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शिवबहादुर सिंह भदौरिया की रचनाएँ

एक गाँठ और

सरपत सी मूछों
और
मशकनुमा छाती पर
आँख गड़ गई;
उलझे हुए धागे में
एक गाँठ
और पड़ गई।

परिवेश: एक जलता हुआ भट्ठा

जब-तब
लोहे की लम्बी छड़ों से
झरोखों के इस्पाती ढक्कनों को
खोलकर
अदृश्य छाया-कर
अनुमानते हैं-
पकने की स्थितियाँ
नीली मिट्टी की तरह बिछा हुआ
आसमान,
धुआँ उगलती चिमनियाँ,
दैत्याकार जबड़े फैलाती
अग्नि-लपटों पर
रखी गईं कच्ची ईंटे: मैं, तुम, वे
परिवेश: एक जलता-
हुआ भट्ठा।

आकाश का एक्सरे

धब्बे हैं-बादल
चितकबरे,
तालाब की प्लेट पर
आकाश का-
एक्सरे,
आँखों में रोशनी नहीं
यह बिम्ब कहाँ ठहरे

और अँधेरा

यहाँ
पदस्थ हैं: लालटेन, चिमनी,
माटी का दिया;
वहाँ
हर कोना प्रकाशित करने का
दायित्व
बल्बों और मर्करी-राड्स ने लिया
पर
अँधेरा हर जगह दूना हो गया
हर प्रयास
छाया से छाया का छूना है,
अन्धकार के बेटे, वहाँ
शेब्रलेट-डाज में दिन-दहाड़े अफीम बेचते हैं,
गन्दे इश्तिहार बाँटते और ट्रेनों की जंजीरें खींचते हैं,
झूठी अफवाहों में समुद्र की गहराइयाँ घोलते हैं,
हवा में
पिस्तौलें उछालते,
संगीत में ‘जाज’, नृत्य में ‘राक इन रोल’
चित्रकला में ‘आप’
और साहित्य में-
‘बीटनिक’ पीड़ी को आधुनिक
बोलते हैं;
यहाँ;
खुद लिखते हैं लेखपालों के खसरे
और थाने में रोजनामचे,
अस्पतालों से
उड़ा लाते हैं दवाइयों के बॉक्स,

अकेले में छात्रों को देते हैं-
सेक्सी थीम के उपन्यास
नींद की गोलियाँ;
छात्राओं को
तुलसी की वेदी पर
कैक्टस उगाने
और
रामायण के पन्ने से चूल्हे सुलगाने की सलाह देते हैं;
समझाते हैं रूढ़ियों का अर्थ:
संगीत-आधिक्य से
काव्यार्थहीन हैं सूर के भजन, कबीर की साखी
बोलते-बोलते अर्थ खो चुके हैं
चूड़ी, अक्षत, सिन्दूर और राखी।

सुबह के परिप्रेक्ष्य में 

जब
सुबह
सबको नंगा करेगी
तो दीखेगा:
वेनरेल डिजीजों के
जेरे-
इलाज हैं,
कुछ भालुओं और दुमकटे बन्दरों की पोशाकें-
सिल रहे हैं, और
अधिकांश
पंख उगी चीटियों के
दरबारी हैं।

कोल्हू

दो
बेलनों का
चक्रावर्तित कोल्हू,
हर ईख पहले पिच् से दबती ह
धार बाँधकर रस
फिर…
खोई,
उफ्!
भट्ठी में झोंकने के लिए
तैयार रहता है-कोई न
कोई।

जूठा पत्तल

मुझमें
जो भोज्य है
उसे
अच्छी तरह चबाकर
गड़गड़ाहट उगलती बिनता मशीनें-
फेंक देती हैं
नींद के कूड़खाने में
जूठा पत्तल।

गन्दे कपड़े

समय को रगड़ने दो
साबुन
उठने दो झाग,
छूटते नहीं दिखते
इतने काले हैं दाग
गन्दे कपड़ों में कौन सा त्यौहार?
सहनी ही होगी-
वक्त की मार।

एक अस्वीकृति

ये
सब सींगें मारते हैं,
धकियाते हैं
कि
इनके साथ चलूँ
इन्हें कोई
समझाता कहीं-
कि मैं
कोई भेड़ नहीं है

