा चितेरा,
तारकों को चुन निशा के गीत में फिर लाया होगा।

बोलो कहाँ उपजायी थी

जलपाइगुडी के स्टेशन पे तुमने थामा था हाथ मेरा
राइन नदी में बतखों ने फिर डुब-डुब डुबकी खाई थी

सिंगापुर के सूरज को एक हाथ बढा कर ढाँपा था
आल्पस् की अलसाई सुबह फिर थोड़ा सा गरमाई थी।

फिर भावों को तुम तोल रही हो देश-काल के पलड़ों में?
ये कह स्नेह-सिक्त माटी हरियल मलमल मुस्काई थी

जो भाप हवा में जुड़ता है, पा वेग पवन का उड़ता है
वो कहता नहीं कभी बूँदों से ‘सखि बोलो कहाँ उपजायी थी?’

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

किस रंग खिलीं कलियाँ
दुबकी आई क्या छिपकलियाँ
सूनी रोई होंगी गलियाँ
घर लौटूँ तो बताना

जो स्वप्न बुने मैंने
जो गीत चुने मैंने
किस्से जो गुने मैंने
मैं आऊँ तो दोहराना

थक सा गया है थोडा
मेरीे बाजुओं का जोडा
अब पाँव घर को मोडा
अपनी पलकें तुम बिछाना

आराधना

यों ही उस धार में बहे हम भी
जैसे पूजा के फूल बहते हैं,
मेरे हाथों में तेरा दामन है
मुझे तेरी तलाश कहते हैं।

तुझ को पा कर के क्या नहीं पाया
तुझ को खो कर के मैं अधूरी हूँ,
तू जहाँ बाग़ है वो ज़मीन हूँ मैं
तेरे होने में मैं ज़रूरी हूँ।

तू मुझे प्यार दे या ना देख मुझे
मेरी हर उड़ान तुझ तक है,
तेरी दुनिया है मंज़िल दर मंज़िल
मेरे दोनों जहान तुझ तक है।

चाहत के चिराग 

तुम जो खामोश रहोगे मेरे अफ़साने आ के
तुम्हारी रूह से बातें करेंगे जी भर के
और जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

तुम जो तन्हा कभी बैठे होंगे
न गम़गी़न न खुश बस यों ही
मेरी यादों के तबस्सुम आ के
तेरे लबों के किनारों से लिपट जाएँगे।

कुछ यों हमारे प्यार का किस्सा होगा
मेरी चाहत तुम्हें मायूस न होने देगी
और जो काँटें तेरी राह में बिखरे होंगे
मेरे कदमों की पनाहों में सिमट आएँगे।

जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

स्वप्न

लाख समझाओ
मगर मन कब समझता है
मेरा हर स्वप्न तेरी राह
हो कर ही गुज़रता है।

ख़्वाब

ना ये प्यार है न दोस्ती
ये एक हसीन-सा ख़्वाब है।
तू कहे तो ज़िंदगी
मैं आँख अपनी खोल दूँ।।

हँस के ज़माना कह गया
तेरे पास अब क्या रह गया।
बोलो तो अनमोल तुमको
किस तराजू तोल दूँ।।

वादा

जो वादा तूने किया नहीं
मुझे उस पे क्यों कर यकीन था।
ये तेरे हुनर की हद थी या
मेरे जुनू का था वाकया।।

किरन 

तू तो बादल है
चमक मेरी क्या छुपाएगा।
ढक भी लेगा तो
किनारे से जगमगाएगा।।

चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिंगारी

हवा इसे तू देते रहना
दिल में सपन समेटे रहना
हँसी होंठ पे जो रखता है
हर गम से वो लड़ सकता है
ऊँच नीच सबकी तैयारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

माना पैसा बहुत जरूरी
बन ना जाये ये मजबूरी
सबसे बढ़कर खुशी है मन की
गाते रहना धुन जीवन की
गीत सुने तेरा दुनिया सारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

दुनिया में इंसाफ ना हरदम
स्याही की चादर ओढ़े ग़म
फिर भी जो दिल जोड़े दिलों से
हँस के जो खेले ख़तरों से
सूरज भी है उसका पुजारी
बुझ ना पाये ये चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिनगारी

तेरे पीछे माया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

सहसा बिटिया बड़ी हो गई, छन्न से यौवन आया
लौटेगा क्या समय साथ जो हमने नहीं बिताया।

कब बसंत बौराया

बचपन की आँखों से धुल गई इंद्रधनुष की छाया
रंग ले गया कुछ बालों से हर मुश्किल का साया।

कब बसंत बौराया

धन शोहरत की राह चली, ग़म दबे पाँव से आया
ढूंढ़ा था क्या भला इसे ही, जिस मंज़िल को पाया।

कब बसंत बौराया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

दोस्त

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा
तेरी हर बात में अपना ही फ़लसफ़ा देखा।

मंज़िलों को चलें साथ हम मुमकिन नहीं मगर
जब से तू संग चला, फूलों का रस्ता देखा।

निखर गई मेरी रंगत, सँवर गईं जुल्फ़ें
ये तेरी आँख में देखा कि आईना देखा।

न गै़रों की नज़र लगे, न हम खुद हों बेवफ़ा
ये दुआ करी हमने, ये ही सपना देखा।

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा।

शार्दूला के दोहे

थोड़ा मन में चैन जो, तुझ को रहा उधार
तेरी भेजी लकड़ियाँ, मुझको हैं पतवार।

आधी-आधी तोड़ कर, बाँटी रोटी रोज़
पानी में भीगा चूल्हा, जाने किसका दोष।

परचम ना फहराइए, खुद को समझ महान
औरों के भी एब पे, थोड़ी चादर तान।

कम ज़्यादा का ये गणित, विधि का लिखा विधान
तू मुझको दे पा रहा, अपनी किस्मत जान।

और अंत में दोस्तों, तिनका-तिनका जोड़
औरों का मरहम बनें, यही दर्द का तोड़।

बसंत आया 

क्या तुम्हारे शहर में भी
सुर्ख गुलमोहर की कतारें हैं
क्या अमलतास की रंगोबू
तुम्हें भी दीवाना करती है
क्या भरी दोपहरी में तुम्हारा भी
भटकने को जी करता है
अगर हाँ तो सुनो जो यों जीता है
वो पल-पल मरता है
क्योंकि हर क्षण कहीं कोई पेड़
तो कहीं सर कटता है।

पारस

मैं तो पारस हूँ , मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

हर मोड़ पे हो जिसके बिछुड़ जाने का डर
ऐसे राही के संग यारों सफ़र ना करना।

गर फूल खिलाते हो दिल की मिट्टी में
एक आँख में सूरज़, एक में शबनम रखना।

मैंने इन होठों से जिनको छुआ था जाते समय
उसने छोड़ा है उन जख़्मों पे मरहम रखना।

वो मेरे आँख का मोती था या हाथों का नगीना
जो गुम गया अब उस पे बहस क्या करना!

मुझको खुदा दुनिया में गर फिर लाएगा
दिल मेरा बड़ा, उमर मेरी ज़रा कम रखना।

मैं तो पारस हूँ, मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

माँ

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

मेरी सर्दी मेरी खाँसी
मेरा ताप और बीमारी
हँस के तू अपना लेती थी
करती कितनी सेवादारी

पा कर तेरा स्पर्श तेजस्वी
मैं अच्छा हो जाता था
फिर लूट पतंगें फाड़ जुराबें
देर रात घर आता था

दरवाजे पे खड़ी रही होगी
तू जाने कब से
श्! श्! कर किवाड़ खोलती
बाबू जी गुस्सा तुझ से!”

फिर बड़ा हुआ मैं, बना प्रणेता
किस्मत ने पलटा खाया
जो समझ शूल दुनिया ने फेंका
बना ताज उसे अपनाया

सब चाहने वालों से घिर भी
तेरा प्यार ढूँढ़ता हूँ
जो धरती अंकुर पर करती
वो उपकार ढूँढ़ता हूँ .

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

विदा की अगन

मैं कोयला हूँ कहो तो आग दूँ
या फिर धुआँ कर दूँ।
मुझे डर है ना दर्देदिल
निगाहों से बयाँ कर दूँ।

मुझे अफ़सोस है तुमने मुझे
अपना नहीं समझा।
खुशी तो बाँट ली मुझ से
मगर गम पास ही रखा।

सुना था दिल की मिट्टी में
ये गम बन फूल खिलता है।
बेगरज दोस्त दुनिया में
बड़ी किस्मत से मिलता है।

चलो छोड़ो गिले शिकवे
विदा होने की बारी है।
इस कोयले में चमक जो है
अमानत वो तुम्हारी है।

सूरज में गरमी ना हो

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।

देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।

ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।

बोली को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जो जाता है सब छोड़ कर
उसको रोको ना तुम जाने दो।

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो।

सच कहूँ तेरे बिना

सच कहूँ तेरे बिना ठंडे तवे सी ज़िंदगानी
और मन भूखा सा बच्चा एक रोटी ढूँढता है
चाँद आधा, आधे नंबर पा के रोती एक बच्ची
और सूरज अनमने टीचर सा खुल के ऊंघता है !

आस जैसे सीढ़ियों पे बैठ जाए थक पुजारिन
और मंदिर में रहे ज्यों देव का श्रृंगार बासी
बिजलियाँ बन कर गिरें दुस्वप्न उस ही शाख पे बस
घोंसला जिस पे बना बैठी हो मेरी पीर प्यासी !

सच कहूँ तेरे बिना !

पूछती संभावना की बुढ़िया आपत योजनायें
कह गया था तीन दिन की, तीन युग अब बीतते हैं
नाम और तेरा पता जिस पर लिखा खोया वो पुर्जा
कोष मन के और तन के हाय छिन छिन रीतते हैं !

सच कहूँ तेरे बिना मेरी नहीं कोई कहानी
गीत मेरे जैसे ऊंचे जा लगे हों आम कोई
तोड़ते हैं जिनको बच्चे पत्थरों की चोट दे कर
और फिर देना ना चाहे उनका सच्चा दाम कोई !

सच कहूँ तेरे बिना !

प्यार का रंग ना बदला

परिवर्तन के नियम ठगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
अब तक है उतना ही उजाला !

आम का पकना, रस्ता तकना
पगडंडी का घर घर रुकना
कोयल का पंचम सुर गाना
हर महीने पूनम का आना
अरे कहो! कब व्रत है अगला ?
तीज, चौथ कब, कब कोजगरा ?
क्या कहते हो सब कुछ बदला !
गाँव का मेरे ढंग ना बदला !

आम मधुर, रस नेह पगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
होली के हुड़दंग सा पगला !

इक पल जो घर आँगन दौड़ा
चढ़ भईया का कंधा चौड़ा
आज अरूण रंग साड़ी लिपटा
खड़ा हुआ है वह पल सिमटा
उस पल को आँखों में भरता
छाया माँ मन कोहरा धुंधला !
अभी चार दिन पहले ही तो
पहनाया चितकबरा झबला !

माँ के आगे सब बच्चे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
हर सागर है उससे उथला !

नयन छवि बिन, गगन शशि बिन
माधव बिन ज्यों राधा के दिन
कृषक मेह बिन, दीप नेह बिन
शरद ऋतु में दीन गेह बिन
उतना की कम खेत को पैसा
जितना हाथ अनाज ने बदला
जल विहीन मन बिना तुम्हारे
मीन बना तड़पा और मचला !

कष्ट जगत के बहुत बड़े हैं
प्यार का रंग हो जाता धुंधला !
आज बुद्ध तज घर फिर निकला !

कद्दू पे बैठी दो बच्चियाँ 

रूप ले ले मेरा, रंग भी छीन ले
ये कमर लोच रख, ये नयन तीर ले !
वो जो कद्दू पे बैठी हैं दो बच्चियाँ
ओ उमर तू मुझे बस वहीं छोड़ दे !

बस समय मोड़ दे !

आ उमर बैठ सीढ़ी पे बातें करें
आंगनों में बिछे, काली रातें करें
फूल बन कर कभी औ’ कभी बन घटा
माँ से नज़रें बचा पेड़ पे जा चढ़ें !

आ ये पग खोल दे !

क्या तुझे याद है सीपियाँ बीनना
दूर से आम कितना पका चीन्हना
और चुपके से दादी के जा सामने
चाचियों का बढ़ा घूँघटा खींचना !

पल वो अनमोल दे !

वो जो भईया का था छोटा सा मेमना
उसकी रस्सी नरम ऊन ला गूंथना
बस मुझे तू वहीँ छोड़ आ अब उमर
चारागाहों में भाता मुझे घूमना !

पट खुले छोड़ दे!

सूरज से मेरे दादाजी

सूर्य किरण फिर आज पहन के एक घड़ी जापानी
कमरे में आयी सुबह-सवेरे, मिन्नत एक ना मानी
हाय! तिलस्मी सपनोंं में मैं मार रहा था बाज़ी
और हैं दादा जी, “जल्दी उठ्ठो” आवाज़ लगा दी !!

