Skip to content

ठहरा है करीब-ए-जान आ कर 

ठहरा है करीब-ए-जान आ कर
जाने का नहीं ये ध्यान आ कर

आईना लिया तो तेरी सूरत
हँसने लगी दरमियान आ कर

टपके न ये अश्क चश्म-ए-ग़म से
जाए न ये मेहमान आ कर

पलटी जो हवा गए दिनों की
दोहरा गई दास्तान आ कर

क़दमों से लिपट गए हैं रस्ते
आता नहीं मकान आ कर

जा पहुँची ज़मीने उसे मिलने
मिलता न था आसमान आ कर

सवाद-ए-शाम से ता-सुब्ह-ए-बे-किनार गई 

सवाद-ए-शाम से ता-सुब्ह-ए-बे-किनार गई
तिरे लिए तो मैं हर बार हार हार गई

कहाँ के ख़्वाब कि आँखों से तेरे लम्स के बाद
हज़ार रात गई और बे-शुमार गई

मैं मिस्ल-ए-मौसम-ए-ग़म तेरे जिस्म ओ जाँ में रही
कि ख़ुद बिखर गई लेकिन तुझे निखार गई

कमाल-ए-कम-निगाही है ये ए‘तिबार तिरा
वही निगाह बहुत थी जो दिल के पार गई

अजब सा सिलसिला-ए-ना-रसाई साथ रहा
मैं साथ रह के भी अक्सर उसे पुकार गई

ख़बर नहीं कि ये पूछूँ तो किसे पूछूँ मैं
वहाँ तलक मैं गई हूँ के रहगुज़ार गई

हवा पे चल रहा है चाँद राह-वार की तरह /

हवा पे चल रहा है चाँद राह-वार की तरह
क़दम उठा रही है रात इक सवार की तरह

फ़सील-ए-वादी-ए-ख़याल से उतर रही है शब
किसी ख़ामोश और उदास आबशार की तरह

तड़प रहा है बारिशों में मेरे जिस्म का शजर
सियाह अब्र में घिरे हुए चिनार की तरह

इन्हीं उदासियों की काएनात में कभी तो मैं
ख़िजाँ को जीत लूँगी मौसम-ए-बहार की तरह

तिरे ख़याल के सफ़र में तेरे साथ मैं भी हूँ
कहीं कहीं किसी ग़ुबार-ए-रह-गुज़र की तरह

उबूर कर सकी न फ़ासलों की गर्दिशों को मैं
बुलंद हो गई ज़मीन कोहसार की तरह

तिरे दिए की रौशनी को ढूँढता है शाम से
मिरा मकाँ किसी लुटे हुए दयार की तरह

Leave a Reply

Your email address will not be published.