कुछ न कहो

इनका सामीप्य
न झेल पाओ
तो हाथ जोड़ लो,
जिधर से आ रहे हों
कतराकर
राह छोड़ दो,
यह भी
पद्मासन पर सोऽहम् बोलते हें,
अपने को
रहस्य में रखकर
सृष्टि का रहस्य खोलते हैं,
जहाँ तक बन पड़े इनको सहो;
कुछ न कहो।

इतिहास प्रतीकों की मुक्ति

इतिहास-प्रतीक
मुक्त हुए
अब
न देव हैं न दानव
न कौरव न पाण्डव
दोनों सुविधा भोगी
उभयपक्षों में रहते हैं;
युद्ध के नाम पर
चुनाव लड़ते हैं,
हर समस्या का हल: रटा हुआ भाषण
फील्ड वर्क: दस कप चाय दो दर्जन
पनामा,
स्ट्रेटजी: बहुकोणीय संघर्ष
और
संवेदनशील उम्मीदवारों के लिए-
स्ट्रेप्टीमाइसीन की
वाण-सइया;
हमें खुश होना चाहिए
ये युग-निर्माता
कितनों को बना देते हैं-
भीष्मपितामा।

एक परहेज 

भोगे हुए यथार्थ
के
नाम पर
अपनी आबनूसी
बाहों को चन्दन
और
अनिन्द्य उस देह को
सर्पिणी कहूँ,
सुबह से शाम तक
लकुटिया-स्तवन
करने वाले निरीहों को
दुत्कारूँ,
और
पैसा माँगने वाली-
तोतली बोलियों को मारूँ,
इकाई के लिए
हर दहाई पर आँख निकालूँ
अस्वीकारूँ
न, न, न
यह मुझसे नहीं होना… मैं हूँ ठहराव में;
तुम्हारा कथ्य
मेरी नाप का कुर्ता नहीं-
मेरा मन भरता नहीं।

रोशनी की सीढ़ियाँ

लौ!
ये हैं:
कुछ बची खुची
रोशनी की सीढ़ियाँ,
इन्हें रख गये हैं-
शून्य अन्तराल में
आलोक झरते
माटी के दिये,
वे जानते थे-
कुछ न होगा तुम्हारे किये,
ऊँचाइयों पर चढ़ना
किन्तु
एक बात न भूलना,
छोटे दिखें तों-
बौने कहना
….घूरना,
लेकिन
ऊपर न थूकना।

पेड़ ये बबूल के

पेड़ ये बबूल के।
बरस-बरस में
एक बार
पीताम्बर का रंग चुरा लिए
बुरा क्या किए
मखमली मुलायम फुनगी-फुनगी-
फूले
काँटों भरा जीवन भूल के।
जिये
घर-घर ईंधन बनने के लिए
दाँतों-तले दबने के लिए
एक बार चुभने पर
लाख-लाख गाली सहने के लिए
हिम-आतप बोझ धरे काँधे,
उपल-वृष्टि, विद्युत-प्रहार
ऋतुओं के रुद्र नयन बाँधे,
-वक्ष से लगे हर प्रतिकूल के।
जनम-जनम झँकरीली-
चहारदीवारी बने रहे,
घर की बगिया की-
रखवाली के लिए भाले लिए तने रहे-
अश्व चढ़े धूल के।

चैत के बादल

फसल कटकर
आ गई खलिहान में,
कुछ दिनों के वास्ते
आमोदहीनों के घरों से-
चाहतीं करना पलायन
द्विधा, चिन्ता औ उदासी,
किन्तु
तुम ओ बादलो!
बेवक्त, बेमौसम
गरजते, घूरते आँखे दिखाते हो
महाजन-से
अकड़ते, डाटते से
आदमी के इस पसीने और श्रम की।
हम बहुत दिन
रूढ़ नियमों संस्कारों से विवश
विनती किये
पूजा दिये हैं,
किन्तु वह सब खत्म
बुद्धि से बोदापने का जंग गायब
आत्माओं पर पड़ी लाखों दरारों में जमी काई
बहुत कुछ मिट चुकी।
अव्यक्त पीड़ा,
बेबसी, लाचारियाँ
विषमय घुटन
सब दूर….कोसों दूर,
आज नूतन आस्था के बीज
जाग्रत अंकुरित हो
रे रहे हैं-सुन्दर भविष्यत्-वृक्ष का आकार,