बिल्कुल मेरे दादू जैसा ही है ये सूरज भी
सुबह इसे आराम नहीं, ना देर रात धीरज ही !
“जल्दी सोना, जल्दी उठना”, यही राग ये गाते
ऊपर से हर रोज़ एक सा गाते, गीत सुनाते !

“*नाक में उंगली, कान में तिनका
मत कर, मत कर, मत कर !
दाँत में मंजन, आँख में अंजन
नित कर, नित कर, नित कर !”*

ज़रा कहो तो “टूथ ब्रश” को मंजन कौन है कहता ?
और कौन सी नाक ना जिसमें आंगुर घुसा है रहता !
आँख में अंजन, यानी काजल, मैं लगाऊं ? पागल हूँ !!
दादा जी जो सूर्य चमकते, मैं चंचल बादल हूँ !

लड़ता रहता हूँ मैं उनसे, हम हैं यार घनेरे
माँ के बाद वही तो हैं ना सबसे अपने मेरे
अपने मन की बात सभी मैं झट उनसे कह देता
और ना सोता रात में जब तक किस्से ना सुन लेता !

दादा जी ने ही सिखलाया, नहीं माँगना कुछ ईश्वर से
और नहीं कुछ माँगा करता मैं भी दादा जी के डर से
एक बात बस आप से कहता, दादाजी को नहीं बताएं
हूँ मैं चाहता मेरे बच्चों को दादू ही गा के उठाएं !

सूरज से मेरे दादाजी!
मेरे काबा, मेरे काशी !

नाम ले मुझको बुलाओ

ओ नदी ! मैं बन के धारा
या कि बन दूजा किनारा
संग तेरे चल पडूँगी, नाम ले मुझको बुलाओ

दधि कसैला पात्र पीतल
पात्र बस चमका रे पागल
तर्क की तलवार से भयी
भावना भयभीत घायल

ओ प्रिये! तुम स्वर्ण मन में
अहं का दधि ना जमाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

जो निशा से भोर का
प्राची-प्रतीची छोर का
बंध मेरा और तुम्हारा
जो घटा से मोर का

तुम समय के कुन्तलों को
मोर पंखों से सजाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

तुहिन कण सी उज्ज्वला जो
चन्द्रिका सी चंचला जो
पात पे फिसली मचलकर
स्निग्ध निर्मल प्रीति थी वो

है अड़ी नवयौवना सी
पाँव इसके गुदगुदाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

पथिक ऐसे थोड़े गिन के
साथ हैं मनमीत जिनके
हम मिले हैं सुन सजनवा
साज और संगीत बन के

राह की संगीतिका को
मिलन धुन में ना भुलाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

नाम ले मुझको बुलाओ !

उठ चल मेरे मन

हो विलग सबसे, अकेला चल पड़ा तू
एक अपनी ही नयी दुनिया बसाने
तूफ़ान निर्मम रास्ते के शीर्य तुझ को
मन! ना घबरा, गीत जय के गुनगुना ले !

स्वर्ण, रजत व कांस्य घट ले नित्य दिनकर
भर रहा अंबर की नीली झील में क्षण
गा रहे खग के समूह तज नीड़ अपना
तू भी मगन दोहरा नव निर्माण के प्रण

ले विदा तू हाथ जिनको जोड़ आया
कर गहेंगी स्मृतियाँ तेरे बालपन की
ओ मेरे मन! राह से ना विलग होना
खींचें अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की

एक मुठ्ठी धरा, एक टुकड़ा गगन का
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में
वेग मरुतों का ढला बन श्वास प्रतिपल

विलय तुझ में हैं सकल अवरोध पथ के
नीतियाँ तुझ में ही जयश्री के वरण की
तू स्वयं ही द्वारपालों सा खड़ा मन
तुझ से निकलती सीढियाँ अंतिम चरण की

उठ मेरे मन दूर तू इस घाट से चल
तोड़ चल तू मोह के सब बन्धनों को
राह की कठिनाईयाँ तकतीं हैं रस्ता
दे नया तू अर्थ मानव जीवनों को !

उठ चल मेरे मन !
चल !

मौसम की ये कारस्तानी 

वन में आग लगा कर चंचल
टेसू मन ही मन मुस्काता
कब आओगे दमकल ले कर
रंग-बिरंगे फागुन दादा?

कोयल फिर सुर की कक्षा के
अभ्यासों में जुटी हुई है
और मेघ की नटखट टोली
कर के मंत्रणा घुटी हुई है!

एक बूंद भी नहीं बरसती
देख हँसी दूब को आयी
होता है हर साल यही तो
कह मेंढक ने ली जंभाई।

बालक सा मन पढ़ने लगता
पंचतंत्र की कथा पुरानी
नया साल फिर ले आया है
बातें सब जानी पहचानी।

दुनियावी सवाल सुलझाते
याद हमें आ जाती नानी
पर मन को शीतल कर जाती
मौसम की ये कारस्तानी!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे

खिलते हैं सखि वन में टेसू
फागुन भी अब आता होगा
धरती ओढ़े लाल चुनरिया
गीत गगन मृदु गाता होगा।

पगड़ी बाँधे अरुण पात की
वृक्ष खड़े हैं श्रद्धानत हो
स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!
रश्मि रोली, मेघ अक्षत लो।

हरित पहाड़ों की पगडंडी
रवि दर्शन को दौड़ी आये
चित्रलिखित सा खड़ा चन्द्रमा
इस पथ जाये, उस पथ जाये?

आज क्लांत मत रह तू मनवा
तू भी धवल वस्त्र धारण कर
स्वयं प्रकृति से जुड़ जा तू भी
सकल भाव तेरे चारण भर!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!

पाँव नदी में धो आते हैं

यादों के जब थके मुसाफिर, पाँव नदी में धो आते हैं
देर रात तक चूल्हे जल के, गंध पाहुनी बिखराते हैं।

माँ-बाबूजी के दुलार का, हाथ रहे जब सर के ऊपर
चाहे दिशाशूल में निकलूँ, कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं।

बहना ने भेजी जो हमको, हँसी ठिठोली चिट्ठी में भर
जब भी उनको खोल पढ़ूँ मैं, याद सुनहरी बो जाते हैं।

कितने सालों बाद जो ननदी, घर सबसे मिलने आती है
गठिया वाले पाँव हैं चलते, दर्द पुराने खो जाते हैं।

आंगन में आता है जब भी सावन का हरियल सा महीना
बिना तुम्हारे पिया ये प्यासे नयन कटोरी हो जाते हैं।

तेरी मेरी प्रीत निराली

तेरी मेरी प्रीत निराली
तू चन्दा है नील गगन का
मैं पीतल की जलमय थाली!

क्या तूने देखा धारा को
सीपी मुक्ता माल पिरोते?
क्या तूने देखा बंसी को
छिद्रयुक्त हो सुर संजोते?
क्या मलयज भी सकुचाती है
धवल गिरि के सम्मुख होते?
क्यों घबराती पिया मैं तन मन
तेरा जो तुझ पर ही खोते?

तू नीलाभ गगन का स्पन्दन
मैं धूलि हूँ पनघट वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

हो रूप गुणों से आकर्षित यदि
तेरी चेतना मुझ तक आती
कैसे फिर मेरे शून्यों को
अपने होने से भर पाती!
डोर प्रीत की तेरी प्रियतम
खण्ड मेरे है बाँधे जाती!
तेल बिना क्या कभी वर्तिका
जग उजियारा है कर पाती?

दिनकर! तेरे स्नेह स्पर्श बिन
नहीं कली ये खिलने वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

धरा संजोती जैसे अंकुर
मुझे हथेली में तू रखता
अपनी करुणा से तू ईश्वर
मेरे सब संशय है हरता!
प्राण मेरे! बन प्राण सुधा तू
पल-पल प्राणों में है झरता!
जग अभिनन्दन करता जय का
दोषों पर मेरे तू ढरता!

नहीं मुझे अवलम्बन खुद का
तू ही भरता मेरी प्याली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

तू शंकर का तप कठोर
मैं एक कुशा माँ सीता वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

१० दिसम्बर ०८

अभिनन्दन

स्थूल में और सूक्ष्म में सौन्दर्य जो, उनको समर्पित
व्यक्त और अव्यक्त में सिमटी हुई सारी ऋचायें,
है समर्पित फूल हर, खिलता हुआ जन में,विजन में
और हर रंग के अधर, पा कर खुशी जो मुस्कुरायें।

थाल पूजा का सजा, धो कर रखी सब भावनायें
नववधू की हिचकिचाहट, शिशु देखती माँ की ललक भी,
संस्कारों में रंगी हल्दी, सुपारी और मेंहदी,
ज्ञान के कुछ श्वेत चावल, प्रीति का अरुणिम तिलक भी।

और दीपक आस के, विश्वास के मन में जला कर
आज स्वागत कर रही हूँ द्वार पर जा कर उषा के,
मधुरिमा मधु-मिलन मंगल, मांगलिक मानस में मेरे
देखो, अंबर झुक गया पदचाप सुन शंकर-उमा के!

अभिनन्दन उनको दिवस का!
मिलन हो सुख और सुयश का!

प्रकृति जितना देती है 

जहाँ हँसे हैं लाल फूल, वहाँ
नीले भी अक्सर खिल जाते
निश्छलता कितनी प्रकॄति में
रंग दूर के घुल-मिल जाते!

सुघड़ पेड़ के पास खड़े
मुँह बाये, तकते नहीं अघाते
कितने सुकुमार ललायित अंकुर
बूँद स्नेह की पा सिंच जाते!

और कभी संध्या प्रभात मिल
दोनों जब खुल के गपियाते
सूरज दादा देर गये तक
रिरियाते छुट्टी ना पाते!

कभी पवन का बैग खोलते
कभी बरखा की बूंदों के खाते,
काश! प्रकृति जितना देती है
अंश मात्र उसको लौटाते!

१३ नवम्बर ०८

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की
बस आज ये सिंगार कर ले,
स्टील, लोहा, सोना, चांदी
जो मिले, ले रीढ़ मढ़ ले!

तू पीठ सीधी . . .

आज तू काजल लगा ना
अपनी कलम स्याही से भर ले,
झूमर में हैं जो दो सितारे
कर यत्न, आँखों में उतर लें!

तू पीठ सीधी . . .

गूढ़तम जो प्रश्न होगा
लौटेगा अनुत्तरित समझ ले
ना रामशलाकाप्रश्नावली ये जीवन
तू जी इसे, उत्तरित कर ले!

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की!

१० नवम्बर ०८

गुडमार्निग सूरज 

सुबह उठी तो ये क्या देखा
वान गो की पेंटिंग जैसा
सूर्यमुखी का पीलापन ले
आज निखर आया है सूरज!

शाम लगाई डुबकी जल में
और बादलों से मुँह पोंछा
लाली लगा कमलदल वाली
कितना इतराया है सूरज!

आजा तुझ को मजा चखाऊँ
डुबो चाय में मैं खा जाऊँ
पा कर मेरे प्यार की झप्पी
कितना शरमाया है सूरज!

आज बांध कर चुन्नी में मैं
अमलतास पे लटका दूँगी
रंगोगे क्या जीवन सबके
सुन क्यों घबराया है सूरज!

