मीनारों से ऊपर निकला दीवारों से पार हुआ
हद्द-ए-फ़लक छूने की धुन में इक ज़र्रा कोहसार हुआ

चश्‍म-ए-बसीरत राह की मिशअल अज़्म-ए-जवाँ पतवार हुआ
साहिल साहिल जश्‍न-ए-तरब है एक मुसाफिर पार हुआ

दिल के जज़्बे सामने आए ख़ुशबू ख़्वाब धुआँ बन कर
जितनी दिल-कश सोच थी उस की वैसा ही इज़हार हुआ

उभरे एहसासात के सूरज यादों के महताब खुले
ग़ज़लों का दीवान सुहाने मौसम का अख़बार हुआ

जंगल पर्बत नदियाँ झरने याद रहेंगे बरसों तक
इस बस्ती में हुस्न है जितना पांबद-ए-अशआर हुआ

न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले

न जाने क्या हुए अतराफ़ देखने वाले
तमाम शहहर को शफ़्फ़ाक देखने वाले

गिरफ़्त का कोई पहलू नज़र नहीं आता
मलूल हैं मिरे औसाफ़ देखने वाले

सिवाए राख कोई चीज़ भी न हाथ आई
कि हम थे वरसा-ए-असलाफ देखने वाले

हमेशा बंद ही रखते हैं ज़ाहिरी आँखें
ये तीरगी में बहुत साफ़ देखने वाले

मोहब्बतों का कोई तज-रबा नहीं रखते
हर एक साँस का इसराफ़ देखने वाले

अब उस के बाद ही मंज़र है संग-बारी का
सँभल के बारिश-ए-अल्ताफ़ देखने वाले

गँवाए बैठै हैं आँखों की रौशनी ‘शाहिद’
जहाँ-पनाह का इंसाफ़ देखने वाले