अब तुम्हारे सामने हैं:
आणविक संधान
उद्जन बम-परीक्षण
जो हमारी आत्मा के चरम विकसित
औ समुन्नत रूप,
(शक्ति पर जिनकी जगत शंकालु)
लेकिन
मोड़ देंगे हम नया निर्माणधर्मा
हम तुम्हें मजबूर कर देंगे
समय से जल गिराने के लिए
हम तुम्हें लाचार कर देंगे
समय से लौट जाने के लिए
इसलिए हे मेघ!
जाओ लौट
मान औ सम्मान तुमको जो मिला है
सभ्यता से संस्कृति से,
हम न उसको चाहते हैं यूँ मिटाना
भावना या कल्पना या कर्म कृति से।

झूठी संवेदनाएँ 

तुम्हारी संवेदनायें
झूठी, स्पन्दन सिर्फ पेन्डुलम,
युग की चेतना से अपरिचित
तुम जहाँ हो
उस भूमि को वाणी नहीं हो,
अपनी सर्जनाओं में
उस सत्य को नहीं उतार पाये
जिसे तुम सब मिलकर जीते हो,
अपनी रचनाओं से
उन शब्दों को काट दो-
जिनके अर्थ तुम्हारे नहीं हैं।
उन अर्थों को
विश्व के उन तमाम लोगों को बाँट दो
जो धनी और निर्धन
सबको दुआ-सलाम करते हैं,
जो लड़ने वालों को देखकर कतराते नहीं-
बीच-बराव करते हैं,
मौका पड़ने पर
अन्यायी का गला दबाते हैं।
तुम उन अर्थों को
विश्व के उन तमाम लोगों को दे दो
जो निर्बलों की मदद
इस लालच से नहीं करते
कि…सोने का पहाड़ बनवायेंगे,
या
किसी शैतान लड़के को
बन्दूक इसलिए नहीं सौंपते
कि लहलहाते उद्यानों की
मुस्कराहट पर गोली चलाये
और
मासूम चिड़ियों की चहचहाहट पर
बारूद बिछाये;
मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ:
उन अर्थों को
विश्व के उन तमाम लोगों के हवाले कर दो
जो दूसरों की समृद्धि देखकर
मोर की तरह पंख फुलाते हैं,
आम्र वृक्षों की भाँति लद-फँद कर
नीचे झुक जाते हैं,
थकन से चूर
बेदम मुसाफिरों को
छाया-करों से थपथपाते हैं
लथपथ शरीरों का पसीना पोंछते हैं
सुगन्धि मलते और भूखे खाली अगौंछों को
फलों से भर देते हैं।

काली पृष्ठभूमि: एक अपेक्षा

अपने
सहस्त्रों काले कृत्यों पर
श्वेत खड़िया पोते हुए,
अनधिकृत सुविधाओं का-
मसनद लगाये
ओढ़े केहरी-त्वचा
अधपौढ़े
सत्ता के दर्प स्यार
कुटिल दृष्टि को छिपा
थोड़ा सा
हँसकर बोले-
”यह अक्षम्य अपराध?“
आघातित अहं से स्फीत
तेजोद्दीप्त एक लौ उठी
बुझी तत्क्षण
फिर विनत, विनम्र, शब्द-उत्तर
”स्वर्णाभ अर्थ से युक्त
सत्य, कुछ मिले श्वेत नूतन
अक्षर, लिपिबद्ध चाहता था
करना, इसलिए भूल-अपराधमयी
यह योजित काली पृष्ठभूमि बहुत
आवश्यक थी।“

ट्रेन का सफर

इस उस से
बातें करते
घुटने हटाते
रखते, जमुहाई
लेते या भीड़ को
निरखते
जाने कितनी स्थितियों
से गुजरे,
अपरिचित कितने ही
परिचय वृत्त में
सिमटे…बिसरे,
बीहड़ वन-उपवन
बियाबान, जंगल
पठार, लम्बे समतल
ऊबड़-खाबड़
बस्ती, श्मशान
चट्टानों और
पर्वतों-नदियों के
वक्षों पर
भागता भटकता रहा
सफर।
और
आज गति के पहिये
अन्धकारमय महागुफा में
आकर जकड़ गये हैं,
कहीं रोशनी नहीं
अँधेरा भीतर-बाहर
बुझ गये सभी प्रकाश-बल्ब,
मन्द रक्त-संचरण
और ऊबासाँसी
लेकिन
लक्ष्यहीन डिब्बे भोंडी भड़
यहाँ भी
लगा रही है ठहाके,
इंजन के मुँह से आवाज नहीं कढ़ती
पर यह बजा रही है
अश्लील सीटियाँ;
मृत्यु-त्रास-भय भी नहीं आयत्त करता
इनके निमित्त, कोई अर्थ गूढ़,
ये सबके सब परम भाग्यशाली हैं
किसी महाकवि के मूढ़।