७ नवम्बर ०८

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा
याद में तेरी ना वो जोगन बनेगी
ईंट, पत्थर, पानी और आलाव का घर
सेंक रोटी हाथ की रेखा दहेगी

वह नदी जो जंगलों में बह रही है
मानिनी सागर से जा कर ना मिलेगी
हर लहर हो वाष्पित अंत: तपन से
याद के दीपक विसर्जित कर जलेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

क्यों बंधा ये बंध तुझ से, वो ना समझी
रेशमी ये गांठ तुझसे ना खुलेगी
तोलता जिसमें है तू कुछ काँच, हीरे
खुशबूएं ये उस तराज़ू ना तुलेंगीं

होंठ पे गुड़मुड़ रखी एक मुस्कुराहट
देखना, कुछ ही पलों में खिल हँसेगी
फिर कहेगी गीत से, तू क्यों खड़ा है
जिन्दगी की टेक है, चलती रहेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

२ नवम्बर ०८

याद कुछ पक्का नहीं है 

है अनिश्चित वह घड़ी, बैठे हुए या हम खड़े थे
याद इतना है भंवर दो, गाल पर गहरे पड़े थे
चूमती थी तब गुलाबी चूनरी का छोर धरती
ढीठ थे कुछ पर्ण सूखे, कंटकों में सिल जड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

ये कमल लाये कहाँ से, पूछ कर तुम हँस दिये थे
कह न कारण मैं सका, क्यों बूट कीचड़ में मढ़े थे
और हमने साथ में “सिज़लर” कहा जब रेस्तरां में
आँख तो मिल न सकीं थीं, होंठ पर, दहके बड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

हाजिरी में ज्यामिती की नाम बोला था तुम्हारा
हाथ मेरा उठ गया था, शर्म के फ़ूटे घड़े थे
सिर्फ़ तुमको ही पढ़ा, मैं अनुसरण करता रहा था
हार कर भी खुश हुआ ज्यों जीत के झंडे गड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

क्षण नहीं हैं प्रेम के बस, प्रीत जब गहरी हुई थी
तप्त होकर पीर से पक्के हुए जीवन-घड़े थे
आज गिन कर वक्त नापें अर्थहीना हो गया है
लग रहा अनगिन जनम से संग अपने पग बढ़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

१७ अक्तूबर २००८

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी

पेड़ों के झुरमुट से छन के जो आती
धवल धूप क्या याद मुझ को दिलाती
हरे खेतों की जो मड़ैया से जाता
थका-हारा राही मधुर गीत गाता

चूड़ा-दही-खाजा और कुछ बराती
अनब्याही दीदी मधुर सुर में गातीं
अभी दाई गोबर की थपली थपेगी
माँ भंसाघर में जा पूये तलेगी

सिल-बट्टे पे चटनी पीसे सुनयना
“किसी ने निकाला जो देना है बायना?”
“अभी लीपा है घर!”, उफ! बड़के भईया
चिल्ला रहे पर्स खोंसे रुपैया

आँधी में दादी हैं छ्प्पर जुड़ातीं
भागे हम झटपट गिरें आम गाछी
वो मामू का तगड़ा कंधा सुहाना
जिस पे था झूला नम्बर से खाना।

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी
नमक-तेल-मिर्ची और रोटी बासी।

०९ अक्तूबर ०८

गीतकार

लेखनी से जब गिरें
झर स्वर्ग के मोती
पाने को उनको सीपियाँ
निज अंक हैं धोतीं।
कोई चले घर छोड़ जब
अहम् , दुख , सपने
उस केसरी आँचल तले
आ सभ्यता सोती।

जब तू शिशु था ईश ने आ
हाथ दो मोती दिये
एक लेखनी अनुपम औ’ दूजे
भाव नित सुरभित नये।
ये हैं उसी की चिर धरोहर
तू गा उसी का नाम ले
जो नाव सब की खे रहा
उसे गीत उतराई तू दे।

तू गीत उन्नत भाल के रच
मन को तू खंगाल के रच
कृष्ण के कुन्तल से लिपटे
गीत अरुणिम गाल के रच।
तू दलित पे गीत लिख
और गीत लिख तू वीर पे
जो मूक मन में पीर हो
उसको कलम की नीर दे।

तू तीन ऐसे गीत रच जो
भू-गगन को नाप लें
माँ को, प्रभु को पाती लिख
लिख प्रेम को निष्काम रे।
ये गीत मेरा जो तुम्हारे
पाँव छूने आ रहा
जिस ठाँव तू गाये
ये उसकी धूल बस हटला रहा।

०५ अक्टूबर ०९

ज़िन्दगी के तीन दिन

दे सको तो दो प्रिये मुझे ज़िन्दगी के तीन दिन
एक दिन उल्लास का, मृदु हास का, उच्छ्वास का
एक दिन रस-रास का, सहवास का, सुवास का
एक दिन पूजा का, श्रद्धा का, अमर विश्वास का .

वो दिन कि जिसमें तुम हो, मैं हूँ, तीसरा कोई नहीं हो.

वो दिन कि तुम नदियों से दूजी कह दो तुम में ना समायें
वो दिन कि माज़ी याद ले के दूसरी कोई ना आये
वो दिन कि जिसमें साँस लो तुम, प्राण मेरे प्राण पायें
वो दिन कि जब ना दिन ढले ना शाम जिद्दी घर को जाये .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !

वो दिन कि जब ये सूर्य बोले स्वर्ण भी हूँ , अरूण भी हूँ
और बादल हँस के बोले वृद्ध भी हूँ , तरुण भी हूँ
प्रीति बोले त्याग हूँ मैं और प्रिय का वरण भी हूँ
चिति बोले ब्रह्म हूँ मैं और स्व का हरण भी हूँ .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !
दे सको तो दो प्रिये मुझे !

तेरी याद !

उफ़! तेरी याद की मरमरी उँगलियाँ
आ के काँधे पे लम्हें पिरोती रहें
जैसे सूने पहाड़ों पे गाये कोई
और नदियाँ चरण आ भिगोती रहें !

पगतली से उठे, पीठ की राह ले
एक सिहरन सी है याद अब बन गई
चाँदनी की किरण दौड़ आकाश में
सब सितारों को ले शाल एक बुन गई !

ताक पे जा रखा था उठा के उसे
तेरी ग़ज़लों को सीढ़ी बनाके हँसी
गीतों का ले सहारा दबे पाँव वो
उतरी है मुझसे नज़रें चुरा के अभी !

बन के छोटी सी बच्ची मचलने लगी
गोद में जा छुपी, हाथ है चूमती
चाहे डाटूँ उसे या दुलारूँ उसे
आगे-पीछे पकड़ पल्लू वो घूमती !

एक गमले में जा याद को रख दिया
घर गुलाबों की खुशबू से भर सा गया
जाने कब मैं बनी मीरा, तू श्याम बन
मेरे जीवन में छन्न-छन्न उतरता गया !

क्या समय के पहले समय नहीं था?

क्या समय के पहले समय नहीं था?
पानी से पहले नहीं था पानी?
खड़ा हठीला टीला ये जो, क्या इससे पहले रेत नहीं था?

और मृदा संग हवा कुनमुनी,
धूप, पात, वारि ने मिल कर,
स्वर मिश्री सा साधा उससे पहले सुर समवेत नहीं था?

तैरे आकाशी गंगा सूरज,
धरा ज्योति में गोते खाये,
इससे पहले सभी श्याम था, कोई आंचल श्वेत नहीं था ?

नाम नहीं था जब चीजों का,
प्रीत, पीर क्या एक नहीं थे?
ऐसा क्यों लगता है मुझको, जैसे इनमें भेद नहीं था ?

तुमने जो इतने भावों को,
ले छिड़काया मन में मेरे,
पहले भी ये ज़मीं रही थी, पर चिर नूतन खेत नहीं था !

(गेबरियल गार्सिया मार्क्वेज़ को समर्पित)

हमको ऐसे मिली ज़िंदगी ! 

इक मुड़ी जीन्स में, फँस गई सीप-सी
आँधियों से भरे, एक कृत्रिम द्वीप-सी

नाखूनों में घुसी, कुछ हठी रेत-सी
पेड़ बौने लिए, बोन्साई खेत-सी

टूटी इक गिटार-सी, क्लिष्ट व्यवहार-सी
नाम भी ना रहे याद, भूले प्यार-सी

फोटो बिन फ्रेम की, बस कुशल-क्षेम-सी
बारिशों से स्थगित एक क्रिकेट गेम-सी

हाथ से ढुल गई मय ना प्याले गिरी
शाम जो रात लौटी नहीं सिरफिरी

देने में जो सरल, सस्ते इक ज्ञान-सी
भाव से हो रहित, हाय! उस गान-सी

खोल खिड़की किरण जो ना घर आ सकी
धुन ज़हन में रही ना जुबाँ पा सकी

आदतों की बनी इक गहन रेख-सी
बस जो होती बहू में ही, मीन-मेख-सी

बी.एम.आई इंडैक्स सी, बिन कमाई टैक्स-सी
जो कि पढ़ ना सके, उड़ गये फैक्स-सी

हमको ऐसे मिली कि हँसी आ गई
फिर गले से लगाया तो शर्मा गई

ज़िंदगी प्यार के झूठे ई-मेल सी
पुल पे आई विलम्बित थकी रेल सी !

कौन मेरे दर्पण में ?

चित्र एक दिख गया नयन में, एक दिवस मुझको अनजाने
छोड़ दिया है तबसे मैंने दर्पण में खुद को निहारना
एक जीर्ण सी यष्टि अपरिचित, बाल पके भुट्टे के जैसे !
अंतरमन तराशती तब से, छोड़ दिया तन को निखारना !

कौन सत्य दिखला जाता है, और कौन है बनता रक्षक
कौन दर्प मेरा सीमित कर, बन जाता है पंथ-प्रदर्शक
कौन बाद जो है बसंत के ग्रीष्मऋतु सखि ले आता है
कौन चाक पे रखी उमरिया की माटी, घट कर जाता है ?

कौन मुझे जो फल देता है, और अधिक झुकना सिखलाता
कौन मेरा संशय दावानल प्रेम सुधा से सींचे जाता
कौन मुझे हँस कह देता है प्राप्ति नहीं कर प्रेम सखि री
और कौन मन के दर्पण में सत्-चित-आनंद भाव भरे री ?

सुन ओ निराकार तुम मेरे, गुरु बनो, बाँहें संभालो
डगर नयी, पग कोमल मेरे, तृष्णा की ये फांस निकालो !
कलुषित, तृण सम बहते मन को, करुणा से अपनी सहेज लो
बालक सा क्रंदन सिखलाओ, शब्द निरथर्क सारे ले लो !

कच्ची गणित का प्रश्न

दोस्त मैं कन्धा तुम्हारा जिस पे सर रख रो सको तुम
वेदना के, हार के क्षण, भूल जिस पे सो सको तुम
बाहें मैं जिनको पकड़ तुम बाँटते खुशियाँ अनोखी
कान वो करते परीक्षा जो कि नित नव-नव सुरों की ।

मैं ही हर संगीत का आगाज़ हूँ और अंत भी हूँ
मैं तुम्हारी मोहिनी हूँ, मैं ही ज्ञानी संत भी हूँ
शिंजनी उस स्पर्श की जिसको नहीं हमने संवारा
चेतना उस स्वप्न की जो ना कभी होगा हमारा ।

हूँ दुआयें मैं वही जो नित तुम्हारे द्वार धोयें
और वो आँसू जो तुमने आज तक खुल के ना रोये
मैं तपिश उन सीढियों की जो दुपहरी लाँघती हैं
और असमंजस पथों की जो पता अब माँगती हैं ।

प्रश्न वो कच्ची गणित का जो नहीं सुलझा सके तुम
शाख जामुन की लचीली जिस पे चढ़ ना आ सके तुम
मैं तुम्हारे प्रणय की पहली कथा, पहली व्यथा हूँ
मैं तुम्हारा सत्य शाश्वत, मैं तुम्हारी परी-कथा हूँ ।

मैं हूँ तीस्ता नदी ! 

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा ।

‘पत्थरों पे उछल के संभलना सखि’
मुझ से हंस के कहा इक बुरुंश फूल ने
अपनी चांदी की पायल मुझे दे गयी
मुझ से बातें करी जब नरम धूप ने ।

मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गयी मलयजें
मुझ से ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
हो के कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें ।

कितने धर्मों के पाँवों मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझ में आ घुल गयी
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले ।

झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गयी
चीड़ ने देख मुझ में संवारा बदन
आप आये तो मुझ में ज्यों जां आ गयी
आप से मिल के मेरे भरे ये नयन ।

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई !

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते

हर एक पग जो मैं चला था
वह तेरे पथ ही गया था ,
ज्ञात ना गन्तव्य था पर
लक्ष्य आ खुद सध गया था ।

तू ही है मनमीत मेरा
तू ही मेरा प्राणधन,
कस्तूरी मृग सा मैं भटकता
तू है गंधवाही पवन ।

तू रहे किस काल में
किस देस में, किस भेस में ,
इसकी नहीं परवाह करता
तुझ से विलग ना शेष मैं !

विश्रांति में तुझ को पुकारे
बाट संजोये सदा
वो खोज मैं, मैं वो प्रतीक्षा
मैं वो चातक की व्यथा ।

द्वंद जितने भी लड़ा था
और जो लिखा-गढ़ा था,
वो तेरे ही द्वार की
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ा था ।

आज जब मैं पास हूँ
क्यों मुझ से तू मुख फेरता,
मैं ना हरकारा कोई
जो जाये घर-घर टेरता ।

मैं तेरे संग बोल लूँ
तुझको तुझी से तोल लूँ
मैं तेरा ही अंश प्रियतम
क्या पूर्ण का मैं मोल दूँ ?

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी
कलिष्ट वो शब्द जो अनकहा रह गया
मैं वो पाती जो बरसात में भीग कर
इतना रोई कि सब अनपढ़ा रह गया ।

मैं हूँ रश्मिरथी की त्रिभुज सी किरण
चूम कर भूमि, रथ फिर चढ़ा ना गया
मैं कभी वाष्प बन, फिर कभी मेह बन
इतना घूमी कि मोती गढ़ा ना गया ।

मैं वो धुंधली परी, कल्पना से भरी
जिसके पंखों को ले कर समय उड़ गया
नीले घोड़े पे आया था छोटा कुंवर
पर उबलती नदी से परे मुड़ गया ।

मैं वो यौवन जो आभाव से ब्याह गई
मैं वो बचपन जो पूरा जिया ना गया
तृष्णा और तृप्ति के मध्य में मैं खडी
एक अरदास मन से पढ़ा ना गया ।

मैं वो जोगन जो मेंहदी रचे पाँव ले
राजघर तो चली पर रहा ना गया
मीरा की चाह में, राणा की आह! में
मैं वो दोहा जो पूरा कहा ना गया ।

मैं काश ! अगर तितली होती

मैं काश ! अगर तितली होती
नभ में उड़ती, गुल पे सोती ।

नवजात मृदुल पंखुडियों का
पहला-पहला क्रन्दन सुनती
अंकुर के फूट निकलने पर
गर्वीला भू-स्पंदन सुनती ।

हो शांत , दोपहरी काँटों की
पीड़ा सुन ह्र्दय बिंधाती मैं
नव प्रेमी-युगल की बातें सुन
उनके ऊपर मंडराती मैं ।

शर्मा महकी शेफाली का
रत-जगा करा दर्शन करती
और झरते सुर्ख गुलाबों का
गीता पढ़ अभिनन्दन करती ।

प्रथम रश्मि के आने से
पहले झट ओस पियाला पी
मैं अनजानी बन कह देती
थी रात ने कुछ कम मदिरा दी ।

गर कोई गुल इठलाता तो
ठेंगा उसको दिखलाती मैं
कभी उपवन छोड़ पतंगों की
डोरें थामे उड़ जाती मैं ।

तेरे सुमन सरीखे छ्न्दों का
मधु पी सुध-बुध खो जाती मैं
फिर शाम ढले यूँ लिपट-चिपट
उन्हीं छ्न्दों पे सो जाती मैं ।

मैं काश ! अगर तितली होती !

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं सरिता सजल जिसके लिए पर्वत गला था ।
बेच आया छन्द कितने, जीत आया द्वंद कितने
पर विजय केशव न ये जिसके लिए राधेय छला था ।

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं …

मैं रहा मैं और मेरा है मुझे अब तक ममेतर
यह नहीं वह चेतना जिसके लिए तिल-तिल जला था ।
देख नन्हें श्रमिक का दुख हाय ! मैं हतप्रभ खड़ा हूँ
सीमित यहीं संवेदना जिसके लिए कवि-पथ वरा था ?

क्यों नहीं मैं सूर्य सा जल
या धवल हिम-खण्ड सा गल
इस जगत के काम आता
अंकुर उगाता !

या दलित की आँख में ढल
आह बन कर निर्धनों की
संग उनके गीत गाता
अर्थ पाता !

जब भी उठा था दान को किसने पकड़ कर कृपण कर मेरा धरा था ?
ये ही भविष्यत् का सुखन जिसके लिए संचय करा था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं वह बीज जिसके लिए गुल हँस-हँस झरा था ।

औेर लोगों पे मलूँ क्यों
अपने हृदय की लीक कालिख
काश! इसको धो मैं पाता
गंगा नाहाता !

या कि बन कार्बन सघन
कोयले से ले आतिश जलन
पाषाण से मैं घात पाता
चमक जाता !

“किस्से कहानी की ये बातें, सत्य ये होतीं नहीं हैं ”
क्या झूठ थे वे सब कथानक जिनको बचपन में सुना था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं उपवन हरित जिसके लिए मरूथल जला था ।

काश ! एक दिन वन्दना में
ईश का कर ध्यान पाता
खुद को मिटाता
जी मैं जाता !

गुलाबी

मधुसूदन के हस्त गुलाबी
बृज की गोपी मस्त गुलाबी
गोमुख, गोपद धूल गुलाबी
काली जमुना, कूल गुलाबी
राधा की चिर प्रीति गुलाबी
नटवर की हर नीति गुलाबी
मधुर गुलाबी जसुमति प्यार
बंधे कन्हाई जिस से हार !

नयन, अधर, नख, गाल गुलाबी
बहकी लहकी चाल गुलाबी
फूल, कली, नव पात गुलाबी
गयी शाम बरसात गुलाबी
संध्या का लहराता आँचल
सिक्त किरण चमकाता बादल
पंख, शंख, परवाज़ गुलाबी
गीत, सदा, आवाज़ गुलाबी

प्रथम प्रणय की आंच गुलाबी
पिया मिलन की सांझ गुलाबी
नन्हें पग और स्मित की रेख
हर्षाती माँ जिनको देख
शिशु तो लालम लाल गुलाबी
जीवन के कुछ साल गुलाबी
बिटिया से घर-द्वार गुलाबी
रीति, रस्म, व्यवहार गुलाबी

हाय! काट के प्याज़ गुलाबी
हो गईं आँखें आज गुलाबी
गोभी, शलजम और तरबूज
हुए गुलाबी कुछ अमरुद
दादी गातीं छंद गुलाबी
पान बीच गुलकंद गुलाबी
दादा जी की पाग गुलाबी
होते कुछ-कुछ साग गुलाबी

क्या होते कुछ घाव गुलाबी?
चढ़ता ज्वर और ताव गुलाबी?
और गुलाबी पर्ची थाम
छूट गए जिन सब के काम
क्या उनके हालात गुलाबी?
पत्नी करती बात गुलाबी?
सुंदर प्रकृति के ये रंग
लालच कर देता सब भंग !

आप कहें क्या और गुलाबी
वस्तु, कार्य या ठौर गुलाबी ?

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी
जैसे बारिश हो धूप में हल्की
मेरे सर पे रखे जो वो आँचल
भीड़ में हाथ थाम लेते पल

मेरे आने पे वो बनाना कढ़ी
छौंकना साग और तलना बड़ी
एक लौकी से सब बना लेना
सब्जी और बर्फ़ी भी जमा देना

उसके गुस्से में प्यार का था मज़ा
कैसा बच्चों-सी देती थी वो सज़ा
उसका कहना “पापा को आने दे!”
बाद में हँस के कहना “जाने दे!”

याद आते हैं उसके हाथ सख़त
तेल मलना वो परीक्षा के वखत
वो ही कितने नरम हो जाते थे
ज़ख़्म धोते, मरहम लगाते थे

उसका ये पूछना “अच्छी तो है?”
कहना हर बात पे “बच्ची तो है!”
सुना होती है सबकी माँ ऎसी
होती धरती पे है ख़ुदा जैसी !

खोटा सिक्का

मैं एक खोटा सिक्का हूँ
कई हाथों से गुज़रा हूँ
किसी ने देख ना देखा
किसी ने जान कर फेंका

कभी मुजरा-कव्वाली में
कभी पूजा की थाली में
कभी लंगडे की झोली में
कभी ठट्ठा ठिठोली में

कभी मजदूर हाथों में
कभी मजबूर रातों में
जिये बस खोट ही मैंने
दिये बस चोट ही मैंने

आज नन्हें हाथ में
आ कर के ठिठका हूँ
इसे भी धूल झोंकूँ या
कह दूँ कि खोटा हूँ

“माँ देख इसको भी
लगी है चोट माथे पे
हो गया कितना गन्दा ये
इसे भी साथ नहला दे।”

मुझे धो पोंछ कर बच्चे ने
तकिये के तले डाला
कभी यारों को दिखलाया
कभी सहलाया, सँभाला

अब उसके साथ सोता हूँ
उसे गा कर जगाता हूँ
मैं लोहे का इक टुकड़ा हूँ
दुस्वपनों को भगाता हूँ।

कब आओगे नगरी मेरी

कल बड़े दिनों के बाद सजन
आँखों में ना डाला अंजन
सोचा वंशीधर आएँगे
तो पग काले हो जाएँगे।

फिर रात, प्रात:, संध्या बीतीं
आहट से रही ह्रदय सीती
कब आओगे नगरी मेरी
आँखे सूनी, देह की देहरी।

ये गीत तेरा

आज उसने गीत तेरा ये पढ़ा शत बार होगा
मिली होगी इक सहेली नाम जिसका प्यार होगा।

आइने को परे रख तेरी ग़ज़ल में देखा होगा
जुल्फ फिर सँवारी होगी, तीर तिरछा फेंका होगा।

छाप नीले अक्षरों में, अधर रख मुस्काया होगा
घर की गली के पास ही फेंक कर बिखराया होगा।

वहीं कोई रात-रानी सोचे ये चन्दा चितेरा,
तारकों को चुन निशा के गीत में फिर लाया होगा।

बोलो कहाँ उपजायी थी

जलपाइगुडी के स्टेशन पे तुमने थामा था हाथ मेरा
राइन नदी में बतखों ने फिर डुब-डुब डुबकी खाई थी

सिंगापुर के सूरज को एक हाथ बढा कर ढाँपा था
आल्पस् की अलसाई सुबह फिर थोड़ा सा गरमाई थी।

फिर भावों को तुम तोल रही हो देश-काल के पलड़ों में?
ये कह स्नेह-सिक्त माटी हरियल मलमल मुस्काई थी

जो भाप हवा में जुड़ता है, पा वेग पवन का उड़ता है
वो कहता नहीं कभी बूँदों से ‘सखि बोलो कहाँ उपजायी थी?’

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

किस रंग खिलीं कलियाँ
दुबकी आई क्या छिपकलियाँ
सूनी रोई होंगी गलियाँ
घर लौटूँ तो बताना

जो स्वप्न बुने मैंने
जो गीत चुने मैंने
किस्से जो गुने मैंने
मैं आऊँ तो दोहराना

थक सा गया है थोडा
मेरीे बाजुओं का जोडा
अब पाँव घर को मोडा
अपनी पलकें तुम बिछाना

आराधना

यों ही उस धार में बहे हम भी
जैसे पूजा के फूल बहते हैं,
मेरे हाथों में तेरा दामन है
मुझे तेरी तलाश कहते हैं।

तुझ को पा कर के क्या नहीं पाया
तुझ को खो कर के मैं अधूरी हूँ,
तू जहाँ बाग़ है वो ज़मीन हूँ मैं
तेरे होने में मैं ज़रूरी हूँ।

तू मुझे प्यार दे या ना देख मुझे
मेरी हर उड़ान तुझ तक है,
तेरी दुनिया है मंज़िल दर मंज़िल
मेरे दोनों जहान तुझ तक है।

चाहत के चिराग 

तुम जो खामोश रहोगे मेरे अफ़साने आ के
तुम्हारी रूह से बातें करेंगे जी भर के
और जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

तुम जो तन्हा कभी बैठे होंगे
न गम़गी़न न खुश बस यों ही
मेरी यादों के तबस्सुम आ के
तेरे लबों के किनारों से लिपट जाएँगे।

कुछ यों हमारे प्यार का किस्सा होगा
मेरी चाहत तुम्हें मायूस न होने देगी
और जो काँटें तेरी राह में बिखरे होंगे
मेरे कदमों की पनाहों में सिमट आएँगे।

जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

स्वप्न

लाख समझाओ
मगर मन कब समझता है
मेरा हर स्वप्न तेरी राह
हो कर ही गुज़रता है।

ख़्वाब

ना ये प्यार है न दोस्ती
ये एक हसीन-सा ख़्वाब है।
तू कहे तो ज़िंदगी
मैं आँख अपनी खोल दूँ।।

हँस के ज़माना कह गया
तेरे पास अब क्या रह गया।
बोलो तो अनमोल तुमको
किस तराजू तोल दूँ।।

वादा

जो वादा तूने किया नहीं
मुझे उस पे क्यों कर यकीन था।
ये तेरे हुनर की हद थी या
मेरे जुनू का था वाकया।।

किरन 

तू तो बादल है
चमक मेरी क्या छुपाएगा।
ढक भी लेगा तो
किनारे से जगमगाएगा।।

चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिंगारी

हवा इसे तू देते रहना
दिल में सपन समेटे रहना
हँसी होंठ पे जो रखता है
हर गम से वो लड़ सकता है
ऊँच नीच सबकी तैयारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

माना पैसा बहुत जरूरी
बन ना जाये ये मजबूरी
सबसे बढ़कर खुशी है मन की
गाते रहना धुन जीवन की
गीत सुने तेरा दुनिया सारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

दुनिया में इंसाफ ना हरदम
स्याही की चादर ओढ़े ग़म
फिर भी जो दिल जोड़े दिलों से
हँस के जो खेले ख़तरों से
सूरज भी है उसका पुजारी
बुझ ना पाये ये चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिनगारी

तेरे पीछे माया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

सहसा बिटिया बड़ी हो गई, छन्न से यौवन आया
लौटेगा क्या समय साथ जो हमने नहीं बिताया।

कब बसंत बौराया

बचपन की आँखों से धुल गई इंद्रधनुष की छाया
रंग ले गया कुछ बालों से हर मुश्किल का साया।

कब बसंत बौराया

धन शोहरत की राह चली, ग़म दबे पाँव से आया
ढूंढ़ा था क्या भला इसे ही, जिस मंज़िल को पाया।

कब बसंत बौराया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

दोस्त

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा
तेरी हर बात में अपना ही फ़लसफ़ा देखा।

मंज़िलों को चलें साथ हम मुमकिन नहीं मगर
जब से तू संग चला, फूलों का रस्ता देखा।

निखर गई मेरी रंगत, सँवर गईं जुल्फ़ें
ये तेरी आँख में देखा कि आईना देखा।

न गै़रों की नज़र लगे, न हम खुद हों बेवफ़ा
ये दुआ करी हमने, ये ही सपना देखा।

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा।

शार्दूला के दोहे

थोड़ा मन में चैन जो, तुझ को रहा उधार
तेरी भेजी लकड़ियाँ, मुझको हैं पतवार।

आधी-आधी तोड़ कर, बाँटी रोटी रोज़
पानी में भीगा चूल्हा, जाने किसका दोष।

परचम ना फहराइए, खुद को समझ महान
औरों के भी एब पे, थोड़ी चादर तान।

कम ज़्यादा का ये गणित, विधि का लिखा विधान
तू मुझको दे पा रहा, अपनी किस्मत जान।

और अंत में दोस्तों, तिनका-तिनका जोड़
औरों का मरहम बनें, यही दर्द का तोड़।

बसंत आया 

क्या तुम्हारे शहर में भी
सुर्ख गुलमोहर की कतारें हैं
क्या अमलतास की रंगोबू
तुम्हें भी दीवाना करती है
क्या भरी दोपहरी में तुम्हारा भी
भटकने को जी करता है
अगर हाँ तो सुनो जो यों जीता है
वो पल-पल मरता है
क्योंकि हर क्षण कहीं कोई पेड़
तो कहीं सर कटता है।

पारस

मैं तो पारस हूँ , मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

हर मोड़ पे हो जिसके बिछुड़ जाने का डर
ऐसे राही के संग यारों सफ़र ना करना।

गर फूल खिलाते हो दिल की मिट्टी में
एक आँख में सूरज़, एक में शबनम रखना।

मैंने इन होठों से जिनको छुआ था जाते समय
उसने छोड़ा है उन जख़्मों पे मरहम रखना।

वो मेरे आँख का मोती था या हाथों का नगीना
जो गुम गया अब उस पे बहस क्या करना!