समझौतों की यातना

कुछ मन से
कुछ बेमन
समझौते किये बेशुमार।
स्वाभिमान किये बेशुमार।
स्वाभिमान के
ताजे पुष्पों को, कृत्रिम हँसी के-
लबादे से ढँक दिया,
फटी हुई कमीज के ऊपर
नये कोट की तरह
पहन लिया जिन्दगी बार-बार।
अन्तर्प्रदेश में
बसते हैं फणिधर, डसते हैं
बेहोशी से कंधे लटक जाते हैं
जाँघों पर गिर जाती हैं हथेलियाँ,
और मैं समाधिस्थ योगी सा निर्लज्ज
सुनता हूँ नये वीर्य की हुंकार:
क्या दीखता नहीं मन का रेगिस्तान?
क्या कहती होगी पानी की उठान?
कब तक बाहों में धुआँ बाँधते रहोगे।
कब तक पीठ पर लादते रहोगे-
बड़े-बड़े बोरे वजनदार।

एक सेतु / 

पूर्व और पश्चिम की
भावना और बुद्धि की
शताब्दियों गहरी और चौड़ी खाई पर
एक सेतु बना-
परिष्कृत चेतना का
सुगठित मोहक तन का
प्राणों की ऊर्जा का
सह-अस्तित्व में अडिग विश्वास का
वसुधैव कुटुम्बकम् का साक्षात् प्रतिरूप।
बीसवीं शताब्दी उसे याद करती है:
हारे थके दिगन्तों को ताजे गुलाबों से भर दिया,
अजनबी एकान्तों
और भयावह प्रान्तों को
लहलहाती फसलों में बदलने का यत्न किया,
भीड़ के संशयों को
संकल्पों की नदी में मुर्दा सा तिरा दिया,
छोटी मोटी सीमाओं की-
फेंका गली में कूड़े की तरह,
शिखरों से
नये क्षितिज उतारे,
भरती रहीं आलोक की धारायें,
काव्य के पंखों पर चढ़कर
महाकवि-सा मँडराया,
दग्धदाहित, नवल सृष्टि के लिए
महासूर्य-सा
बनाता रहा विराट आकृतियाँ
उच्चालोड़ित महासागर में,
स्वर्गोन्मुख ध्वनियाँ
उठती रहीं
मुखमण्डल से।

दूर! 

कुछ नहीं से
कुछ नहीं का-
जोड़ना भर,
पार्क में
लेटे हुए
खाली
अलग
आजाद
अपनी पहुँच भर की दूब
केवल
दूब की इन टहनियों को-
तोड़ना भर
आज मेरा काम।
मुझको बहुत कुछ आराम।
सारी गन्दगी से दूर
नकली जिन्दगी से दूर
सौ-सौ बन्दगी से दूर
लायी खूब
मेरी शाम
मुझको बहुत कुछ आराम।

सर्पिणी राहें

एक-दूसरे को
काटती हुई सर्पिणी राहें
ढकेलती हुई
ले आयीं-
महानगर से बाहर,
खुली हवा
मन्त्र-फूँकों से
उतारती है
रग-रग में फैला हुआ-
जहर।

गति ने घुमाया

मेरे पावों को
पकड़ा गति ने, घुमाया
तीन सौ पैंसठ चक्रों के बाद
खड़ा कर दिया नदी-तीरे;
यहाँ:
माटी का दिया नन्हा
धार में बहता-
धीरे-धीरे।

हरिद्वार की घाटी

एक
दिया है-पर्वतीय घाटी
हरिद्वार की,
वर्त्तिका: इन्द्रधनुष
क्या कहने
सप्तरंगी उजियार की;
आज सँझवाती किसी की
छोड़कर गुण-धाम,
आ गयी
यायावर के काम।

अर्थ टूटे नीर का तालाब 

अब
तुमसे कब मिलें।
बातें सुषुप्ति की
याद नहीं
जाग्रति की क्या कहें
सपनों तक फैल गईं
दफ्तर की फाइलें।
संवेदन-आलपीन में
नत्थी हैं:
सन्नाटे की सुइयाँ
चुभोती दिशाएँ,
पत्थरों की मार से
अर्थ-टूटे नीर का
तालाब,
कोहरा पहने हुए
धुँधले सबेरे का
जवाब
रोशनी के कँवल-दल
कैसे खिलें।

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