मुझको खुदा दुनिया में गर फिर लाएगा
दिल मेरा बड़ा, उमर मेरी ज़रा कम रखना।

मैं तो पारस हूँ, मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

माँ

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

मेरी सर्दी मेरी खाँसी
मेरा ताप और बीमारी
हँस के तू अपना लेती थी
करती कितनी सेवादारी

पा कर तेरा स्पर्श तेजस्वी
मैं अच्छा हो जाता था
फिर लूट पतंगें फाड़ जुराबें
देर रात घर आता था

दरवाजे पे खड़ी रही होगी
तू जाने कब से
श्! श्! कर किवाड़ खोलती
बाबू जी गुस्सा तुझ से!”

फिर बड़ा हुआ मैं, बना प्रणेता
किस्मत ने पलटा खाया
जो समझ शूल दुनिया ने फेंका
बना ताज उसे अपनाया

सब चाहने वालों से घिर भी
तेरा प्यार ढूँढ़ता हूँ
जो धरती अंकुर पर करती
वो उपकार ढूँढ़ता हूँ .

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

विदा की अगन

मैं कोयला हूँ कहो तो आग दूँ
या फिर धुआँ कर दूँ।
मुझे डर है ना दर्देदिल
निगाहों से बयाँ कर दूँ।

मुझे अफ़सोस है तुमने मुझे
अपना नहीं समझा।
खुशी तो बाँट ली मुझ से
मगर गम पास ही रखा।

सुना था दिल की मिट्टी में
ये गम बन फूल खिलता है।
बेगरज दोस्त दुनिया में
बड़ी किस्मत से मिलता है।

चलो छोड़ो गिले शिकवे
विदा होने की बारी है।
इस कोयले में चमक जो है
अमानत वो तुम्हारी है।

सूरज में गरमी ना हो

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।

देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।

ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।

बोली को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जो जाता है सब छोड़ कर
उसको रोको ना तुम जाने दो।

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो।

सच कहूँ तेरे बिना

सच कहूँ तेरे बिना ठंडे तवे सी ज़िंदगानी
और मन भूखा सा बच्चा एक रोटी ढूँढता है
चाँद आधा, आधे नंबर पा के रोती एक बच्ची
और सूरज अनमने टीचर सा खुल के ऊंघता है !

आस जैसे सीढ़ियों पे बैठ जाए थक पुजारिन
और मंदिर में रहे ज्यों देव का श्रृंगार बासी
बिजलियाँ बन कर गिरें दुस्वप्न उस ही शाख पे बस
घोंसला जिस पे बना बैठी हो मेरी पीर प्यासी !

सच कहूँ तेरे बिना !

पूछती संभावना की बुढ़िया आपत योजनायें
कह गया था तीन दिन की, तीन युग अब बीतते हैं
नाम और तेरा पता जिस पर लिखा खोया वो पुर्जा
कोष मन के और तन के हाय छिन छिन रीतते हैं !

सच कहूँ तेरे बिना मेरी नहीं कोई कहानी
गीत मेरे जैसे ऊंचे जा लगे हों आम कोई
तोड़ते हैं जिनको बच्चे पत्थरों की चोट दे कर
और फिर देना ना चाहे उनका सच्चा दाम कोई !

सच कहूँ तेरे बिना !

प्यार का रंग ना बदला

परिवर्तन के नियम ठगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
अब तक है उतना ही उजाला !

आम का पकना, रस्ता तकना
पगडंडी का घर घर रुकना
कोयल का पंचम सुर गाना
हर महीने पूनम का आना
अरे कहो! कब व्रत है अगला ?
तीज, चौथ कब, कब कोजगरा ?
क्या कहते हो सब कुछ बदला !
गाँव का मेरे ढंग ना बदला !

आम मधुर, रस नेह पगे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
होली के हुड़दंग सा पगला !

इक पल जो घर आँगन दौड़ा
चढ़ भईया का कंधा चौड़ा
आज अरूण रंग साड़ी लिपटा
खड़ा हुआ है वह पल सिमटा
उस पल को आँखों में भरता
छाया माँ मन कोहरा धुंधला !
अभी चार दिन पहले ही तो
पहनाया चितकबरा झबला !

माँ के आगे सब बच्चे हैं
देख, प्यार का रंग ना बदला !
हर सागर है उससे उथला !

नयन छवि बिन, गगन शशि बिन
माधव बिन ज्यों राधा के दिन
कृषक मेह बिन, दीप नेह बिन
शरद ऋतु में दीन गेह बिन
उतना की कम खेत को पैसा
जितना हाथ अनाज ने बदला
जल विहीन मन बिना तुम्हारे
मीन बना तड़पा और मचला !

कष्ट जगत के बहुत बड़े हैं
प्यार का रंग हो जाता धुंधला !
आज बुद्ध तज घर फिर निकला !

कद्दू पे बैठी दो बच्चियाँ 

रूप ले ले मेरा, रंग भी छीन ले
ये कमर लोच रख, ये नयन तीर ले !
वो जो कद्दू पे बैठी हैं दो बच्चियाँ
ओ उमर तू मुझे बस वहीं छोड़ दे !

बस समय मोड़ दे !

आ उमर बैठ सीढ़ी पे बातें करें
आंगनों में बिछे, काली रातें करें
फूल बन कर कभी औ’ कभी बन घटा
माँ से नज़रें बचा पेड़ पे जा चढ़ें !

आ ये पग खोल दे !

क्या तुझे याद है सीपियाँ बीनना
दूर से आम कितना पका चीन्हना
और चुपके से दादी के जा सामने
चाचियों का बढ़ा घूँघटा खींचना !

पल वो अनमोल दे !

वो जो भईया का था छोटा सा मेमना
उसकी रस्सी नरम ऊन ला गूंथना
बस मुझे तू वहीँ छोड़ आ अब उमर
चारागाहों में भाता मुझे घूमना !

पट खुले छोड़ दे!

सूरज से मेरे दादाजी

सूर्य किरण फिर आज पहन के एक घड़ी जापानी
कमरे में आयी सुबह-सवेरे, मिन्नत एक ना मानी
हाय! तिलस्मी सपनोंं में मैं मार रहा था बाज़ी
और हैं दादा जी, “जल्दी उठ्ठो” आवाज़ लगा दी !!

बिल्कुल मेरे दादू जैसा ही है ये सूरज भी
सुबह इसे आराम नहीं, ना देर रात धीरज ही !
“जल्दी सोना, जल्दी उठना”, यही राग ये गाते
ऊपर से हर रोज़ एक सा गाते, गीत सुनाते !

“*नाक में उंगली, कान में तिनका
मत कर, मत कर, मत कर !
दाँत में मंजन, आँख में अंजन
नित कर, नित कर, नित कर !”*

ज़रा कहो तो “टूथ ब्रश” को मंजन कौन है कहता ?
और कौन सी नाक ना जिसमें आंगुर घुसा है रहता !
आँख में अंजन, यानी काजल, मैं लगाऊं ? पागल हूँ !!
दादा जी जो सूर्य चमकते, मैं चंचल बादल हूँ !

लड़ता रहता हूँ मैं उनसे, हम हैं यार घनेरे
माँ के बाद वही तो हैं ना सबसे अपने मेरे
अपने मन की बात सभी मैं झट उनसे कह देता
और ना सोता रात में जब तक किस्से ना सुन लेता !

दादा जी ने ही सिखलाया, नहीं माँगना कुछ ईश्वर से
और नहीं कुछ माँगा करता मैं भी दादा जी के डर से
एक बात बस आप से कहता, दादाजी को नहीं बताएं
हूँ मैं चाहता मेरे बच्चों को दादू ही गा के उठाएं !

सूरज से मेरे दादाजी!
मेरे काबा, मेरे काशी !

नाम ले मुझको बुलाओ

ओ नदी ! मैं बन के धारा
या कि बन दूजा किनारा
संग तेरे चल पडूँगी, नाम ले मुझको बुलाओ

दधि कसैला पात्र पीतल
पात्र बस चमका रे पागल
तर्क की तलवार से भयी
भावना भयभीत घायल

ओ प्रिये! तुम स्वर्ण मन में
अहं का दधि ना जमाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

जो निशा से भोर का
प्राची-प्रतीची छोर का
बंध मेरा और तुम्हारा
जो घटा से मोर का

तुम समय के कुन्तलों को
मोर पंखों से सजाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

तुहिन कण सी उज्ज्वला जो
चन्द्रिका सी चंचला जो
पात पे फिसली मचलकर
स्निग्ध निर्मल प्रीति थी वो

है अड़ी नवयौवना सी
पाँव इसके गुदगुदाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

पथिक ऐसे थोड़े गिन के
साथ हैं मनमीत जिनके
हम मिले हैं सुन सजनवा
साज और संगीत बन के

राह की संगीतिका को
मिलन धुन में ना भुलाओ, नाम ले मुझको बुलाओ

नाम ले मुझको बुलाओ !

उठ चल मेरे मन

हो विलग सबसे, अकेला चल पड़ा तू
एक अपनी ही नयी दुनिया बसाने
तूफ़ान निर्मम रास्ते के शीर्य तुझ को
मन! ना घबरा, गीत जय के गुनगुना ले !

स्वर्ण, रजत व कांस्य घट ले नित्य दिनकर
भर रहा अंबर की नीली झील में क्षण
गा रहे खग के समूह तज नीड़ अपना
तू भी मगन दोहरा नव निर्माण के प्रण

ले विदा तू हाथ जिनको जोड़ आया
कर गहेंगी स्मृतियाँ तेरे बालपन की
ओ मेरे मन! राह से ना विलग होना
खींचें अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की

एक मुठ्ठी धरा, एक टुकड़ा गगन का
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में
वेग मरुतों का ढला बन श्वास प्रतिपल

विलय तुझ में हैं सकल अवरोध पथ के
नीतियाँ तुझ में ही जयश्री के वरण की
तू स्वयं ही द्वारपालों सा खड़ा मन
तुझ से निकलती सीढियाँ अंतिम चरण की

उठ मेरे मन दूर तू इस घाट से चल
तोड़ चल तू मोह के सब बन्धनों को
राह की कठिनाईयाँ तकतीं हैं रस्ता
दे नया तू अर्थ मानव जीवनों को !

उठ चल मेरे मन !
चल !

मौसम की ये कारस्तानी 

वन में आग लगा कर चंचल
टेसू मन ही मन मुस्काता
कब आओगे दमकल ले कर
रंग-बिरंगे फागुन दादा?

कोयल फिर सुर की कक्षा के
अभ्यासों में जुटी हुई है
और मेघ की नटखट टोली
कर के मंत्रणा घुटी हुई है!

एक बूंद भी नहीं बरसती
देख हँसी दूब को आयी
होता है हर साल यही तो
कह मेंढक ने ली जंभाई।

बालक सा मन पढ़ने लगता
पंचतंत्र की कथा पुरानी
नया साल फिर ले आया है
बातें सब जानी पहचानी।

दुनियावी सवाल सुलझाते
याद हमें आ जाती नानी
पर मन को शीतल कर जाती
मौसम की ये कारस्तानी!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे

खिलते हैं सखि वन में टेसू
फागुन भी अब आता होगा
धरती ओढ़े लाल चुनरिया
गीत गगन मृदु गाता होगा।

पगड़ी बाँधे अरुण पात की
वृक्ष खड़े हैं श्रद्धानत हो
स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!
रश्मि रोली, मेघ अक्षत लो।

हरित पहाड़ों की पगडंडी
रवि दर्शन को दौड़ी आये
चित्रलिखित सा खड़ा चन्द्रमा
इस पथ जाये, उस पथ जाये?

आज क्लांत मत रह तू मनवा
तू भी धवल वस्त्र धारण कर
स्वयं प्रकृति से जुड़ जा तू भी
सकल भाव तेरे चारण भर!

स्वागतम् उत्तरायण सूर्य हे!

पाँव नदी में धो आते हैं

यादों के जब थके मुसाफिर, पाँव नदी में धो आते हैं
देर रात तक चूल्हे जल के, गंध पाहुनी बिखराते हैं।

माँ-बाबूजी के दुलार का, हाथ रहे जब सर के ऊपर
चाहे दिशाशूल में निकलूँ, कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं।

बहना ने भेजी जो हमको, हँसी ठिठोली चिट्ठी में भर
जब भी उनको खोल पढ़ूँ मैं, याद सुनहरी बो जाते हैं।

कितने सालों बाद जो ननदी, घर सबसे मिलने आती है
गठिया वाले पाँव हैं चलते, दर्द पुराने खो जाते हैं।

आंगन में आता है जब भी सावन का हरियल सा महीना
बिना तुम्हारे पिया ये प्यासे नयन कटोरी हो जाते हैं।

तेरी मेरी प्रीत निराली

तेरी मेरी प्रीत निराली
तू चन्दा है नील गगन का
मैं पीतल की जलमय थाली!

क्या तूने देखा धारा को
सीपी मुक्ता माल पिरोते?
क्या तूने देखा बंसी को
छिद्रयुक्त हो सुर संजोते?
क्या मलयज भी सकुचाती है
धवल गिरि के सम्मुख होते?
क्यों घबराती पिया मैं तन मन
तेरा जो तुझ पर ही खोते?

तू नीलाभ गगन का स्पन्दन
मैं धूलि हूँ पनघट वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

हो रूप गुणों से आकर्षित यदि
तेरी चेतना मुझ तक आती
कैसे फिर मेरे शून्यों को
अपने होने से भर पाती!
डोर प्रीत की तेरी प्रियतम
खण्ड मेरे है बाँधे जाती!
तेल बिना क्या कभी वर्तिका
जग उजियारा है कर पाती?

दिनकर! तेरे स्नेह स्पर्श बिन
नहीं कली ये खिलने वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

धरा संजोती जैसे अंकुर
मुझे हथेली में तू रखता
अपनी करुणा से तू ईश्वर
मेरे सब संशय है हरता!
प्राण मेरे! बन प्राण सुधा तू
पल-पल प्राणों में है झरता!
जग अभिनन्दन करता जय का
दोषों पर मेरे तू ढरता!

नहीं मुझे अवलम्बन खुद का
तू ही भरता मेरी प्याली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

तू शंकर का तप कठोर
मैं एक कुशा माँ सीता वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!

१० दिसम्बर ०८

अभिनन्दन

स्थूल में और सूक्ष्म में सौन्दर्य जो, उनको समर्पित
व्यक्त और अव्यक्त में सिमटी हुई सारी ऋचायें,
है समर्पित फूल हर, खिलता हुआ जन में,विजन में
और हर रंग के अधर, पा कर खुशी जो मुस्कुरायें।

थाल पूजा का सजा, धो कर रखी सब भावनायें
नववधू की हिचकिचाहट, शिशु देखती माँ की ललक भी,
संस्कारों में रंगी हल्दी, सुपारी और मेंहदी,
ज्ञान के कुछ श्वेत चावल, प्रीति का अरुणिम तिलक भी।

और दीपक आस के, विश्वास के मन में जला कर
आज स्वागत कर रही हूँ द्वार पर जा कर उषा के,
मधुरिमा मधु-मिलन मंगल, मांगलिक मानस में मेरे
देखो, अंबर झुक गया पदचाप सुन शंकर-उमा के!

अभिनन्दन उनको दिवस का!
मिलन हो सुख और सुयश का!

प्रकृति जितना देती है 

जहाँ हँसे हैं लाल फूल, वहाँ
नीले भी अक्सर खिल जाते
निश्छलता कितनी प्रकॄति में
रंग दूर के घुल-मिल जाते!

सुघड़ पेड़ के पास खड़े
मुँह बाये, तकते नहीं अघाते
कितने सुकुमार ललायित अंकुर
बूँद स्नेह की पा सिंच जाते!

और कभी संध्या प्रभात मिल
दोनों जब खुल के गपियाते
सूरज दादा देर गये तक
रिरियाते छुट्टी ना पाते!

कभी पवन का बैग खोलते
कभी बरखा की बूंदों के खाते,
काश! प्रकृति जितना देती है
अंश मात्र उसको लौटाते!

१३ नवम्बर ०८

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की
बस आज ये सिंगार कर ले,
स्टील, लोहा, सोना, चांदी
जो मिले, ले रीढ़ मढ़ ले!

तू पीठ सीधी . . .

आज तू काजल लगा ना
अपनी कलम स्याही से भर ले,
झूमर में हैं जो दो सितारे
कर यत्न, आँखों में उतर लें!

तू पीठ सीधी . . .

गूढ़तम जो प्रश्न होगा
लौटेगा अनुत्तरित समझ ले
ना रामशलाकाप्रश्नावली ये जीवन
तू जी इसे, उत्तरित कर ले!

तू पीठ सीधी रख ओ लड़की!

१० नवम्बर ०८

गुडमार्निग सूरज 

सुबह उठी तो ये क्या देखा
वान गो की पेंटिंग जैसा
सूर्यमुखी का पीलापन ले
आज निखर आया है सूरज!

शाम लगाई डुबकी जल में
और बादलों से मुँह पोंछा
लाली लगा कमलदल वाली
कितना इतराया है सूरज!

आजा तुझ को मजा चखाऊँ
डुबो चाय में मैं खा जाऊँ
पा कर मेरे प्यार की झप्पी
कितना शरमाया है सूरज!

आज बांध कर चुन्नी में मैं
अमलतास पे लटका दूँगी
रंगोगे क्या जीवन सबके
सुन क्यों घबराया है सूरज!

७ नवम्बर ०८

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा
याद में तेरी ना वो जोगन बनेगी
ईंट, पत्थर, पानी और आलाव का घर
सेंक रोटी हाथ की रेखा दहेगी

वह नदी जो जंगलों में बह रही है
मानिनी सागर से जा कर ना मिलेगी
हर लहर हो वाष्पित अंत: तपन से
याद के दीपक विसर्जित कर जलेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

क्यों बंधा ये बंध तुझ से, वो ना समझी
रेशमी ये गांठ तुझसे ना खुलेगी
तोलता जिसमें है तू कुछ काँच, हीरे
खुशबूएं ये उस तराज़ू ना तुलेंगीं

होंठ पे गुड़मुड़ रखी एक मुस्कुराहट
देखना, कुछ ही पलों में खिल हँसेगी
फिर कहेगी गीत से, तू क्यों खड़ा है
जिन्दगी की टेक है, चलती रहेगी

उसकी कलाई पर लिखा है नाम तेरा

२ नवम्बर ०८

याद कुछ पक्का नहीं है 

है अनिश्चित वह घड़ी, बैठे हुए या हम खड़े थे
याद इतना है भंवर दो, गाल पर गहरे पड़े थे
चूमती थी तब गुलाबी चूनरी का छोर धरती
ढीठ थे कुछ पर्ण सूखे, कंटकों में सिल जड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

ये कमल लाये कहाँ से, पूछ कर तुम हँस दिये थे
कह न कारण मैं सका, क्यों बूट कीचड़ में मढ़े थे
और हमने साथ में “सिज़लर” कहा जब रेस्तरां में
आँख तो मिल न सकीं थीं, होंठ पर, दहके बड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

हाजिरी में ज्यामिती की नाम बोला था तुम्हारा
हाथ मेरा उठ गया था, शर्म के फ़ूटे घड़े थे
सिर्फ़ तुमको ही पढ़ा, मैं अनुसरण करता रहा था
हार कर भी खुश हुआ ज्यों जीत के झंडे गड़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

क्षण नहीं हैं प्रेम के बस, प्रीत जब गहरी हुई थी
तप्त होकर पीर से पक्के हुए जीवन-घड़े थे
आज गिन कर वक्त नापें अर्थहीना हो गया है
लग रहा अनगिन जनम से संग अपने पग बढ़े थे

याद कुछ पक्का नहीं है . . .

१७ अक्तूबर २००८

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी

पेड़ों के झुरमुट से छन के जो आती
धवल धूप क्या याद मुझ को दिलाती
हरे खेतों की जो मड़ैया से जाता
थका-हारा राही मधुर गीत गाता

चूड़ा-दही-खाजा और कुछ बराती
अनब्याही दीदी मधुर सुर में गातीं
अभी दाई गोबर की थपली थपेगी
माँ भंसाघर में जा पूये तलेगी

सिल-बट्टे पे चटनी पीसे सुनयना
“किसी ने निकाला जो देना है बायना?”
“अभी लीपा है घर!”, उफ! बड़के भईया
चिल्ला रहे पर्स खोंसे रुपैया

आँधी में दादी हैं छ्प्पर जुड़ातीं
भागे हम झटपट गिरें आम गाछी
वो मामू का तगड़ा कंधा सुहाना
जिस पे था झूला नम्बर से खाना।

बड़ा याद आता है बन के प्रवासी
नमक-तेल-मिर्ची और रोटी बासी।

०९ अक्तूबर ०८

गीतकार

लेखनी से जब गिरें
झर स्वर्ग के मोती
पाने को उनको सीपियाँ
निज अंक हैं धोतीं।
कोई चले घर छोड़ जब
अहम् , दुख , सपने
उस केसरी आँचल तले
आ सभ्यता सोती।

जब तू शिशु था ईश ने आ
हाथ दो मोती दिये
एक लेखनी अनुपम औ’ दूजे
भाव नित सुरभित नये।
ये हैं उसी की चिर धरोहर
तू गा उसी का नाम ले
जो नाव सब की खे रहा
उसे गीत उतराई तू दे।

तू गीत उन्नत भाल के रच
मन को तू खंगाल के रच
कृष्ण के कुन्तल से लिपटे
गीत अरुणिम गाल के रच।
तू दलित पे गीत लिख
और गीत लिख तू वीर पे
जो मूक मन में पीर हो
उसको कलम की नीर दे।

तू तीन ऐसे गीत रच जो
भू-गगन को नाप लें
माँ को, प्रभु को पाती लिख
लिख प्रेम को निष्काम रे।
ये गीत मेरा जो तुम्हारे
पाँव छूने आ रहा
जिस ठाँव तू गाये
ये उसकी धूल बस हटला रहा।

०५ अक्टूबर ०९

ज़िन्दगी के तीन दिन

दे सको तो दो प्रिये मुझे ज़िन्दगी के तीन दिन
एक दिन उल्लास का, मृदु हास का, उच्छ्वास का
एक दिन रस-रास का, सहवास का, सुवास का
एक दिन पूजा का, श्रद्धा का, अमर विश्वास का .

वो दिन कि जिसमें तुम हो, मैं हूँ, तीसरा कोई नहीं हो.

वो दिन कि तुम नदियों से दूजी कह दो तुम में ना समायें
वो दिन कि माज़ी याद ले के दूसरी कोई ना आये
वो दिन कि जिसमें साँस लो तुम, प्राण मेरे प्राण पायें
वो दिन कि जब ना दिन ढले ना शाम जिद्दी घर को जाये .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !

वो दिन कि जब ये सूर्य बोले स्वर्ण भी हूँ , अरूण भी हूँ
और बादल हँस के बोले वृद्ध भी हूँ , तरुण भी हूँ
प्रीति बोले त्याग हूँ मैं और प्रिय का वरण भी हूँ
चिति बोले ब्रह्म हूँ मैं और स्व का हरण भी हूँ .

वो ज़िन्दगी के तीन दिन !
दे सको तो दो प्रिये मुझे !

तेरी याद !

उफ़! तेरी याद की मरमरी उँगलियाँ
आ के काँधे पे लम्हें पिरोती रहें
जैसे सूने पहाड़ों पे गाये कोई
और नदियाँ चरण आ भिगोती रहें !

पगतली से उठे, पीठ की राह ले
एक सिहरन सी है याद अब बन गई
चाँदनी की किरण दौड़ आकाश में
सब सितारों को ले शाल एक बुन गई !

ताक पे जा रखा था उठा के उसे
तेरी ग़ज़लों को सीढ़ी बनाके हँसी
गीतों का ले सहारा दबे पाँव वो
उतरी है मुझसे नज़रें चुरा के अभी !

बन के छोटी सी बच्ची मचलने लगी
गोद में जा छुपी, हाथ है चूमती
चाहे डाटूँ उसे या दुलारूँ उसे
आगे-पीछे पकड़ पल्लू वो घूमती !

एक गमले में जा याद को रख दिया
घर गुलाबों की खुशबू से भर सा गया
जाने कब मैं बनी मीरा, तू श्याम बन
मेरे जीवन में छन्न-छन्न उतरता गया !

क्या समय के पहले समय नहीं था?

क्या समय के पहले समय नहीं था?
पानी से पहले नहीं था पानी?
खड़ा हठीला टीला ये जो, क्या इससे पहले रेत नहीं था?

और मृदा संग हवा कुनमुनी,
धूप, पात, वारि ने मिल कर,
स्वर मिश्री सा साधा उससे पहले सुर समवेत नहीं था?

तैरे आकाशी गंगा सूरज,
धरा ज्योति में गोते खाये,
इससे पहले सभी श्याम था, कोई आंचल श्वेत नहीं था ?

नाम नहीं था जब चीजों का,
प्रीत, पीर क्या एक नहीं थे?
ऐसा क्यों लगता है मुझको, जैसे इनमें भेद नहीं था ?

तुमने जो इतने भावों को,
ले छिड़काया मन में मेरे,
पहले भी ये ज़मीं रही थी, पर चिर नूतन खेत नहीं था !

(गेबरियल गार्सिया मार्क्वेज़ को समर्पित)

हमको ऐसे मिली ज़िंदगी ! 

इक मुड़ी जीन्स में, फँस गई सीप-सी
आँधियों से भरे, एक कृत्रिम द्वीप-सी

नाखूनों में घुसी, कुछ हठी रेत-सी
पेड़ बौने लिए, बोन्साई खेत-सी

टूटी इक गिटार-सी, क्लिष्ट व्यवहार-सी
नाम भी ना रहे याद, भूले प्यार-सी

फोटो बिन फ्रेम की, बस कुशल-क्षेम-सी
बारिशों से स्थगित एक क्रिकेट गेम-सी

हाथ से ढुल गई मय ना प्याले गिरी
शाम जो रात लौटी नहीं सिरफिरी

देने में जो सरल, सस्ते इक ज्ञान-सी
भाव से हो रहित, हाय! उस गान-सी

खोल खिड़की किरण जो ना घर आ सकी
धुन ज़हन में रही ना जुबाँ पा सकी

आदतों की बनी इक गहन रेख-सी
बस जो होती बहू में ही, मीन-मेख-सी

बी.एम.आई इंडैक्स सी, बिन कमाई टैक्स-सी
जो कि पढ़ ना सके, उड़ गये फैक्स-सी

हमको ऐसे मिली कि हँसी आ गई
फिर गले से लगाया तो शर्मा गई

ज़िंदगी प्यार के झूठे ई-मेल सी
पुल पे आई विलम्बित थकी रेल सी !

कौन मेरे दर्पण में ?

चित्र एक दिख गया नयन में, एक दिवस मुझको अनजाने
छोड़ दिया है तबसे मैंने दर्पण में खुद को निहारना
एक जीर्ण सी यष्टि अपरिचित, बाल पके भुट्टे के जैसे !
अंतरमन तराशती तब से, छोड़ दिया तन को निखारना !

कौन सत्य दिखला जाता है, और कौन है बनता रक्षक
कौन दर्प मेरा सीमित कर, बन जाता है पंथ-प्रदर्शक
कौन बाद जो है बसंत के ग्रीष्मऋतु सखि ले आता है
कौन चाक पे रखी उमरिया की माटी, घट कर जाता है ?

कौन मुझे जो फल देता है, और अधिक झुकना सिखलाता
कौन मेरा संशय दावानल प्रेम सुधा से सींचे जाता
कौन मुझे हँस कह देता है प्राप्ति नहीं कर प्रेम सखि री
और कौन मन के दर्पण में सत्-चित-आनंद भाव भरे री ?

सुन ओ निराकार तुम मेरे, गुरु बनो, बाँहें संभालो
डगर नयी, पग कोमल मेरे, तृष्णा की ये फांस निकालो !
कलुषित, तृण सम बहते मन को, करुणा से अपनी सहेज लो
बालक सा क्रंदन सिखलाओ, शब्द निरथर्क सारे ले लो !

कच्ची गणित का प्रश्न

दोस्त मैं कन्धा तुम्हारा जिस पे सर रख रो सको तुम
वेदना के, हार के क्षण, भूल जिस पे सो सको तुम
बाहें मैं जिनको पकड़ तुम बाँटते खुशियाँ अनोखी
कान वो करते परीक्षा जो कि नित नव-नव सुरों की ।

मैं ही हर संगीत का आगाज़ हूँ और अंत भी हूँ
मैं तुम्हारी मोहिनी हूँ, मैं ही ज्ञानी संत भी हूँ
शिंजनी उस स्पर्श की जिसको नहीं हमने संवारा
चेतना उस स्वप्न की जो ना कभी होगा हमारा ।

हूँ दुआयें मैं वही जो नित तुम्हारे द्वार धोयें
और वो आँसू जो तुमने आज तक खुल के ना रोये
मैं तपिश उन सीढियों की जो दुपहरी लाँघती हैं
और असमंजस पथों की जो पता अब माँगती हैं ।

प्रश्न वो कच्ची गणित का जो नहीं सुलझा सके तुम
शाख जामुन की लचीली जिस पे चढ़ ना आ सके तुम
मैं तुम्हारे प्रणय की पहली कथा, पहली व्यथा हूँ
मैं तुम्हारा सत्य शाश्वत, मैं तुम्हारी परी-कथा हूँ ।

मैं हूँ तीस्ता नदी ! 

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा ।

‘पत्थरों पे उछल के संभलना सखि’
मुझ से हंस के कहा इक बुरुंश फूल ने
अपनी चांदी की पायल मुझे दे गयी
मुझ से बातें करी जब नरम धूप ने ।

मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गयी मलयजें
मुझ से ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
हो के कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें ।

कितने धर्मों के पाँवों मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझ में आ घुल गयी
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले ।

झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गयी
चीड़ ने देख मुझ में संवारा बदन
आप आये तो मुझ में ज्यों जां आ गयी
आप से मिल के मेरे भरे ये नयन ।

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई !

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते

हर एक पग जो मैं चला था
वह तेरे पथ ही गया था ,
ज्ञात ना गन्तव्य था पर
लक्ष्य आ खुद सध गया था ।

तू ही है मनमीत मेरा
तू ही मेरा प्राणधन,
कस्तूरी मृग सा मैं भटकता
तू है गंधवाही पवन ।

तू रहे किस काल में
किस देस में, किस भेस में ,
इसकी नहीं परवाह करता
तुझ से विलग ना शेष मैं !

विश्रांति में तुझ को पुकारे
बाट संजोये सदा
वो खोज मैं, मैं वो प्रतीक्षा
मैं वो चातक की व्यथा ।

द्वंद जितने भी लड़ा था
और जो लिखा-गढ़ा था,
वो तेरे ही द्वार की
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ा था ।

आज जब मैं पास हूँ
क्यों मुझ से तू मुख फेरता,
मैं ना हरकारा कोई
जो जाये घर-घर टेरता ।

मैं तेरे संग बोल लूँ
तुझको तुझी से तोल लूँ
मैं तेरा ही अंश प्रियतम
क्या पूर्ण का मैं मोल दूँ ?

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी

मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी
कलिष्ट वो शब्द जो अनकहा रह गया
मैं वो पाती जो बरसात में भीग कर
इतना रोई कि सब अनपढ़ा रह गया ।

मैं हूँ रश्मिरथी की त्रिभुज सी किरण
चूम कर भूमि, रथ फिर चढ़ा ना गया
मैं कभी वाष्प बन, फिर कभी मेह बन
इतना घूमी कि मोती गढ़ा ना गया ।

मैं वो धुंधली परी, कल्पना से भरी
जिसके पंखों को ले कर समय उड़ गया
नीले घोड़े पे आया था छोटा कुंवर
पर उबलती नदी से परे मुड़ गया ।

मैं वो यौवन जो आभाव से ब्याह गई
मैं वो बचपन जो पूरा जिया ना गया
तृष्णा और तृप्ति के मध्य में मैं खडी
एक अरदास मन से पढ़ा ना गया ।

मैं वो जोगन जो मेंहदी रचे पाँव ले
राजघर तो चली पर रहा ना गया
मीरा की चाह में, राणा की आह! में
मैं वो दोहा जो पूरा कहा ना गया ।

मैं काश ! अगर तितली होती

मैं काश ! अगर तितली होती
नभ में उड़ती, गुल पे सोती ।

नवजात मृदुल पंखुडियों का
पहला-पहला क्रन्दन सुनती
अंकुर के फूट निकलने पर
गर्वीला भू-स्पंदन सुनती ।

हो शांत , दोपहरी काँटों की
पीड़ा सुन ह्र्दय बिंधाती मैं
नव प्रेमी-युगल की बातें सुन
उनके ऊपर मंडराती मैं ।

शर्मा महकी शेफाली का
रत-जगा करा दर्शन करती
और झरते सुर्ख गुलाबों का
गीता पढ़ अभिनन्दन करती ।

प्रथम रश्मि के आने से
पहले झट ओस पियाला पी
मैं अनजानी बन कह देती
थी रात ने कुछ कम मदिरा दी ।

गर कोई गुल इठलाता तो
ठेंगा उसको दिखलाती मैं
कभी उपवन छोड़ पतंगों की
डोरें थामे उड़ जाती मैं ।

तेरे सुमन सरीखे छ्न्दों का
मधु पी सुध-बुध खो जाती मैं
फिर शाम ढले यूँ लिपट-चिपट
उन्हीं छ्न्दों पे सो जाती मैं ।

मैं काश ! अगर तितली होती !

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं सरिता सजल जिसके लिए पर्वत गला था ।
बेच आया छन्द कितने, जीत आया द्वंद कितने
पर विजय केशव न ये जिसके लिए राधेय छला था ।

यह ज़मीं प्रिय वो नहीं …

मैं रहा मैं और मेरा है मुझे अब तक ममेतर
यह नहीं वह चेतना जिसके लिए तिल-तिल जला था ।
देख नन्हें श्रमिक का दुख हाय ! मैं हतप्रभ खड़ा हूँ
सीमित यहीं संवेदना जिसके लिए कवि-पथ वरा था ?

क्यों नहीं मैं सूर्य सा जल
या धवल हिम-खण्ड सा गल
इस जगत के काम आता
अंकुर उगाता !

या दलित की आँख में ढल
आह बन कर निर्धनों की
संग उनके गीत गाता
अर्थ पाता !

जब भी उठा था दान को किसने पकड़ कर कृपण कर मेरा धरा था ?
ये ही भविष्यत् का सुखन जिसके लिए संचय करा था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं वह बीज जिसके लिए गुल हँस-हँस झरा था ।

औेर लोगों पे मलूँ क्यों
अपने हृदय की लीक कालिख
काश! इसको धो मैं पाता
गंगा नाहाता !

या कि बन कार्बन सघन
कोयले से ले आतिश जलन
पाषाण से मैं घात पाता
चमक जाता !

“किस्से कहानी की ये बातें, सत्य ये होतीं नहीं हैं ”
क्या झूठ थे वे सब कथानक जिनको बचपन में सुना था ?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं उपवन हरित जिसके लिए मरूथल जला था ।

काश ! एक दिन वन्दना में
ईश का कर ध्यान पाता
खुद को मिटाता
जी मैं जाता !

गुलाबी

मधुसूदन के हस्त गुलाबी
बृज की गोपी मस्त गुलाबी
गोमुख, गोपद धूल गुलाबी
काली जमुना, कूल गुलाबी
राधा की चिर प्रीति गुलाबी
नटवर की हर नीति गुलाबी
मधुर गुलाबी जसुमति प्यार
बंधे कन्हाई जिस से हार !

नयन, अधर, नख, गाल गुलाबी
बहकी लहकी चाल गुलाबी
फूल, कली, नव पात गुलाबी
गयी शाम बरसात गुलाबी
संध्या का लहराता आँचल
सिक्त किरण चमकाता बादल
पंख, शंख, परवाज़ गुलाबी
गीत, सदा, आवाज़ गुलाबी

प्रथम प्रणय की आंच गुलाबी
पिया मिलन की सांझ गुलाबी
नन्हें पग और स्मित की रेख
हर्षाती माँ जिनको देख
शिशु तो लालम लाल गुलाबी
जीवन के कुछ साल गुलाबी
बिटिया से घर-द्वार गुलाबी
रीति, रस्म, व्यवहार गुलाबी

हाय! काट के प्याज़ गुलाबी
हो गईं आँखें आज गुलाबी
गोभी, शलजम और तरबूज
हुए गुलाबी कुछ अमरुद
दादी गातीं छंद गुलाबी
पान बीच गुलकंद गुलाबी
दादा जी की पाग गुलाबी
होते कुछ-कुछ साग गुलाबी

क्या होते कुछ घाव गुलाबी?
चढ़ता ज्वर और ताव गुलाबी?
और गुलाबी पर्ची थाम
छूट गए जिन सब के काम
क्या उनके हालात गुलाबी?
पत्नी करती बात गुलाबी?
सुंदर प्रकृति के ये रंग
लालच कर देता सब भंग !

आप कहें क्या और गुलाबी
वस्तु, कार्य या ठौर गुलाबी ?

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी

माँ के हाथों की कटहल की सब्जी
जैसे बारिश हो धूप में हल्की
मेरे सर पे रखे जो वो आँचल
भीड़ में हाथ थाम लेते पल

मेरे आने पे वो बनाना कढ़ी
छौंकना साग और तलना बड़ी
एक लौकी से सब बना लेना
सब्जी और बर्फ़ी भी जमा देना

उसके गुस्से में प्यार का था मज़ा
कैसा बच्चों-सी देती थी वो सज़ा
उसका कहना “पापा को आने दे!”
बाद में हँस के कहना “जाने दे!”

याद आते हैं उसके हाथ सख़त
तेल मलना वो परीक्षा के वखत
वो ही कितने नरम हो जाते थे
ज़ख़्म धोते, मरहम लगाते थे

उसका ये पूछना “अच्छी तो है?”
कहना हर बात पे “बच्ची तो है!”
सुना होती है सबकी माँ ऎसी
होती धरती पे है ख़ुदा जैसी !

खोटा सिक्का

मैं एक खोटा सिक्का हूँ
कई हाथों से गुज़रा हूँ
किसी ने देख ना देखा
किसी ने जान कर फेंका

कभी मुजरा-कव्वाली में
कभी पूजा की थाली में
कभी लंगडे की झोली में
कभी ठट्ठा ठिठोली में

कभी मजदूर हाथों में
कभी मजबूर रातों में
जिये बस खोट ही मैंने
दिये बस चोट ही मैंने

आज नन्हें हाथ में
आ कर के ठिठका हूँ
इसे भी धूल झोंकूँ या
कह दूँ कि खोटा हूँ

“माँ देख इसको भी
लगी है चोट माथे पे
हो गया कितना गन्दा ये
इसे भी साथ नहला दे।”

मुझे धो पोंछ कर बच्चे ने
तकिये के तले डाला
कभी यारों को दिखलाया
कभी सहलाया, सँभाला

अब उसके साथ सोता हूँ
उसे गा कर जगाता हूँ
मैं लोहे का इक टुकड़ा हूँ
दुस्वपनों को भगाता हूँ।

कब आओगे नगरी मेरी

कल बड़े दिनों के बाद सजन
आँखों में ना डाला अंजन
सोचा वंशीधर आएँगे
तो पग काले हो जाएँगे।

फिर रात, प्रात:, संध्या बीतीं
आहट से रही ह्रदय सीती
कब आओगे नगरी मेरी
आँखे सूनी, देह की देहरी।

ये गीत तेरा

आज उसने गीत तेरा ये पढ़ा शत बार होगा
मिली होगी इक सहेली नाम जिसका प्यार होगा।

आइने को परे रख तेरी ग़ज़ल में देखा होगा
जुल्फ फिर सँवारी होगी, तीर तिरछा फेंका होगा।

छाप नीले अक्षरों में, अधर रख मुस्काया होगा
घर की गली के पास ही फेंक कर बिखराया होगा।

वहीं कोई रात-रानी सोचे ये चन्दा चितेरा,
तारकों को चुन निशा के गीत में फिर लाया होगा।

बोलो कहाँ उपजायी थी

जलपाइगुडी के स्टेशन पे तुमने थामा था हाथ मेरा
राइन नदी में बतखों ने फिर डुब-डुब डुबकी खाई थी

सिंगापुर के सूरज को एक हाथ बढा कर ढाँपा था
आल्पस् की अलसाई सुबह फिर थोड़ा सा गरमाई थी।

फिर भावों को तुम तोल रही हो देश-काल के पलड़ों में?
ये कह स्नेह-सिक्त माटी हरियल मलमल मुस्काई थी

जो भाप हवा में जुड़ता है, पा वेग पवन का उड़ता है
वो कहता नहीं कभी बूँदों से ‘सखि बोलो कहाँ उपजायी थी?’

आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

किस रंग खिलीं कलियाँ
दुबकी आई क्या छिपकलियाँ
सूनी रोई होंगी गलियाँ
घर लौटूँ तो बताना

जो स्वप्न बुने मैंने
जो गीत चुने मैंने
किस्से जो गुने मैंने
मैं आऊँ तो दोहराना

थक सा गया है थोडा
मेरीे बाजुओं का जोडा
अब पाँव घर को मोडा
अपनी पलकें तुम बिछाना

आराधना

यों ही उस धार में बहे हम भी
जैसे पूजा के फूल बहते हैं,
मेरे हाथों में तेरा दामन है
मुझे तेरी तलाश कहते हैं।

तुझ को पा कर के क्या नहीं पाया
तुझ को खो कर के मैं अधूरी हूँ,
तू जहाँ बाग़ है वो ज़मीन हूँ मैं
तेरे होने में मैं ज़रूरी हूँ।

तू मुझे प्यार दे या ना देख मुझे
मेरी हर उड़ान तुझ तक है,
तेरी दुनिया है मंज़िल दर मंज़िल
मेरे दोनों जहान तुझ तक है।

चाहत के चिराग 

तुम जो खामोश रहोगे मेरे अफ़साने आ के
तुम्हारी रूह से बातें करेंगे जी भर के
और जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

तुम जो तन्हा कभी बैठे होंगे
न गम़गी़न न खुश बस यों ही
मेरी यादों के तबस्सुम आ के
तेरे लबों के किनारों से लिपट जाएँगे।

कुछ यों हमारे प्यार का किस्सा होगा
मेरी चाहत तुम्हें मायूस न होने देगी
और जो काँटें तेरी राह में बिखरे होंगे
मेरे कदमों की पनाहों में सिमट आएँगे।

जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थे
मेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

स्वप्न

लाख समझाओ
मगर मन कब समझता है
मेरा हर स्वप्न तेरी राह
हो कर ही गुज़रता है।

ख़्वाब

ना ये प्यार है न दोस्ती
ये एक हसीन-सा ख़्वाब है।
तू कहे तो ज़िंदगी
मैं आँख अपनी खोल दूँ।।

हँस के ज़माना कह गया
तेरे पास अब क्या रह गया।
बोलो तो अनमोल तुमको
किस तराजू तोल दूँ।।

वादा

जो वादा तूने किया नहीं
मुझे उस पे क्यों कर यकीन था।
ये तेरे हुनर की हद थी या
मेरे जुनू का था वाकया।।

किरन 

तू तो बादल है
चमक मेरी क्या छुपाएगा।
ढक भी लेगा तो
किनारे से जगमगाएगा।।

चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिंगारी

हवा इसे तू देते रहना
दिल में सपन समेटे रहना
हँसी होंठ पे जो रखता है
हर गम से वो लड़ सकता है
ऊँच नीच सबकी तैयारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

माना पैसा बहुत जरूरी
बन ना जाये ये मजबूरी
सबसे बढ़कर खुशी है मन की
गाते रहना धुन जीवन की
गीत सुने तेरा दुनिया सारी
बुझ ना पाये ये चिंगारी

दुनिया में इंसाफ ना हरदम
स्याही की चादर ओढ़े ग़म
फिर भी जो दिल जोड़े दिलों से
हँस के जो खेले ख़तरों से
सूरज भी है उसका पुजारी
बुझ ना पाये ये चिनगारी

ज़ोर लगाए
बारी बारी
दुनिया सारी
बुझ ना पाये
ये चिनगारी

तेरे पीछे माया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

सहसा बिटिया बड़ी हो गई, छन्न से यौवन आया
लौटेगा क्या समय साथ जो हमने नहीं बिताया।

कब बसंत बौराया

बचपन की आँखों से धुल गई इंद्रधनुष की छाया
रंग ले गया कुछ बालों से हर मुश्किल का साया।

कब बसंत बौराया

धन शोहरत की राह चली, ग़म दबे पाँव से आया
ढूंढ़ा था क्या भला इसे ही, जिस मंज़िल को पाया।

कब बसंत बौराया

कब बसंत बौराया कब घिर सावन आया
भूल गई सब भाग दौड़ में तेरे पीछे माया।

कब बसंत बौराया

दोस्त

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा
तेरी हर बात में अपना ही फ़लसफ़ा देखा।

मंज़िलों को चलें साथ हम मुमकिन नहीं मगर
जब से तू संग चला, फूलों का रस्ता देखा।

निखर गई मेरी रंगत, सँवर गईं जुल्फ़ें
ये तेरी आँख में देखा कि आईना देखा।

न गै़रों की नज़र लगे, न हम खुद हों बेवफ़ा
ये दुआ करी हमने, ये ही सपना देखा।

मुझसे मत पूछ कि ऐ दोस्त तुझ में क्या देखा।

शार्दूला के दोहे

थोड़ा मन में चैन जो, तुझ को रहा उधार
तेरी भेजी लकड़ियाँ, मुझको हैं पतवार।

आधी-आधी तोड़ कर, बाँटी रोटी रोज़
पानी में भीगा चूल्हा, जाने किसका दोष।

परचम ना फहराइए, खुद को समझ महान
औरों के भी एब पे, थोड़ी चादर तान।

कम ज़्यादा का ये गणित, विधि का लिखा विधान
तू मुझको दे पा रहा, अपनी किस्मत जान।

और अंत में दोस्तों, तिनका-तिनका जोड़
औरों का मरहम बनें, यही दर्द का तोड़।

बसंत आया 

क्या तुम्हारे शहर में भी
सुर्ख गुलमोहर की कतारें हैं
क्या अमलतास की रंगोबू
तुम्हें भी दीवाना करती है
क्या भरी दोपहरी में तुम्हारा भी
भटकने को जी करता है
अगर हाँ तो सुनो जो यों जीता है
वो पल-पल मरता है
क्योंकि हर क्षण कहीं कोई पेड़
तो कहीं सर कटता है।

पारस

मैं तो पारस हूँ , मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

हर मोड़ पे हो जिसके बिछुड़ जाने का डर
ऐसे राही के संग यारों सफ़र ना करना।

गर फूल खिलाते हो दिल की मिट्टी में
एक आँख में सूरज़, एक में शबनम रखना।

मैंने इन होठों से जिनको छुआ था जाते समय
उसने छोड़ा है उन जख़्मों पे मरहम रखना।

वो मेरे आँख का मोती था या हाथों का नगीना
जो गुम गया अब उस पे बहस क्या करना!

मुझको खुदा दुनिया में गर फिर लाएगा
दिल मेरा बड़ा, उमर मेरी ज़रा कम रखना।

मैं तो पारस हूँ, मेरी जात है सोना करना
अपनेपन की उम्मीद दोस्त मुझसे क्या करना!

माँ

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

मेरी सर्दी मेरी खाँसी
मेरा ताप और बीमारी
हँस के तू अपना लेती थी
करती कितनी सेवादारी

पा कर तेरा स्पर्श तेजस्वी
मैं अच्छा हो जाता था
फिर लूट पतंगें फाड़ जुराबें
देर रात घर आता था

दरवाजे पे खड़ी रही होगी
तू जाने कब से
श्! श्! कर किवाड़ खोलती
बाबू जी गुस्सा तुझ से!”

फिर बड़ा हुआ मैं, बना प्रणेता
किस्मत ने पलटा खाया
जो समझ शूल दुनिया ने फेंका
बना ताज उसे अपनाया

सब चाहने वालों से घिर भी
तेरा प्यार ढूँढ़ता हूँ
जो धरती अंकुर पर करती
वो उपकार ढूँढ़ता हूँ .

याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा

विदा की अगन

मैं कोयला हूँ कहो तो आग दूँ
या फिर धुआँ कर दूँ।
मुझे डर है ना दर्देदिल
निगाहों से बयाँ कर दूँ।

मुझे अफ़सोस है तुमने मुझे
अपना नहीं समझा।
खुशी तो बाँट ली मुझ से
मगर गम पास ही रखा।

सुना था दिल की मिट्टी में
ये गम बन फूल खिलता है।
बेगरज दोस्त दुनिया में
बड़ी किस्मत से मिलता है।

चलो छोड़ो गिले शिकवे
विदा होने की बारी है।
इस कोयले में चमक जो है
अमानत वो तुम्हारी है।

सूरज में गरमी ना हो

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।

देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।

ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।

बोली को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जो जाता है सब छोड़ कर
उसको रोको ना तुम जाने दो।

सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो।

हँसी

मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी जो गगन चूमे
और जो काली घटा पे बन के लाली बिखर जाए।

वो हँसी कि जिसको सुनने के लिए झरनों का पानी
ऊँचे पहाड़ों से निकल मेरे शहर में उतर आए।

मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी।
मुद्दत हुई है।

लौटा दो मुझको वो हँसी वो खोया बचपन
वो माँ का आँचल जिसमें ढेरों झूले खाए।

ऐसे हँसो कि यों लगे ज्यों कोई गुड़िया
बचपन की बारिश में उछल के फिसल जाए।

मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी।
मुद्दत हुई है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.